क्रिया और कर्ता के बीच की स्थिती मन है.. कर्ता जब भक्ती की क्रिया करता है तो भी मन ही उत्पन्न होता है मन ही खेलता है, मन ही शून्य होकर भक्ती के सुख मे भर्मित करता है..
कर्ता याने अहं के समाप्त हुये बिना मन से छुटकारा संभव नही है..
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