सुप्रभात जी
आनन्द ही ब्रह्म है — यह बोध ब्रह्मज्ञान है।
यहाँ पर एक बात को ठीक से समझना है — ब्रह्म और आनन्द एक ही तत्त्व के दो नाम हैं। ब्रह्म आनन्द से अलग नहीं है, आनन्द ब्रह्म से अलग नहीं है। ऐसा नहीं है कि ब्रह्म में आनन्द है, और ऐसा भी नहीं है कि आनन्द में ब्रह्म है। तथ्य यह है कि आनन्द ही ब्रह्म है और ब्रह्म ही आनन्द है।
इसे समझने के लिये एक छोटा सा उदाहरण लेते हैं —
जब हम कहते हैं कि गिलास में पानी है तो इसका अर्थ होता है कि गिलास और पानी दो अलग-अलग चीजें हैं। एक ओर जहाँ पानी के बिना भी गिलास हो सकता है, वहीं दूसरी और गिलास के बिना भी पानी हो सकता है। लेकिन जब पानी की अधिकता इतनी बढ जाये कि हम उसे समुद्र कहने लगें, तब यह कहने की आवश्यकता नहीं रह जाती कि समुद्र में पानी भरा है। समुद्र का अर्थ ही है — अथाह पानी। इसी प्रकार ब्रह्म का अर्थ ही है — अथाह आनन्द। ब्रह्म का अर्थ ही है — आनन्द का समुद्र।
आनन्द का अपार सागर ही परमात्मा है। कोई इसे गोड़ कहता है, तो कोई खुदा कहता है। कोई उसे ओंकार कहता है तो कोई उसे महाशक्ति कहता है। कोई इसी को कर्त्तापुरख कहता है तो कोई सुप्रीम पावर कहता है। नाम चाहे जो भी हो किन्तु ब्रह्म एक ही है — आनन्द का सागर! अनन्त सुख का महासमुद्र!
तुलसीदास जी ने भी अपने परमात्मा को आनन्द-सिंधु ही कहा है।
जो आनन्द सिन्धु सुख रासी।
सी करते त्रैलोकी सुपासी।।
सो सुखधाम राम असनामा।
अखिल लोक दायक बिश्रामा।।
यह जो आनन्द के समुद्र और सुख की राशि हैं, और जिस (आनन्द सिंधु) के एक कण से तीनों लोक सुखी होते हैं, उन (आप के सबसे बड़े बेटे) का नाम राम है। राम सुख का भवन हैं और वे तीनों लोकों को शांति देने वाले हैं।
परमात्मा सुख से ओत-प्रोत है। परमात्मा सुख का अथाह सागर है। अनन्त सुख ही परमात्मा है। वेदान्त में परमात्मा की यही परिभाषा दी गई है।
परमात्मा में केवल सुख होता है — इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं होता। जो परमात्मा में डूबता है, वह भी सुख से सरोबार हो जाता है। सुख में डूब जाने का ज्ञान ही ब्रह्मज्ञान है।
आनन्द में डूब जाने का ज्ञान ब्रह्मज्ञान है।
यहां दो बातें विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
पहली बात तो यह है कि ब्रह्मज्ञान केवल अपने ही अन्दर से हो सकता है, किसी और उपाय से नहीं। इसीलिये तो इसे आत्मज्ञान कहा जाता है।
ब्रह्मज्ञान तो केवल अपने स्वयं के मनन से ही हो सकता है। ब्रह्मज्ञान कोई ऐसी चीज नहीं है जिसका लड्रडू बनाकर किसी दूसरे के मुँह में ड़ाला जा सके। जो सच्चा ब्रह्मज्ञानी है, वह जानता है कि ब्रह्मज्ञान तो अपने पुत्र को भी नहीं दिया जा सकता, दूसरों को देने की बात तो दूर रही।
दूसरी उल्लेखनीय बात..
जो कोई मनुष्य भृगु की भान्ति गहन विचार कर आनन्द-स्वरूप परब्रह्म परमात्मा को जान लेता है, वह भी आनन्द-स्वरूप परमात्मा में स्थित हो जाता है। इतना ही नहीं, वह इस लोक में भी बहुत गहन विचार वाला और संसार के सभी अच्छे बुरे विचारों को भली भान्ति पचाने की शक्ति वाला हो जाता है..
