''एक छोटे से घुटने के बल चलने वाले बालक ने एक दिन सूर्य के प्रकाश में खेलते हुए अपनी परछाई देखी। उसे एक अद्भुत वस्तु जान पड़ी। क्योंकि, वह हिलता तो उसकी वह छाया भी हिलने लगती थी। वह छाया का सिर पकड़ने का प्रयास करने लगा। किंतु, जैसे ही वह छाया का सिर पकड़ने के लिए बढ़ता कि वह दूर हो जाता। वह कितना ही बढ़ता गया, लेकिन पाया कि सिर तो सदा उतना ही दूर है। उसके और छाया के बीच फासला कम नहीं होता था। थक कर और असफलता से वह रोने लगा। द्वार पर भिक्षा को आए हुए एक भिक्षु ने यह देखा। उसने पास आकर बालक का हाथ उसके सिर पर रख दिया। बालक खुश हुआ, हंसने लगा; इस भांति छाया का मस्तक भी उसने पकड़ लिया था।''
''इसी प्रकार आत्मा पूरे ब्रह्माण्ड का मूल है, बाकी सब इसकी छाया है, आत्मा को पकड़ना जरूरी है। जो छाया को पकड़ने में लगते हैं, वे उसे कभी भी नहीं पकड़ पाते। आत्मा के अतिरिक्त सबकुछ छाया है, झूठ है। उनके पीछे जो चलता है, वह एक दिन असफलता से रोता है।''
याद रखना कि इस जगत में स्वयं के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं पाया जा सकता है। जो मूल खोजते हैं, वे पा लेते हैं और जो उससे अलग कुछ खोजते हैं, वे अंतत: असफलता और विषाद को ही उपलब्ध होते हैं।
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