परमात्मा कौन है? उसका रूप क्या और किस प्रकार का है? वह कहाँ रहता है?
सुप्रभात जी
ब्रम्हाजी ने नारद से कहा-------
यस्यावतार कर्माणि गायन्ति ह्यस्मदादयः।
न यं विदन्ति तत्त्वेन तस्मै श्रीभगवते नमः।।
‘हम सब जिनके अवतार की लीलाओं का गुणगान ही किया करते हैं, किन्तु उनके ‘तत्त्व’ को नहीं जानते---उन श्रीभगवान् के श्रीचरणों में हम नमस्कार करते हैं।‘
(श्री मद् भागवत् महापुराण २/७/३७)
परमात्मा या अल्लाहतआला या गॉड या सर्वोच्च शक्ति-सत्ता से सम्बंधित ज्ञान रूप तत्त्वज्ञान सत्यरूप से लेकर वर्तमान समय (कलियुग) तक परम रहस्य बना हुआ चला आ रहा है। परमात्मा कौन है? उसका रूप क्या और किस प्रकार का है? वह कहाँ रहता है?
परमात्मा कौन है? ----
गीता में कहा गया है कि दो पुरुष हैं- क्षर एवं अक्षर । सभी प्राणी एवं पंचभूत आदि क्षर हैं तथा इनसे परे कूटस्थ अक्षर ब्रह्म कहे जाते हैं । इनसे भी परे जो उत्तम पुरुष अक्षरातीत हैं, एकमात्र वे ही परब्रह्म की शोभा को धारण करते हैं । (गीता १५/१६,१७)
पूर्ण ब्रह्म का स्वरूप निराकार (मोहतत्व) से परे बेहद, उससे परे अक्षर से भी परे है । मुण्कोपनिषद् में कहा गया है कि उस अनादि, अविनाशी, कूटस्थ अक्षर ब्रह्म से परे जो चिदघन स्वरूप है, उन्हें ही अक्षरातीत कहते हैं ।
उस तेजोमय कोश में तीन अरे (अक्षर ब्रह्म, पूर्ण ब्रह्म तथा आनन्द अंग) तीन (सत् चित् आनन्द) में प्रतिष्ठित हैं । उसमें जो परम पूज्यनीय तत्व, परमात्मस्वरूप हैं, उसका ही ब्रह्मज्ञानी लोग ज्ञान किया करते हैं । (अथर्ववेद १०/२/३२)
उसका रूप क्या है?---
वेद में कहा है- उस धीर, अजर, अमर, नित्य तरुण परब्रह्म को ही जानकर विद्वान पुरुष मृत्यु से नहीं डरता है (अथर्ववेद १०/८/४४ ) । इस मंत्र में अक्षरातीत पूर्ण ब्रह्म को नित्य तरुण ( युवा स्वरूप वाला ) कहा गया है, किन्तु उसका शरीर मनुष्यों के पंचभौतिक शरीर के लक्षणों से सर्वथा विपरीत है । ब्रह्म के युवा स्वरूप वाले शरीर में हड्डी, माँस, रस, रक्त तथा नस-नाड़ियाँ नहीं हैं । श्वास-प्रश्वास की क्रिया उनमें नहीं होती है और क्षुधा भी उसको नहीं सताती है । न उसमें रंच मात्र भी ह्रास होता है और न विकास । अनादि काल से उसका स्वरूप वैसा ही है और अनन्त काल तक रहेगा ।
वेदों में अन्य मन्त्रों में ब्रह्म के लिए शुक्र (नूर) , भर्गः , आदित्यवर्णः , कान्तिमान , मनोहर , प्रकाशमान , आदि शब्दों का प्रयोग किया गया है ।
वह कहाँ रहता है?-----
सामवेद में कहा है कि जो अपने गृह रूपी चेतन धाम में सम्यक् प्रदीप्त होकर चमकता है उस अत्यन्त तरुण, अद्भुत प्रभा वाले, अपने चेतन धाम में सर्वत्र व्यापक, महान, पृथ्वी और द्युलोक के बीच उत्तम प्रकार से स्तुति किए गए ब्रह्म को हम महानम्रता द्वारा प्राप्त हुए हैं (साम. ५/८/९/१) । जो ब्रह्म का स्वरूप है, वही उसके धाम का भी स्वरूप है । अक्षरातीत पूर्णब्रह्म का स्वरूप जिस प्रकार नूरमयी और प्रेममयी है, उसी प्रकार सम्पूर्ण परमधाम भी नूरमयी और प्रेममयी ही है ..
न तत्र सूर्यों भाति न चन्द्रकारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोsयमग्निः ।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्यभासा सर्वमिदं विभाति ॥
(वेद)
व्याख्या—परमब्रम्ह परमेश्वर के परमधाम में सूर्य नहीं प्रकाशित होता। चन्द्रमा, तारा बिजली भी वहाँ नहीं चमकते फिर इस लौकिक अग्नि की तो बात ही क्या, क्योंकि प्राकृत जगत में जो कुछ भी प्रकाशशील है, सब उस परमब्रम्ह परमेश्वर की प्रकाश शक्ति के अंश को पाकर ही प्रकाशित है।
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः ।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम् ॥
(श्रीमद् भगवद् गीता १५/६)
उस परमपद को न सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न चन्द्रमा और न अग्नि ही प्रकाशित कर सकता है तथा जिस परमपद को प्राप्त होकर मनुष्य पीछे संसार में नहीं आते हैं वही मेरा परमधाम है...
