सुप्रभात जी
हे साधूजन तुमने लोक-लज्जा तथा कर्मकाण्ड की मर्यादाओं को छोड़कर ज्ञानी कहलाने की शोभा पाई है । गृहस्थी की छोटी आग को तो तुमने बुझा दिया, किन्तु महन्ती (गद्दी) तथा मान सम्मान पाने की लालसा की दूसरी बड़ी आग को गले से लिपटा लिया । भाव यह है की गृहस्थ जीवन में सामाजिक मर्यादाओं तथा धर्म के नाम पर होने वाले कर्मकाण्डों का पालन करना पड़ता है । सच्चा विरक्त एवं ज्ञानी वही है जो इन सबका मन से परित्याग कर दे । महन्त बनने के बाद सांसारिक प्रतिष्ठा एवं शिष्यों की संख्या बढ़ाने का मोह और अधिक बढ़ जाता है, जो गृहस्थी की जिम्मेदारियों से भी अधिक बन्धन वाला होता है । इसे ही बड़ी आग कहा गया है । इनसबसे प्रयत्न पुर्वक मन से विरक्त होकर अन्नय परेम लक्षणा भक्ति दूारा केवल पारब्रह्म को पाना ही हमारा लक्षय होना चाहिय..
प्रणाम जी
हे साधूजन तुमने लोक-लज्जा तथा कर्मकाण्ड की मर्यादाओं को छोड़कर ज्ञानी कहलाने की शोभा पाई है । गृहस्थी की छोटी आग को तो तुमने बुझा दिया, किन्तु महन्ती (गद्दी) तथा मान सम्मान पाने की लालसा की दूसरी बड़ी आग को गले से लिपटा लिया । भाव यह है की गृहस्थ जीवन में सामाजिक मर्यादाओं तथा धर्म के नाम पर होने वाले कर्मकाण्डों का पालन करना पड़ता है । सच्चा विरक्त एवं ज्ञानी वही है जो इन सबका मन से परित्याग कर दे । महन्त बनने के बाद सांसारिक प्रतिष्ठा एवं शिष्यों की संख्या बढ़ाने का मोह और अधिक बढ़ जाता है, जो गृहस्थी की जिम्मेदारियों से भी अधिक बन्धन वाला होता है । इसे ही बड़ी आग कहा गया है । इनसबसे प्रयत्न पुर्वक मन से विरक्त होकर अन्नय परेम लक्षणा भक्ति दूारा केवल पारब्रह्म को पाना ही हमारा लक्षय होना चाहिय..
प्रणाम जी
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