*मेरे मन में कई बार ये धारणा आती है की मै बैरागी होकर जंगल, पहाड़, वृन्दावन, या गंगा तट पर जाकर रहूं ओर निर्विघ्न अपनी साधना करूं, क्या इस मार्ग से कल्याण सम्भव है?*
तुम जहां भी रहोगे, जो भी बनके रहोगे तो ये होनापन तुम्हारा साथ नहीं छोड़ेगा, सही मार्ग में कोई विघ्न नहीं होता, ओर जिसमें तुम्हें विघ्न नज़र आता है वो मार्ग सही नहीं है। तुम्हे अपने ओर साधना में को विघ्न नज़र आता है वो केवल इसलिए है कि तुम हो ओर साधना है। ओर जहां भी जाओगे तुम रहोगे ओर वहां का वातावरण रहेगा, तो वहां भी नई परिस्थितियां मिलेंगी, ओर अगर तुम रहोगे तो निश्चित है की विचलित भी रहोगे, फिर क्या फ़र्क है यहां में ओर वहां में। समस्या का मुख्य कारण परिस्थितियां या वातावरण नहीं है, मुख्य कारण है तुम्हारा होना या अहम। जहां भी जाओगे या तो बैरागी रहोगे या संत या गुरु या चेला या भगत या दास या तुच्छ या महान, पर रहोगे जरूर कुछ ना कुछ। बस यही मूल बंधन है, जिसको खोलने तुम जाओगे अज्ञानवश ओर बन्धन बना लोगे।
मूल तत्व है आत्मतत्व बोध जिसके बाद ये ग्रहस्त, बैरागी, संत आदि सब तो रहेगा पर वो तुम नहीं रहोगे।
शास्त्रों के अनुसार...
यदि मिट्टी और भस्म लपेटने से ही मनुष्य मुक्त हो जाता तो फिर क्या इस मिट्टी और भस्म में नित्य पड़े रहने वाला कुत्ता क्यों नहीं मुक्त हो जाता?
तिनका, पत्ता और जल का आहार करने वाले और निरंतर जंगल में ही रहने वाले मनुष्य यदि तपस्वी हो जायेँ, तो फिर क्या वे गीदड़, चूहे और हिरण आदि तपस्वी क्यों नहीं हो सकते?
जन्म से लेकर मरण पर्यन्त गंगाजी के तट पर पड़े रहने के कारण लोग यदि योगी हो जाये तो फिर वे मेढक और मत्स्य आदि क्यों नहीं योगी हो सकते?
ककड़-पत्थर खाने वाला कबूतर और धरती के जल को कभी न पीने वाले चातक क्या व्रती हो सकते हैं?
इसलिये हे सत्यमार्गीयों ! ये सब कर्म तो लोक को प्रसन्न करने वाले हैं, परमआनंद का कारण तो केवल ‘परमात्मातत्त्वज्ञान’ ही है...
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प्रणाम जी
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