Wednesday, September 30, 2015

बाहर मत ढूंडो

बाहर मत ढूंडो

अरस कहिये दिल तिन का, जित है हक सहूर|
इलम इसक दोऊ हक के, दोऊ हक रोसनी नूर||

उन्ही आत्माओं का दिल वस्तुतः परमधाम कहा गया है, जहाँ पर हर पल परमात्मा का चिन्तन, उन्ही की चितवनी चलती रहेती है| वस्तुतः ज्ञान और प्रेम, दोनों ही श्री परमात्मा के तेजोमय प्रकाश स्वरुप की अमूल्य निधियाँ हैं| इसलिय जब परमात्मा को हम हृदय मे अनुभव करने लगते हैं तो ग्यान और प्रेम स्वतः ही उत्पन्न होने लगता है..

बृहच्च तद् दिव्यमचिन्त्यरूपं सूक्ष्माच्च तत् सूक्ष्मतरं विभाति ।
दूरात् सुदूरे तदिहान्तिके च पश्यन्त्विहैव निहितं गुहायाम् ॥७॥
(मुण्डक)

बृह्म सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है बाहर ढूंडने वालो के लिय वो दूर से भी दूर है पर जो हृदय मे धारते हैं उनके लिय वो अन्दर ही घुलमिलकर रहता है..

न चक्षुषा गृह्यते नापि वाचा नान्यैर्देवैस्तपसा कर्मण वा ।
ज्ञानप्रसादेन विशुद्धसत्त्वस्ततस्तु तं पश्यते निष्कलं ध्यायमानः ॥८॥

(मुण्डकोपनिषद् )

परमात्मा को न तो इन आंखों से देखा जा सकता है, न वचनों को सुनने से और न ही अन्य इंद्रियों के द्वारा परमात्मा की प्राप्ति संभव है। तपस्या एवं कर्मो से भी परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती।  जब उनको अंतर मे धारण करते हैं तब ज्ञान की कृपा होती है, तभी मनुष्य के अंतर में अन्य किसी प्रकार की चाह नही रह जाती तभी मनुष्य ब्रह्म का ध्यान करते हुए परमात्मा का दर्शन करता है।

प्रणाम जी

जन्मदिवस

प्रणाम जी ...आप सबके प्रेम का आभार ..साथजी इस नश्वर शरीर की गणना पर क्या उल्लास मनाना यह शरीर मिटने वाला है अर्थात अस्त्ये है और अस्त्ये तो अस्त्ये है चाहे वो किसी भी गणना का हो और गणना तो हमेशा काल की की होती है अर्थात काल ने उसे कितना खाया गणना हमेशा यही होती है और बधाई अगर जीव या आत्म को है तो जीव तो न जाने कितने शरीर बदल चूका है उसकी क्या गणना करनी और जीव अनादि है उसका कभी जन्म नही हुआ फिर उसको क्या बधाई देना और आत्मा न जन्म लेती है न मरती है वह आनंद रूपा है वह बधाई बंधन से परे है उसका उल्लास परमात्मा है काल गणना नही इसलिए साथ जी मुझे जन्मदिन की बधाई देना न तो उचित लगता है और न ही मुझे इसमें कोई उल्लास नजर आता है हम सब आत्माओं का एक मात्र उल्लास परमात्मा है हमे उसी में उल्लास व विश्राम प्राप्त होता है शरीर तो मात्र साधन है जब तक ये चल रहा है ठीक है जब रुक जायेगा तो परमात्मा में विश्राम करेंगे अगर परमात्मा का हुकुम हुआ तो ऐसे और साधन भी ग्रहण करने पड सकते है इसलिए हमारा उल्लास एक मात्र हमारा अनादि अखंड अनंत आनंद वो एक मात्र साध्ये है न की ये नश्वर साधन..इसलिय मुझे जन्मदिवस कि बधाई देना उचित नही लगता अगर मुझे बधाई देना ही चाहते है तो मेरे लिय इतना कीजीय की बाहरी आवरण से नजर हटा कर दृष्टि आत्म ह्रदय में बैठे परमात्मा की तरफ करलो अगर कर चुके तो लक्षय मिल चुका होगा और अगर नही कीया तो विलंब ना करें एक क्षण का भी कयोंकी जो क्षण बीत गया वो कभी वापस नही आयगा इसलिय क्षण क्षण सावधान रहें..
सभी साथ के चरणों मे कोटी कोटी प्रेम प्रणाम जी

Tuesday, September 29, 2015

आप दुःखी क्यों है?

सुप्रभात जी

आप दुःखी क्यों है?
तनिक स्वस्थता से विचारिये कि आप दुःखी क्यों हैं ? आपके पास धन नहीं है ? आपकी बुद्धि तीक्ष्ण नहीं है ? आपके पास व्यवहारकुशलता नहीं है ? आप रोगी हैं ? आपमें बल नहीं है ? अथवा आपमें सांसारिक ज्ञान नहीं है ? बहुतों के पास यह सब है :धनवान हैं, बलवान हैं, व्यवहारकुशल हैं, बुद्धिमान हैं, जगत का ज्ञान भी जीभ के सिरे पर है, तथापि वे दुःखी हैं । दुःखी इसलिए नहीं हैं कि उनके पास इन सब वस्तुओं अथवा वस्तुओं के ज्ञान का अभाव है । परन्तु दुःखी इसलिए हैं कि संसार का सब कुछ जानते हुए भी अपने आपको नहीं जानते । अपने आपको जान लें तो सर्व शोकों से पार हो जायें, जन्म-मरण से पार हो जायें । ... और अपने आपको न जानें तो शेष सब जाना हुआ धूल हो जाता है, क्योंकि शरीर की मृत्यु के साथ ही समस्त यहीं रह जाता है ।
    मिथ्या में सत्य को जान लेना, नश्वर में शाश्वत को खोज लेना, आत्मा को पहचान लेना तथा आत्मामय होकर जीना यही विवेक है । इसके अतिरिक्त अन्य सभी मजदूरी है, व्यर्थ बोझा उठाना और अपने आपको मूढ़ सिद्ध करने जैसा है । ऎसा विवेक धारण कर अपने आपको आध्यात्मिक मार्ग पर चला दें तो सभी कुछ उचित हो जाये, जीवन सार्थक हो जाये । अन्यथा कितने ही गद्दी-तकियों पर बैठिए, टेबल-कुर्सियों पर बैठिए, एयरकंडीशन्ड कार्यालयों में बैठकर आदेश चलाइये अथवा जनता के सम्मुख ऊँचे मंच पर बैठकर अपनी नश्वर देह और नाम की जयजयकार करवा लीजिए परंतु अंत में कुछ भी हाथ न लगेगा ।
आप जहाँ के तहाँ ही रह जायेंगे । आयु बीत जायेगी और पछतावे का पार न रहेगा । जब मौत आयेगी तब जीवन भर कमाया हुआ धन, परिश्रम करके पाये हुए पद-प्रतिष्ठा, लाड़ से पाला-पोसा यह शरीर निर्दयतापूर्वक साथ छोड़ देगा । आप खाली हाथ रोते रहेंगे, बार-बार जन्म-मरण के चक्कर में घूमते रहेंगे । इसीलिए केनोपनिषद के ऋषि कहते हैं :

इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति ।
न चेदिहावेदीन महती विनष्टिः ॥

’यदि इस जीवन में ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर लिया या परमात्मा को जान लिया, तब तो जीवन की सार्थकता है और यदि इस जीवन में परमात्मा को नहीं जाना तो महान विनाश है ।’ (केनोपनिषद : २.५)

प्रणाम जी
कह्या हक सेहेरग से नजीक, हक अरस मोमिन दिल।
ना ऊपर तले दाएं बाएं, ए बतावें मुरसद कामिल।।


कुरानमें परमात्माके लिए कहा गया है कि वे प्राणनलीसे भी अति निकट हैं. वे स्वयं ब्रह्मात्माओंके हृदयमें हैं इसलिए उन्हें निकट कहा गया है.

 कुरानको पढ.नेवाले कहते हैं कि परमात्मा ऊपर, नीचे, दायेंसे बायें कही भी नहीं हैं. इसका तात्पर्य है कि वे ब्रह्मात्माओंके हृदयमें हैं..

प्रणाम जी

Monday, September 28, 2015

वाणी

रेहे ना सकों मैं रूहों बिना, रूहें रेहे ना सकें मुझ बिन।
जब पेहेचान होवे वाको, तब सहें ना बिछोहा खिन।।

मैं अपनी आत्माओं के बिना नहीं रह सकता तथा वे मेरे बिना नहीं रह सकती। जब आत्माओं को मेरे स्वरूप की पहचान हो जायेगी तो वे एक पल के लिये भी मेरा वियोग नहीं सहन कर सकती।
परमात्मा का यह कथन कि ‘मैं’ रूहों के बिना नहीं रह सकता, प्रेम की अभिव्यक्ति मात्र है। इसमें मानवीय अधीरता जैसी कोई बात नहीं है। सच तो यह है कि अक्षरातीत एक पल के लिये भी अपनी आत्माओं से न कभी अलग थे, न हैं और न होंगे।

प्रणाम जी

Sunday, September 27, 2015

वास्तविक संत

सुप्रभात जी
Satsangwithparveen.blogspot.com
वास्तविक दृष्टि से देखा जाए तो शरीर मल-मूत्र बनाने की एक मशीन ही है । इसको उत्तम-से-उत्तम भोजन या भगवान् का प्रसाद खिला दो तो वह मल बनकर निकल जाएगा तथा उत्तम-से-उत्तम पेय या गंगाजल पिला दो तो वह मूत्र बनकर निकल जाएगा । जब तक प्राण हैं, तब तक तो यह शरीर मल-मूत्र बनाने की मशीन है और प्राण निकल जाने पर यह मुर्दा है, जिसको छू लेने पर स्नान करना पड़ता है । वास्तव में यह शरीर प्रतिक्षण ही मर रहा है, मुर्दा बन रहा है । इसमें जो वास्तविक तत्व (चेतन) है, उसका चित्र तो लिया ही नहीं जा सकता । चित्र लिया जाता है तो उस शरीर का, जो प्रतिक्षण नष्ट हो रहा है । इसलिए चित्र लेने के बाद शरीर भी वैसा नहीं रहता, जैसा चित्र लेते समय था । इसलिए चित्र की पूजा तो असत् (‘नहीं’)- की ही पूजा हुई । चित्र में चित्रित शरीर निष्प्राण रहता है, अतः हाड़-मांसमय अपवित्र शरीर का चित्र तो मुर्दे का भी मुर्दा हुआ ।

हम अपनी मान्यता से जिस पुरुष को महात्मा कहते हैं, वह अपने शरीर से सर्वदा सम्बन्ध विच्छेद हो जाने से ही महात्मा है, न कि शरीर से सम्बन्ध रहने के कारण । शरीर को तो वे मल के समान समझते हैं । अतः महात्मा के कहे जाने वाले शरीर का आदर करना, मल का आदर करना हुआ । क्या यह उचित है ?  महात्मा कहा जाने वाला शरीर पाञ्चभौतिक शरीर होने के कारण जड़ एवम् विनाशी होता है ।
यदि महात्माओं के हाड़-मांसमय शरीरों की तथा उनके चित्रों की पूजा होने लगे तो इससे पुरुषोत्तम परमात्मा की ही पूजा में बाधा पहुँचेगी, जो के सिद्धान्तों से सर्वथा विपरीत है । महात्मा तो संसार में लोगों को परमात्मा की ओर लगाने के लिए आते हैं, न कि अपनी ओर लगाने के लिए । जो लोगों को अपनी ओर (अपने ध्यान, पूजा आदि में) लगाता है, वह तो भगवद्विरोधी होता है । वास्तव में महात्मा कभी शरीर में सीमित होता ही नहीं ..

