Tuesday, May 22, 2018

सार

*सार*

सुप्रभात जी
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तुम्हारा याहां किसी से भी संयोग नहीं है, तुम आत्मा हो शुद्ध आनंद स्वरूप व चेतन जबकी यह संसार जड व दुख के घर की मान्यता मात्र है ,इसलिय तुम्हारा इस से संयोग कैसे हो सकता है.. ये तो मात्र तुम्हारे जीव की मान्यता से यह संसार तुम्हे भाषित हो रहा है. जिस दिन तुम अपनी मान्यता संसार से हटा लोगे उसी दिन तुम्हारा बनाया हुआ संसार लय हो जायगा ... ध्यान दो तुम शुद्ध हो, और ये संसार है ही नही, तुम हो, सदा से हो, पर ये संसार परपंच है ही नही, सदा से नही, इसलिय तुम हो और ये नही है, तो "है" और "नहि" का कया मेल अर्थात कोई मेल नही है .. तुम "हो" इसलिय तुमने अपनी मान्यता से इस "नही" को भी "है" बना रखा है..कयोंकि "है" कि मान्यता में "नही" भी "है" जैसा लगता है पर वास्तव मे ये है ही नही केवल तुमहारी मान्यता मात्र है बस..*इसलिय जब तुम्हारा और संसार का मेल ही नही है तो तुम क्या त्यागना चाहते हो,* जो तुम्हारा है (परमात्मा) वो तो सदा से तुमहारा है और सदा रहेगा तो उसमें पाना कया है, जो तुमसे अलग नही है उसे पाने के लिय मूढंता में रोते हो ओर कहते हो ये प्रेम है, *और जो तुम्हारा है हि नही (संसार) तो उसमे त्यागना कया.* उसे तुम मुर्खता में त्यागना चाहते हो.. अरे मान्यता का बनाया संसार है तो अपनी मान्ता इस से हटालो, तुम्हारा संसार खत्म.. इसलिय इस (अवास्तविक) मेल को समाप्त कर के "है" से "है" को मिलाकर पहले जैसा "है" करदो अर्थात ब्रह्म से योग (एकरूपता) को प्राप्त करो॥
यहि सार है ..
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प्रणाम जी

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