Wednesday, March 23, 2016

रंगो से सराबोर हैं सारे मन मस्ति मे विभोर हैं सारे ,
सब मस्ती मे मस्त मगन है लगता है सब आनंद मे है !!

पर खाली है मेरी झोली तुम बिन केसे खेलु होली !!

कभी हसते कभी दोड़ते है वों रंगो की चादर औडते है वों,
लाल हरे कुछ पीले अंग है सब अपने प्रियतम के संग है !!
पर खाली है मेरी झोली के तुम बीन केसे खेलु होली !!
,सब बोलें हैं दूैत की भाषा , प्रवीण तूं समझे अदूैत की बोली कि तुम बिन किस से बोलुं ये बोली , तुम बिन कैसेे खेलूं होली...

मनकी उदासी कया होती है जगकी उपहासी कया होती है
मेरे मन की ये लाचारी समझे वो जो बिरहा की मारी चुभती है जगबोली के तुमबिन केसे खेलुं होली !!

अगले बरस ये फिर आयेगी मुझको फिर तडफा जायेगी ,
वो फिर खेलेंगें फीर दौड़ेंगे मैं भी मंडेर से देखुंगी वो

बात सुन मेरे भरतारा इस जगमें तुमबिन कौन हमारा जिस संग जाय मैं खेलुं होली
के तुम बिन किस से खेलुं होली ??

तुमबिन केसे खेलुं होली !!
तुमबिन केसे खेलुं होली !!

प्रणाम जी

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