प्रणाम जी

आनंद तो शब्दातीत है

अछरातीत के मोहोल में , प्रेम इस्क बरतत ।
सो सुध अक्षर को नहीं , जो किन विध केलि करत ।।

अक्षरातीत परब्रह्म के रंगमहल में अनन्य प्रेम (इश्क) की सर्वदा ही लीला होती रहती है । अक्षरातीत अपनी प्रियाओं (आत्माओं) से किस प्रकार प्रेम की लीला करते हैं, इसकी जानकारी अक्षर ब्रह्म को भी नहीं थी ।
परमधाम भी अक्षरातीत के समान नूरमयी, मनोहारिणी व अत्यधिक प्रकाशमान है । वहाँ प्रत्येक वस्तु में चार गुण हैं- चेतनता, नूर (तेज), कोमलता और सुगन्धि । वहाँ की हर वस्तु अक्षरातीत का ही स्वरूप है, उन्हीं के समान चेतन और उनकी प्रेम की लीला में भली प्रकार सम्मिलित होती है । प्रत्येक वस्तु प्रेम और आनन्द के रस से ओत-प्रोत है ..ये केवल शब्दो में व्याख्या है वहां का आनंद तो शब्दातीत है केवल वही जान सकता है जिसे अनुभव हो चुका हो..

प्रेम प्रणाम जी

Saturday, September 26, 2015

श्री रामसुखदास जी

सुप्रभात जी

श्री परमात्मा की असीम, अहैतुकी कृपा से ही जीवन को मानव शरीर मिलता है । इसका एकमात्र उद्देश्य केवल भगवत्प्राप्ति ही है । परन्तु मनुष्य इस शरीर को प्राप्त करने के बाद अपने मूल उद्देश्य को भूल कर शरीर के साथ दृढ़ता से तादात्म्य कर लेता है और इसके सुख को ही परम सुख मानने लगता है । शरीर को सत्ता और महत्ता देकर उसके साथ अपना सम्बन्ध मान लेने के कारण उसका शरीर से इतना मोह हो जाता है कि इसका नाम तक उसको प्रिय लगने लगता है । शरीर के सुखों में मान-बड़ाई का सुख सबसे सूक्ष्म होता है । इसकी प्राप्ति के लिए वह झूठ, कपट, बेईमानी आदि दुर्गुण-दुराचार भी करने लग जाता है । शरीर नाम में प्रियता होने से उसमें दूसरों से अपनी प्रशंसा, स्तुति की चाहना रहती है । वह यह चाहता है कि जीवन पर्यन्त मेरे को मान-बड़ाई मिले और मरने के बाद मेरे नाम की कीर्ति हो । वह यह भूल जाता है कि केवल लौकिक व्यवहार के लिए शरीर का रखा हुआ नाम शरीर के नष्ट होने के बाद कोई अस्तित्व नहीं रखता । इस दृष्टि से शरीर की पूजा, मान-आदर एवम् नाम को बनाए रखने का भाव किसी महत्व का नहीं है । परन्तु शरीर का मान-आदर एवम् नाम की स्तुति-प्रशंसा का भाव इतना व्यापक है कि मनुष्य अपने तथा अपने प्रियजनों के साथ तो ऐसा व्यवहार करते ही हैं, प्रत्युत् जो भगवदाज्ञा, महापुरुष-वचन तथा शास्त्र मर्यादा के अनुसार सच्चे हृदय से अपने लक्ष्य (भगवत्प्राप्ति)-में लगे रहकर इन दोषों से दूर रहना चाहते हैं, उन साधकों के साथ भी ऐसा ही व्यवहार करने लग जाते हैं । अधिक क्या कहा जाय, उन साधकों का शरीर निष्प्राण होने पर भी उसकी स्मृति बनाए रखने के लिए वे उस शरीर को चित्र में आबध्द करते हैं एवम् उसको बहुत ही साज-सज्जा के साथ अन्तिम संस्कार-स्थल तक ले जाते हैं । विनाशी नाम को अविनाशी बनाने के प्रयास में वे उस संस्कार-स्थल पर छतरी, चबूतरा या मकान (स्मारक) आदि बना देते हैं । इसके सिवाय उनके शरीर से सम्बन्धित एकपक्षीय घटनाओं को बढ़ा-चढ़ाकर उनको जीवनी, संस्मरण आदि के रूप में लिखते हैं और प्रकाशित करवाते हैं । कहने को तो वे अपने- आप को उन साधकों का श्रद्धालु कहते हैं, पर काम वही कराते हैं, जिसका वे साधक निषेध करते हैं ।

श्रद्धातत्व अविनाशी है । अतः उन साधकों के अविनाशी सिद्धान्तों तथा वचनों पर ही श्रद्धा होनी चाहिए न कि विनाशी देह या नाम में । नाशवान् शरीर तथा नाम में तो मोह होता है, श्रद्धा नहीं । परन्तु जब मोह ही श्रद्धा का रूप धारण कर लेता है तभी ये अनर्थ होते हैं । अतः परमात्मा के शाश्वत, दिव्य, अलौकिक श्रीविग्रह की अविनाशी चेतन और आनंद के ध्यान को छोड़ कर इन नाशवान् शरीरों तथा नामों को महत्व देने से न केवल अपना जीवन ही निरर्थक होता है, प्रत्युत् अपने साथ महान् धोखा भी होता है ...

श्री रामसुखदास जी

चेतनता ह्रदय में

दिल अरस मोमिन कह्या, तित आए हक सुभान ।
सो दिल पाक औरों करे, जाए देखो मगज कुरान ।।

ब्रह्मात्माओं (मोमिनों) के दिलको तो परमधाम कहा है, कयोंकी ब्रह्मात्माओं का ध्यान हमेंशा अपनें मूल याने परमात्मा में रहता है ..कयोंकी इनका  परमात्मा से संबन्ध है इसलिय ये उसे परमात्मा नही बल्की अपना परियतम  मानती हैं ..इस कारण इनके दिल मे माया नही आ पाती कयोंकी वहाँ परमात्मा (हक सुभान) आकर विराजमान होते हैं. ऐसी आत्माएँ अन्य लोगोंके दिलोंको भी पवित्र बना देतीं हैं. कयोंकी इनका ग्यान एकदम शुद्ध होता है ..जडता से दूर व चेतनता से ओतप्रोत जिसके संपर्क से सबको लाभ मिलता है...और इसका प्रमाण कुरान आदी मे वर्णित है...

प्रणाम जी

Friday, September 25, 2015

और कोई विकल्प नही है

सुप्रभात जी
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एक साधू ने अपने शिष्ये को एक पौधा दिया और कहा की इस पौधे में हमेशा मीठा पानी डालना जिस से इसके फल मीठे होंगे इसमें कभी ही खारा पानी मत डालना नही तो फल कड़वे होंगे और  याद रखना इसके फल तुम्हे खाने की जरूरत नही होगी जब फल लगेंगे तो उसका स्वाद तुम्हे अपने आप मिलने लगेगा ..

शिष्ये पौधा लेकर अपनी कुटिया में आगया व् वो पौधा लगा लिया उसकी कुटिया के पास खारे पानी की नदी थी मीठे पानी के लिए उसे दूर जाना पड़ता था इसलिए उसने सोचा की अगर मई मीठा पानी पोधे में डाल दूंगा तो मुझे दूर से ज्यादा पानी लाना पड़ेगा जो मेरे लिए कठिन होगा इसलिए वो केवल एक मटकी पिने लायक लाता और पोधे में खारा पानी डाल देता पानी डालते हुए उसे अपने गुरु की बात भी याद आती की खारा पानी मत डालना पर वो सोचता की कोई बात नही जब समय होगा तब मीठा पानी दाल दूंगा जिस से फल अच्छे ही होंगे और वैसे भी ये मेरे गुरु का दिया हुआ है तो इसके फल कड़वे हो ही नही सकते.. समय बीत गया और फल लगने लगे पर वो कड़वे थे जिसका स्वाद उसको अपने आप मिलने लगा वो कड़वाहट इतनी ज्यादा बढ़ गयी की उसका जीना मुश्किल हो गया..

वो पौधा और कोई नही हमारा मन है इसके जैसे विचार हम देंगे ये वैसे ही अछा या बुरा हमारे मार्ग का निर्माण करेगा और ये करना हमे ही पड़ेगा गुरु तो केवल इतना कर सकते है की हमे अच्छे बुरे मार्ग के बारे में बता देंगे पर प्रयत्न हमे ही करना पड़ेगा हम अंधे होकर गुरु के भरोसे बैठ जाते है की जैसे विचार आते है कोई बात नही गुरु जी सब संभाल लेंगे इसी गफलत में अनंत जन्म बिता दिए ये भी बीत रहा है और बीत ही जायेगा अगर प्रयत्न ही करोगे तो बार बार आना पड़ेगा पर बिना खुद यत्न किये बात नही बनेगी ये बात आज समझ लो या करोड़ो जन्म बाद..
और कोई विकल्प नही है..मन को कैसा आहार दे रहे हो सावधान रहो..

प्रणाम जी

मेहर

ए नजर तुमें तब खुले, जो पूरन करें हक मेहेर।
तो एक हक के इस्क बिना, और देखो सब जेहेर।।

आपकी आत्मिक दृष्टि तभी खुलेगी, जब आप पर परमात्मा की पूर्ण मेहर हो। आत्मिक दृष्टि खुल जाने पर आपको परमात्मा के प्रेम के अतिरिक्त सारा विश्व विष के समान कष्टकारी लगने लगेगा।
 यद्यपि परमधाम में अदुेतभाव अवश्य है, किन्तु इस संसार में ’करनी माफक कृपा’ के अनुसार किसी को ज्ञान मिलता है तो किसी को प्रेम। इसी प्रकार किसी पर मात्र बाह्य कृपा होती है तो किसी पर आन्तरिक। किसी-किसी पर दोनों ही होती है...

