बाहर मत ढूंडो
अरस कहिये दिल तिन का, जित है हक सहूर|
इलम इसक दोऊ हक के, दोऊ हक रोसनी नूर||
उन्ही आत्माओं का दिल वस्तुतः परमधाम कहा गया है, जहाँ पर हर पल परमात्मा का चिन्तन, उन्ही की चितवनी चलती रहेती है| वस्तुतः ज्ञान और प्रेम, दोनों ही श्री परमात्मा के तेजोमय प्रकाश स्वरुप की अमूल्य निधियाँ हैं| इसलिय जब परमात्मा को हम हृदय मे अनुभव करने लगते हैं तो ग्यान और प्रेम स्वतः ही उत्पन्न होने लगता है..
बृहच्च तद् दिव्यमचिन्त्यरूपं सूक्ष्माच्च तत् सूक्ष्मतरं विभाति ।
दूरात् सुदूरे तदिहान्तिके च पश्यन्त्विहैव निहितं गुहायाम् ॥७॥
(मुण्डक)
बृह्म सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है बाहर ढूंडने वालो के लिय वो दूर से भी दूर है पर जो हृदय मे धारते हैं उनके लिय वो अन्दर ही घुलमिलकर रहता है..
न चक्षुषा गृह्यते नापि वाचा नान्यैर्देवैस्तपसा कर्मण वा ।
ज्ञानप्रसादेन विशुद्धसत्त्वस्ततस्तु तं पश्यते निष्कलं ध्यायमानः ॥८॥
(मुण्डकोपनिषद् )
परमात्मा को न तो इन आंखों से देखा जा सकता है, न वचनों को सुनने से और न ही अन्य इंद्रियों के द्वारा परमात्मा की प्राप्ति संभव है। तपस्या एवं कर्मो से भी परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती। जब उनको अंतर मे धारण करते हैं तब ज्ञान की कृपा होती है, तभी मनुष्य के अंतर में अन्य किसी प्रकार की चाह नही रह जाती तभी मनुष्य ब्रह्म का ध्यान करते हुए परमात्मा का दर्शन करता है।
प्रणाम जी
अरस कहिये दिल तिन का, जित है हक सहूर|
इलम इसक दोऊ हक के, दोऊ हक रोसनी नूर||
उन्ही आत्माओं का दिल वस्तुतः परमधाम कहा गया है, जहाँ पर हर पल परमात्मा का चिन्तन, उन्ही की चितवनी चलती रहेती है| वस्तुतः ज्ञान और प्रेम, दोनों ही श्री परमात्मा के तेजोमय प्रकाश स्वरुप की अमूल्य निधियाँ हैं| इसलिय जब परमात्मा को हम हृदय मे अनुभव करने लगते हैं तो ग्यान और प्रेम स्वतः ही उत्पन्न होने लगता है..
बृहच्च तद् दिव्यमचिन्त्यरूपं सूक्ष्माच्च तत् सूक्ष्मतरं विभाति ।
दूरात् सुदूरे तदिहान्तिके च पश्यन्त्विहैव निहितं गुहायाम् ॥७॥
(मुण्डक)
बृह्म सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है बाहर ढूंडने वालो के लिय वो दूर से भी दूर है पर जो हृदय मे धारते हैं उनके लिय वो अन्दर ही घुलमिलकर रहता है..
न चक्षुषा गृह्यते नापि वाचा नान्यैर्देवैस्तपसा कर्मण वा ।
ज्ञानप्रसादेन विशुद्धसत्त्वस्ततस्तु तं पश्यते निष्कलं ध्यायमानः ॥८॥
(मुण्डकोपनिषद् )
परमात्मा को न तो इन आंखों से देखा जा सकता है, न वचनों को सुनने से और न ही अन्य इंद्रियों के द्वारा परमात्मा की प्राप्ति संभव है। तपस्या एवं कर्मो से भी परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती। जब उनको अंतर मे धारण करते हैं तब ज्ञान की कृपा होती है, तभी मनुष्य के अंतर में अन्य किसी प्रकार की चाह नही रह जाती तभी मनुष्य ब्रह्म का ध्यान करते हुए परमात्मा का दर्शन करता है।
प्रणाम जी
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