Thursday, March 31, 2016


सुप्रभात जी

अरे मन ! तू निरन्तर परमात्मा विषय का सेवन कर | तू समझता है कि विषयों को मैं भोगता हूँ किन्तु सच यह है कि विषय तुझे भोग रहे हैं | तू कामादिकों को सांसारिक विषय देकर मिटाना चाहता है किन्तु जलती हुई आग में घी पड़ने के समान तेरी वासनाएँ प्रतिक्षण बढ़ती जाती हैं | ऐसा अनुभव करते - करते यद्यपि तुझे अनन्त युग बीत चुके फिर भी तेरी नींद नहीं खुली |तू अब भी मेरी बात मान ले एवं परमात्मा से प्रेम कर | उन्हीं के प्रेम जल से यह तेरी कामनाओं की आग बुझ सकती है ..

प्रणाम जी

जब सामान्य सी हवा चलती है तो पाल के सहारे नाव उचित गति से चलती रहती है, किन्तु आंधी में पाल के तने रहने से नाव के उलट जाने और पाल के फट जाने का खतरा हमेशा ही बना रहता है।

इसी प्रकार बांस मन, पाल चित्त है और रस्सी बुद्धि है। जब दूैत का बहुत अधिक आकर्षण सामने होता है, तो बुद्धि के द्वारा उनकी विवेचना कोई सार्थक फल नहीं देती, क्योंकि यदि हृदय के अन्दर (अहं में) सत्य का बोध नहीं है, तो चित्त (पाल) में तो जन्म-जन्मान्तरों के विषय सुखों के संस्कार भरे पड़े हैं। कुसंस्कारों के जागृत होने का कारण पाप में डूबने में जरा भी देर नहीं लगेगी।
इसलिय हे जीव ! इस भवसागर से सुरक्षित निकल जाने का एक ही मार्ग है कि तूं अदूैत परमात्मा के प्रेम में चलते हुए अदूैत की गहन्ता में उतर कर एक मात्र अदूैत परमात्मा समर्पण का मार्ग अपना। अब इस भयानक स्थिति में दूैत से शुष्क हुये हृदय से मन, चित्त और बुद्धि से होने वाला मनन, चिन्तन और विवेचन भवसागर से पार नहीं करा पायेगा। जिस प्रकार भयानक आंधी में रस्सी खींचकर पाल को निष्क्रिय कर दिया जाता है, उसी प्रकार विषय - विकारों की प्रबलता में केवल समर्पण और प्रेम का अस्त्र ही काम में आयेगा। दूैत बुद्धि की अधिक चतुराई तुम्हें अदूैत में समर्पित नहीं होने देगी, जिसका परिणाम यह होगा कि भवसागर को पार करने से पहले ही नाव डूब जायेगी। इसलिय तूं सही मार्ग अपना कर अपने लक्ष्य को पराप्त कर..

प्रणाम जी

Tuesday, March 29, 2016


सुप्रभात जी

वास्तविक दृष्टि से देखा जाए तो शरीर मल-मूत्र बनाने की एक मशीन ही है । इसको उत्तम-से-उत्तम भोजन या भगवान् का प्रसाद खिला दो तो वह मल बनकर निकल जाएगा तथा उत्तम-से-उत्तम पेय या गंगाजल पिला दो तो वह मूत्र बनकर निकल जाएगा । जब तक प्राण हैं, तब तक तो यह शरीर मल-मूत्र बनाने की मशीन है और प्राण निकल जाने पर यह मुर्दा है, जिसको छू लेने पर स्नान करना पड़ता है । वास्तव में यह शरीर प्रतिक्षण ही मर रहा है, मुर्दा बन रहा है । इसमें जो वास्तविक तत्व (चेतन) है, उसका चित्र तो लिया ही नहीं जा सकता । चित्र लिया जाता है तो उस शरीर का, जो प्रतिक्षण नष्ट हो रहा है । इसलिए चित्र लेने के बाद शरीर भी वैसा नहीं रहता, जैसा चित्र लेते समय था । इसलिए चित्र की पूजा तो असत् (‘नहीं’)- की ही पूजा हुई । चित्र में चित्रित शरीर निष्प्राण रहता है, अतः हाड़-मांसमय अपवित्र शरीर का चित्र तो मुर्दे का भी मुर्दा हुआ ।

हम अपनी मान्यता से जिस पुरुष को महात्मा कहते हैं, वह अपने शरीर से सर्वदा सम्बन्ध विच्छेद हो जाने से ही महात्मा है, न कि शरीर से सम्बन्ध रहने के कारण । शरीर को तो वे मल के समान समझते हैं । अतः महात्मा के कहे जाने वाले शरीर में मोह करना, मल का मोह करना हुआ । क्या यह उचित है ?  महात्मा कहा जाने वाला शरीर पाञ्चभौतिक शरीर होने के कारण जड़ एवम् विनाशी होता है ।
यदि महात्माओं के हाड़-मांसमय शरीरों की तथा उनके चित्रों की पूजा होने लगे तो इससे पुरुषोत्तम परमात्मा की ही पूजा में बाधा पहुँचेगी, जो के सिद्धान्तों से सर्वथा विपरीत है । महात्मा तो संसार में लोगों को परमात्मा की ओर लगाने के लिए आते हैं, न कि अपनी ओर लगाने के लिए । जो लोगों को अपनी ओर (अपने ध्यान, पूजा आदि में) लगाता है, वह तो भगवद्विरोधी होता है । वास्तव में महात्मा कभी शरीर में सीमित होता ही नहीं ..

**इसलिय शरीरों का,शरीरों के चित्रो का,स्थानों का व मूर्तीयों के चित्रो का मोह आपकी आन्नयता का वध करता है ,एक मात्र पूर्ण चेतन तत्व को ही धारण करना अन्नयता है...अन्यथा आप अन्नय साधना नही कर रहे है सावधान **
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प्रणाम जी

Sunday, March 27, 2016


सुप्रभात जी

जब तक आत्मपद का बोध नहीं होता और भोगों में मन लिप्त है तबतक संसार समुद्र में बहे जावोगे और दुःख का अन्त न आवेगा । जैसे आकाश में धूलि दिखती है परन्तु आकाश को धूलि का सम्बन्ध कुछ नहीं और जैसे जल में कमल दिखता है परन्तु जल से स्पर्श नहीं करता, सदा निर्लेप रहता है, वैसे ही अग्यान में आत्मा देह से मिश्रित दिखती है परन्तु देह से आत्मा का कुछ स्पर्श नहीं, सदा विलक्षण रहता है जैसे सुवर्ण कीच और मल से अलेप रहता है । देह जड़ है आत्मा उससे भिन्न है अग्यान में ही सुख दुःख का अभिमान आत्मा में दिखता है वह भ्रममात्र असत्यरूप है । जैसे आकाश में दूसरा चन्द्रमा और नीलता असत्यरूप है वैसे ही आत्मा में सुख दुःखादि असत्यरूप हैं । सुख दुःख जीव के देह को होता है, सबसे अतीत आत्मा में सुख दुःख का अभाव है । यह अज्ञान ही कल्पित है, देह के नाश हुए आत्मा का नाश नहीं होता, इससे सुख दुःख भी आत्मा में कोई नहीं, सर्वात्मामय शान्तरूप है । यह जो विस्तृत रूप जगत् दृष्टि आता है वह मायामय है, इसलिय आत्म स्वरूप में स्थापित होकर सभी प्रकार के दुखों से निवर्त होकर परम आनंद को पराप्त करो....
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प्रणाम जी

पाँच तरह कि पैदाईस का रहस्य

कुरआन के 27 वे सिपारे कि सुरा 55 अरहमान कि आयत 11 से 12 तथा 26-27 मे तीन तरह कि पैदाइस( सृष्टि ) का वर्णन है।इस मे ब्रह्मशृष्टि ( मोमीनों) को अंगूर ,ईश्वरिशृष्टी को खजूर और जीव सृष्टि को भुसा वाला अन्न के रुप मे बर्णित किया गया है।
कुरआन के तिसरे सिपारे को तिलकर्सुल सिपारा भी कहते है।इस मे केवल कुंन कि पैदाइश
का बर्णन आयत 47 मे है,किन्तु तफ्सिर- ए - हुसैनी मे इसि सिपारे की व्याख्या मे 5 तरह कि पैदाइश का वर्णन है।
तफ्सिर- ए - हुसैनी भाग 1 पृष्ठ 75 मे इसका विवरण है ..