प्रणाम जी

Thursday, September 24, 2015

शुकजी को आनंद प्राप्ति...

सुप्रभात जी

रामजी ने पूछा,
हे भगवान्! शुकजी कैसे बुद्धिमान और ज्ञानवान् थे और कैसी आनंद की अपेक्षा उनको थी और फिर कैसे उन्होंने आनंद पाया सो कृपा करके कहो ?
From satsangwithparveen.blogspot.com

विश्वामित्र जी बोले, हे रामजी, अञ्जन के पर्वत के समान और सूर्य के सदृश प्रकाशवान् भगवान् व्यासजी स्वर्ण के सिंहासन पर राजा दशरथ के यहाँ बैठे थे । उनके पुत्र शुकजी सब शास्त्रों के वेत्ता थे । और सत्य को सत्य और असत्य को असत्य जानते थे । उन्होंने शान्ति और परमानन्दरूप आत्मा में आनंद न पाया तब उनको विकल्प उठा कि जिसको मैंने जाना है सो न होगा । क्योंकि मुझको आनन्द नहीं दिखता । यह संशय करके एक काल में व्यासजी जो सुमेरु पर्वत की कन्दरा में बैठे थे तिनके निकट आकर कहने लगे, हे भगवन्!, यह संसार सब भ्रमात्मक कहाँसे हुआ है; इसकी निवृत्ति कैसे होगी और आगे कभी इसकी निवृत्ति हुई है सो कहो ? हे रामजी! जब इस प्रकार शुकदेवजी नेकहा तब  वेदव्यास ने तत्काल उपदेश किया । शुकजी ने कहा, हे भगवान्! जो कुछ तुम कहते हो वह तो मैं आगे से ही जानता हूँ । इससे मुझको शान्ति नहीं होती । हे रामजी! तब सर्वज्ञ वेदव्यासजी विचार करने लगे कि इसको मेरे वचन से शान्ति प्राप्त न होगी, क्योंकि पिता पुत्र का सम्बन्ध है । ऐसा विचार करके व्यासजी कहने लगे, हे पुत्र! मैं सर्वतत्वज्ञ नहीं, तुम राजा जनक के निकट जाओ, वे सर्वतत्वज्ञ और शान्तात्मा हैं, उनसे तुम्हारा मोह निवृत्त होगा । तब शुकदेवजी वहाँ से चलकर मिथला नगरी में आये और राजा जनक के द्वार पर स्थित हुए । द्वारपाल ने जाकर जनक जी से कहा कि व्यासजी के पुत्र शुकजी खड़े हैं । राजा ने जाना कि इनको जिज्ञासा है । इसलिए कहा कि खड़े रहने दो । इसी प्रकार फिर द्वारपाल ने जा कहा और सात दिन उन्हें खड़े ही बीत गये । तब राजा ने फिर पूछा कि शुकजी खड़े हैं कि चले गये । द्वारपाल ने कहा, खड़े हैं । राजा ने कहा, आगे ले आओ । तब वे उनको आगे ले आये । उस दरवाजे पर भी वे सात दिन खड़े रहे । फिर राजा ने पूछा कि शुकजी हैं ? द्वारपाल ने कहा कि खड़े हैं । राजा ने कहा कि अन्तःपुर में ले आओ और नाना प्रकार के भोग दो । तब वे उन्हें अन्तःपुर में ले गये । वहाँ स्त्रियों के पास भी वे सात दिन तक खड़े रहे । फिर राजा ने द्वारपाल से पूछा कि उसकी अब कैसी दशा है और आगे कैसी दशा थी ? द्वारपाल ने कहा कि आगे वे निरादर से न शोकवान् हुए थे और न अब भोग से प्रसन्न हुए, वे तो इष्ट अनिष्ट में समान है । जैसे मन्द पवन से मेरु चलायमान नहीं होता वैसे ही यह बड़े भोग व निरादर से चलायमान् नहीं हुए जैसे पपीहे को मेघ के जल बिना नदी और ताल आदि के जल की इच्छा नहीं होती वैसे ही उसको भी किसी पदार्थ की इच्छा नहीं है । तब राजा ने कहा उन्हे यहाँ ले आओ । जब शुकजी आये तब राजा जनक ने उठके खड़े हो प्रणाम किया । फिर जब दोनों बैठ गये तब राजा ने कहा कि हे मुनीश्वर । तुम किस निमित्त आये हो, तुमको क्या वाञ्छा है सो कहो उसकी प्राप्ति मैं कर देऊँ ? श्रीशुकजी बोले हे गुरो! यह संसार का आडम्बर कैसे उत्पन्न हुआ और कैसे शान्त होगा सो तुम कहो ? इतना कह विश्वामित्रजी बोले हे रामजी । जब इस प्रकार शुकदेवजी ने कहा तब जनक ने यथाशास्त्र उपदेश जो कुछ व्यास ने किया था सोई कहा । यह सुन शुकजी ने कहा कि भगवन् जो कुछ तुम कहते हो सोई मेरे पिता भी कहते थे , सोई शास्त्र भी कहता है और विचार से मैं भी ऐसा ही जानता हूँ कि यह संसार अपने चित्त से उत्पन्न होता है और चित्तके निर्वेद होने से भ्रम की निवृत्ति होती है,पर मुझको आनंद नहीं प्राप्त होता है ? जनकजी बोले, हे मुनीश्वर ! जो कुछ मैंने कहा और जो तुम जानते हो इससे पृथक उपाय न जानना और न कहना ही है । यह संसार चित्त के संवेदन से हुआ है, जब चित्त भटकाव से रहित होता है तब भ्रम निवृत्त हो जाता है । आत्मतत्त्व नित्य शुद्ध; परमानन्दरूप केवल चैतन्य है, जब उसका अभ्यास करोगे तब तुम आनंद पावोगे । तुम अधिकारी हो, क्योंकि तुम्हारा यत्न आत्मा की ओर है, दृश्य की ओर नहीं, इससे तुम बड़े उदारात्मा हो । हे मुनीश्वर! तुम मुझको व्यासजी से अधिक जान मेरे पास आये हो, पर तुम मुझसे से भी अधिक हो , क्योंकि हमारी चेष्टा तो बाहर से दृष्टि आती है और तुम्हारी चेष्टा बाहर से कुछ भी नहीं, पर भीतर से हमारी भी इच्छा नहीं है । इतना कह विश्वामित्र जी बोले, हे रामजी! जब इस प्रकार राजा जनक ने कहा तब शुकजी ने निःसंग निष्प्रयत्न और निर्भय होकर सुमेरु पर्व त की कन्दरा में जाय दशसहस्त्र वर्ष तक निर्विकल्प समाधि की चेतन का अभ्यास किया। जैसे तेल बिना दीपक निर्वाण हो जाता है वैसे ही वे भी निर्वाण हो गये । जैसे समुद्र में बूँद लीन हो जाती है और जैसे सूर्य का प्रकाश सन्ध्याकाल में सूर्य के पास लीन हो जाता है वैसे ही कलनारूप कलंक को त्यागकर वे ब्रह्मपद को प्राप्त हुए ...

प्रणाम जी

वाणी

फेर कब जुदागी पाओगे, छोड़ के हक अर्स।
बैठे खेल में पिओगे, हक इस्क का रस ।।

हे साथ जी ! इस बात पर आप विचार कीजिए कि अब आपको ऐसा अवसर कभी भी दूसरी बार नहीं मिलने वाला है, जिसमें आप परमधाम को छोड़कर वियोग का अनुभव कर सकें और इस मायावी जगत् में रहते हुए भी परमात्मा के इश्क का रस पान कर सकें।
आत्म चक्षुओं द्वारा युगल स्वरूप को अपलक देखना ही इश्क का रसपान करना है। इस अवस्था की प्राप्ति बाह्य आडम्बर और नवधा भक्ति के कर्मकाण्डों से नहीं होती, बल्कि विरह के आंसुओं में युगल स्वरूप की शोभा को दिल में बसाने से होती है...

प्रणाम जी

Wednesday, September 23, 2015

सुधार अपने अंदर साधक को स्वयं करना है

सुप्रभात जी

में देख रहा था की नदी में चन्द्रमा का प्रतिबिंब था कुछ पतंगे उड़ रहे थे वो नदी के प्रतिबिंब को ही चन्द्रमा समझ कर पानी की तरफ जा रहे थे और तड़फ  तड़फ कर प्राण त्याग रहे थे कुछ और  पतंगे आ रहे थे वो उन पतंगो को मरते हुए भी देख रहे थे पर वो भी अन्धो की भाती उस नदी में ही गिरे जा रहे थे वास्तविक चन्द्रमा को कोई नही देख पा रहा था ...

यही हाल हमारा है परमात्मा से विपरीत हो गए है आनंद परमात्मा की बजाए संसार में ढूंढ रहे है और काल के ग्रास बन कर अपने अनेक जीवन वयर्थ कर चुके है अब भी देख रहे है की लोग काल के ग्रास बन रहे है किसी को अखंड आनंद नही मिल रहा फिर भी अंधे बने हुए है ..


सुधार अपने अंदर साधक को स्वयं करना है और भूलकर भी ये न सोचो कि भविष्य में कोई दिव्य शक्ति साधना करेगी। दिव्य शक्ति को जो कुछ करना है वह स्वयं करती है। उसके किए हुए अनुग्रह को भगवदप्राप्ति के पूर्व कोई समझ नहीं सकता। यही गंदी आदत यदि तुरंत नहीं छोड़ी तो नासूर बनकर विकर्मी बना देगी और फिर उच्छृंखल होकर कहोगे सब कुछ उन्ही को करना है। इसलिए तुरंत निश्चय बदलो..

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प्रणाम जी

वाणी

सुख हक इस्क के, जिनको नाहीं सुमार।
सो देखन की ठौर इत है, जो रूह सों करो विचार।।

परमधाम में अक्षरातीत के प्रेम का अनन्त आनन्द है, किन्तु हे साथ जी ! यदि आप अपनी आत्मिक दृष्टि से विचार करें तो उन सुखों की पहचान इस जागनी ब्रह्माण्ड में ही होनी है।
परमधाम में नूरी तनों से प्रेम और आनन्द का विलास है, किन्तु इस जागनी ब्रह्माण्ड में तारतम वाणी के प्रकाश में हम अपने ज्ञान चक्षुओं से इश्क और आनन्द की मारिफत को जान सकते हैं। प्रेममयी चितवनि द्वारा अष्ट प्रहर की लीला सहित सम्पूर्ण पक्षों का साक्षात्कार भी कर सकते हैं और उस अवस्था की प्राप्ति कर सकते हैं जिसमें आत्मा और परात्म में भेद नहीं रह जाता...

