सुप्रभात जी
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मायिक वस्तुओं के माध्यम से हम परमात्मा के नाम पर माया की ही वस्तुऐं ग्रहण करते रहते हैं अर्थात सत्य के स्थान पर असत्य याने सत्य से विमुख यानें चाह सत्य आनंद रहे हैं अर्थात आस्तिक हैं परन्तु ग्रहण असत्य कर रहे हैं याने नास्तिक हैं..
इसलिए परमात्मा जाने नहीं जा सकते, पुनः मानेंगे कैसे और फिर प्रेम ही कैसे होगा जबकि आस्तिक वह है जो परमात्मा को निरंतर माने.
इस प्रकार से समस्त जीव नास्तिक सिद्ध हुए. अर्थात आस्तिक भी है और नास्तिक भी.
तो फिर वो सत्य परमात्मा कैसे प्राप्त हो..???
अब ज़रा विषय को ध्यान से समझें ...
याहां इस माया में जीवों पर सत्य परमात्मा की अंश आत्माऐं आकर असत्य का खेल देख रहीं हैं वो जीव के असत्य शरीर (स्थूल व शुक्ष्म) आदी के माध्यम से असत्य का खेल देखती है..इस कारण वो अपने सत्य स्वरूप को भूल गई है..जब आत्मा अपने सत्य स्वरूप को जान लेती है तब उसे सत्य परमात्मा आदी विषय का पूर्ण बोध हो जाता है जिसे बेशक इल्म या शुद्ध ग्यान की स्थिती कहते हैं .. इस स्थिती में जीव भी आत्मिक भाव में आकर सत्य विषय को जान पाता है इस कारण उसे अपने अस्तय शरीरों का भी बोध होजाता है व इन शरीरों का विषय भी निरंतर परमात्मा की ओर हो जाता है जिस कारण हम कहते हैं की मन परमात्मा मे लगता है या मन कर्म इन्द्रियों से परमात्मा से प्रेम करता हैं.. इस स्थिती में ही शुद्ध जीव सत्य के सानिध्य से असत्य साधन होते हुय भी शुद्ध सत्य को पा लेता है...
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प्रणाम जी
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