आखरुल इमाम महमदं महदी श्री प्राणनाथ जी कि वानी ( श्री कुल्जम स्वरुप) से ईन पाँचों तरह कि पैदाइस का बहुत ही सरल शब्दों मे स्पष्टीकरण हो जाता है जो इस प्रकार है..
1) कुन्नं कि पैदाइश ( जीव सृष्टि )(इस को हिन्दु धर्मशास्तत्रों और ग्रन्थों मे सान्कल्पिक सृष्टि भी कहते है)
2) एक हाथ कि ( रसुल महमंद साहब सल्ल पर सच्चा ईमान लाने वाले)
3) दो हाथ कि ( रुह अल्लाह तथा इमाम महदी अर्थात श्री निजानन्द स्वमी श्री देवचन्द्र जी और श्री प्राणनाथ जि कि वानी पर ईमान लाने वाले।
4) मुल ईप्त्दाए कि ( ब्रह्मशृस्टी कि उत्पती) (मोमीन कि उत्पति खुदा अल्लाह ताअला से)
5) खिलकत कि ( ईश्वरी सृष्टि) ( जिन को उत्पती अक्षर ब्रह्म से होति है...
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प्रणाम जी

Saturday, March 26, 2016


सुप्रभात जी
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मायिक वस्तुओं के माध्यम से हम परमात्मा के नाम पर माया की ही वस्तुऐं ग्रहण करते रहते हैं अर्थात सत्य के स्थान पर असत्य याने सत्य से विमुख यानें चाह सत्य आनंद रहे हैं अर्थात आस्तिक हैं परन्तु ग्रहण असत्य कर रहे हैं याने नास्तिक हैं..
इसलिए परमात्मा जाने नहीं जा सकते, पुनः मानेंगे कैसे और फिर प्रेम ही कैसे होगा जबकि आस्तिक वह है जो परमात्मा को निरंतर माने.
इस प्रकार से समस्त जीव नास्तिक सिद्ध हुए. अर्थात आस्तिक भी है और नास्तिक भी.

तो फिर वो सत्य परमात्मा कैसे प्राप्त हो..???

अब ज़रा विषय को ध्यान से समझें ...
याहां इस माया में जीवों पर सत्य परमात्मा की अंश आत्माऐं आकर असत्य का खेल देख रहीं हैं वो जीव के असत्य शरीर (स्थूल व शुक्ष्म) आदी के माध्यम से असत्य का खेल देखती है..इस कारण वो अपने सत्य स्वरूप को भूल गई है..जब आत्मा अपने सत्य स्वरूप को जान लेती है तब उसे सत्य परमात्मा आदी विषय का पूर्ण बोध हो जाता है जिसे बेशक इल्म या शुद्ध ग्यान की स्थिती कहते हैं .. इस स्थिती में जीव भी आत्मिक भाव में आकर सत्य विषय को जान पाता है इस कारण उसे अपने अस्तय शरीरों का भी बोध होजाता है व इन शरीरों का विषय भी निरंतर परमात्मा की ओर हो जाता है जिस कारण हम कहते हैं की मन परमात्मा मे लगता है या मन कर्म इन्द्रियों से परमात्मा से प्रेम करता हैं.. इस स्थिती में ही शुद्ध जीव सत्य के सानिध्य से असत्य साधन होते हुय भी शुद्ध सत्य को पा लेता है...
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प्रणाम जी
निरत भूखन बाजे गान, देखो ठोर सैंयां सब समान |
इन लीला में आयो चित , छोड्यो जाये न काहूं कित |

 परमधाम के आनंद का विवरण शब्दातीत है कयोंकी वो नृत्य नही अपीतु आनंद का अनंत रूप है..परमधाम में स्व: लीला अदुैत अर्थात पूर्ण आनंद का नृत्ये होता है .इसको समझने के लिए अदुैत की दृष्टि होनी आवयश्क है. वहां जब कोई आत्मा नृत्ये करती है तो उसको अदुैत के शरीर जैसा नृत्ये नही समझा जा सकता ..जब वहां परमात्मा के सामने आत्मा नृत्ये करती है तो उसके आनंद रूपी पांवो से आनंद की जमीं पर थाप पड़ने से आनंद की अनेक लहरें उठती है ये आनंद की लहरे चेतन होती है ये सभी आत्मओं को आनंद में ओतप्रोत करती हुई आनंद की चौथी भूमिका की सभी आनंद रूपी  दीवारों को श्पर्श करती है तो उनपर बनी हुई बेल व् नक्काशियां चेतना व् आनंद से ओत प्रोत होकर आनंद से नृत्ये करती हुई उस अनंत आनंद को प्राव्रतित कर देती है जिस कारण वो आनंद और अधिक मात्रा में बढ़ कर तेजी से अनंत की और फ़ैल जाता है
और उसी आनंद की लहरों में आनंद से बने सब  पेड़ ,फुल, पशु ,पक्षी, जमुना, मानिक, बाग आदि अनंत आनंद रूपी धाम की सब जगह जो पहले से आनंद
स्वरुप व् पूर्ण आनंदित है उनमे आनंद की लहरें पहले से उपस्थित आनंद के साथ आनंद की क्रिया करके उनके आनंद को भी नृत्य में प्रवर्तित कर देती है
 जिस से सब में आनंद का वो नृत्ये द्रिश्येमान होने लगता है इस प्रकार पूरा परमधाम आनंद का नृत्य स्वरूप दिखाइ पडता है... आनंद की अनंत मात्रा होने के कारण आनंद बढ़ कर बाहर निकल कर मूल से मूल में होता हुआ  पूनः उसी नृत्ये शाला में पहुंच कर आनंद की अनेक प्रकाश किरणों में प्रवर्तित होकर पुरे माहोल को अनंत आनंद से भर देता है फिर वही आनंद पुन: नृत्ये का रूप लेकर पूनः इसी क्रिया दूरा बहार जाकर अनंत गुना होकर पुन: नृत्ये का रूप लेता रहता है इस प्रकार यह शब्दों से व् व्याख्या से अनंत गुणा अधिक हो जाता है जिसकी व्याख्या नही की जा सकती ...इस प्रकार की अदुैत  की लीला का बोध होने बाद इस लीला से चित को केसे हटाया जा सकता है ..

प्रणाम जी

Friday, March 25, 2016


सुप्रभात जी ..कल का क्रमशः

समस्त जीव आनंद ही चाहते हैं, क्योंकि वे आनंद के ही अंश हैं.आनंद और परमात्मा एक ही तत्व हैं, आनंद को चाहना अर्थात परमात्मा को चाहना. अतएव विश्व के सभी जीव आस्तिक ही हैं.दूसरी ओर समस्त जीव नास्तिक भी हैं. ऐसा विरोधाभास क्यों?
वेद कहते हैं कि उन परमात्मा को कोई नहीं जान सकता, किसी भी साधन से वे अग्राह्य हैं.
जीव के पास जो भी सामान है, मन-बुद्धि-इन्द्रियाँ वगैरह, ये सब मायिक हैं, माया की बनी हुई.
मायिक वस्तु से मायिक चीजें ही ग्रहण की जा सकती हैं, मायिक का विषय दिव्य नहीं हो सकता. और परमात्मा तो दिव्य चिन्मय हैं..इसलिय मायिक वस्तुओं के माध्यम से हम परमात्मा के नाम पर माया की ही वस्तुऐं ग्रहण करते रहते हैं अर्थात सत्य के स्थान पर असत्य याने सत्य से विमुख यानें चाह सत्य आनंद रहे हैं अर्थात आस्तिक हैं परन्तु ग्रहण असत्य कर रहे हैं याने नास्तिक हैं..
इसलिए परमात्मा जाने नहीं जा सकते, पुनः मानेंगे कैसे और फिर प्रेम ही कैसे होगा जबकि आस्तिक वह है जो परमात्मा को निरंतर माने.
इस प्रकार से समस्त जीव नास्तिक सिद्ध हुए. अर्थात आस्तिक भी है और नास्तिक भी.