प्रणाम जी

Tuesday, September 22, 2015

आडम्बर

सुप्रभात जी

परब्रह्म की आत्मा इन पवित्र आत्माओं का दिल  अति पवित्र होता है। उनमें नाममात्र के लिये भी संशय जैसी कोई वस्तु नहीं होती है। वे ऊपर से किसी प्रकार का आडम्बर युक्त दिखावा नहीं करती। वे अपने दिल में अपने प्राणप्रियतम के अतिरिक्त अन्य किसी भी वस्तु को रंचमात्र भी नहीं बसाती।
हृदय में ज्ञान, भक्ति एवं विनम्रता से रहित व्यक्ति यदि मनोविकारों से ग्रसित रहे तथा मात्र अपनी धार्मिक वेशभूषा से सब पर अपना प्रभुत्व (रोब) दर्शाया करे, तो उसे आडम्बरी कहते हैं। ऐसे लोग बड़े-बड़े तिलक, माला, दाढ़ी या रंगे हुए वस्त्रों को ही धर्म का स्वरूप मानते हैं, जबकि वे धर्म के वास्तविक स्वरूप से कोशों दूर होते है।

प्रणाम जी

रास का रहस्य

ता पीछे आये रास में, इण्ड जोगमाया जाग्रत।
जहां विरह विलास दोऊ, देख के फिरे इत।।
(श्री बीतक)

 अक्षरातीत योगमाया के जागृत ब्रह्माण्ड में आये। वहाँ उन्होंने अपनी अंगरूपा आत्माओं के साथ महारास की लीला की। इसमें सखियों ने विरह तथा प्रेम के विलास का प्रत्यक्ष अनुभव किया। इसके पश्चात् धाम धनी अपनी आत्माओं के साथ पुनः परमधाम आ गये।
भेद--
आनन्द योगमाया (केवल ब्रह्म) के ब्रह्माण्ड में महारास की लीला हुई, जो परमधाम तथा कालमाया दोनों से भिन्न था।
एह सरूप ने एह वृन्दावन, एह जमुना त्रट सार।
घरथी तीत ब्रह्माण्डथी अलगो, ते तारतमे कीधो निरधार।। रास 10/36
अक्षरातीत ने अक्षरब्रह्म को परमधाम की लीला दिखाने के लिये अपने आवेश द्वारा महारास की लीला की।
फेर मूल सरूपें देख्या तित, ए दोऊ मगन हुए खेलत।
जब जोस लियो खेंच कर, तब चित्त चौंक भई अछर।। प्र.हि. 37/42
कौन बन कौन सखियां कौन हम, यों चौंक के फिरी आतम।
मूल स्वरूप अक्षरातीत ने जब श्रीकृष्ण जी के तन से अपना जोश खींचा तो अक्षरब्रह्म को यह पता चला कि मैं परमधाम में नहीं, बल्कि अपने ही योगमाया के ब्रह्माण्ड में धनी की प्रेममयी लीला देख रहा हूँ।
इस अवस्था में सखियों को भी श्रीकृष्ण जी का तन नहीं दिखायी दिया। पुनः धनी के द्वारा जोश दिये जाने पर लीला प्रारम्भ हुई तथा सबकी इच्छा को पूर्ण कर वे परमधाम वापस ले गये।

प्रणाम जी

Monday, September 21, 2015

मैं शुद्धात्मा हूँ

सुप्रभात जी

व्यासदेव यमुना पार कर रहे थे। वहाँ गोपियाँ भी थीं। वे भी पार जाना चाहती थीं, दही, दूध, मक्खन बेचने के लिए। वहाँ नाव न थी। सब सोचने लगे, कैसे पार जाएँ। इसी समय व्यासदेव ने कहा, ‘मुझे बड़ी भूख लगी है।’ तब गोपियाँ उन्हें दही, दूध, मक्खन, रबड़ी सब खिलाने लगीं। व्यासदेव लगभग सब साफ कर गए। फिर व्यासदेव ने यमुना से कहा, ‘यमुने, अगर मैंने कुछ भी न खाया हो, तो तुम्हारा जल दो भागों में बँट जाए। बीच से राह हो जाए और हम लोग निकल जाएँ।’ ऐसा ही हुआ। यमुना के दो भाग हो गए। उस पर जाने की राह बीच से बन गई। इसी रास्ते से गोपियों के साथ व्यासदेव पार हो गए’’  ‘‘मैंने नहीं खाया, इसका अर्थ यही है कि मैं वही शुद्धात्मा हूँ। शुद्धात्मा निर्लिप्त है, प्रकृति के परे है। उसे न भूख है, न प्यास। न जन्म है, न मृत्यु। वह अजर, अमर और सुमेरुवत है। जिसे यह ज्ञान हुआ, ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति हुई, वही जीवनमुक्त है। वह ठीक समझता है कि आत्मा अलग है, देह अलग। परमात्मा के का बोध होने पर देहात्म बुद्धि नहीं रह जाती।’’
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(पृष्ठ ५३-५४, रामकृष्ण वचनामृत, तृतीय)

प्रणाम जी

ब्रह्मज्ञान

अक्षरातीत नूरजमाल , ए तरफ जाने अछर नूर ।

एक या बिना त्रैलोक को , इन तरफ की न काहू सहूर ।। (श्रीमुख वाणी- सि. २/५४)

अर्थात् एकमात्र अक्षर ब्रह्म ही पूर्णब्रह्म अक्षरातीत (नूरजमाल) के विषय में जानते हैं । उनके अतिरिक्त सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को अक्षरातीत की कोई भी जानकारी नहीं है । अतः पूर्ण ब्रह्म का विषय अति गोपनीय है तथा तारतम ज्ञान के बिना उन्हें नहीं जाना जा सकता है ।

उस तेजोमय कोश में तीन अरे (अक्षर ब्रह्म, पूर्ण ब्रह्म तथा आनन्द अंग) तीन (सत् चित् आनन्द) में प्रतिष्ठित हैं । उसमें जो परम पूज्यनीय तत्व, परमात्मस्वरूप हैं, उसका ही ब्रह्मज्ञानी लोग ज्ञान किया करते हैं । (अथर्ववेद १०/२/३२)

प्रणाम जी

Sunday, September 20, 2015

ब्रह्म मुनि

सुप्रभात जी

ब्रह्म मुनि सुन्दरसाथ
अभाविनो भविष्यन्ति मुनयो ये ब्रह्मरूपिण:
उत्पन्ना: ये कलौयुगे प्रधान पुयषाश्रया:।
कथायोगेन तान्सर्वान्पुजयिश्यन्ति मानवा:
यस्य पुजा प्रभावेण जीव सृष्टि: समुद्धर:।।
हरिवंश पुराण भविष्य पर्व अ.४

अर्थात कलियुग में कभी भी न प्रगट होने वाले वे ब्रह्मस्वरूप मुनि प्रगट होंगे, जो प्रधान पुरुष अक्षरातीत के आश्रय में ही रहेंगे ।
उनके द्वारा ब्रह्मज्ञान रूपी कथायोग का श्रवण करके सभी मनुष्य उनकी पूजा करेंगे। उस पूजा के प्रभाव से संपूर्ण जीवसृष्टि का उद्धार होगा...

प्रणाम जी

संसार की रचना

इत अछर को विलस्यो मन, पांच तत्व चौदे भवन ।

यामें महाविष्णु मन, मन थें त्रैगुन, ताथें थिर चर सब उतपन ।। (श्रीमुख वाणी- प्र. हि. ३७/२४)

इस मोह सागर के अन्दर अक्षर ब्रह्म के मन के स्वरूप अव्याकृत के मन ने प्रवेश किया, जिसके कारण यह पाँच तत्व तथा चौदह लोक का ब्रह्माण्ड बना । इसमें अव्याकृत का मन के स्वरूप महाविष्णु (क्षर पुरुष) बने और फिर इस के तीन गुणों से सदाशिव, ईश्वर, ब्रह्मा, विष्णु और शिव उत्पन्न हुए और उनसे ही यह सारा संसार बना है ।

नारायण की नाभि से कमल निकलता है और उससे ब्रह्मा प्रकट होते हैं । वह ब्रह्मा वेदों के सर्वश्रेष्ठ ज्ञाता कहलाते हैं और संसार रूपी वृक्ष के बीज हैं । अहंकार को ही नाभि कहा गया है। कमल की नाल इच्छा शक्ति और कमल का फूल उनके मन का प्रतीक है । आदि नारायण के मन में जब यह इच्छा हुई कि मै अनेक हो जाऊँ, तो उससे अहंकार उत्पन्न हुआ, जिससे सभी देव, जीव और यह मिटने वाला संसार खड़ा हुआ ।

कालमाया के ब्रह्माण्ड में द्वैत की लीला है अर्थात् जीव (नारायण, त्रिदेव, देवी-देवता, मनुष्य, अन्य चराचर प्राणी) तथा प्रकृति (माया) की लीला है । इसमें जन्म-मरण , सुख-दुःख का चक्र चलता रहता है । अहंकार रूपी कड़ी जब तक नहीं छूटती, तब तक संसार झूठा होते हुए भी सच्चा लगता है और उसे कोई छोड़ना नहीं चाहता । जब तक जीव का अहंकार नष्ट नहीं होगा तब तक आवागमन का चक्र समाप्त नहीं हो सकता । अतः नारायण से लेकर जीवों तक यह सारी सृष्टि मोह (अज्ञान) रूप है । ब्रह्मज्ञान (तारतम) व प्रेम का मार्ग पकड़कर ही इस भवसागर को पार किया जा सकता है ।

जिसका प्रतिदिन क्षरण हो, उसे ही क्षर कहते हैं । इस क्षर ब्रह्माण्ड को ही हद , कालमाया , मोह जल , भवसागर , आदि नामों से भी जाना जाता है । जिस प्रकार नींद टूटने पर सपना टूट जाता है तथा स्वप्न के सभी दृश्य समाप्त हो जाते हैं , उसी प्रकार अक्षर ब्रह्म के मन (अव्याकृत) का स्वप्न टूटते ही सम्पूर्ण जगत महाप्रलय में लीन हो जाता है ।

प्रणाम जी

Saturday, September 19, 2015

धर्मग्रन्थोंके सिद्धान्त

सास्त्र ले चले सतगुरु सोई, वानी सकलको एक अरथ होई ।
सब स्यानोंकी एक मत पाई, पर अजान देखे रे जुदाई ।।

धर्मग्रन्थोंके प्रमाणभूत सिद्धान्तोंके अनुरूप चलने वाले ही सद्गुरु हो सकते हैं.जो सब ग्रन्थों में एक परमात्मा विषय बताते हैं..कयोंकी सब धर्मग्रन्थोंकी वाणी समान अर्थ धारण करती है (अर्थात् एक ही पूर्णब्रह्म परमात्माकी ओर संकेत करती है). वास्तवमें सब ज्ञाानीजनोंका अभिप्राय भी एक है, किन्तु धर्मग्रन्थोंके सिद्धान्तोंको न समझने वाले अज्ञाानीजन उनमें भिन्नता देखते हैं.

