Saturday, March 5, 2016

सुप्रभात जी

अगर कर्म बंधन की बात करें तो इन दो समझना होगा..
जीव और प्रकृति -
जीव में कभी परिवर्तन नहीं होता , जबकि प्रकृति कभी परिवर्तनरहित नहीं होती |

जब यह जीव प्रकृति के साथ संबंध जोड़ लेता हैं, तब प्रकृति की क्रिया जीव का " कर्म " बन जाती हैं |
क्योंकि प्रकृति के साथ संबंध मानने से तादात्म्य(अभिन्नता,एकरसता) हो जाता हैं | तादात्म्य होने से जो प्राकृत वस्तुएँ प्राप्त है,उनमें ममता होती हैं और उस ममता के कारण अन्य अप्राप्त वस्तुओं की कामना होती है |

इस प्रकार जब तक कामना, ममता और तादात्म्य रहता हैं, तब तक परिवर्तन रुप क्रिया होती हैं , उसका नाम " कर्म " है |
(इस से कर्म फल-जनकता रहती है |)

तादात्म्य  (अभिन्नता,एकरसता) टूटने पर वही कर्म जीव के लिए "अकर्म " हो जाता है अर्थात वह कर्म क्रियामात्र रह जाता है, उसमें फलजनकता नही रहती अतः यह ' कर्म में अकर्म ' है |

अकर्म - अवस्था में अर्थात स्वरुप का अनुभव होने पर उस महापुरुष के शरीर से जो क्रिया होती रहती है,
वह " अकर्म में कर्म " है |

श्री कृष्ण जी ने गीता में उपदेश दिया है
" कर्मण्यकर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः |
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत || " (गीता ४|१८)

भावार्थ : जो मनुष्य कर्म में अकर्म (संसार को सवप्न की भांती देखकर इसमें अलिप्ता) देखता है और जो मनुष्य अकर्म में कर्म ( जीव को कर्ता न समझकर प्रकृति को कर्ता) देखता है, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है और वह मनुष्य समस्त कर्मों को करते हुये भी सांसारिक कर्मफ़लों से मुक्त रहता है। more satsang click👇🏼
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प्रणाम जी

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