Monday, November 30, 2015

कर्म रहस्य ......

कर्म रहस्य ......
सुप्रभात जी

प्रारब्ध कर्म---("प्रकर्षेण आरब्धः प्रारब्धः" अर्थात अच्छी तरह से फल देने के लिए जिसका आरंभ हो चुका है,वह प्रारब्ध है)
संचित मे से जो कर्म फल देने के लिए उन्मुख होते है ,उन कर्मो को प्रारब्ध कर्म कहते हैं।प्रारब्ध कर्मो का फल अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति के रूप मे सामने आता है;परंतु उन प्रारब्ध कर्मो को भोगने के लिए प्राणियों की प्रवृत्ति तीन प्रकार की होती है-1स्वेच्छा पूर्वक,2.अनिच्छा पूर्वक ,3.परेच्छा पूर्वक ।
कर्मो का फल 'कर्म' नही होता,प्रत्युत 'परिस्थिति' होती है अर्थात प्रारब्ध कर्मो का फल परिस्थिति रूप से सामने आता है। प्रारब्ध कर्मो से मिलने वाले फल के दो भेद होते है-'प्राप्त फल' और 'अप्राप्त फल'। वर्तमान काल मे सबके सामने जो अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति आती है उसे 'प्राप्त फल' और जो अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति भविष्य मे आने वाली है वो "अप्राप्त फल' कही जाती है।
क्रियमाण कर्मो का जो फल -अंश संचित मे रहता है,वही प्रारब्ध बनकर अनुकूल,प्रतिकूल और मिश्रित परिस्थिति के रूप मे बनकर मनुष्य के सामने आता है।अतः जबतक संचित कर्म रहते है, तब तक प्रारब्ध बनता ही रहता है और प्रारब्ध परिस्थिति के रूप मे परिणत होता ही रहता हैं...

प्रणाम जी

देखनको हम आए री दुनियां,

देखनको हम आए री दुनियां, हम ही कारण कियो ए संच ।
पार हमारो न्यारा नहीं, हम पार ही में बैठे देखे प्रपंच ।।

अर्थात् हे ब्रह्मात्माओं ! हम सभी नश्वर जगतका यह खेल देखनेके लिए सुरताके रूपमें यहाँ पर आई हैं । हमें दिखानेके लिए ही परमात्मा ने अक्षर ब्रह्मके द्वारा इस विशिष्ट खेलकी रचना करवायी है । किन्तु यह खेल देखते ही हम स्वयंको भी भूल गयीं और अपने परमात्मा भी भूल गयी । हमें यह लगने लगा कि हम तो आदि अनादि कालसे नश्वर जगतमें हैं और हमारे परमात्मा हमसे दूर अपने धाम परमधाममें हैं । जागृत होकर हमें समझना है कि वस्तुतः परमात्मा हमसे दूर नहीं हैं, हम तो उनके चरणोंमे बैठ कर ही मायाका यह प्रपंच देख रहे हैं ।

प्रणाम जी

Sunday, November 29, 2015

बिछुड़ा नही..

बिछुड़ा नही..
सुप्रभात जी

 अगर तुम्हें पता है कि तुम ईश्वर—अंश हो तो तुम्हें पता होगा कि बिछुड़ा कभी भी नहीं। तुमने बिछुड़ने का सपना देखा। बिछुड़ा कभी भी नहीं, क्योंकि अंश बिछुड़ कैसे सकता है? अंश तो अंशी के साथ ही होता है। तुम्हें याद भूल गई हो, बिछुड़न नहीं हो सकती, विस्मृति हो सकती है। बिछुड़ने का तो उपाय ही नहीं है। हम जो हैं, वही हैं। चाहे हम भूल जाएं, विस्मरण कर दें, चाहे हम याद कर लें—सारा भेद विस्मृति और स्मृति का है।

‘मूल से कब, क्यों और कैसे बिछुड़ा?’

