सुप्रभात जी
कर्म-ज्ञान प्रधान मानव देह ही उस आत्मा और परमात्मा को जान लेने का साधन है, किसी और देह में यह ज्ञान असंभव है.
बिना एक क्षण गवांये तत्काल परमात्मा को जानने की ओर अग्रसर होना चाहिए, मानव देह क्षणभंगुर है.
महर्षि वाल्मिकी जी कहते हैं कि विश्व में ऐसा कोई भी जीव नहीं है जो परमात्मा को जानता न हो. न केवल जानता है, बल्कि मानता है और उसी से ही प्रेम भी करता है, उसी को ही चाहता है.
इसका रहस्य यह है कि प्रतिक्षण कर्म करना प्रत्येक जीव का स्वाभाव है. और प्रत्येक कर्म का कोई न कोई उद्देश्य अवश्य ही होता है. जीव (मायाधीन) के प्रत्येक कर्म का एक ही उद्देश्य है - आनन्दप्राप्ति.
प्रत्येक अंश अपने अंशी को ही स्वाभाविक रूप से चाहता है, जैसे अग्नि सदा ही ऊपर सूर्य की ओर उठती है, क्योंकि वो सूर्य का अंश है. ऐसे ही हम जीव परमात्मा के अंश हैं.
वेदों में उन परमात्मा का एक नाम 'आनंद' कहा गया है. आनंद और परमात्मा दोनों ही पर्यायवाची शब्द है. परमात्मा में आनंद है, ऐसा नहीं है. वास्तव में परमात्मा ही आनंद है, आनंद ही परमात्मा है.
उसी आनंद के अंश होने के कारण हम आनंद ही चाहते हैं, आनंद ही चाह सकते हैं. यही हमारा सहज स्वभाव है. कोटि कल्प प्रयत्न करके भी हम कभी दु ख नहीं चाह सकते.
अर्थात समस्त जीव आनंद के ही दास हैं यानि की परमात्मा के ही दास, उन्ही से ही प्रेम करने वाले. अतएव समस्त चराचर जीव आस्तिक हैं, निरंतर आस्तिक.
दूसरी ओर यह बात भी सत्य है कि समस्त जीव (मायाधीन) नास्तिक भी हैं. अब यह विरोधाभास कैसा है, इसकि चर्चा कल....
प्रणाम जी
कर्म-ज्ञान प्रधान मानव देह ही उस आत्मा और परमात्मा को जान लेने का साधन है, किसी और देह में यह ज्ञान असंभव है.
बिना एक क्षण गवांये तत्काल परमात्मा को जानने की ओर अग्रसर होना चाहिए, मानव देह क्षणभंगुर है.
महर्षि वाल्मिकी जी कहते हैं कि विश्व में ऐसा कोई भी जीव नहीं है जो परमात्मा को जानता न हो. न केवल जानता है, बल्कि मानता है और उसी से ही प्रेम भी करता है, उसी को ही चाहता है.
इसका रहस्य यह है कि प्रतिक्षण कर्म करना प्रत्येक जीव का स्वाभाव है. और प्रत्येक कर्म का कोई न कोई उद्देश्य अवश्य ही होता है. जीव (मायाधीन) के प्रत्येक कर्म का एक ही उद्देश्य है - आनन्दप्राप्ति.
प्रत्येक अंश अपने अंशी को ही स्वाभाविक रूप से चाहता है, जैसे अग्नि सदा ही ऊपर सूर्य की ओर उठती है, क्योंकि वो सूर्य का अंश है. ऐसे ही हम जीव परमात्मा के अंश हैं.
वेदों में उन परमात्मा का एक नाम 'आनंद' कहा गया है. आनंद और परमात्मा दोनों ही पर्यायवाची शब्द है. परमात्मा में आनंद है, ऐसा नहीं है. वास्तव में परमात्मा ही आनंद है, आनंद ही परमात्मा है.
उसी आनंद के अंश होने के कारण हम आनंद ही चाहते हैं, आनंद ही चाह सकते हैं. यही हमारा सहज स्वभाव है. कोटि कल्प प्रयत्न करके भी हम कभी दु ख नहीं चाह सकते.
अर्थात समस्त जीव आनंद के ही दास हैं यानि की परमात्मा के ही दास, उन्ही से ही प्रेम करने वाले. अतएव समस्त चराचर जीव आस्तिक हैं, निरंतर आस्तिक.
दूसरी ओर यह बात भी सत्य है कि समस्त जीव (मायाधीन) नास्तिक भी हैं. अब यह विरोधाभास कैसा है, इसकि चर्चा कल....
प्रणाम जी
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