प्रणाम जी

Friday, September 18, 2015

तत्व ज्ञान की सबसे पहली सीढ़ी

सुप्रभात जी

तत्व ज्ञान की सबसे पहली सीढ़ी है इस बात का चिंतन करना "मैं नित्य चेतन आत्मा हूँ। शरीर नहीं हूँ"। आपने अपने को देह मान लिया है। बस यहीं से सारी गड़बड़ शुरू होती
है। जैसे गणित में यदि पहले कदम पे ही गलती हो जाये तो फिर आगे गलती होती ही जाती है। इसी प्रकार स्वयं को शरीर मान लेने से हम गलत दिशा में चलते जाते हैं। अत: सदा सावधान रहो एवं नित्य अभ्यास करो। हम शरीर नहीं आत्मा हैं।

पेहेले आप पेहेचानो रे साधो, पेहेले आप पेहेचानो ।
बिना आप चीन्हें पार ब्रह्मको, कौन कहे मैं जानो।।

प्रणाम जी

परमात्मा को अपने हृदय मे ...

हकें अर्स किया दिल मोमिन, ए मता आया हक दिल से।
हकें दिल दिया किया लिख्या, हाए हाए मोमिन डूब न मुए इनमें।।

श्री परमात्मा ने ब्रह्मसृष्टियों के हृदय को अपना धाम बनाया है। तारतम का यह सम्पूर्ण ज्ञान भी परमात्मा के दिल से ही मेरे दिल (हृदय) में आया है।सभी धर्म ग्रन्थों  में परमात्मा ने कहलाया है कि मैंने अपनी अंगनाओं को अपना दिल दे दिया है और उनके हृदय को अपना धाम बनाकर उसमें विराजमान हो गया हूं। फिर भी हम परमात्मा को बाहर ढूंड रहे है..

परब्रह्म के प्रेम के सम्बन्ध में ऋग्वेद 8/92/32 में इस प्रकार का वर्णन है- "वयं तव, त्वम् अस्माकम्" अर्थात् हे परब्रह्म !’’ हम तुम्हारे हैं और तुम हमारे हो।
इसी प्रकार कुरआन-हदीस में "क़ल्ब-ए-मोमिन अर्श अल्लाह’’ कहा गया है, जिसका अर्थ है "ब्रह्ममुनि का हृदय ही परब्रह्म का निवास स्थल है।"
अपना दिल देने के सम्बन्ध में क0 हि0 1/5 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि-
मासूकें मोहे मिलके, करी सो दिल दे गुझ।
कहे तूं दे पड़ उत्तर, जो मैं पूछत हो तुझ।।
इसी प्रकार ‘’ परमात्मा ने आत्मांओ को अपना प्राण प्रियतम भी कहा है’’-
प्रीतम मेरे प्राण के, अंगना आतम नूर।
मन कलपे खेल देखते, सो ए दुख करूं सब दूर।। क0 हि0 23/17
‘’यह आत्म चिन्तन की घड़ी है कि अक्षरातीत हमसे कितना प्रेम करते हैं और प्रत्युत्तर में हम उनसे कितना प्रेम करते हैं,’’ सम्भवत: हमारे लिये यह स्थिति लज्जा से डूब मरने वाली है। की हम परमात्मा को अपने हृदय से अलग कहीं ढूंड रहे हैं...

प्रणाम जी

Thursday, September 17, 2015

आध्यात्मिक उन्नति

सुप्रभात जी


प्रश्न :मैंने बहुत सारा आध्यात्मिक साहित्य पढ़ रखा है ,मुझे पूछने हेतु कोई प्रश्न ,संशय ,जिज्ञासा भी नहीं है .किन्तु साधना ,ध्यान आदि में प्रगति नहीं हो रही है ,बौद्धिक ज्ञान होने के बाद भी कोई स्थिति नहीं बन रही है.,परिवर्तन,शांति ,आनंद ,प्रेम का आभाव है.
उत्तर : बुद्धि से अध्यात्म को समझ लेना आसान है ,क्योंकि आज का व्यक्ति बुद्धि प्रधान है.अध्यात्म का सम्बन्ध 'साधना ' से है.
किन्तु 'ध्यान साधना ' में तब तक प्रगति नहीं हो सकती ,जब तक वैराग्य नहो .
जब तक संसार के प्रति सत्यत्व बुद्धि है ,तब तक परमात्मा में ,आत्मा में सत्यत्व बुद्धि नहीं हो सकती है.
संसार भी सत्य लग रहा है और परमात्मा भी ,यह नहीं हो सकता है .जब तो संसार की कोई भी मांग है ,चाह है ,परमात्मा
नहीं मिलेगा .इसलिए गीता में कहा है कि -"अभ्यास और वैराग्य " से उसे पाया जाता है.ब्रह्म सत्य ,जगत मिथ्या .
एक दिन मृत्यु आना है ,तो मानसिक रूप से अभी क्यों न मर जाएँ .संसार के प्रति मरना होगा.तभी 'वह ' मिलेगा.
जगत का मन से त्याग कर दें .तभी आध्यात्मिक उन्नति होगी .

प्रणाम जी
तान तीखे ग्यान इलम के, दुन्द भमरियां अकल।
बहें पंथ पैंडे आड़े उलटे, झूठ अथाह मोह जल।।

यह झूठा अथाह मोहजल का सागर है, जिसमें शुष्क-शाब्दिक ज्ञान (इल्म) के तीखे बहाव हैं। निरर्थक तर्कों से भरी संशयात्मिका बुद्धि रुपी खतरनाक भंवरें हैं, जिनमें कभी भी डूबने का खतरा बना रहता है। इस मोहमयी भवसागर में सभी पन्थ पैंडे (सम्प्रदाय) में फस कर उल्टे और आड़े बहाव में बह रहे हैं...सत्य मार्ग पे चलने वाला कोइ बिरला ही जीव दिखने को मिलता है...

प्रणाम जी

Wednesday, September 16, 2015

विवेक धारण



मिथ्या में सत्य को जान लेना, नश्वर में शाश्वत को खोज लेना, आत्मा को पहचान लेना तथा आत्मामय होकर जीना यही विवेक है । इसके अतिरिक्त अन्य सभी मजदूरी है, व्यर्थ बोझा उठाना और अपने आपको मूढ़ सिद्ध करने जैसा है । ऎसा विवेक धारण कर अपने आपको      आध्यात्मिक मार्ग पर चला दें तो सभी कुछ उचित हो जाये, जीवन सार्थक हो जाये । अन्यथा कितने ही गद्दी-तकियों पर बैठिए, अथवा जनता के सम्मुख ऊँचे मंच पर बैठकर अपनी नश्वर देह और नाम की जयजयकार करवा लीजिए परंतु अंत में कुछ भी हाथ न लगेगा ।
आप जहाँ के तहाँ ही रह जायेंगे । आयु बीत जायेगी और पछतावे का पार न रहेगा । जब मौत आयेगी तब जीवन भर कमाया हुआ धन, परिश्रम करके पाये हुए पद-प्रतिष्ठा, लाड़ से पाला-पोसा यह शरीर निर्दयतापूर्वक साथ छोड़ देगा । आप खाली हाथ रोते रहेंगे, बार-बार जन्म-मरण के चक्कर में घूमते रहेंगे । इसीलिए केनोपनिषद के ऋषि कहते हैं :

इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति ।
न चेदिहावेदीन महती विनष्टिः ॥

’यदि इस जीवन में ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर लिया या परमात्मा को जान लिया, तब तो जीवन की सार्थकता है और यदि इस जीवन में परमात्मा को नहीं जाना तो महान विनाश है ।’ (केनोपनिषद : २.५)
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प्रणाम जी

नयन

जब खैंचत भर कसीस, तब मुतलक डारत मार ।
इन विध भेदत सब अंगों, मूल तन मिटत विकार ।।

परमात्मा जब नयनो से प्रेम भरे इशारे कर रूह को बुलाते है तो नयनो मे समाए असीम प्रेम को रूह महसूस करती है ! उनके प्रेम के बानो मे चंचलता चपलता देखते ही बनती है ! परमात्मा जिसे नज़र भर निहार ले तो वो रूह तो उनके इश्क मे डूब जाती है ! रूह जब ध्यान मे हक नयनो को देखती है तो वो नयनो के सोंद्रय उनकी जोती मे उनके असीम प्यार मे डूब जाती है तो इस सरीर के मोह अहंकार से रहित हो जाती है ! परमात्मा के नयनो से अपने नयन जब रूह मिलाती है तो प्यारी रूह प्रेम और मस्ती मे गर्क हो जाती है !

प्रणाम जी

Tuesday, September 15, 2015

संत विचार

सुप्रभात जी

ज्ञानप्राप्ति का उपाय

सुख भोग की तज कामना, साधक सद्गुरु शरण में जाये
उनके उपदेशों को सुन कर, मुक्ति के लिए करे उपाय

सत्य आत्मा में स्थित हो, योग में हो आरूढ़ रहे
डूब रहा जो भवसागर में, स्वयं का स्वयं उद्धार करे

व्यर्थ चेष्टा तज दे सारी, एक साधना में तत्पर हो
भव बंधन से पानी मुक्ति, लक्ष्य सदा सम्मुख हो

कर्म से होती चित्त की शुद्धि, ज्ञान नहीं होता कर्मों से
‘तत्व’ विचार से ही मिलता है, न क्रियाकांड के धर्मों से

रज्जु में सर्प भ्रम हो गया, अति दुःख जो देने वाला
विचार किये से ही छूटेगा, स्वयं को जिस बंधन में डाला

ज्ञान से ही भ्रम दूर हो सके, स्नान, दान जितने कर ले
दृढ विचार से दुःख मिटता है, प्राणायाम भी कितने कर ले
 
प्रणाम जी

परमात्मा के नयन कैसे है

भृकुटी स्याम सोभा लिए, चूभ रेहेत रूह अंदर 7/14सिंगार
जोत धरत कै जुगतें, निहायत मान भरे ।
लज्या लिए पल पापन, आनंद सुख अगरे ।।8/14 सिंगार

परमात्मा के नयन कैसे है

 इश्क रस से भरे रूह को आनंद देने वाले है और जब परमात्मा अदा से नयन घुमाते है तो रूह को मीठे लगते है !
तेजोमई तारो से शोभित परमात्मा के नयन कमलो मे कई सुख है आनंद है ! परमात्मा जब अपने तिरछे नयनो से अपनी प्यारी रूह को निहारते है तो प्रेम रूपी बाण से रूह घायल हो उन पर सब अंगो कुर्बान हो जाती है !
परमात्मा के नयन अति सुन्‍दर है  रूहो पर मेहरबान है और उनकी काली काली भौंहो से तो प्यारी रूह निकल ही नही पाती!
परमात्मा नेनन के तारो पुतलियो बरोनियो मे तेज है और इस तेज मे उल्लास की चमक है इश्क ही इश्क की जोति है ! इनमे मान है जब  रूह एक कदम बड़ा मासूक परमात्मा की और जाती है उनके नयनो को निहारती है तो वे अपने दिल का सारा प्रेम आशिक रूह पर लूटा देते है ! उनकी पलको की बरोनियो मे लज्जा समाई है ...