Satsangwithparveen.blogspot.com
Www.facebook.com/kevalshudhsatye
प्रणाम जी
आनन्द ही ब्रह्म है — यह बोध ब्रह्मज्ञान है।
यहाँ पर एक बात को ठीक से समझना है — ब्रह्म और आनन्द एक ही तत्त्व के दो नाम हैं। ब्रह्म आनन्द से अलग नहीं है, आनन्द ब्रह्म से अलग नहीं है। ऐसा नहीं है कि ब्रह्म में आनन्द है, और ऐसा भी नहीं है कि आनन्द में ब्रह्म है। तथ्य यह है कि आनन्द ही ब्रह्म है और ब्रह्म ही आनन्द है।
इसे समझने के लिये एक छोटा सा उदाहरण लेते हैं —
जब हम कहते हैं कि गिलास में पानी है तो इसका अर्थ होता है कि गिलास और पानी दो अलग-अलग चीजें हैं। एक ओर जहाँ पानी के बिना भी गिलास हो सकता है, वहीं दूसरी और गिलास के बिना भी पानी हो सकता है। लेकिन जब पानी की अधिकता इतनी बढ जाये कि हम उसे समुद्र कहने लगें, तब यह कहने की आवश्यकता नहीं रह जाती कि समुद्र में पानी भरा है। समुद्र का अर्थ ही है — अथाह पानी। इसी प्रकार ब्रह्म का अर्थ ही है — अथाह आनन्द। ब्रह्म का अर्थ ही है — आनन्द का समुद्र।
आनन्द का अपार सागर ही परमात्मा है। कोई इसे गोड़ कहता है, तो कोई खुदा कहता है। कोई उसे ओंकार कहता है तो कोई उसे महाशक्ति कहता है। कोई इसी को कर्त्तापुरख कहता है तो कोई सुप्रीम पावर कहता है। नाम चाहे जो भी हो किन्तु ब्रह्म एक ही है — आनन्द का सागर! अनन्त सुख का महासमुद्र!
तुलसीदास जी ने भी अपने परमात्मा को आनन्द-सिंधु ही कहा है।
जो आनन्द सिन्धु सुख रासी।
सी करते त्रैलोकी सुपासी।।
सो सुखधाम राम असनामा।
अखिल लोक दायक बिश्रामा।।
यह जो आनन्द के समुद्र और सुख की राशि हैं, और जिस (आनन्द सिंधु) के एक कण से तीनों लोक सुखी होते हैं, उन (आप के सबसे बड़े बेटे) का नाम राम है। राम सुख का भवन हैं और वे तीनों लोकों को शांति देने वाले हैं।
परमात्मा सुख से ओत-प्रोत है। परमात्मा सुख का अथाह सागर है। अनन्त सुख ही परमात्मा है। वेदान्त में परमात्मा की यही परिभाषा दी गई है।
परमात्मा में केवल सुख होता है — इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं होता। जो परमात्मा में डूबता है, वह भी सुख से सरोबार हो जाता है। सुख में डूब जाने का ज्ञान ही ब्रह्मज्ञान है।
आनन्द में डूब जाने का ज्ञान ब्रह्मज्ञान है।
यहां दो बातें विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
पहली बात तो यह है कि ब्रह्मज्ञान केवल अपने ही अन्दर से हो सकता है, किसी और उपाय से नहीं। इसीलिये तो इसे आत्मज्ञान कहा जाता है।
ब्रह्मज्ञान तो केवल अपने स्वयं के मनन से ही हो सकता है। ब्रह्मज्ञान कोई ऐसी चीज नहीं है जिसका लड्रडू बनाकर किसी दूसरे के मुँह में ड़ाला जा सके। जो सच्चा ब्रह्मज्ञानी है, वह जानता है कि ब्रह्मज्ञान तो अपने पुत्र को भी नहीं दिया जा सकता, दूसरों को देने की बात तो दूर रही।
दूसरी उल्लेखनीय बात..
जो कोई मनुष्य भृगु की भान्ति गहन विचार कर आनन्द-स्वरूप परब्रह्म परमात्मा को जान लेता है, वह भी आनन्द-स्वरूप परमात्मा में स्थित हो जाता है। इतना ही नहीं, वह इस लोक में भी बहुत गहन विचार वाला और संसार के सभी अच्छे बुरे विचारों को भली भान्ति पचाने की शक्ति वाला हो जाता है..
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प्रणाम जी
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