तो फिर वो सत्य परमात्मा कैसे प्राप्त हो..??? इसे कल जान्ने का परयास करेंगें..
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प्रणाम जी
प्रथम मूल से बुध फिराई, अहंमेव दियो अंधेर।
या बिध इंड रच्यो त्रैलोकी, मूल तें दियो मन फेर।।

सृष्टि के प्रारम्भ में ही इस कलियुग रूपी अज्ञान ने बुद्धि के चिन्तन को माया के सुखों के भोग की ओर मोड़ दिया। जीव का अहं भी अपने मूल स्वरूप से विमुख होकर भौतिक शरीर पर ही केन्द्रित हो गया। स्वर्ग, पृथ्वी तथा बैकुण्ठ वाले इस ब्रह्माण्ड की रचना ही उस स्वाप्निक मन से हुई है, जो अखण्ड धाम (अव्याकृत) से हट कर स्वयं को मोह सागर में अनुभव करने लगा है।अहंकार (मैं कौन हूँ) के अनुसार ही बुद्धि की विवेचना होती है। चित्त का चिन्तन तथा मन का मनन भी उसी पर अवलम्बित होता है। ब्रह्मज्ञान के अभाव में जब निज स्वरूप का बोध नहीं हो पाता है, तो शरीर को ही सब कुछ मान लिया जाता है। ऐसी स्थिति में बुद्धि, चित्त, मन तथा इन्द्रियों की सम्पूर्ण प्रक्रिया शरीर में ही केन्द्रित हो जाती है। जिस आदिनारायण के ‘एकोऽहं बहुस्याम’ के संकल्प से इस सम्पूर्ण सृष्टि का अस्तित्व है, उन्हीं का प्रकटीकरण उस मोह सागर में होता है, जो अज्ञान का स्वरूप है। ऐसी स्थिति में यह कैसे सम्भव है कि उनके ही प्रतिबिम्ब से प्रकट होने वाले चिदाभास स्वरूप जीवों तथा प्रकृति की विकृति से उत्पन्न होने वाले अन्तःकरण में माया में फंसने की प्रवृत्ति न हो ..
(इसी विषय पर प्रतिदिन का सुप्रभात संदेश 3 दिन केे क्रम मे आपकी सेवा में सरल करके प्रस्तुत किया जा रहा है जिसका प्रथम भाग आज प्रस्तुत कियी गया ..कृपया दो दिन और सुप्रभात संदेश ध्यान से पढ़ें जिस कारण विषय शपष्ट हो सके...)
प्रणाम जी

Thursday, March 24, 2016

सुप्रभात जी

कर्म-ज्ञान प्रधान मानव देह ही उस आत्मा और परमात्मा को जान लेने का साधन है, किसी और देह में यह ज्ञान असंभव है.
बिना एक क्षण गवांये तत्काल परमात्मा को जानने की ओर अग्रसर होना चाहिए, मानव देह क्षणभंगुर है.
महर्षि वाल्मिकी जी कहते हैं कि विश्व में ऐसा कोई भी जीव नहीं है जो परमात्मा को जानता न हो. न केवल जानता है, बल्कि मानता है और उसी से ही प्रेम भी करता है, उसी को ही चाहता है.
इसका रहस्य यह है कि प्रतिक्षण कर्म करना प्रत्येक जीव का स्वाभाव है. और प्रत्येक कर्म का कोई न कोई उद्देश्य अवश्य ही होता है. जीव (मायाधीन) के प्रत्येक कर्म का एक ही उद्देश्य है - आनन्दप्राप्ति.
प्रत्येक अंश अपने अंशी को ही स्वाभाविक रूप से चाहता है, जैसे अग्नि सदा ही ऊपर सूर्य की ओर उठती है, क्योंकि वो सूर्य का अंश है. ऐसे ही हम जीव परमात्मा के अंश हैं.
वेदों में उन परमात्मा का एक नाम 'आनंद' कहा गया है. आनंद और परमात्मा दोनों ही पर्यायवाची शब्द है. परमात्मा में आनंद है, ऐसा नहीं है. वास्तव में परमात्मा ही आनंद है, आनंद ही परमात्मा है.
उसी आनंद के अंश होने के कारण हम आनंद ही चाहते हैं, आनंद ही चाह सकते हैं. यही हमारा सहज स्वभाव है. कोटि कल्प प्रयत्न करके भी हम कभी दु ख नहीं चाह सकते.
अर्थात समस्त जीव आनंद के ही दास हैं यानि की परमात्मा के ही दास, उन्ही से ही प्रेम करने वाले. अतएव समस्त चराचर जीव आस्तिक हैं, निरंतर आस्तिक.
दूसरी ओर यह बात भी सत्य है कि समस्त जीव (मायाधीन) नास्तिक भी हैं. अब यह विरोधाभास कैसा है, इसकि चर्चा कल....

प्रणाम जी
ना कछू चोर न कोई साधू, कई डिंभके धरे ध्यान।
तान मान सब विद्या व्याकरण, बहुरंगी बहु ग्यान।।

वास्तव में न तो कोई चोर होता है और न कोई साधु। यह सब त्रिगुणात्मक माया के प्रभाव से ही होता है। प्रकृती सदा प्रिवर्तनशील है |इसमें हुय प्रिवर्तन को ही सत्व, रज और तम आदी गुणों के माध्यम से जीव को असत में सत्य का भ्रम होता है व इसी में त्रिगुणात्मक रस ग्रहण कर अच्छे बुरे की कल्पना करके अपनी माया का निर्धारण सवंय करता है व उसी में उलझा रहता है | अपने निर्धारण के अनुसार ही आत्मा परमात्मा व गूरू की असत व त्रिगुणात्मक व्याख्या बना लेता है  ... इसलिय इस आडम्बर में फंसे हुए कई लोग ध्यान का नाटक करते हैं। संगीत की कलाओं, व्याकरण आदि सभी प्रकार की विद्याओं तथा ज्ञान की अनेक प्रकार की शाखाओं (विद्याओं) पर भी त्रिगुणात्मक प्रिवर्तनशील माया ने अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया है।
इसलिय  अदूैत से रहित शुष्क ज्ञान और भौतिकवादी संगीत जीवन में शाश्वत आनन्द की प्राप्ति नहीं करा सकते हैं। सत्व, रज और तम से मुक्त हुए बिना परम तत्व की प्राप्ति सम्भव ही नहीं है....

प्रणाम जी

Wednesday, March 23, 2016

रंगो से सराबोर हैं सारे मन मस्ति मे विभोर हैं सारे ,
सब मस्ती मे मस्त मगन है लगता है सब आनंद मे है !!

पर खाली है मेरी झोली तुम बिन केसे खेलु होली !!

कभी हसते कभी दोड़ते है वों रंगो की चादर औडते है वों,
लाल हरे कुछ पीले अंग है सब अपने प्रियतम के संग है !!
पर खाली है मेरी झोली के तुम बीन केसे खेलु होली !!
,सब बोलें हैं दूैत की भाषा , प्रवीण तूं समझे अदूैत की बोली कि तुम बिन किस से बोलुं ये बोली , तुम बिन कैसेे खेलूं होली...

मनकी उदासी कया होती है जगकी उपहासी कया होती है
मेरे मन की ये लाचारी समझे वो जो बिरहा की मारी चुभती है जगबोली के तुमबिन केसे खेलुं होली !!

