सुप्रभात जी
"ध्यान"
मन के जरिये ध्यान तक नहीं पहुंचा जा सकता। ध्यान इस बात का बोध है कि मैं 'मन' नहीं हूं। ध्यान चेतना की खालिस अवस्था है। जहां न विचार होता है, न कोई विषय। अमूमन हमारी चेतना विचारों से, विषयों से, इच्छाओं से भरी रहती है। जैसे कि कोई शीशा धूल से ढका हो। हमारा मन एक लगातार बहते रहने वाली चीज है। विचार चल रहे हैं, कामनाएं चल रही हैं, पुरानी यादें सरक रही हैं। नींद में भी हमारा मन चलता रहता है। सपने चलते रहते हैं। यह अ-ध्यान की अवस्था है। इससे उल्टी अवस्था ध्यान की है।
जब कोई विचार नहीं चलता और कोई कामना सिर नहीं उठाती। जब मन नहीं होता, तब ध्यान होता है। मन के जरिये ध्यान तक नहीं पहुंचा जा सकता। ध्यान इस बात को जान लेना है कि मैं 'मन' नहीं हूं।मन की बनाई ध्यान के विषय मे सारी कल्पनायें झूठी हैं.. जब मन में कुछ भी चलता नहीं, उन शांत पलों में ही हमें खुद के बोध की अनुभूति होती है। धीरे-धीरे ध्यान हमारी सहज अवस्था हो जाती है। मन असहज अवस्था है, जिसे हमने पा लिया है। ध्यान हमारी सहज अवस्था है, लेकिन हमने उसे खो दिया है। मगर इसे फिर पाया जा सकता है।
किसी बच्चे की आंखों में झांकें, वहां आपको एक खास तरह की शांति और पवित्रता दिखेगी। हर बच्चा ध्यान में है, लेकिन उसे समाज के रंग-ढंग सीखने पड़ते हैं। विचार करना, तर्क करना, शब्द, भाषा, व्याकरण सब। धीरे-धीरे वह अपनी सरलता से दूर हटता जाएगा, ध्यान से हटता जाएगा। उसकी कोरी स्लेट समाज की लिखावट से गंदी होती जाएगी। उस निर्दोष सहजता को फिर पाने की जरूरत है। हम उसे भूल गए हैं। हीरा कूड़े-कचरे में दब गया है लेकिन हम जरा खोदें, तो हीरा फिर हाथ में आ सकता है क्योंकि वह हमारा स्वभाव है।
इस शरीर में स्थित आत्मा (सत्य) ही परमात्मा (सत्य) को प्राप्त कर पाती है। जब आत्मा को परमात्मा के सम्बन्ध में किसी भी प्रकार का संशय नहीं रह जाता, तब अन्तरात्मा की पुकार परमात्मा तक पहुँचती है।
मैं (अहम् ,मन जीव आदी) का जल बहुत गहरा है। यह हमारे और परमात्मा के बीच उस झूठ के परदे की तरह है, जो परमात्मा का दीदार नहीं होने देता। जब तक इसका अस्तित्व बना रहता है, तब तक हमारी अन्तरात्मा की पुकार परमात्मा तक नहीं पहुँच पाती।
यह स्पष्ट है कि बेशक होकर मैं ( अहम् ,मन जीव आदी ) का परित्याग किये बिना परमात्मा से मिलन सम्भव ही नहीं है।
Satsangwithparveen.blogspot.com
प्रणाम जी
"ध्यान"
मन के जरिये ध्यान तक नहीं पहुंचा जा सकता। ध्यान इस बात का बोध है कि मैं 'मन' नहीं हूं। ध्यान चेतना की खालिस अवस्था है। जहां न विचार होता है, न कोई विषय। अमूमन हमारी चेतना विचारों से, विषयों से, इच्छाओं से भरी रहती है। जैसे कि कोई शीशा धूल से ढका हो। हमारा मन एक लगातार बहते रहने वाली चीज है। विचार चल रहे हैं, कामनाएं चल रही हैं, पुरानी यादें सरक रही हैं। नींद में भी हमारा मन चलता रहता है। सपने चलते रहते हैं। यह अ-ध्यान की अवस्था है। इससे उल्टी अवस्था ध्यान की है।
जब कोई विचार नहीं चलता और कोई कामना सिर नहीं उठाती। जब मन नहीं होता, तब ध्यान होता है। मन के जरिये ध्यान तक नहीं पहुंचा जा सकता। ध्यान इस बात को जान लेना है कि मैं 'मन' नहीं हूं।मन की बनाई ध्यान के विषय मे सारी कल्पनायें झूठी हैं.. जब मन में कुछ भी चलता नहीं, उन शांत पलों में ही हमें खुद के बोध की अनुभूति होती है। धीरे-धीरे ध्यान हमारी सहज अवस्था हो जाती है। मन असहज अवस्था है, जिसे हमने पा लिया है। ध्यान हमारी सहज अवस्था है, लेकिन हमने उसे खो दिया है। मगर इसे फिर पाया जा सकता है।
किसी बच्चे की आंखों में झांकें, वहां आपको एक खास तरह की शांति और पवित्रता दिखेगी। हर बच्चा ध्यान में है, लेकिन उसे समाज के रंग-ढंग सीखने पड़ते हैं। विचार करना, तर्क करना, शब्द, भाषा, व्याकरण सब। धीरे-धीरे वह अपनी सरलता से दूर हटता जाएगा, ध्यान से हटता जाएगा। उसकी कोरी स्लेट समाज की लिखावट से गंदी होती जाएगी। उस निर्दोष सहजता को फिर पाने की जरूरत है। हम उसे भूल गए हैं। हीरा कूड़े-कचरे में दब गया है लेकिन हम जरा खोदें, तो हीरा फिर हाथ में आ सकता है क्योंकि वह हमारा स्वभाव है।
इस शरीर में स्थित आत्मा (सत्य) ही परमात्मा (सत्य) को प्राप्त कर पाती है। जब आत्मा को परमात्मा के सम्बन्ध में किसी भी प्रकार का संशय नहीं रह जाता, तब अन्तरात्मा की पुकार परमात्मा तक पहुँचती है।
मैं (अहम् ,मन जीव आदी) का जल बहुत गहरा है। यह हमारे और परमात्मा के बीच उस झूठ के परदे की तरह है, जो परमात्मा का दीदार नहीं होने देता। जब तक इसका अस्तित्व बना रहता है, तब तक हमारी अन्तरात्मा की पुकार परमात्मा तक नहीं पहुँच पाती।
यह स्पष्ट है कि बेशक होकर मैं ( अहम् ,मन जीव आदी ) का परित्याग किये बिना परमात्मा से मिलन सम्भव ही नहीं है।
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प्रणाम जी
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