सुप्रभात जी
अर्जुन की अज्ञान की जड़ पर भगवान् बार- बार कुठाराघात करते हैं। उसे समझाते हैं कि सब कुछ त्याग कर चले जाने मात्र से, उसे युद्ध से, रक्तपात से, कौरवों से, निंदा से, अपयश से, द्रौपदी के तानों से, विभिन्न प्रकार से होने वाली लोक भर्त्सना से मुक्ति नहीं मिलेगी। असली संन्यास आंतरिक है, बाह्य नहीं। जिसने अपने मन के वासनामूलक संकल्पों का त्याग नहीं किया, वह योगी नहीं हो सकता। कर्म तो किसी भी स्थिति में करना ही होगा। कर्म ही मुक्ति के कारण बनेंगे। आंतरिक संन्यास के निरंतर अभ्यास के साथ- साथ कर्म करते रहने से वासनात्मक मन और निम्र प्रकृति पर आसानी से विजय प्राप्त की जा सकती है।
यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पांडव।
न ह्यसंन्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन॥ (गीता६/२)
कितना स्पष्ट अर्थ है-
भावार्थ हुआ- ‘‘हे अर्जुन! जिसको संन्यास कहते हैं, उसी को तू योग रूप में जान, क्योंकि ऐसा कोई भी व्यक्ति जिसने संकल्प का त्याग न किया हो, योगी नहीं हो सकता।’’ ६/२
प्रणाम जी
अर्जुन की अज्ञान की जड़ पर भगवान् बार- बार कुठाराघात करते हैं। उसे समझाते हैं कि सब कुछ त्याग कर चले जाने मात्र से, उसे युद्ध से, रक्तपात से, कौरवों से, निंदा से, अपयश से, द्रौपदी के तानों से, विभिन्न प्रकार से होने वाली लोक भर्त्सना से मुक्ति नहीं मिलेगी। असली संन्यास आंतरिक है, बाह्य नहीं। जिसने अपने मन के वासनामूलक संकल्पों का त्याग नहीं किया, वह योगी नहीं हो सकता। कर्म तो किसी भी स्थिति में करना ही होगा। कर्म ही मुक्ति के कारण बनेंगे। आंतरिक संन्यास के निरंतर अभ्यास के साथ- साथ कर्म करते रहने से वासनात्मक मन और निम्र प्रकृति पर आसानी से विजय प्राप्त की जा सकती है।
यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पांडव।
न ह्यसंन्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्चन॥ (गीता६/२)
कितना स्पष्ट अर्थ है-
भावार्थ हुआ- ‘‘हे अर्जुन! जिसको संन्यास कहते हैं, उसी को तू योग रूप में जान, क्योंकि ऐसा कोई भी व्यक्ति जिसने संकल्प का त्याग न किया हो, योगी नहीं हो सकता।’’ ६/२
प्रणाम जी
No comments:
Post a Comment