अगले बरस ये फिर आयेगी मुझको फिर तडफा जायेगी ,
वो फिर खेलेंगें फीर दौड़ेंगे मैं भी मंडेर से देखुंगी वो

बात सुन मेरे भरतारा इस जगमें तुमबिन कौन हमारा जिस संग जाय मैं खेलुं होली
के तुम बिन किस से खेलुं होली ??

तुमबिन केसे खेलुं होली !!
तुमबिन केसे खेलुं होली !!

प्रणाम जी
तत्त्वज्ञान
सुप्रभात जी

हमारा वास्तविक सत्य चित और आनंद का अंश होने के कारण परमात्मा अंश आत्म स्वरूप है ..और उसमें अहम् नहीं है—यह बात यदि समझ में आ जाय तो इसी क्षण जीवमुक्ति है ! इसमें समय लगने की बात नहीं है। समय तो उसमें लगता है, जो अभी नहीं और जिसका निर्माण करना है। जो अभी है, उसका निर्माण नहीं करना है, प्रत्युत उसकी तरफ दृष्टि डालनी है, उसको स्वीकार करना है जैसे—
संकर सहज सरूपु सम्हारा। लागि समाधि अखंड अपारा।।
(मानस, बाल. 58/4)


दो अक्षर हैं—‘मैं हूँ’। इसमें ‘मैं’ प्रकृति का अंश है और ‘हूँ’ जीव व आत्मा  का अंश है। ‘मैं’ जड़ है और ‘हूँ’ चेतन है। ‘मैं’ आधेय है और ‘हूँ’ आधार है। ‘मैं’ प्रकाश्य है और ‘हूँ’ प्रकाशक है। ‘मैं’ परिवर्तनशील है और ‘हूँ’ अपरिवर्तनशील है। ‘मैं’ अनित्य है और ‘हूँ’ नित्य है। ‘मैं’ विकारी है और ‘हूँ’ निर्विकार है। ‘मैं’ और ‘हूँ’ को मिला लिया—यही चिज्जडग्रन्थि (जड़-चेतन की ग्रन्थि) है, यही बन्धन है, यही अज्ञान है। ‘मैं’ और ‘हूँ’ को अलग-अलग अनुभव करना ही मुक्ति है तत्त्वबोध है। अगर ‘मैं’ को साथ न मिलायें तो ‘हूँ’ नहीं रहेगा, प्रत्युत ‘है’ रहेगा। वह ‘है’ ही अपना स्वरूप है।

एक ही व्यक्ति अपने बापके सामने कहता है कि ‘मैं बेटा हूँ’, बेटे के सामने कहता है कि ‘मैं बाप हूँ’, दादा के सामने कहता है कि ‘मैं पोता हूँ’, पोता के सामने कहता है कि ‘मैं दादा हूँ’, बहन के सामने कहता है कि ‘मैं भाई हूँ’, पत्नी से के सामने कहता है कि ‘मैं पति हूं’, भानजे के सामने कहता है कि ‘मैं मामा हूँ’, मामा के सामने कहता है कि ‘मैं भानजा हूँ’ आदि-आदि। तात्पर्य है कि बेटा, बाप, पोता, दादा, भाई, पति, मामा, भानजा आदि तो अलग-अलग हैं, पर ‘हूँ’ सबमें एक है। ‘मैं’ तो बदला है, पर ‘हूँ’ नहीं बदला। वह ‘मैं’ बाप के सामने बेटा हो जाता, बेटे के सामने बाप हो जाता है अर्थात् वह जिसके सामने जाता है, वैसा ही हो जाता है। अगर उससे पूछें कि ‘तू कौन है’ तो उसको खुद का पता नहीं है ! यदि ‘मैं’ की खोज करें तो ‘मैं’ मिलेगा ही नहीं, प्रत्युत सत्ता मिलेगी। कारण कि वास्तव में सत्ता ‘है’ की ही है, ‘मैं’ की सत्ता है ही नहीं।

बेटे की अपेक्षा बाप है, बापकी अपेक्षा बेटा है—इस प्रकार बेटा, बाप, पोता, दादा आदि नाम अपेक्षासे (सापेक्ष) हैं; अतः ये स्वयं के नाम नहीं हैं। स्वयं का नाम तो निरपेक्ष ‘है’ है। वह ‘है’ ‘मैं’ को जाननेवाला है। ‘मैं’ जाननेवाला नहीं है और जो जाननेवाला है, वह ‘मैं’ नहीं है। ‘मैं’ ज्ञेय (जानने में आनेवाला) है और ‘है’ ज्ञाता (जाननेवाला) है। ‘मैं’ एकदेशीय है और उसको जानने वाला ‘है’ सर्वदेशीय है। ‘मैं’ से सम्बन्ध मानें या न मानें, ‘मैं’ की सत्ता नहीं है। सत्ता ‘है’ की ही है। परिवर्तन ‘मैं’ में होता है, ‘है’ में नहीं। ‘हूँ’ भी वास्तव में ‘है’ का ही अंश है। ‘मैं’ पनको पकड़ने से ही वह अंश है। अगर मैं-पन को न पकड़ें तो वह अंश (‘हूँ’) नहीं है, प्रत्युत ‘है’ (सत्ता मात्र है) ‘मैं’ अहंता और ‘मेरा बाप, मेरा बेटा’ आदि ममता है। अहंता-ममतासे रहित होते ही मुक्ति है—
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति।।
(गीता 2/71)

यही ‘ब्राह्मी स्थिति’ है। इस ब्राह्मी स्थितिको प्राप्त होनेपर अर्थात् ‘है’ में स्थिति का अनुभव होने पर शरीर का कोई मालिक नहीं रहता अर्थात् शरीर को मैं—मेरा कहनेवाला कोई नहीं रहता।

इस प्रकार मनुष्य आदि योनियाँ तो बदली हैं, पर स्वयं नहीं बदला है। अनेक शरीरों में, अनेक अवस्थाओं में चिन्मय सत्ता एक है। बालक, जवान और वृद्ध—ये तीनों अलग-अलग हैं, पर तीनों अवस्थाओं में सत्ता एक है। कुमारी, विवाहिता और विधवा—ये तीनों अलग-अलग हैं, पर इन तीनोंमे सत्ता एक है। जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, मूर्च्छा और समाधि—ये पाँचों अवस्थाएं अलग-अलग हैं, पर इन पाँचों में सत्ता एक है। अवस्थाएँ बदलती हैं, पर उनको जाननेवाला नहीं बदलता। ऐसे ही मूढ़, क्षिप्त, विक्षिप्त, एकाग्र, और निरुद्ध—इन पाँचों वृत्तियों में फर्क पड़ता है, पर इनको जाननेवाले में कोई फर्क नहीं पड़ता।

एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।।
(गीता) 2/72)

‘हे पार्थ ! यह ब्राह्मी स्थिति है। इसको प्राप्त होकर कभी कोई सम्मोहित नहीं होता। इस स्थिति में यदि अन्तकाल में भी स्थित हो जाय तो निर्वाण (शान्त) ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है।’
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प्रणाम जी

वाणी

सचो सोणे जीं थेयो, भाईयां सोणों थेयो सचो |
लाड कोड के करियां, अंखियें जां न अचो ||

यहाँ इस माया में आके ब्रह्मात्माओं पर दुैत  का रंग ऐसा चढ़ गया है के उनको अपना खुद का अदुैत धाम स्वप्न के जैसा लगने लगा है और ये दुैत की माया सत्ये लगने लगी है क्योंकि आत्माओं की नजर जीव पर है और जीव पर माया का दुैत का खेल प्रतिबिंबित  हो रहा है जिस कारण आत्मा उसे देख कर उसी में रम कर उसी को सत्ये  मानने लगी है जब तक आत्मा की नजर जीव पर माया के प्रतिबिंब को निहारती रहेगी वो दुैत या माया में ही मग्न रहेगी क्योंकि आत्मा की दृष्टि दुैत की और है इसलिए उसकी नजर में अदुैत नही आ रहा जब आत्मा की दृष्टि सवंय की और हो जाएगी तो उसको अपने हृदये में बैठे अदुैत परमात्मा का आभास हो जायेगा और उसे सवयम के विषये का आनंद मिलेगा जिस से परमात्मा के प्रती प्रेम जागृत हो जायेगा , जब उसकी दृष्टि अदुैत की और होगी तो स्वत: ही दुयैत से विमुख हो जाएगी जिस से सत्य का प्रभाव जीव पर भी होगा और जीव को भी आत्मा का बोध होने लगेगा व् जीव भी आतम भाव में आ जायेगा व् वो भी अपने सत्ये स्वरूप  को प्राप्त कर आखंडता को प्राप्त करेगा...

