Tuesday, December 1, 2015

शुक्ष्म भेद

जीव अपने शुद्ध रूप में निर्विकार है वह सुख दुःख नही भोगता बल्कि शुक्ष्म शरीर भोगता है वही खेल में फसता है व् खेल खेलता है ..जीव नारायण से ही बने व उसी का चिदाभास है..
श्रुति के कथनानुसार नारायण ही जीवों के साक्षात् परब्रह्म हैं और जीव उनका प्रतिभास रूप हैं। जीव से ही शरीर में प्राण है इसलिए कई जगह इसे आत्मा भी मान लिया जाता है और कई लोग इसे जीव आत्मा भी कहते है जीव भी मात्र द्रष्टा रूप में रहता है पर अपनी अन्मुक्त अवस्था में शुक्ष्म शरीर के साथ रहता है  उसी केसाथ शरीर छोड़ता  व् धारण करता है इसलिए इसे पराधीन भी कह देते है पर शुक्ष्म रूप से ऐसा नही है ..इसलिय आम तोर पर शुक्ष्म शरीर को भी जीव कहा जाता है वाणी में कहा है ..
""यामें जीव दोय भाँतके, एक खेल दूजे देखन हार ""

श्वेताश्वतर उपनिषदमें भी यह बात स्पष्ट की है । यथा,

द्वा सुपर्णा सयुजौ सखायौ, समाने वृक्षे परिषस्वजाते ।
तयोरेकं पिप्पलं स्वादुमत्तिः अनश्ननन्यो अभिचाकषीति ।।

अर्थात् एक वृक्षमें दो पक्षी सखाभावसे रहते हैं । उनमेंसे एक उस वृक्षके फलका आस्वादन करता है तो दूसरा मात्र देखता रहता है ।

इसलिए आम बोलचाल के भाव में हम कह देते है की जीव करता है जबकि शुक्ष्म रूप में वो करता व् भोक्ता नही है ..करता व् भोक्ता शुक्ष्म शरीर है ..
मृत्‍यु के समय सिर्फ स्‍थूल शरीर गिरता है, सूक्ष्‍म शरीर नहीं।
अनाहत चक्र (-हृदय में स्थित चक्र) के जाग्रत होने पर, स्थूल शरीर में अहम भावना का नाश होने पर दो शरीरों का अनुभव होता ही है। कई बार साधकों को लगता है, जैसे उनके शरीर के छिद्रों से गर्म वायु  निकल कर एक स्थान पर एकत्र हुई और एक शरीर का रूप धारण कर लिया जो बहुत शक्तिशाली है। उस समय यह स्थूल शरीर जड़ पदार्थ की भांति क्रियाहीन हो जाता है। इस दूसरे शरीर को सूक्ष्म शरीर या मनोमय शरीर कहते हैं। कभी-कभी ऐसा लगता है कि वह सूक्ष्म शरीर हवा में तैर रहा है और जीवित अवस्था में वह शरीर स्थूल शरीर की नाभी से एक पतले तंतु से जुड़ा हुआ है।
कभी ऐसा भी अनुभव हो सकता है कि यह सूक्ष्म शरीर स्थूल शरीर से बाहर निकल गया अर्थात जीवात्मा शरीर से बाहर निकल गई और अब स्थूल शरीर नहीं रहेगा, उसकी मृत्यु हो जायेगी। ऐसा विचार आते ही योगी उस सूक्ष्म शरीर को वापस स्थूल शरीर में लाने की कोशिश करते हैं, परन्तु यह बहुत मुश्किल कार्य मालूम देता है। स्थूल शरीर मैं ही हूँ ऐसी भावना करने से  वह सूक्ष्म शरीर शीघ्र ही स्थूल शरीर में पुनः प्रवेश कर जाता है।
हठ योगी शरीर को छोड़कर पुनः प्रवेश कर सकता है। शरीर को छोड़ने पर भी वह सूक्ष्म  शरीर धारण किये रहता है। अक्सर योगी-संतजन  एक साथ एक ही समय दो जगह देखे गए हैं...
जीव अपने शुद्ध रूप में नारायण का प्रतिभास है जिसपर परमधाम की आत्मायें आयी हैं ..शुक्ष्म शरीर के साथ दो शरीर और हैं कारण और माहाकारण जीनका अपना अलग विषय है आज इनकी चरचा नही करेंगे..आत्मा कैसेे इन जीवो पर बैठी है ये भी शुक्षम भेद है ..पर इसका चिंतन आप खुद ही करें तो ज्यादा बेहतर है..
मोटे तौर पर समझने की बात केवल ये है की हम ब्रह्मआत्मायें इनजीवों पर बैठ कर खेल देख रहे हैं और हमें जाग्रत होकर अपने धर जाना है..
शुक्ष्म रूप बहोत गहन व अन्नत है कीसी के बताने या समझाने से नही होगा केवल खुदका अनुभव ही काम आयेगा इसलिय केवल पारब्रह्म का सहारा लें.

प्रणाम जी

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