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प्रणाम जी
सुप्रभात जी
ब्रम्हाजी ने नारद से कहा-------
यस्यावतार कर्माणि गायन्ति ह्यस्मदादयः।
न यं विदन्ति तत्त्वेन तस्मै श्रीभगवते नमः।।
‘हम सब जिनके अवतार की लीलाओं का गुणगान ही किया करते हैं, किन्तु उनके ‘तत्त्व’ को नहीं जानते---उन श्रीभगवान् के श्रीचरणों में हम नमस्कार करते हैं।‘
(श्री मद् भागवत् महापुराण २/७/३७)
परमात्मा या अल्लाहतआला या गॉड या सर्वोच्च शक्ति-सत्ता से सम्बंधित ज्ञान रूप तत्त्वज्ञान सत्यरूप से लेकर वर्तमान समय (कलियुग) तक परम रहस्य बना हुआ चला आ रहा है। परमात्मा कौन है? उसका रूप क्या और किस प्रकार का है? वह कहाँ रहता है?
परमात्मा कौन है? ----
गीता में कहा गया है कि दो पुरुष हैं- क्षर एवं अक्षर । सभी प्राणी एवं पंचभूत आदि क्षर हैं तथा इनसे परे कूटस्थ अक्षर ब्रह्म कहे जाते हैं । इनसे भी परे जो उत्तम पुरुष अक्षरातीत हैं, एकमात्र वे ही परब्रह्म की शोभा को धारण करते हैं । (गीता १५/१६,१७)
पूर्ण ब्रह्म का स्वरूप निराकार (मोहतत्व) से परे बेहद, उससे परे अक्षर से भी परे है । मुण्कोपनिषद् में कहा गया है कि उस अनादि, अविनाशी, कूटस्थ अक्षर ब्रह्म से परे जो चिदघन स्वरूप है, उन्हें ही अक्षरातीत कहते हैं ।
उस तेजोमय कोश में तीन अरे (अक्षर ब्रह्म, पूर्ण ब्रह्म तथा आनन्द अंग) तीन (सत् चित् आनन्द) में प्रतिष्ठित हैं । उसमें जो परम पूज्यनीय तत्व, परमात्मस्वरूप हैं, उसका ही ब्रह्मज्ञानी लोग ज्ञान किया करते हैं । (अथर्ववेद १०/२/३२)
उसका रूप क्या है?---
वेद में कहा है- उस धीर, अजर, अमर, नित्य तरुण परब्रह्म को ही जानकर विद्वान पुरुष मृत्यु से नहीं डरता है (अथर्ववेद १०/८/४४ ) । इस मंत्र में अक्षरातीत पूर्ण ब्रह्म को नित्य तरुण ( युवा स्वरूप वाला ) कहा गया है, किन्तु उसका शरीर मनुष्यों के पंचभौतिक शरीर के लक्षणों से सर्वथा विपरीत है । ब्रह्म के युवा स्वरूप वाले शरीर में हड्डी, माँस, रस, रक्त तथा नस-नाड़ियाँ नहीं हैं । श्वास-प्रश्वास की क्रिया उनमें नहीं होती है और क्षुधा भी उसको नहीं सताती है । न उसमें रंच मात्र भी ह्रास होता है और न विकास । अनादि काल से उसका स्वरूप वैसा ही है और अनन्त काल तक रहेगा ।
वेदों में अन्य मन्त्रों में ब्रह्म के लिए शुक्र (नूर) , भर्गः , आदित्यवर्णः , कान्तिमान , मनोहर , प्रकाशमान , आदि शब्दों का प्रयोग किया गया है ।
वह कहाँ रहता है?-----
सामवेद में कहा है कि जो अपने गृह रूपी चेतन धाम में सम्यक् प्रदीप्त होकर चमकता है उस अत्यन्त तरुण, अद्भुत प्रभा वाले, अपने चेतन धाम में सर्वत्र व्यापक, महान, पृथ्वी और द्युलोक के बीच उत्तम प्रकार से स्तुति किए गए ब्रह्म को हम महानम्रता द्वारा प्राप्त हुए हैं (साम. ५/८/९/१) । जो ब्रह्म का स्वरूप है, वही उसके धाम का भी स्वरूप है । अक्षरातीत पूर्णब्रह्म का स्वरूप जिस प्रकार नूरमयी और प्रेममयी है, उसी प्रकार सम्पूर्ण परमधाम भी नूरमयी और प्रेममयी ही है ..
न तत्र सूर्यों भाति न चन्द्रकारकं नेमा विद्युतो भान्ति कुतोsयमग्निः ।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्यभासा सर्वमिदं विभाति ॥
(वेद)
व्याख्या—परमब्रम्ह परमेश्वर के परमधाम में सूर्य नहीं प्रकाशित होता। चन्द्रमा, तारा बिजली भी वहाँ नहीं चमकते फिर इस लौकिक अग्नि की तो बात ही क्या, क्योंकि प्राकृत जगत में जो कुछ भी प्रकाशशील है, सब उस परमब्रम्ह परमेश्वर की प्रकाश शक्ति के अंश को पाकर ही प्रकाशित है।
न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः ।
यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम् ॥
(श्रीमद् भगवद् गीता १५/६)
उस परमपद को न सूर्य प्रकाशित कर सकता है, न चन्द्रमा और न अग्नि ही प्रकाशित कर सकता है तथा जिस परमपद को प्राप्त होकर मनुष्य पीछे संसार में नहीं आते हैं वही मेरा परमधाम है...
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प्रणाम जी
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