प्रणाम जी

वास्तविक ब्रह्ममुनि



वास्तविक ब्रह्ममुनि वही है, जो चौदह लोकों के इस ब्रह्माण्ड से अलग हो जायें। परमधाम में विराजमान अपने प्राणवल्लभ को छोड़कर अन्य सांसारिक वस्तुओं के मोह का पूर्णतया परित्याग कर दें।

पृथ्वी, स्वर्ग तथा बैकुण्ठ आदि लोकों के भोग नश्वर हैं, और माया के बन्धन में बांधने वाले हैं, ऐसा जानकर जो इनकी स्वप्न में भी कामना न करे और सभी प्रकार की तृष्णाओं (लोकेषणा, वित्तेषणा तथा दारेषणा) का परित्याग कर दे, तो ऐसा कहा जा सकता है कि उसने इस संसार में रहते हुए भी चौदह लोकों के ब्रह्माण्ड का परित्याग कर दिया है (उड़ा दिया है)। ऐसे व्यक्ति के हृदय में मात्र परमात्मा की ही छवि अखण्ड रूप से बसी होती है।

प्रणाम जी

Sunday, September 13, 2015

सुप्रभात जी

 जो भी परमधाम की ब्रह्मसृष्टि हो, वह अपने दिल में परमात्मा का प्यार लेकर उनसे मिलन करे अर्थात् उनका दीदार करके अपने धाम हृदय में उन्हें बसाये। परमात्मा की यह वाणी हृदय में परमधाम के ज्ञान का उजाला करने वाली है। आप सभी सावचेत हो जाइए ताकि इस अलौकिक ज्ञान को पाकर भी जागृत होने का स्वर्णिम अवसर न गंवा सकें।

प्रणाम जी

पाँचों इन्द्रियोंको धिक्कार है

धिक धिक मेरी पांचो इन्द्री, धिक धिक परो मेरी देह ।
श्री स्याम सुन्दर वर छोडके, संसारसों कियो सनेह ।।

मेरी पाँचों इन्द्रियोंको धिक्कार है, मेरे शरीरको भी धिक्कार है क्योंकि श्याम सुन्दर जैसे सर्वगुण सम्पन्न वर (परमात्मा) को छोड.कर इन्होंने इस कुटिल संसारसे स्नेह किया.
अर्थात सत्ये प्रमातमा को छोड के झूठे संसार से मोह किया... मानव देह मिला, सतगुरु परमात्मा मिले, संसार से प्रथक हो गये, इतनी कृपा तो करोड़ों जीवों में से किसी एक को भी नहीं मिलती। अत: क्षण-क्षण सावधान रहो..

प्रणाम जी

Saturday, September 12, 2015

भविष्योत्तर पुराण से

सुप्रभात जी

भविष्योत्तर पुराण

ब्रह्मा जी ने कहा- हे नारद ! भयंकर कलियुग के आने पर मनुष्य का आचरण दुष्ट हो जाएगा और योगी भी दुष्ट चित्त वाले होंगे । संसार में परस्पर विरोध फैल जायेगा । द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) दुष्ट कर्म करने वाले होंगे और विशेषकर राजाओं में चरित्रहीनता आ जायेगी । देश-देश और गांव-गांव में कष्ट बढ़ जायेंगे । साधू लोग दुःखी होंगे । अपने धर्म को छोड़कर लोग दूसरे धर्म का आश्रय लेंगे । देवताओं का देवत्व भी नष्ट हो जायेगा और उनका आशीर्वाद भी नहीं रहेगा । मनुष्यों की बुद्धि धर्म से विपरीत हो जायेगी और पृथ्वी पर म्लेच्छों के राज्य का विस्तार हो जायेगा ।

जब हिन्दू तथा मुसलमानों में परस्पर विरोध होगा और औरंगज़ेब का राज्य होगा, तब विक्रम सम्वत् १७३८ का समय होगा । उस समय अक्षर ब्रह्म से भी परे सच्चिदानन्द परब्रह्म की शक्ति भारतवर्ष में इन्द्रावती आत्मा के अन्दर विजयाभिनन्द बुद्ध निष्कलंक स्वरूप में प्रकट होगी । वह चित्रकूट के रमणीय वन के क्षेत्र (पद्मावतीपुरी पन्ना) में प्रकट होंगे । वे वर्णाश्रम धर्म (एक आनंदस्वरूप बृह्म कीउपासना) की रक्षा तथा ह्रदय मे ही मंदिरों की स्थापना कर संसार को प्रसन्न करेंगे । वे सबकी आत्मा, विश्व ज्योति पुराण पुरुष पुरुषोत्तम हैं । म्लेच्छों का नाश करने वाले बुद्ध ही होंगे और श्री विजयाभिनन्द नाम से संसार में प्रसिद्ध होंगे । (उ.ख.अ. ७२ ब्रह्म प्र.)

वह परब्रह्म पुरुष निष्कलंक दिव्य घोड़े पर (परमधाम की आत्मा पर) बैठकर, निज बुद्धि की ज्ञान रूपी तलवार से इश्क बन्दगी रूपी कवच और सत्य रूपी ढाल से युक्त होकर, अज्ञान रूपी म्लेच्छों के अहंकार को मारकर सबको जागृत बुद्धि का ज्ञान देकर अखण्ड करेंगे । (प्र. ३ ब. २६ श्लोक १)

प्रणाम जी

प्रेम

तारतम वाणी के प्रकाश में अपनी 'मैं’ का परित्याग करके जो परमात्मा को अपना सर्वस्व समर्पित कर देता है और उनके प्रेम में डूब जाता है, उसके धाम हृदय में अक्षरातीत की शोभा अखण्ड रूप से विराजमान हो जाती है।
इन ब्रह्मसृष्टियों का मूल स्वभाव प्रेम से भरपूर होता है। ये परमात्मा को अपने प्रेम से रिझाने के लिये अवसर खोजा करती हैं। इनके अन्दर प्रेम के अतिरिक्त और कुछ होता ही नहीं है।
परमधाम में इन ब्रह्मसृष्टियों के द्वारा किसी बात को सुनने में भी प्रेम भरा होता है। जब ये अपने मुख से कुछ कहती हैं तो उसमें भी प्रेम का रस टपकता है।

प्रणाम जी

Friday, September 11, 2015

वेद से परमात्मा विषय


सुुप्रभात जी

ऋग्वेद 10.49.1

केवल एक परमात्मा ही सत्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करने वालों को सत्य ज्ञान का देने वाला है । वही ज्ञान की वृद्धि करने वाला और  धार्मिक मनुष्यों को श्रेष्ठ कार्यों में प्रवृत्त करने वाला है । वही एकमात्र इस  सारे संसार का रचयिता और नियंता है । इसलिए कभी भी उस एक परमात्मा को छोड़कर और किसी की भी उपासना नहीं करनी चाहिए ।

यजुर्वेद 13.4

सारे संसार का एक और मात्र एक ही निर्माता और नियंता है । एक वही पृथ्वी, आकाश और सूर्यादि लोकों का धारण करने वाला है । वह स्वयं आनंदस्वरूप है । एक मात्र वही हमारे लिए उपासनीय है ।

प्रणाम जी

अनुभव

बुध तुरिया दृष्ट श्रवना , जेती गम वचन ।

उतपन सब होसी फना , जो लो पोहोंचे मन ।।   (श्रीमुख वाणी- कि. २७/१६)

बुद्धि, चित्त, मन, दृष्टि, श्रवण और वाणी की पहुँच से वह परब्रह्म सर्वथा परे हैं । यह उत्पन्न होने वाला सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड ही नश्वर है । इसलिए यहाँ की किसी भी वस्तु से उस परम तत्व को कहा नहीं जा सकता है ।  
(वह बृह्म केवल अनुभव का विषय है जो केवल बृह्मआत्मा दृष्टित जीवो को ही सुलभ है बाकी जीव तो केवल उसके नाम रूप पे ही झगडते हैं)

प्रणाम जी

Thursday, September 10, 2015

ध्यान का उद्देश्य क्या है ?

सुप्रभात जी

प्रश्न : ध्यान का उद्देश्य क्या है ?
उत्तर : ध्यान का उद्देश्य एक ऐसे 'आनंद ' की प्राप्ति है ,जो कभी नष्ट न होता है ,जो हमारा आत्म स्वभाव है .
'आनंद' की प्राप्ति में दुखों का नाश छिपा हुआ है अर्थात दुखों की आत्यंतिक निवृति होना .
'आनंद ' हमारा स्वभाव है ,स्वरूप है .आत्मा आनंद स्वरूप है .
सुख-दुःख मन के अंतर्गत हैं ,आनंद और आत्मा मन के परे हैं .
अतः मन की किसी क्रिया द्वारा आत्मा के आनंद को नहीं पाया जा सकता है.
ध्यान मन का अतिक्रमण है ,ध्यान मन से मुक्ति है ताकि मन के अतीत आत्मा के आनंद को पाया जा सके .
ध्यान मन की कोई क्रिया नहीं है ,अपितु मन की अक्रिय अवस्था को ध्यान कहते है .मन की अक्रिय जागरूक अवस्था ध्यान
है .satsangwithparveen.blogspot.com
एकाग्रता ,पूजा -पाठ ,मंत्र जाप ,त्राटक ,चक्र व कुण्डिलिनी जागरण ये सभी ध्यान नहीं है ,ये सभी मन की क्रियाएँ हैं.
मन की क्रिया द्वारा मन का अतिक्रमण संभव नहीं है .क्योंकि प्रत्येक मन की क्रिया में मन व अहम उपस्थित रहेगा .
जब मन की कोई क्रिया नहीं है अर्थात आप कुछ नहीं कर रहे है सिर्फ जागरूक हैं ,साक्षी है ,विश्रांत हैं ,मात्र होनापन है
यह है 'ध्यान '.आप न तो एकाग्रता कर रहे है ,न मंत्र जाप कर रहे हैं ,न त्राटक,न पूजा पाठ ,न चक्र या कुण्डिलिनी जागरण
आप मात्र मन के साक्षी हैं ,दृष्टा है ,मात्र "आप हैं " -यह है ध्यान . ध्यान का आपका स्वरूप है ,आप आनंद स्वरूप है.
satsangwithparveen.blogspot.com
प्रणाम जी

