Friday, December 25, 2015

"अध्यात्मिकता हमारी भौतिकता का पूरक है— उसका विकल्प नहीं..."

सुप्रभात जी
""अध्यात्मिकता हमारी भौतिकता का पूरक है— उसका विकल्प नहीं...""
Satsangwithparveen.blogspot.com
हम सारी उम्र इसी व्यथा में निकाल देते हैं की हमसे संसार नही छुटता हमें परमात्मा कैये मिलेगा..कयोंकी हमारे अन्दर यह बात बहोत गहराई से बैठ गई या यूं कहें की बैठा दी गई है की परमात्मा त्याग से मिलते है..इसका परिणाम यह हुवा कि हम परमात्मा को अपनें से बहोत दूर समझने लगे हैं..यह गलत धारणा है..कयोंकी..
“उपनिषद का ऋषि संसार को छोड़ने के लिये नहीं कहता, वह भोगने और त्यागने की, अविद्या और विद्या की, असम्भूति और संभूति की बात कहता है। विद्या भी ठीक, अविद्या भी ठीक, सम्भूति भी ठीक, असम्भूति भी ठीक — ये मिलकर चलें तो ठीक, एकुदूसरे से लडें तो ना-ठीक। इस प्रकार के समन्वय को ईशावास्योपनिषद का सार कहा जा सकता है।”
अध्यात्मिकता हमारी भौतिकता का पूरक है— उसका विकल्प नहीं।
अध्यात्मिकता का अर्थ त्याग नहीं है। अध्यात्मिकता का अर्थ संसार से विमुखता भी नहीं है। अध्यात्मिकता तो हमारी वह दृष्टि है जिस से हम यह देख लेते हैं कि हमारी धन-दौलत और हमारे घर-परिवार के पार भी बहुत कुछ है। इस का अर्थ यह नहीं कि यह बोध उसी को हो सकता है जो संसार का त्याग करता है, या संसार को तुच्छ और मिथ्या कहने लगता है।
अध्यात्मिक होने का अर्थ साधु-महात्मा हो जाने से नहीं है। अध्यात्मिक होने का अर्थ है — परमात्मा के साथ एकात्मकता बनाकर जीने की कला सीख लेना। अध्यात्मिक होने का अर्थ है — इस अस्तित्त्व के साथ सहयोग का सम्बन्ध बना लेना। अध्यात्मिक होने का अर्थ है — परमात्मा को अपने जीवन में घोल लेना।
अध्यात्मिक होने का उद्देश्य है — सुख की अनुभूति को बनाये रखना। अध्यात्मिक होने का उद्देश्य है — ब्रह्म में स्थित हो जाना।
एक अध्यात्मिक व्यक्ति अपने हर सुख को परम सुख बना देता है। अध्यात्मिक व्यक्ति जानता है कि परम सुख कहीं आसमान से नहीं टपकता। वह जानता है कि आनन्द कहीं बाहर से नहीं आता। हमारी यात्रा ही हमारे छोटे से सुख को परम सुख बनाती है, हमारी यात्रा ही हमारे क्षणिक सुख को आनन्द बनाती है।
सारी महिमा यात्रा की है।
अध्यत्मिकता यह नहीं कहती कि हम दरिद्रता का जीवन-यापन करें। अध्यात्मिकता का यह अर्थ नहीं कि हम दीन-हीन बन कर जीवन काटें। अध्यात्मिकता तो हमारी भौतिकता की पूर्णता है। यह पूर्णता तभी पाई जा सकती है, जब हम संसार को छोड़ कर नहीं, संसार के साथ चलते हैं। हम पूर्ण तभी हो सकते हैं जब हम भौतिकता का त्याग नहीं, भौतिकता को माध्यम बनाकर यात्रा करते हैं..
आनंद ही बरह्म है जो त्याग नही प्राप्ती का नाम है..

"आनन्दं ब्रह्म इति व्यजानात।"
मैं इस बात को जान गया कि आनन्द ही ब्रह्म है।
— तैत्तिरीय उपनिषद

प्रणाम जी

No comments:

Post a Comment