बिछुड़ा होता तो हम बता देते कि कब, क्यों और कैसे बिछुड़ा। बिछुड़ा नहीं। रात तुम सोए, तुमने सपना देखा कि सपने में तुम घोड़े हो गए। अब सुबह तुम पूछो कि हम घोड़े क्यों, कैसे, कब हुए—बहुत मुश्किल की बात है। ‘क्यों घोड़े हुए?’ हुए ही नहीं, पहली तो बात। हो गए होते तो पूछने वाला बचता? घोड़े तो नहीं पूछते। तुम कभी हुए नहीं, सिर्फ सपना देखा। सुबह जागकर तुमने पाया कि अरे, खूब सपना देखा! जब तुम सपना देख रहे थे तब भी तुम घोड़े नहीं थे, याद रखना। हालांकि —तुम बिलकुल ही लिप्त हो गए थे इस भाव में कि घोड़ा हो गया। यही तो अष्टावक्र की मूल धारणा है। अष्टावक्र कहते हैं जिस बात से भी तुम अपने मैं— भाव को जोड़ लोगे, वही हो जाओगे।

देहाभिमान—तो देह हो गए। कहा ‘मैं देह हूं’, तो देह हो गए। ब्रह्माभिमान—कहा कि मैं ब्रह्मआत्मा हूं तो  हो गए। तुम जिससे अपने मैं को जोड़ लेते हो, वही हो जाते हो। सपने में तुमने घोड़े से जोड लिया, तुम घोड़े हो गए। अभी तुमने शरीर से जोड़ लिया तो तुम आदमी हो गए। लेकिन तुम हुए कभी भी नहीं हो। हो तो तुम वही, जो तुम हो। जस—के—तस! वैसे के वैसे! तुम्हारे स्वभाव में तो कहीं कोई अंतर नहीं पड़ा है। धारणा सही रखो तो सब सुलभ है परमात्मा से कभी हम अलग है ही नही..

प्रणाम जी

खोज

खोजी खोजें बाहेर भीतर, ओ अंतर बैठा आप।
सत सुपने को पारथें पेखे, पर सुपना न देखे साख्यात ।।

हे साधुजन ! इस बिन्दुरूपी झूठी मायामें विराट शक्तिशाली सिन्धुरूपी (अन्नत)परमात्मा समाया हुआ प्रतीत होता है. सत रज और तम इन तीनों गुणोंके अधिष्ठाता देवता-ब्रह्मा, विष्णु और महेश भी  परमात्माको खोजते-खोजते चकित हो गए हैं तथापि वे अलख परमात्मा दृष्टिगोचर नहीं हुए.
वेद भी परब्रह्मकी खोज करनेके उपरान्त उसे अगम्य (पहुँचसे परे) कहकर 'नेति नेति' (अन्त नहीं, अन्त नहीं) कहते हुए उलटे पीछे लौट गये. यह बिन्दुरूपी माया कहाँसे उत्पन्न हुई है, इसकी जानकारी न होनेसे उसका नाम निगम पडा.
इस असत्य मण्डल (नश्वर ब्रह्माण्ड अर्थात् भवसागर) में सभी लोग अपना मार्ग भूल गए हैं. अखण्ड अविनाशी परमात्माकी बात कोई नहीं करता. यह संसार स्वप्नका खेल है और सभी लोग अज्ञाानकी निद्रामें यहाँ विचरण कर रहे हैं, स्वयं जागृत होकर परमात्माके विषयमें किसीने भी मार्गदर्शन नहीं किया.
यह विराट ब्रह्माण्ड स्वप्नका बना हुआ है और इसकी समग्र सृष्टि भी स्वप्नकी ही है. इसलिए असत्यके विस्तारसे सत्य ढक गया है. मायावी जीव स्वयं स्वप्नके होनेके कारण सत्य परमात्माको कैसे देख सकते ? इस प्रकार उन्हें परम तत्त्व भी नहीं मिल सका.
परमात्माको ढूँढ.नेवाले लोग इस विश्वमें पिण्ड-शरीरमें अथवा ब्रह्माण्ड (बाहर) में परमात्माको ढूँढते हैं, परन्तु स्वयं परमात्मा तो आत्म स्वरूपसे अन्तरमें विराजमान हैं. ..यह बहोत गहन विषय है इस पर आत्मअध्यन होना चाहिय..