 प्रणाम जी 

Tuesday, March 22, 2016

सुुप्रभात जी

जिसे आप सद्गुरु मानकर सेवा करते हैं, उनसे जाकर केवल इतनी सी बात पूछिए कि महाप्रलय या शरीर छोड़ने के बाद हमारा मूल घर कहां होगा ?
कयोंकि पाताल से बैकुण्ठ और निराकार तक जिसका वर्णन किया जाता है, वह तो महाप्रलय में लीन हो जाने वाला है। इससे भिन्न जो अखण्ड मण्डल अदूैत पारबृह्म पूर्ण परमात्मा निराकार ओर साकार कि परिधियों से परे है, उसके बारे में बताइए।
इसलिय हे सत्य मार्गीयों जिसे स्वयं न तो अपने स्वरूप की पहचान है और न अपने मूल की, वह भला इस भवसागर से पार कैसे हो सकता है ?
भले ही कोई अपने मुख से अपनी प्रशंसा लाखों हजार बार करे तथा स्वयं को परमात्मा के रूप में घोषित करके पूजा करवाये, फिर भी बिना अदूैत परम तत्व को जाने वह खुद भवसागर से पार नहीं हो सकता ....

प्रणाम जी

Monday, March 21, 2016

सुप्रभात जी

1.ज्ञान की अवस्था कौनसी है ??
*किसी वस्तु को सीखना, पढना, याद करना,या पुस्तको से बुद्धी भर लेना ग्यान नही है. कोई भी वेद या वाणी आदी ग्रन्थो को कंठस्त करके आपना परभाव तो अवश्य बढा लेता है पर ये ग्यान नही है ये बोझ है.
अपने वास्तविक स्वभाव मे उपस्थित होना ग्यान है.
उदाहरण - जैसे आप कोई वस्तु या पिक्चर या अन्य को वस्तू देख रहे हैं तो उस वक्त आप आपने वास्तविक स्वभाव में नही होते अपितु उस वस्तु के प्रभाव में रहते हैं पर जैसे ही आप उसके प्रभाव से हटकर अपने स्वभाव में आते हैं तो आपको आपसे संबंधित वस्तूऔ का व अपने पास उपस्थित वस्तुओ का पूर्ण व सही बोध जैसा पहले था वैसा ही फिर से हो जाता है इसी सत्य बोध को ग्यान काहा जाता है अर्थात ग्यान का अर्थ है सत्य बोध ..जैसे ब्रह्मआत्मांये माया के प्रभाव में जब तक है तब तक वो अपने स्वभाव में नही हैं व तब तक ही उन्हे संबंधित वस्तु(सत्य परमधाम) का व अपने पास उपस्थित(परमात्मा) वस्तु का पूर्ण व सही बोध नही होता पर जैसे ही वो प्रभाव से स्वभाव में आती है तो उसको उससे संबंधित वस्तूऔ का व उसके पास उपस्थित वस्तुओ का पूर्ण व सही बोध जैसा पहले था वैसा ही फिर से हो जाता है इसी सत्य बोध को शाब्दिक रूप में बृह्मग्यान काहा जाता है व यही परमग्यान की अवस्था है..

**बुद्धी चतुराई नही अपितू अपने मूल व सत्य स्वभाव का बोध होना ही वास्तविक व सत्य ग्यान है** इसके बाद भाव शून्य होना स्वभाविक है..

प्रणाम जी

Sunday, March 20, 2016


भी राखों बीच नैन के, और नैनों बीच दिल नैन।
भी राखों रूहके नैनमें, ज्यों रूह पावें सुख चैन।।

आत्मा परमात्मा से कह रही है की..
में आपको अपने नैनो में बसा के रखूं ताकी मैं आपके अलावा किसी अन्य वस्तु को ना देख पाऊं और इन नैनों मे अपने दिल के नैन भी मिला दूं जिस कारण मेरे हृदय में जो भी जाय वो आपके माध्यम से ही जाय या हृदय से जो भी आय मेरे नयनों मे आपतक आये..और मैं आपको अपनी आत्मा के नयन में रख लूं . जिस से मुझे सुख व चैन मिल सके....
याहां ये प्रश्न उत्पन्न हो सकता है की जब आतमां पहले ही अपने नयनों में बसाने की बात कह चुकी है तो ये आत्मा के रूहके नयन कोन से हैं..?

खुलासा- परमधाम में आत्मा अन्नत माध्यम से अन्नत आनंद का रस पान करती है याहां इन चौपाइयों में संकेत में उसी अदूैत का रहस्य बताया है की वहां एक तो आत्मांऔ के अन्नत सौन्द्रय वाले वो प्रत्यक्ष नयन हैं जो अपलक परमात्मा के आनंद का रस ग्रहण करते रहते हैं .
दूसरा पूरा प्रमधाम सब आत्माओ के हृदय मे विद्यमान है इसलिय परमधाम में जो भी होता है वो सब आत्माओ के हृदय में एक साथ अनुभव होता है ये अदूैत भाव का कारण है और हृदय में जब ये दृष्यमान होता है तो उस दृष्यमान होने के भाव को ही हृदय के नयन कहा है .
तीसरा वहा आत्मा का पूरा नूरी तन अन्नत ओर पूर्ण आनंद ग्रहण करने का माध्यम है नूरी तन पूर्ण होते हैं अर्थात वो उनका हर अंग पूर्ण है हर अंग देख सकता है . हर अंग सुन सकता है अर्थात हर अंग से अन्नत आनंद मिलता है इसलिय वहा रूह का पूरा नूरी तन नयन का कार्य भी करता है इसी को रूह के नयन कहा गया है...इसी कारण रूह वहा अन्नत आनंद निरंतर लेती है इसी को याहां की भाषा में सुख चैन कहा है...

प्रणाम जी

Wednesday, March 16, 2016

ए तुम ताले तो आइया, जो तुम असल खिलवत।
निसदिन सहूर एही चाहिए, हक बैठे तुमें खेलावत।।
(33/1 सागर)

हे बृह्म आत्माओं ये जीवो के लिय इस ब्रह्मज्ञाानका अवतरण इसी कारण हुआ है कि तुम्हारा सम्बन्ध मूलमिलावा (*अद्वैत परमात्मा के हृदय रूपी परमधाम से तुम्हारे लिय अदूैत व अन्नत प्रेम का मूल सत्रोत जिसे शब्द रूप मे  मूलमिलावा कहते है * ) से है. ये ब्रह्मज्ञाान शब्द जीवें के लिय है जो सदा से दूैत के अलावा कुछ नही जान्ते उनके लिय सत्य अखंड व अन्नत अदूैत आनंद से सबंधित विषय  ब्रह्मज्ञाान है और ये केवल उनहे इस कारण मिला है कयोंकी ये तुम्हारे विषय तुम्हारे जाग्रती के कारज हेतू तुम्हारे सेवन के लिय याहां लाया गया है. इसलिए तुम  दूैत विषय को त्याग कर अर्हिनश वहां से आई इस अदूैत की औषधी का मंथन करके सेवन करते रहो. वह अद्वैत परमात्मा अपने हृदय रूपी परमधाम मे निरंतर बह रहे तुम्हारे लिय अदूैत व अन्नत प्रेम के मूल सत्रोत मे तुम्हे पूरी तरह डुबो कर तुम्हें यह खेल दिखा रहे हैं.
तुम इस तथ्य को गहन्ता से ग्रहण करके शिघ्रता से उनके साथ अपने संबंध को अदूैत भाव में लाने का यत्न करें..