परमात्मा का घर कैसा है

अछरातीत के मोहोल में , प्रेम इस्क बरतत ।
सो सुध अक्षर को नहीं , जो किन विध केलि करत ।।

अक्षरातीत परब्रह्म के रंगमहल में अनन्य प्रेम (इश्क) की सर्वदा ही लीला होती रहती है । अक्षरातीत अपनी प्रियाओं (आत्माओं) से किस प्रकार प्रेम की लीला करते हैं, इसकी जानकारी अक्षर ब्रह्म को भी नहीं थी ।
परमधाम भी अक्षरातीत परमात्मा के समान नूरमयी, मनोहारिणी व अत्यधिक प्रकाशमान है । वहाँ प्रत्येक वस्तु में चार गुण हैं- चेतनता, नूर (तेज), कोमलता और सुगन्धि । वहाँ की हर वस्तु अक्षरातीत का ही स्वरूप है, उन्हीं के समान चेतन और उनकी प्रेम की लीला में भली प्रकार सम्मिलित होती है । प्रत्येक वस्तु प्रेम और आनन्द के रस से ओत-प्रोत  है ।
(सिर्फ समझाने के लिय शब्दों का प्रयोग किया गया है वास्तव मे तो कुछ और ही है...वहां का आनंद तो शब्दातीत है...याहां के शब्दो में ऐसा कह सकते हैं)

प्रेम प्रणाम जी

Wednesday, September 9, 2015

सुप्रभात जी

आनन्दस्य कुलं प्राप्तं नित्येधाम्नी प्रकिर्तितम । सम्प्रदायश्चिदानन्दो निजानंदै: प्रकाशित: ।। श्री माहे०तं०


सम्पूर्ण चौरासी लाख योनी के प्रमुख श्रोत जीवात्मा (आदि नारायण) से बलवान अक्षर ब्रह्म है क्योंकि इन के द्वारा नारायण की उत्पति हुइ है। अव्यक्त कूतस्थ अक्षर ब्रह्म से परे परमपुरुष परब्रह्म परमात्मा अक्षरातीत हैं । उन से परे कुछ भी नहिं है, वही सब की परम अवधि और परमगति भी है .

प्रणाम जी
दिल मजाजी दुनी का, इत अबलीस पातसाह।
सो औरों दुस्मन और आपका, मारत सबकी राह।।

संसार के जीवों का दिल झूठा होता है। उसमें शैतान इब्लीश की बादशाही होती है। वह संसार के सभी प्राणियों और स्वयं का भी शत्रु है। उसका कार्य ही सबको अज्ञानता के अन्धकार में भटकाना है।
इब्लीश (शैतान) कोई व्यक्ति नहीं है, बल्कि अज्ञान को ही शैतान कहा जाता है। हिन्दू धर्म ग्रन्थों में इसे ‘कलि’ की संज्ञा दी जाती है। सत्य ज्ञान से रहित होने के कारण संसार के जीव विषय-वासनाओं की तृष्णा में भटकते रहते हैं, इसलिये उनके दिल को झूठा दिल कहते है..

प्रणाम जी

Tuesday, September 8, 2015

गीता 7/5,6

गीता ...'जो कुछ भी सत्त्व, रजस, तमस भाव हैं वे सब मुझसे (परमात्मा से) ही प्रवृत्त होते हैं। मैं उनमें नहीं बल्कि वे मुझमें हैं। इन त्रिगुणों (बृह्मा ,विष्णु ,महेश)से मोहित हुआ यह जगत मुझे अविनाशी को नहीं जानता। इस दैवी गुणमयी मेरी माया के जाल से निकलना कठिन है। जो मुझ को जान लेते हैं वे इस जाल से निकल जाते हैं .

Monday, September 7, 2015

ब्रह्मसृष्टियां

सुप्रभात जी

ब्रह्मसृष्टियां परमधाम में रहती हैं और ईश्वरी सृष्टि योगमाया के ब्रह्माण्ड (सत्स्वरूप) में रहती है। तीसरी जीव सृष्टि का निवास बैकुण्ठ में होता है।  संसार में रहने वाली जीव सृष्टि कर्मकाण्ड की भक्ति को ही अपना सर्वोपरि कर्तव्य मानती है। ईश्वरी सृष्टि ज्ञान युक्त प्रेम मार्ग (हकीकत की बन्दगी) भक्ति की राह अपनाती है। ब्रह्मसृष्टियां ज्ञान-विज्ञान युक्त अनन्य प्रेम-लक्षणा भक्ति (हकीकत-मारिफत के इश्क) की राह अपनाती हैं।

शरीर एवं इन्द्रियों से की जाने वाली भक्ति कर्मकाण्ड के अन्तर्गत मानी जाती है। शुद्ध ज्ञान की राह पर चलते हुए ध्यान मार्ग का अवलम्ब करना हकीकत की बन्दगी हैं। परब्रह्म के अनन्य प्रेम का अनुसरण करते हुए उसकी शोभा में डूब जाना ब्रह्मसृष्टियों की राह है।

प्रणाम जी

दिल अरस मोमिन कह्या, जामें अमरद सूरत।
छिन ना छूटे मोमिनसे, मेहेबूब की मूरत।।

ब्रह्मात्माओंके हृदयको ही परमधाम कहा गया है. क्योंकि उसमें नूरी स्वरूप परब्रह्म परमात्मा विराजमान हैं वे परमात्मा के स्वरूप को मुरदार दुनीया से भिन्न जान जाती है . इसलिए ब्रह्मात्माओंके हृदयसे क्षण मात्रके लिए भी प्यारे परमात्माका स्वरूप दूर नहीं होता...

प्रणाम जी

Sunday, September 6, 2015

सुप्रभात जी

परमात्मा से प्रेम की सेना बहुत बड़ी है। जब यह अपने समर्पण रूपी मूल आयुध के साथ माया के ऊपर आक्रमण कर देती है, तो माया की कोई भी शक्ति उसे हरा (पकड़) नहीं सकती।
प्रेम आत्मा के ऊपर माया के किसी भी प्रभाव को आने नहीं देता। वह धनी के अतिरिक्त अन्य किसी को भी नहीं देखता अर्थात् हृदय में प्रेम आते ही परमात्मा के अतिरिक्त अन्य कुछ भी (शरीर, संसार) नहीं दिखायी देता... है। प्रेम सदा ही अपने साथ प्रियतम परमात्मा को रखता है...

प्रणाम जी

Friday, September 4, 2015

श्रेष्ठ

सुप्रभात जी

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते
मनसा स्मरन् ।
इन्द्रियार्थान्
विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥

भावार्थ : जो मूढ़ बुद्धि मनुष्य समस्त
इन्द्रियों को हठपूर्वक ऊपर से रोककर मन
से उन इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन
करता रहता है, वह मिथ्याचारी अर्थात
दम्भी कहा जाता है॥

यस्त्विन्द्रिया
णि मनसा नियम्यारभतेऽर्ज ुन ।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स
विशिष्यते ॥

भावार्थ : किन्तु हे अर्जुन! जो पुरुष मन से
इन्द्रियों को वश में करके अनासक्त हुआ
समस्त इन्द्रियों द्वारा कर्मयोग
का आचरण करता है, वही श्रेष्ठ है॥
Satsangwithparveen.blogspot.com
प्रणाम जी

Thursday, September 3, 2015

देवता और परमात्मा में भेद

परमात्मासे हमारा तात्पर्य  है “परम सत्ता ” न  कि  ‘देवता’ । ‘देवता’ एक अलग शब्द है जिसका अशुद्ध प्रयोग  अधिकतर  ‘परमसत्ता’ के लिए कर लिया जाता है। हालाँकि परमात्मा भी एक ‘देवता’ है। कोई भी पदार्थ  – जड़ व चेतन – जो कि हमारे लिए उपयोगी हो व सहायक हो, उसे ‘देवता’ कहा जाता है । किन्तु उसका अर्थ यह नहीं है कि हर कोई ऐसी सत्ता परमात्मा  है और उसकी उपासना की जाये । कोई भ्रम न हो इसलिए इस लेख में हम ‘ परमात्मा ’ शब्द का प्रयोग करेंगे ।

वह परम पुरुष जो निस्वार्थता का प्रतीक है, जो सारे  संसार को नियंत्रण में रखता है , और सब देवताओं का भी देवता है , एक मात्र वही सुख देने वाला है । जो उसे नहीं समझते वो दुःख में डूबे रहते हैं, और जो उसे अनुभव कर लेते हैं, मुक्ति सुख को पाते हैं । (ऋग्वेद 1.164.39)


वेदों में स्पष्ट कहा है कि एक और केवल एक परमात्मा  है । और वेद में एक भी ऐसा मंत्र नहीं है  जिसका कि यह अर्थ निकाला जा सके कि परमात्मा अनेक हैं । और सिर्फ इतना ही नहीं वेद इस बात का भी खंडन करते हैं कि आपके और परमात्मा के बीच में अभिकर्ता (एजेंट) की तरह काम करने के लिए पैगम्बर, मसीहा या अवतार की जरूरत होती है ।

मोटे तौर पर यदि समानता देखी जाये तो :

इस्लाम में शहादा का जो पहला भाग है उसे लिया जाये  : ला इलाहा  इल्लल्लाह  (सिर्फ और सिर्फ एक अल्लाह के सिवाय कोई और  परमात्मा नहीं है ) और दूसरे भाग को छोड़ दिया जाये  : मुहम्मदुर रसूलल्लाह (मुहम्मद अल्लाह का पैगम्बर है ), तो यह वैदिक परमात्मा की ही मान्यता के समान है ।

इस्लाम में अल्लाह को छोड़कर और किसी को भी पूजना शिर्क (सबसे बड़ा पाप ) माना जाता है । अगर इसी मान्यता को और आगे देखें और अल्लाह के सिवाय और किसी मुहम्मद या गब्रेइल को मानाने से इंकार कर दें तो आप वेदों के अनुसार महापाप से बच जायेंगे ।

प्रश्न: वेदों में वर्णित विभिन्न देवताओं या ईश्वरों के बारे में आप क्या कहेंगे ? 33 करोड़ देवताओं के बारे में क्या?

