Saturday, December 19, 2015

कया वो किसी सम्प्रदाय मात्र मे ...

सागर नीर खारे लेहेरें मार मारे फिरें,
बेटों बीच बेसुध पछाड खावें।
खेलें मछ मिलें गलें ले उछालें,
संधों संध बंधे अंधों यों जो भावे।।

यह जीव इस संसार रुपि मोहसागरकी काम,क्रोध, ईर्ष्या, द्वेष आदि खारी लहरोंकी थपेडें. खाता हुआ जन्म-मृत्युरूपी चक्रमें पड़ कर थक जानेलके बाद सत्य की खोज के लिय विभिन्न सम्प्रदायरूपी द्वीपों में आश्रय लेता है और बेसुध होकर भटकता है. और उन सम्प्रदाय के ही घोर अंधेर संकिर्ण विचारो मे ही सब मस्त होकर समझते है की हम अन्नत को पा लेंगे ..पर उन संमप्रदाय में लोग कयी तरह के धार्मिक भय दिखा कर व धर्म ग्रन्थो का गलत भाष्य बता कर उन जीवों से अपनी ही सेवा पूजा करवाते रहते है व उनको सत्य से विमुख कर देते है ..ये अखंड आनंद आदिका प्रलोभन देकर सामान्य जनको अपनी ओर खींचते हैं. इस प्रकार झूठे प्रलोभनमें बँधे हुए सत्य से विमुख लोग अपने अपने सम्प्रदायको श्रेष्ठ मानते हैं..पर सत्य परमात्मा जो अन्नत है कया वो किसी सम्प्रदाय मात्र मे सिमित हो सकता है..??

प्रणाम जी

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