प्रणाम जी

Monday, March 14, 2016

सुप्रभात जी
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परमात्मा याने इश्क तो हमेशा नया नया आनंद देने वाला होता है, और अगर उस इश्क को पाना है तो..आसन फूको, लोटा फेंक के तोड़ दो, जपमाला, प्याला, और दंड न पकड़ो, मैं ऊंची आवाज में कहता हूं की सब तरह के असत को छौड़ दो कयोंकी चाहे किसी रूप में भी हो असत तो असत है..
तूने मस्जिद में उम्र गंवा दी, पर तेरा अंतःकरण अभी भी वैसा ही मैला ही है.. , परमात्मा से जुडऩे के लिए कभी उसको नही ध्याया, फिर तू अब क्यों रोता है।
जब मैने सत्य परमात्मा के प्रेम का पाठ पढ़ा, जड से मंदिरो व मस्जिदो से मेरे जीव को डर लगने लगा,तब मैं वहा से  विमुख हुआ तो परमात्मा को अपने ही ह्रदयघर में पाया|
जब परमात्मा के प्रेम का रहस्य जाना तब उसनें मैं-मैं, तू-तू को मार दिया, भीतर-बाहर की सफाई हो गई, सब तरफ उसे ही पाया।
वेद-पुराण व कुरान आदी अनेक ग्रन्थ पढ़-पढ़ कर थक गए, भिखारी बनके उनके दर पर मत्था रगड रगड करके सिर भी घिस गए, परमात्मा न तीर्थ में मिला और न ही मक्के में, जिसनें पाया उसे पता है की वो आनंद का अपार सागर अपने अंदर ही है |
अब उसके प्रेम में प्रार्थना आदी सब भुला दी, अब झगड़ा करने को कया है? अब सारी हाहाकार शान्त हो गई है ||

प्रणाम जी

वाणी

पिया ऐसी निपट मैं क्यों भई, कठिन कठोर अति ढीठ |
श्री धाम धनी पहचान के, फेर फेर देत है पीठ |

हे परमात्मा मै इस जीव की नजरो से नजर मिला कर अपने मूल स्वरुप को भूल के इस जीव के ही दिखाए हुए खेल में लिप्त हो गयी हूँ पता नही क्यों इस जीव की चेतना में ही कब मै अपने अस्तित्व को भूल गयी हूँ मै अपने को भूल कर ऐसी ढीठ ,कठोर और ऐसी विकट हो गयी हूँ की मैं मेरे याने आत्मा के विषये को अपने तक आने ही नही देती क्योंकि मै जीव की चेतना में लिप्त हूँ इसलिए मेरे विषये भी जीव की चेतना से आगे नही आ
पा रहे जिस कारण  मरी आत्मा के अति शुक्ष्म विषय मुझ तक न पहुंच कर जीव में जाकर उनके अर्थ ही बदल जाते है और इन अनर्थो को मै जीव की नजरो में नजर मिला कर सत्ये मान के इन पर ही ववाद देखती रहती हूँ ..इसका परिणाम यह हुआ की मेने वाणी में वर्णित अपने परमात्मा की पहचान पाने के बाद भी उसको जीव भाव से ग्रहण करने के कारण उके सत्ये रूप को ग्रहण नही कर पायी और जीव के भरम को परमात्मा मान लिया जिसमे परमात्मा के अनेक रूप है इस भ्रम में कभी गुरु का शरीर परमात्मा बन जाता है कभी वाणी की पुस्तक परमात्मा बन जाती है कभी इनकी परिक्रमा परमात्मा बन जाती है कभी जीवो की सेवा को ही परमात्मा मान लेती हूँ ..तो कभी गुरु के स्थान को ..कभी उनके दिए प्रशाद में मन लगा बैठती हूँ तो कभी मूर्तियों में उलझ जाती हूँ तो कभी नाम जाप में ...इसलिए भ्रम वश मेने अनेको परमात्मा मान लिए है जिस कारण मै बार बार प्रति क्षण एक मात्र सत्ये परमात्मा से विमुख हो रही  हूँ ...
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प्रणाम जी

Saturday, March 12, 2016

दुखकी प्यारी प्यारी पीउकी, तुम पूछो वेद पुरान ।
ए दुख मोहिको भला, जो देत हैं अपनी जान ॥ कि. १६/६
(वाणी मेरे पीयु की)

प्रश्न उठता है की परमात्मा को चाहने  वालों के लिए दुःख क्या है ?? कयोंकी दुख कामना के कारण होता है तो संसार से दुख तो उन्हे होगा जो संसार की कामना करेगा .. तो परमात्मा को चाहने  वालों के लिए दुःख क्या है ...आइये जान्ने का प्रयास करते हैं...

जैसे खारे पानी की मछली मीठे पानी में तडफ तडफ कर मर जाती है और मीठे की खारे में ..इसी तरह सदा अदूैत के रस में डूबी हूइ आत्माऐं आदूैत के खेल में आकर तडफकर अदूैत की ही खोज में रहती हैं ..उनकी दूैत में अदूैत के लिय तडफ ही अनका दुख है यही दुख उनकी अदैूत के लिय तडफ को बढा कर उनके मार्ग को प्रश्सत करता है और यही तडफ या दुख उन आतमाओं के लिय कल्याणकारी होने के कारण उन्हे प्रिय होता है और जिस को यह दुख प्रिय है वो परमात्मा की प्रिय है कयोंकी शुद्ध अदूैत ही तो परमात्मा हैं और किसी भी वस्तु में संलग्नता ही तो प्रेम है और शुद्ध अदूैत परमात्मा सवंय प्रेम हैं इसलिय शुद्ध अदूैत  सवंय प्रेम परमात्मा में संलग्नता होगी तो वहा से परेम प्रवाहित तो स्वभाविक है ..अंशी को अपने मूल से पोषण मिलता है ,यह बात सभी वेद पुराणो में वर्णीत है...
सरलता से कहें तो परमात्मा को चाहने वालो के लिए सबसे बड़ा दुःख उस से न मिल पाना है या दूर रहना है ..इसलिए कहा गया है की जिसको ये दुःख लग जाता है वो परमात्मा की सबसे प्यारी आत्मा होती है ..इसलिए ये दुख मुझे बोहोत प्रिये है क्योंकि ये  मुझे उनसे मूल संबंध के कारण मिला है उन्होने अपना मान के दिया है ...

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प्रणाम जी

Tuesday, March 8, 2016

सुप्रभात जी

हे मेरे जीव! तूं सबसे पहले आत्मभाव के इस मीठे शर्बत को पी अर्थात् स्वयं के अस्तित्व (मैं) को पूर्णतया समाप्त कर दो। यदि तुम ऐसा कर सकते हो तो यह बात निश्चित् रूप से जान लो कि तुम्हारे आत्मा के हृदय में परमात्मा ने अपना आसन लगा रखा है। इसमें नाम मात्र के लिये भी संशय मत रखो। एक बार उस अवस्था में आने पर तो तुम्हारे लिये जीवित रहते ही मृत्यु जैसी स्थिति बन जायेगी अर्थात् तुम्हारे लिये इस शरीर और संसार का अस्तित्व नहीं रह जायेगा। यही अध्यात्म का चरम लक्ष्य है। तुम्हारे और परमात्मा के बीच एकमात्र यही एक परदा है। इसके सिवाय अन्य कोई भी बाधा नहीं है। यदि तुमने अपने अन्दर से ‘मैं’ का अस्तित्व समाप्त कर दिया तो इस झूठे संसार में ही तुझे इसी शरीर से परमात्मा के सुखों की प्रत्यक्ष अनुभूति होने लगेगी।

