Friday, December 11, 2015

परब्रह्म और प्रेम

ब्रह्म इस्क एक संग, सो तो बसत वतन अभंग।
ब्रह्मसृष्टी ब्रह्म एक अंग, ए सदा आनंद अतिरंग।।

परब्रह्म और प्रेम (इश्क) दोनों एक ही हैं। और सत्य प्रेम का मूल निवास अखण्ड परमधाम में है ,इस संसार मे प्रेम नही है याहां स्वार्थ को ही प्रेम का नाम दिया गया है.. परमात्मा की आत्मायें  भी उनसे अभिन्न हैं और उन्हीं की अंगरूपा हैं। इनकी परमात्मा के साथ सर्वदा ही अनन्त प्रेम और आनन्द की लीला होती रहती है। कयोंकी परमात्मा सवंय प्रेम है और आत्माऐं उनका अंग है इसलिय आत्माओं को उनका प्रेम अनेक प्रकार से प्रवाहिक रूप मे मिलता रहता है ये थोडा गहन और मंथन का विषय है ..सवंय करें..
जिस प्रकार शक्कर में मिठास और सूर्य में तेज का गुण स्वाभाविक है, उसी प्रकार परमात्मा परब्रह्म में प्रेम ओत-प्रोत है। प्रेम से अलग करके परमात्मा को देखा ही नहीं जा सकता। प्रेम का यह अखण्ड स्वरूप वस्तुतः परमधाम में ही है। जिस प्रकार लहरों के रूप में सागर का ही जल क्रीड़ा करता है, उसी प्रकार आत्माओं के रूप में परमात्मा के हृदय में प्रेम, आनन्द और सौन्दर्य आदि गुणों की ही लीला होती है। इसी प्रकार परमात्मा, प्रेम और आत्माओं को कभी भी अलग स्वरूप वाला नहीं कहा जा सकता..

प्रणाम जी

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