प्रथम मूल से बुध फिराई, अहंमेव दियो अंधेर।
या बिध इंड रच्यो त्रैलोकी, मूल तें दियो मन फेर।।
सृष्टि के प्रारम्भ में ही इस कलियुग रूपी अज्ञान ने बुद्धि के चिन्तन को माया के सुखों के भोग की ओर मोड़ दिया। जीव का अहं भी अपने मूल स्वरूप से विमुख होकर भौतिक शरीर पर ही केन्द्रित हो गया। स्वर्ग, पृथ्वी तथा बैकुण्ठ वाले इस ब्रह्माण्ड की रचना ही उस स्वाप्निक मन से हुई है, जो अखण्ड धाम (अव्याकृत) से हट कर स्वयं को मोह सागर में अनुभव करने लगा है।अहंकार (मैं कौन हूँ) के अनुसार ही बुद्धि की विवेचना होती है। चित्त का चिन्तन तथा मन का मनन भी उसी पर अवलम्बित होता है। ब्रह्मज्ञान के अभाव में जब निज स्वरूप का बोध नहीं हो पाता है, तो शरीर को ही सब कुछ मान लिया जाता है। ऐसी स्थिति में बुद्धि, चित्त, मन तथा इन्द्रियों की सम्पूर्ण प्रक्रिया शरीर में ही केन्द्रित हो जाती है। जिस आदिनारायण के ‘एकोऽहं बहुस्याम’ के संकल्प से इस सम्पूर्ण सृष्टि का अस्तित्व है, उन्हीं का प्रकटीकरण उस मोह सागर में होता है, जो अज्ञान का स्वरूप है। ऐसी स्थिति में यह कैसे सम्भव है कि उनके ही प्रतिबिम्ब से प्रकट होने वाले चिदाभास स्वरूप जीवों तथा प्रकृति की विकृति से उत्पन्न होने वाले अन्तःकरण में माया में फंसने की प्रवृत्ति न हो ..
(इसी विषय पर प्रतिदिन का सुप्रभात संदेश 3 दिन केे क्रम मे आपकी सेवा में सरल करके प्रस्तुत किया जा रहा है जिसका प्रथम भाग आज प्रस्तुत कियी गया ..कृपया दो दिन और सुप्रभात संदेश ध्यान से पढ़ें जिस कारण विषय शपष्ट हो सके...)
प्रणाम जी
या बिध इंड रच्यो त्रैलोकी, मूल तें दियो मन फेर।।
सृष्टि के प्रारम्भ में ही इस कलियुग रूपी अज्ञान ने बुद्धि के चिन्तन को माया के सुखों के भोग की ओर मोड़ दिया। जीव का अहं भी अपने मूल स्वरूप से विमुख होकर भौतिक शरीर पर ही केन्द्रित हो गया। स्वर्ग, पृथ्वी तथा बैकुण्ठ वाले इस ब्रह्माण्ड की रचना ही उस स्वाप्निक मन से हुई है, जो अखण्ड धाम (अव्याकृत) से हट कर स्वयं को मोह सागर में अनुभव करने लगा है।अहंकार (मैं कौन हूँ) के अनुसार ही बुद्धि की विवेचना होती है। चित्त का चिन्तन तथा मन का मनन भी उसी पर अवलम्बित होता है। ब्रह्मज्ञान के अभाव में जब निज स्वरूप का बोध नहीं हो पाता है, तो शरीर को ही सब कुछ मान लिया जाता है। ऐसी स्थिति में बुद्धि, चित्त, मन तथा इन्द्रियों की सम्पूर्ण प्रक्रिया शरीर में ही केन्द्रित हो जाती है। जिस आदिनारायण के ‘एकोऽहं बहुस्याम’ के संकल्प से इस सम्पूर्ण सृष्टि का अस्तित्व है, उन्हीं का प्रकटीकरण उस मोह सागर में होता है, जो अज्ञान का स्वरूप है। ऐसी स्थिति में यह कैसे सम्भव है कि उनके ही प्रतिबिम्ब से प्रकट होने वाले चिदाभास स्वरूप जीवों तथा प्रकृति की विकृति से उत्पन्न होने वाले अन्तःकरण में माया में फंसने की प्रवृत्ति न हो ..
(इसी विषय पर प्रतिदिन का सुप्रभात संदेश 3 दिन केे क्रम मे आपकी सेवा में सरल करके प्रस्तुत किया जा रहा है जिसका प्रथम भाग आज प्रस्तुत कियी गया ..कृपया दो दिन और सुप्रभात संदेश ध्यान से पढ़ें जिस कारण विषय शपष्ट हो सके...)
प्रणाम जी
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