प्रणाम जी

बका तरफ कोई न जानत, पढे ढूंढ ढूंढ हुए हैरान ।
सो बका हदें सब बेवरा किया, जो दिल मोमिन अरस सुभान ।।

अदुैत का आनंद कोई नही जान पाया कयोंकी सबके जीव की दृष्टि दूैत के आनंद की खोज में लग कर जन्म जन्मों से दूैत में ही उल्झी हूई है गलती जीवों की भी नही है कयोंकी इन्होने अदुैत न देखा है न सुना है ये तो अपने भगवान को भी दूैत भाव से ही प्रेम करते हैं और इनके भगवान भी दूैत भाव में ही रहते हैं ..इसलिय ये वेद आदी में अदूैत की इशारतो पढ पढ कर हैरान हुए रहते हैं व उनके अलग अलग भाष्य करते हैं ..परन्तू जिन आत्माओं के हृदय में अदुैत परमात्मा रहते है वे अदुैत की गहनता को समझकर सदा इसी में रमते हैं इसलिय ये सब ग्रन्थो के अदुैत भाव को बडी सरलता से ग्रहण कर लेते है इन्है अदुैत और दुैत के आनंद का सार पता होता है इसलिस इनके भाव जीवो के लिय गहन व असहज होते हैं...

प्रणाम जी

Monday, March 7, 2016

सुप्रभात जी

जैसे पुष्प में सुगन्ध, तिलों में तेल, गुणी में गुण और धर्मी में धर्म रहते हैं तैसे ही यह सत् असत्,स्थूल सूक्ष्म, कारण, कार्यरूपी जगत- मन में रहता है । जैसे समुद्र में तरंग और मरुस्थल में मृगतृष्णा का जल दिखता है वैसे ही चित्त में जगत् दिखता है ।

जैसे सूर्य में किरणें, तेज में प्रकाश और अग्नि में उष्णता है तैसे ही मन में जगत् है । जैसे बरफ में शीतलता, आकाश में शून्यता और पवन में स्पन्दता है तैसे ही मन में जगत् । सम्पूर्ण जगत् मनरूप है, मन जगत्‌रूप है और परस्पर एकरूप हैं, दोनों में से एक नष्ट हो तब दोनों नष्ट हो जाते हैं । जब जगत् नष्ट हो तब मन भी नष्ट हो जाता है । जैसे वृक्ष के नष्ट होने से पत्र, टास, फूल, फल नष्ट हो जाते हैं और इनके नष्ट होने से वृक्ष नष्ट नहीं होता ...

इसलिय आत्मरूप होकर परमात्मा में निरंतर ध्यान से मन की आंखे मन्द होकर विवेक जाग्रीत होता है  जिसके माध्यम से मन रूपी खरपतवार नष्ट होकर आत्मग्यान का बिज अंकुरित हो जाता है..
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प्रणाम जी
सौ   माला   वाओ   गले   में ,       द्वादस  करो   दस   बेर ।
जोलों  प्रेम  न  उपजे  पिउ  सों ,  तोलों  मन  न  छोड़े  फेर ।।  (  श्री मुख वाणी- कि. १४/५ )

अपने गले में एक दो नहीं , बल्कि सौ मालायें डाल लो , केवल एक जगह ही नहीं , बल्कि १२ अंगों में १० बार तिलक लगा लो , चाहे तुम इतने सिद्ध बन जाओ कि योग द्वारा भविष्य की सारी बातें जानने लगो , दूसरों के मन की बात भी जान जाओ , चौदह लोकों का सारा दृश्य भी देखने लगो तथा मरे व्यक्तियों को जीवित करने लगो , लेकिन जब तक परमात्मा से प्रेम नहीं होता , तब तक यह मन माया में फँसना नहीं छोड़ेगा ...
भाव- आत्मा और परमात्मा के एकरूपता का भाव जीसमें परमात्मा से एक क्षण के लिय भी भिन्नता संभव न हो और हमेशा इसी के वास्तविक बौध में रहना प्रेम है..और ये है कया ?
थोडा समझने का प्रयास करते है कि आत्मा और परमात्मा की एक रूपता है क्या...थोडा ध्यान पूर्वक ग्रहण करें..
परमात्मा पुर्ण आनंद,शुद्ध प्रेम,चेतनता व अन्नतता का शुद्ध स्वरूप है उन्ही के हृदय का अंश सब आत्माऐं हैं ,परमात्मा के पुर्ण आनंद,शुद्ध प्रेम,चेतनता व अन्नतता का शुद्ध स्वरूप का अन्नत विस्तार का अन्नत आनंद को ग्रहण करने के लिय लीला रूप को परमधाम कहते हैं ,यही आनंद की लिला रूप परमधाम सब आतमाऔं का शुद्ध हृदय है और सभी आत्माऔं में यही हृदय है इसलिय इनमें अदूैत भाव है अर्थात परमधाम व हृदय एक ही है इसलिय जो भी शुद्ध आनंद के लीला रूप परमधाम में आनंद लीला होती है चाहे वो एक पत्ता भी हिले वो सब आतमाऔं के हृदय में होता है और ये शुद्ध लिला रूपी धाम परमात्मा से ही है इसलिय यह परमातमा का निवास भी है इसलिय सब आत्माऔ का हृदय परमात्मा का धाम है ...अब जरा सोचिय आत्मा और परमात्मा में भिन्नता असंभव है या नही जब यही बोध आत्मा को सत्य रूप में हो जाता है तो यही आत्मा का प्रेम है...

पूर्ण ब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार करने के लिए हमें शरीर, मन, बुद्धि आदि के धरातल पर होने वाली उपासना पद्धतियों को छोड़कर तारतम ग्यान के आधार पर उस मार्ग का अवलम्बन करना पड़ेगा, जो नवधा आदि सभी प्रकार की उपासना पद्धतियों से भिन्न है। जीव को अखण्ड मुक्ति की प्राप्ति भी इसी अनन्य प्रेम के बौध द्वारा होती है ।
अनन्य प्रेम लक्षणा भक्ति का रसमयी मार्ग दूारा यह अथाह भवसागर गाय के बछड़े के खुर से बने हुए गड्ढे की तरह छोटा हो जाता है । तब उन्होंने हम इसे बड़ी सरलता से पार कर लेते हैं.. ।
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प्रणाम जी

Sunday, March 6, 2016

सुप्रभात जी

हे मेरी आत्मा ! पल भर में ही लीन हो जाने वाले इस संसार रूपी नाटक को तू सावधानी से देख। इस सम्बन्ध में अब तू क्या सोच रही है ? परमात्मा को पाने के लिये तुम एक पल के चौथाई हिस्से में ही इस ब्रह्माण्ड और निराकार को पार कर लो।   निराकार से परे उस अनन्त आनंद रूपी परमधाम में परमात्मा विराजमान हैं। वहां तक पहुंचने के मार्ग में अब कोई भी बाधा नहीं है। तू तो बिना पैरों के ही अपनी मंजिल पूरी कर लेगी अर्थात् नवधा भक्ति और कर्मकाण्ड की राह छोड़कर इश्क-ईमान के पंखों से पक्षी की भांती उड कर उस आनंद तक पहुंच जायेगी।  परमधाम कोई सथान विशेष नही है अपितू अपने परमातमा तत्व का ही अन्नत विस्तार रूप में अन्नत प्रेम और आनन्द का स्थान है। वहां के त्रिगुणातीत अनन्त सुख को शब्दों में कैसे कहा जाये ? वहां के सुख की अनुभूति होते ही माया की सारी इच्छायें समाप्त हो जाती हैं वो भी याहां रहते रहते इसी को मनिषी लोग भगवत प्राप्ति कहते हैं।

प्रणाम जी
गहनता से लें...


