Thursday, September 24, 2015

शुकजी को आनंद प्राप्ति...

सुप्रभात जी

रामजी ने पूछा,
हे भगवान्! शुकजी कैसे बुद्धिमान और ज्ञानवान् थे और कैसी आनंद की अपेक्षा उनको थी और फिर कैसे उन्होंने आनंद पाया सो कृपा करके कहो ?
From satsangwithparveen.blogspot.com

विश्वामित्र जी बोले, हे रामजी, अञ्जन के पर्वत के समान और सूर्य के सदृश प्रकाशवान् भगवान् व्यासजी स्वर्ण के सिंहासन पर राजा दशरथ के यहाँ बैठे थे । उनके पुत्र शुकजी सब शास्त्रों के वेत्ता थे । और सत्य को सत्य और असत्य को असत्य जानते थे । उन्होंने शान्ति और परमानन्दरूप आत्मा में आनंद न पाया तब उनको विकल्प उठा कि जिसको मैंने जाना है सो न होगा । क्योंकि मुझको आनन्द नहीं दिखता । यह संशय करके एक काल में व्यासजी जो सुमेरु पर्वत की कन्दरा में बैठे थे तिनके निकट आकर कहने लगे, हे भगवन्!, यह संसार सब भ्रमात्मक कहाँसे हुआ है; इसकी निवृत्ति कैसे होगी और आगे कभी इसकी निवृत्ति हुई है सो कहो ? हे रामजी! जब इस प्रकार शुकदेवजी नेकहा तब  वेदव्यास ने तत्काल उपदेश किया । शुकजी ने कहा, हे भगवान्! जो कुछ तुम कहते हो वह तो मैं आगे से ही जानता हूँ । इससे मुझको शान्ति नहीं होती । हे रामजी! तब सर्वज्ञ वेदव्यासजी विचार करने लगे कि इसको मेरे वचन से शान्ति प्राप्त न होगी, क्योंकि पिता पुत्र का सम्बन्ध है । ऐसा विचार करके व्यासजी कहने लगे, हे पुत्र! मैं सर्वतत्वज्ञ नहीं, तुम राजा जनक के निकट जाओ, वे सर्वतत्वज्ञ और शान्तात्मा हैं, उनसे तुम्हारा मोह निवृत्त होगा । तब शुकदेवजी वहाँ से चलकर मिथला नगरी में आये और राजा जनक के द्वार पर स्थित हुए । द्वारपाल ने जाकर जनक जी से कहा कि व्यासजी के पुत्र शुकजी खड़े हैं । राजा ने जाना कि इनको जिज्ञासा है । इसलिए कहा कि खड़े रहने दो । इसी प्रकार फिर द्वारपाल ने जा कहा और सात दिन उन्हें खड़े ही बीत गये । तब राजा ने फिर पूछा कि शुकजी खड़े हैं कि चले गये । द्वारपाल ने कहा, खड़े हैं । राजा ने कहा, आगे ले आओ । तब वे उनको आगे ले आये । उस दरवाजे पर भी वे सात दिन खड़े रहे । फिर राजा ने पूछा कि शुकजी हैं ? द्वारपाल ने कहा कि खड़े हैं । राजा ने कहा कि अन्तःपुर में ले आओ और नाना प्रकार के भोग दो । तब वे उन्हें अन्तःपुर में ले गये । वहाँ स्त्रियों के पास भी वे सात दिन तक खड़े रहे । फिर राजा ने द्वारपाल से पूछा कि उसकी अब कैसी दशा है और आगे कैसी दशा थी ? द्वारपाल ने कहा कि आगे वे निरादर से न शोकवान् हुए थे और न अब भोग से प्रसन्न हुए, वे तो इष्ट अनिष्ट में समान है । जैसे मन्द पवन से मेरु चलायमान नहीं होता वैसे ही यह बड़े भोग व निरादर से चलायमान् नहीं हुए जैसे पपीहे को मेघ के जल बिना नदी और ताल आदि के जल की इच्छा नहीं होती वैसे ही उसको भी किसी पदार्थ की इच्छा नहीं है । तब राजा ने कहा उन्हे यहाँ ले आओ । जब शुकजी आये तब राजा जनक ने उठके खड़े हो प्रणाम किया । फिर जब दोनों बैठ गये तब राजा ने कहा कि हे मुनीश्वर । तुम किस निमित्त आये हो, तुमको क्या वाञ्छा है सो कहो उसकी प्राप्ति मैं कर देऊँ ? श्रीशुकजी बोले हे गुरो! यह संसार का आडम्बर कैसे उत्पन्न हुआ और कैसे शान्त होगा सो तुम कहो ? इतना कह विश्वामित्रजी बोले हे रामजी । जब इस प्रकार शुकदेवजी ने कहा तब जनक ने यथाशास्त्र उपदेश जो कुछ व्यास ने किया था सोई कहा । यह सुन शुकजी ने कहा कि भगवन् जो कुछ तुम कहते हो सोई मेरे पिता भी कहते थे , सोई शास्त्र भी कहता है और विचार से मैं भी ऐसा ही जानता हूँ कि यह संसार अपने चित्त से उत्पन्न होता है और चित्तके निर्वेद होने से भ्रम की निवृत्ति होती है,पर मुझको आनंद नहीं प्राप्त होता है ? जनकजी बोले, हे मुनीश्वर ! जो कुछ मैंने कहा और जो तुम जानते हो इससे पृथक उपाय न जानना और न कहना ही है । यह संसार चित्त के संवेदन से हुआ है, जब चित्त भटकाव से रहित होता है तब भ्रम निवृत्त हो जाता है । आत्मतत्त्व नित्य शुद्ध; परमानन्दरूप केवल चैतन्य है, जब उसका अभ्यास करोगे तब तुम आनंद पावोगे । तुम अधिकारी हो, क्योंकि तुम्हारा यत्न आत्मा की ओर है, दृश्य की ओर नहीं, इससे तुम बड़े उदारात्मा हो । हे मुनीश्वर! तुम मुझको व्यासजी से अधिक जान मेरे पास आये हो, पर तुम मुझसे से भी अधिक हो , क्योंकि हमारी चेष्टा तो बाहर से दृष्टि आती है और तुम्हारी चेष्टा बाहर से कुछ भी नहीं, पर भीतर से हमारी भी इच्छा नहीं है । इतना कह विश्वामित्र जी बोले, हे रामजी! जब इस प्रकार राजा जनक ने कहा तब शुकजी ने निःसंग निष्प्रयत्न और निर्भय होकर सुमेरु पर्व त की कन्दरा में जाय दशसहस्त्र वर्ष तक निर्विकल्प समाधि की चेतन का अभ्यास किया। जैसे तेल बिना दीपक निर्वाण हो जाता है वैसे ही वे भी निर्वाण हो गये । जैसे समुद्र में बूँद लीन हो जाती है और जैसे सूर्य का प्रकाश सन्ध्याकाल में सूर्य के पास लीन हो जाता है वैसे ही कलनारूप कलंक को त्यागकर वे ब्रह्मपद को प्राप्त हुए ...

प्रणाम जी

No comments:

Post a Comment