Tuesday, March 29, 2016


सुप्रभात जी

वास्तविक दृष्टि से देखा जाए तो शरीर मल-मूत्र बनाने की एक मशीन ही है । इसको उत्तम-से-उत्तम भोजन या भगवान् का प्रसाद खिला दो तो वह मल बनकर निकल जाएगा तथा उत्तम-से-उत्तम पेय या गंगाजल पिला दो तो वह मूत्र बनकर निकल जाएगा । जब तक प्राण हैं, तब तक तो यह शरीर मल-मूत्र बनाने की मशीन है और प्राण निकल जाने पर यह मुर्दा है, जिसको छू लेने पर स्नान करना पड़ता है । वास्तव में यह शरीर प्रतिक्षण ही मर रहा है, मुर्दा बन रहा है । इसमें जो वास्तविक तत्व (चेतन) है, उसका चित्र तो लिया ही नहीं जा सकता । चित्र लिया जाता है तो उस शरीर का, जो प्रतिक्षण नष्ट हो रहा है । इसलिए चित्र लेने के बाद शरीर भी वैसा नहीं रहता, जैसा चित्र लेते समय था । इसलिए चित्र की पूजा तो असत् (‘नहीं’)- की ही पूजा हुई । चित्र में चित्रित शरीर निष्प्राण रहता है, अतः हाड़-मांसमय अपवित्र शरीर का चित्र तो मुर्दे का भी मुर्दा हुआ ।

हम अपनी मान्यता से जिस पुरुष को महात्मा कहते हैं, वह अपने शरीर से सर्वदा सम्बन्ध विच्छेद हो जाने से ही महात्मा है, न कि शरीर से सम्बन्ध रहने के कारण । शरीर को तो वे मल के समान समझते हैं । अतः महात्मा के कहे जाने वाले शरीर में मोह करना, मल का मोह करना हुआ । क्या यह उचित है ?  महात्मा कहा जाने वाला शरीर पाञ्चभौतिक शरीर होने के कारण जड़ एवम् विनाशी होता है ।
यदि महात्माओं के हाड़-मांसमय शरीरों की तथा उनके चित्रों की पूजा होने लगे तो इससे पुरुषोत्तम परमात्मा की ही पूजा में बाधा पहुँचेगी, जो के सिद्धान्तों से सर्वथा विपरीत है । महात्मा तो संसार में लोगों को परमात्मा की ओर लगाने के लिए आते हैं, न कि अपनी ओर लगाने के लिए । जो लोगों को अपनी ओर (अपने ध्यान, पूजा आदि में) लगाता है, वह तो भगवद्विरोधी होता है । वास्तव में महात्मा कभी शरीर में सीमित होता ही नहीं ..

**इसलिय शरीरों का,शरीरों के चित्रो का,स्थानों का व मूर्तीयों के चित्रो का मोह आपकी आन्नयता का वध करता है ,एक मात्र पूर्ण चेतन तत्व को ही धारण करना अन्नयता है...अन्यथा आप अन्नय साधना नही कर रहे है सावधान **
Satsangwithparveen.blogspot.com
प्रणाम जी

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