हक कदम हक अरसमें, सो अरस मोमिन दिल।
छूटे ना अरस कदम, जो याहीं की होए मिसल।।

परमात्मा की उपस्थिती केवल परमात्मा तत्वी ही होती है जो पूर्ण आनंद से भी पूर्ण सदा से व अन्नत है यही पूर्ण व अन्नत सभी आत्माओं का हृदय है, सब में यही हृदय है ,इसलिय सब वाहेदत मे हैं अर्थात सबमे एकदिली है..यही परमधाम हैं. इसलिय सब ब्रह्मआत्माओंका हृदय परमधाम कहा गया है. इसलिए जो परमधामकी आत्माऐं होंगी उनके हृदय से परमात्मा के चरणकमल याने उन की उपस्थिती क्षणमात्रके लिए भी नहीं छुटेगी छूट भी कैसे सकती है ज़रा वाहेदत के भाव को समझोगे तो विषय अपने आप समझ आ जायगा..

प्रणाम जी

Saturday, March 5, 2016

सुप्रभात जी

अगर कर्म बंधन की बात करें तो इन दो समझना होगा..
जीव और प्रकृति -
जीव में कभी परिवर्तन नहीं होता , जबकि प्रकृति कभी परिवर्तनरहित नहीं होती |

जब यह जीव प्रकृति के साथ संबंध जोड़ लेता हैं, तब प्रकृति की क्रिया जीव का " कर्म " बन जाती हैं |
क्योंकि प्रकृति के साथ संबंध मानने से तादात्म्य(अभिन्नता,एकरसता) हो जाता हैं | तादात्म्य होने से जो प्राकृत वस्तुएँ प्राप्त है,उनमें ममता होती हैं और उस ममता के कारण अन्य अप्राप्त वस्तुओं की कामना होती है |

इस प्रकार जब तक कामना, ममता और तादात्म्य रहता हैं, तब तक परिवर्तन रुप क्रिया होती हैं , उसका नाम " कर्म " है |
(इस से कर्म फल-जनकता रहती है |)

तादात्म्य  (अभिन्नता,एकरसता) टूटने पर वही कर्म जीव के लिए "अकर्म " हो जाता है अर्थात वह कर्म क्रियामात्र रह जाता है, उसमें फलजनकता नही रहती अतः यह ' कर्म में अकर्म ' है |

अकर्म - अवस्था में अर्थात स्वरुप का अनुभव होने पर उस महापुरुष के शरीर से जो क्रिया होती रहती है,
वह " अकर्म में कर्म " है |

श्री कृष्ण जी ने गीता में उपदेश दिया है
" कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः |
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत || " (गीता ४|१८)

भावार्थ : जो मनुष्य कर्म में अकर्म (संसार को सवप्न की भांती देखकर इसमें अलिप्ता) देखता है और जो मनुष्य अकर्म में कर्म ( जीव को कर्ता न समझकर प्रकृति को कर्ता) देखता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है और वह मनुष्य समस्त कर्मों को करते हुये भी सांसारिक कर्मफ़लों से मुक्त रहता है। more satsang click👇🏼
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प्रणाम जी

Friday, March 4, 2016

वाणी

कोई बुरा न चाहे आप को, पर तिन से दूसरी न होए |
बीज बराबर वृख है, फल भी अपना सोये ||

माया को चाहने वाले , बंदगी से परमात्मा को प्राप्त करने वाले और परमात्मा में एक रस होने वाले इनमे से कोई भी अपना बुरा नही चाहता पर सबकी साधना या आनंद प्राप्ति का एक स्तर है सब अपने स्तर तक ही आनंद प्राप्त कर सकते है, इसलिए अगर किसी को बोहोत समझाने पर भी अगर वो उस स्तर तक नही पोहोच पाता जहाँ आप उसे पोहोचना चाहते है तो इसका अर्थ है की उसका स्तर इतना ही है सामान्यत: जीव अपने संस्कारो  में ही उलझा रहता है जो उसने अनंत जन्मों में देखा है वो शब्द जाल उसके सामने आते ही वो उसी को सत्ये मानने लगता है जैसे जीव को मनुष्ये के गुण ही कहीं मिल जाएँ तो बस वो उसी को परमात्मा मान लेता है उनके के लिए मनुष्ये में मनुष्ये के गुण होतो बस मिल गया परमात्मा साधारणत: उनके सत्संगों में भी यही होता है की "किसी का दिल मत दुखाओ तो बस हो गया भजन" ये बात कोई बुरी नही है क्योंकि ये तो गुण है
और ये भी तभी मिलते है जब सत्ये का उजाला होता है अँधेरे में रह कर प्रकाश प्रकाश सुन्दर शब्दों में बोलने से प्रकाश नही होता उसके लिए दीपक जलाना पड़ेगा, कई मेरे मित्र शिष्टाचार और विनम्रता से ही साधना का आंकलन करते हैं मेने देखा है कई मेरे मित्र तीन गुणों से ही साधक को तोलने में जीवन बिता देते है पर परमात्मा तो गुणातीत है और सर्वोच साधक का व्यव्हार भी गुणातीत होता है इसलिए सबकी साधना
का एक अलग  स्तर है और उनको आनंद प्राप्ति भी अपने स्तर के अनुसार ही होती है, इसलिए किसी को केवल उतना ही बताया जा सकता है जितना की उसका स्तर होता है |
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प्रणाम जी

Thursday, March 3, 2016

सुप्रभात जी

पुस्तकीय ज्ञान दूसरों का ज्ञान है तुम्हारा अपना नहीं . ज्ञान तो स्वयं की अनुभूति का नाम है. देह मिली है जिसका अर्थ है प्रारब्ध और वासनाओं का व्यापार अभी शेष है . देह के सभी आवरण केवल भ्रांति हैं और भ्रांति का नाश केवल बोध से होता है . जो कुछ भी परिवर्तन शील है केवल भ्रांति हैं जिसने आत्मा को जान लिया, उसका संसार स्वयं छूट जाता है ,संसार छोड़ने से आत्म ज्ञान नहीं होता है, संन्यास लेना या देना जैसा कुछ भी नहीं होता हैं, यह विरक्ति और त्याग की ,मन की अवस्थाएँ हैं , अतः सन्यास कार्य नहीं अनुभूति है।

प्रणाम जी

Tuesday, March 1, 2016

सुप्रभात जी

आत्मा के आधिपत्य में निरन्तर चलना अध्यात्म का आरम्भ है। उसके संरक्षण में चलते हुए परमतत्त्व परमात्मा का प्रत्यक्ष दर्शन और दर्शन के साथ मिलनेवाली जानकारी ज्ञान है। यही अध्यात्म की पराकाष्ठा है। इसके अतिरिक्त सृष्टि में जो कुछ है अज्ञान है..
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प्रणाम जी
बुध तुरिया दृष्ट श्रवना , जेती गम वचन ।

उतपन सब होसी फना , जो लो पोहोंचे मन ।।   (श्रीमुख वाणी- कि. २७/१६)

बुद्धि, चित्त, मन, दृष्टि, श्रवण और वाणी की पहुँच से वह परब्रह्म परमात्मा सर्वथा परे हैं । यह उत्पन्न होने वाला सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ही नश्वर अर्थात परिवर्तनशील है । इसलिए यहाँ की किसी भी वस्तु से उस परम तत्व को कहा नहीं जा सकता है ।  ना ही उसकी व्याख्या की जा सकती है...इसलिय इस नशवर को माध्यम बनाना व्यर्थ है. तो फिर वो मिले कैसे ?
केवल यह चेतन जीव अपने स्वरूप को जानकर शुद्ध चेतन आत्मा के माध्यम से परमात्मा को जान सकता है..इसमें गहन रूप में परमात्मा की कृपा छिपी रहती है..
इसलिय उस परमात्मा को इस ब्रह्माण्ड की किसी भी बाह्य नश्वर या परिवर्तनशील वस्तु से नही जाना जा सकता..चाहे वह मूर्ती हो, मंदिर हो, किसी संत का समारक हो, किसी धार्मिक स्थान की परिक्रमा या अन्य कोई भी बाह्य साधन हो..

प्रणाम जी