उत्तर:

1. जैसा कि पहले भी कहा जा चुका है जो पदार्थ हमारे लिए उपयोगी होते हैं वो देवता कहलाते हैं । लेकिन वेदों में ऐसा कहीं नहीं कहा गया कि  हमे उनकी उपासना करनी चाहिए । परमात्मा देवताओं का भी देवता है और इसीलिए वह महादेव कहलाता है , सिर्फ और सिर्फ उसी की ही उपासना करनी चाहिए ।

2. वेदों में 33 कोटि का अर्थ 33 करोड़ नहीं बल्कि 33 प्रकार (संस्कृत में कोटि शब्द का अर्थ प्रकार होता है) के देवता हैं  । और ये शतपथ ब्राह्मण में बहुत ही स्पष्टतः वर्णित किये गए हैं, जो कि इस प्रकार है  :

8 वसु (पृथ्वी, जल, वायु , अग्नि, आकाश, सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र ), जिनमे सारा संसार निवास करता है ।

10 जीवनी शक्तियां अर्थात प्राण (प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त , धनञ्जय ), ये तथा 1 जीव ये ग्यारह रूद्र कहलाते हैं

12 आदित्य अर्थात वर्ष के 12 महीने

1 विद्युत् जो कि हमारे लिए अत्यधिक उपयोगी है

1 यज्ञ अर्थात मनुष्यों के द्वारा निरंतर किये जाने वाले निस्वार्थ कर्म ।

शतपथ ब्राहमण के 14 वें कांड के अनुसार इन 33 देवताओं का स्वामी महादेव ही एकमात्र उपासनीय  है । 33 देवताओं का विषय अपने आप में ही शोध का विषय है जिसे समझने के लिए सम्यक गहन अध्ययन की आवश्यकता है ।  लेकिन फिर भी वैदिक शास्त्रों में इतना तो स्पष्ट वर्णित है कि ये देवता ईश्वर  नहीं हैं और इसलिए इनकी उपासना नहीं करनी चाहिए ।

3. ईश्वर अनंत गुणों वाला है । अज्ञानी लोग अपनी अज्ञानतावश उसके विभिन्न गुणों को विभिन्न ईश्वर मान लेते हैं ।

4. ऐसी शंकाओं के निराकरण के लिए वेदों में अनेक मंत्र हैं जो ये स्पष्ट करते हैं कि सिर्फ और सिर्फ एक ही  ईश्वर है और उसके साथ हमारा सम्पर्क कराने के लिए कोई सहायक, पैगम्बर, मसीहा, अभिकर्ता (एजेंट) नहीं होता है ।

यजुर्वेद 40.1

यह सारा संसार एक और मात्र एक ईश्वर से पूर्णतः आच्छादित और नियंत्रित है । इसलिए कभी भी अन्याय से किसी के धन की प्राप्ति की इच्छा नहीं करनी चाहिए अपितु न्यायपूर्ण आचरण के द्वारा ईश्वर के आनंद को भोगना चाहिए । आखिर वही सब सुखों का देने वाला है ।

ऋग्वेद 10.48.1

एक मात्र ईश्वर ही सर्वव्यापक और सारे संसार का नियंता  है । वही  सब विजयों का दाता और सारे संसार का मूल कारण है । सब जीवों को ईश्वर को ऐसे ही पुकारना चाहिए जैसे एक बच्चा अपने पिता को पुकारता है । वही एक मात्र सब जीवों का पालन पोषण करता और सब सुखों का देने वाला है ।

ऋग्वेद 10.48.5

ईश्वर सारे संसार का प्रकाशक है । वह कभी पराजित नहीं होता और न ही कभी मृत्यु को प्राप्त होता है । वह संसार का बनाने वाला है ।  सभी जीवों को ज्ञान प्राप्ति के लिए तथा उसके अनुसार कर्म करके सुख की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए । उन्हें ईश्वर  की मित्रता से कभी अलग नहीं होना चाहिए ।

ऋग्वेद 10.49.1

केवल एक ईश्वर ही सत्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करने वालों को सत्य ज्ञान का देने वाला है । वही ज्ञान की वृद्धि करने वाला और  धार्मिक मनुष्यों को श्रेष्ठ कार्यों में प्रवृत्त करने वाला है । वही एकमात्र इस  सारे संसार का रचयिता और नियंता है । इसलिए कभी भी उस एक ईश्वर को छोड़कर और किसी की भी उपासना नहीं करनी चाहिए ।

यजुर्वेद 13.4

सारे संसार का एक और मात्र एक ही निर्माता और नियंता है । एक वही पृथ्वी, आकाश और सूर्यादि लोकों का धारण करने वाला है । वह स्वयं सुखस्वरूप है । एक मात्र वही हमारे लिए उपासनीय है ।

अथर्ववेद 13.4.16-21

वह न दो हैं, न ही तीन, न ही चार, न ही पाँच, न ही छः, न ही सात, न ही आठ, न ही नौ , और न ही दस हैं । इसके विपरीत वह सिर्फ और सिर्फ एक ही है । उसके सिवाय और कोई ईश्वर नहीं है । सब देवता उसमे निवास करते हैं और उसी से नियंत्रित होते हैं । इसलिए केवल उसी की उपासना करनी चाहिए और किसी की नहीं ।

अथर्ववेद 10.7.38

मात्र एक ईश्वर ही सबसे महान है और उपासना करने के योग्य है । वही समस्त ज्ञान और क्रियाओं का आधार है 

धंन धंन सखी मेरे भयो उछरंग

धंन धंन सखी मेरे भयो उछरंग, धंन धंन सखियों को बाढयो रस रंग।
धंन धंन सखी मैं जोवन मदमाती, धंन धंन धामधनीसों रंगराती ।।

हे सखी ! मेरे मनमें परमात्माके प्रति प्रेम उमड. रहा है. उसमें आनन्द रसका आवेग छलक रहा है. उनके दूारा दिय ग्यान प्रेम व सत्य मार्ग रूपी यौवनकी मस्तीमें मग्न होकर परमात्माके रङ्गमें रंगी हुई मैं धन्य हो गई...

प्रणाम जी

Wednesday, September 2, 2015

माया का फन्दा



तुम प्रत्यक्ष रुप से देखते हो कि यह माया का फन्दा है, फिर भी जान बूझकर यमराज के जाल में फंसते हो। जिन सगे-सम्बन्धियों और कुटुम्ब वालों के लिये तुम अपने को माया के बन्धनों में फंसाते हो, उनसे तुम्हारा कोई भी सच्चा सम्बन्ध नहीं है।  पूर्व जन्म के संस्कारों के आधार पर ही पारिवारिक सम्बन्ध बनते हैं। इन सम्बन्धों को शाश्वत मानकर सच्चिदानन्द परब्रह्म के प्रेम से विमुख हो जाना स्वयं को 84 लाख योनियों में भटकाना है। विवेकवान पुरुष परिवार में वैसे ही रहता है, जैसे किसी धर्मशाला (सराय) में रात गुजारी जाती है।अगर तुम अपनी शक्ति को समझो तो तुम बहोत बलवान हो..
तुम्हारे सामने केशरी सिंह की भी शक्ति क्या है ? वह तुम्हारे समान बलवान नहीं है। इस माया ने छल करके तुमको ठग लिया है। इसलिये अब इसकी चाल में मत फंसो।  जिसके पास बुद्धि और विवेक होता है, वही यथार्थ में बलशाली माना जाता है। सिंह के पास मात्र शारीरिक शक्ति है, किन्तु मनुष्य के पास ज्ञान, विवेक, वैराग्य, श्रेष्ठ बुद्धि, श्रद्धा और समर्पण का बल है, जिसके सामने माया कुछ नहीं कर सकती। यही कारण है कि मनुष्य को सिंह की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली माना गया है। इसलिय अपनी शक्ति को पहचान कर माया को परास्त कर दो...

प्रणाम जी

Tuesday, September 1, 2015




तुमने लोक-लज्जा तथा कर्मकाण्ड की मर्यादाओं को छोड़कर ज्ञानी कहलाने की शोभा पाई है । गृहस्थी की छोटी आग को तो तुमने बुझा दिया, किन्तु महन्ती और ज्ञानी होने का अहंकार इन बड़ी आग को गले से लिपटा लिया । गृहस्थ जीवन में सामाजिक मर्यादाओं तथा धर्म के नाम पर होने वाले कर्मकाण्डों का पालन करना पड़ता है । सच्चा विरक्त एवं ज्ञानी वही है जो इन सबका परित्याग कर दे । महन्त बनने के बाद सांसारिक प्रतिष्ठा एवं शिष्यों की संख्या बढ़ाने का मोह और अधिक बढ़ जाता है, जो गृहस्थी की जिम्मेदारियों से भी अधिक बन्धन वाला होता है । इसे ही बड़ी आग कहा गया है ।

प्रणाम जी 
खोजें कोई न पावहीं, वार ना पाइए पार।
ले बुत बैठावें देहुरे, कहें हमारा करतार।।
(pr14/sanandh)

यहाँ पर कई लोग परमात्माकी खोज करते हैं किन्तु उन्हें प्राप्त नहीं कर सके. कयोंकी वे तीन गुणों की भक्ती मे ही आत्म कल्याण की खोज करते रहे जबकी परमात्मा गुणातीत हैं . वे शब्दो को जप के संतुष्ट रहे पर परमातमा शब्दातीत है . वे इस भवसागरका ही ओर-छोर नहीं पा सके, इसलिए देवालयोंमें र्मूितको पधराकर कहने लगे कि यही हमारे परमात्मा (करतार) है..इसलि वो धर्म विरोधी हो गये कयोंकी ....
शतपथ ब्राह्मण का कथन है कि जो एक परब्रह्म को छोड़कर अन्य की भक्ति करता है , वह विद्वानों में पशु के समान है (शतपथ ब्राह्मण १४/४/२/२२) ।

वेद का कथन है कि उस अनादि अक्षरातीत परब्रह्म के समान न तो कोई है , न हुआ है और न कभी होगा । इसलिए उस परब्रह्म के सिवाय अन्य किसी की भक्ति नहीं करनी चाहिए (ऋग्वेद ७/३२/२३)

भागवत कहती है..

यस्यात्मबुद्धि: कुणपे त्रिधातुके
स्वधी: कलत्रादिषु भौम इज्यधी: ।
यत्तीर्थ बुद्धि: सलिले न कर्हिचि ज्जनेष्वभिज्ञेषु स एव गोखर: ॥
(भागवत १०/८४/१३)

भावर्थ वसुदेवजीके यज्ञ महोत्सव में श्री कृष्णजी उपदेश देते हैं - हे महत्माओं एवं सभासदों । जो मनुष्य कफ़, वात, पित्त इस तीन धातुओं से बने हुए शव तुल्य शरीर को ही "आत्मा, मैं" स्त्री पुत्र आदि को ही अपना और मिट्टि, पत्थर, लकडी आदि पार्थिव विकारों को ही "इष्टदेव" मानता है तथा जो केवल जल को ही तिर्थ समझता है लेकिन ज्ञानी महापुरुषों (चल तीर्थ) को तीर्थ नहीं समझता है, वह मनुष्य होने पर भी पशुओं में नीच गधा के समान है..
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प्रणाम जी