Monday, March 14, 2016

वाणी

पिया ऐसी निपट मैं क्यों भई, कठिन कठोर अति ढीठ |
श्री धाम धनी पहचान के, फेर फेर देत है पीठ |

हे परमात्मा मै इस जीव की नजरो से नजर मिला कर अपने मूल स्वरुप को भूल के इस जीव के ही दिखाए हुए खेल में लिप्त हो गयी हूँ पता नही क्यों इस जीव की चेतना में ही कब मै अपने अस्तित्व को भूल गयी हूँ मै अपने को भूल कर ऐसी ढीठ ,कठोर और ऐसी विकट हो गयी हूँ की मैं मेरे याने आत्मा के विषये को अपने तक आने ही नही देती क्योंकि मै जीव की चेतना में लिप्त हूँ इसलिए मेरे विषये भी जीव की चेतना से आगे नही आ
पा रहे जिस कारण  मरी आत्मा के अति शुक्ष्म विषय मुझ तक न पहुंच कर जीव में जाकर उनके अर्थ ही बदल जाते है और इन अनर्थो को मै जीव की नजरो में नजर मिला कर सत्ये मान के इन पर ही ववाद देखती रहती हूँ ..इसका परिणाम यह हुआ की मेने वाणी में वर्णित अपने परमात्मा की पहचान पाने के बाद भी उसको जीव भाव से ग्रहण करने के कारण उके सत्ये रूप को ग्रहण नही कर पायी और जीव के भरम को परमात्मा मान लिया जिसमे परमात्मा के अनेक रूप है इस भ्रम में कभी गुरु का शरीर परमात्मा बन जाता है कभी वाणी की पुस्तक परमात्मा बन जाती है कभी इनकी परिक्रमा परमात्मा बन जाती है कभी जीवो की सेवा को ही परमात्मा मान लेती हूँ ..तो कभी गुरु के स्थान को ..कभी उनके दिए प्रशाद में मन लगा बैठती हूँ तो कभी मूर्तियों में उलझ जाती हूँ तो कभी नाम जाप में ...इसलिए भ्रम वश मेने अनेको परमात्मा मान लिए है जिस कारण मै बार बार प्रति क्षण एक मात्र सत्ये परमात्मा से विमुख हो रही  हूँ ...
satsangwithparveen.blogspot.com
प्रणाम जी

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