सुप्रभात जी
जैसे पुष्प में सुगन्ध, तिलों में तेल, गुणी में गुण और धर्मी में धर्म रहते हैं तैसे ही यह सत् असत्,स्थूल सूक्ष्म, कारण, कार्यरूपी जगत- मन में रहता है । जैसे समुद्र में तरंग और मरुस्थल में मृगतृष्णा का जल दिखता है वैसे ही चित्त में जगत् दिखता है ।
जैसे सूर्य में किरणें, तेज में प्रकाश और अग्नि में उष्णता है तैसे ही मन में जगत् है । जैसे बरफ में शीतलता, आकाश में शून्यता और पवन में स्पन्दता है तैसे ही मन में जगत् । सम्पूर्ण जगत् मनरूप है, मन जगत्रूप है और परस्पर एकरूप हैं, दोनों में से एक नष्ट हो तब दोनों नष्ट हो जाते हैं । जब जगत् नष्ट हो तब मन भी नष्ट हो जाता है । जैसे वृक्ष के नष्ट होने से पत्र, टास, फूल, फल नष्ट हो जाते हैं और इनके नष्ट होने से वृक्ष नष्ट नहीं होता ...
इसलिय आत्मरूप होकर परमात्मा में निरंतर ध्यान से मन की आंखे मन्द होकर विवेक जाग्रीत होता है जिसके माध्यम से मन रूपी खरपतवार नष्ट होकर आत्मग्यान का बिज अंकुरित हो जाता है..
Www.facebook.com/kevalshudhsatye
प्रणाम जी
जैसे पुष्प में सुगन्ध, तिलों में तेल, गुणी में गुण और धर्मी में धर्म रहते हैं तैसे ही यह सत् असत्,स्थूल सूक्ष्म, कारण, कार्यरूपी जगत- मन में रहता है । जैसे समुद्र में तरंग और मरुस्थल में मृगतृष्णा का जल दिखता है वैसे ही चित्त में जगत् दिखता है ।
जैसे सूर्य में किरणें, तेज में प्रकाश और अग्नि में उष्णता है तैसे ही मन में जगत् है । जैसे बरफ में शीतलता, आकाश में शून्यता और पवन में स्पन्दता है तैसे ही मन में जगत् । सम्पूर्ण जगत् मनरूप है, मन जगत्रूप है और परस्पर एकरूप हैं, दोनों में से एक नष्ट हो तब दोनों नष्ट हो जाते हैं । जब जगत् नष्ट हो तब मन भी नष्ट हो जाता है । जैसे वृक्ष के नष्ट होने से पत्र, टास, फूल, फल नष्ट हो जाते हैं और इनके नष्ट होने से वृक्ष नष्ट नहीं होता ...
इसलिय आत्मरूप होकर परमात्मा में निरंतर ध्यान से मन की आंखे मन्द होकर विवेक जाग्रीत होता है जिसके माध्यम से मन रूपी खरपतवार नष्ट होकर आत्मग्यान का बिज अंकुरित हो जाता है..
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