प्रणाम जी

Saturday, November 28, 2015

जहर जमीन

इन जेहेर जिमीसे कोई ना निकस्या, अमल चढयो अति भारी ।
मुझ देखते सैयल मेरी, कैयों जीत के बाजी हारी।।
(वाणी मेरे पियू की न्यारी जो संसार)

इस संसारमें मोह-माया ,सत का भ्रम और अहङ्कारका विष इतना अधिक फैल गया है कि उनमेंसे कोई भी बाहर निकल नहीं सकता. कयोंकी सब उलटे रसते पर जा रहे है ..और जो सीधा है उसका किसी को अभ्यास नही है ...रस्ते केवल दो ही है एक जड़ और दूसरा चेतन जब हम जड़ पूजा की और जा रहे होते हैं तो चेतन को पीठ रहती है जब चेतन को जाते हैं तो जड को..अगर कोइ ये सोचता है की वो जड़ से चेतन को पा लेगा तो यह बहोत बडा भ्रम है ..पर अन्नत जन्मों से जड़ पूजा के कारण जीव के कारण शरीर मे जड़ता संसकार रूप मे विरामान है इसलिय इसे चेतन की बात विपरीत या धर्म विरोधी लगती हैं..मार्ग बताने वाले भी इसी रोग से ग्रसित होने के करण यह बिमारी पिढी दर पिढी चली आ रही है ..सब कीसी के बताए रस्ते पर जा रहे हैं .. खुद की खोज कोइ नही करना चाहता ..जो की आत्म कल्याण के लीय परम आवशयक है.. इसलिय मेरे देखते-देखते अनेक लोगोंने यह मानव-तनरूपी शुभावसर प्राप्त करके भी उसे गँवा दिया.

यं न योगेन सांख्येन दानब्रततपोध्वरै: ।
व्याख्यास्वाध्याय संन्यासै: प्राप्नुयाद् यत्नवानपि ॥
(श्रीमद् भा॰ महापुराण ११/१२/९)
उद्धव ! बड़े-बड़े प्रयत्नशील साधक योग, सांख्य, दान, व्रत, तपस्या, यज्ञ, श्रुतियों की व्याख्या, स्वाध्याय और सन्यास आदि साधनों के द्वारा मुझे नहीं प्राप्त कर सकते, परन्तु सत्य के ग्यान के द्वारा तो मैं अत्यन्त सुलभ हो जाता हूँ।

मन्माया मोहितधिय: पुरुषा: पुरुषर्षभ ।
श्रेयोवदन्त्यनेकान्तं यथाकर्म यथारुचि ॥
(श्रीमद् भा॰ महापुराण ११/१४/९)
प्यारे उद्धव ! सभी की बुद्धि मेरी माया से मोहित हो रही है; इसी से वे अपने-अपने कर्म-संस्कार और अपनी-अपनी रुचि के अनुसार आत्मकल्याण के साधन भी एक नहीं, अनेकानेक बतलाते हैं
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प्रणाम जी

Friday, November 27, 2015

इच्छाऐं (जाल)

सुप्रभात जी

वर्तमान जन्म का कारण पूर्व जीवन की वासनायें (इच्छाऐं )हैं और उन वासनाओं का कारण उस समय हमारे द्वारा किये गये सकाम कर्म थे । इसी प्रकार इस जीवन में किये गये सकाम कर्म वासना बनकर हमारे अगले जीवन का रूप निर्धारित करते हैं । भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में पुनर्जन्म की निन्दा की है और उसे दुःखालय कहा है -
मामुपेत्य पुनर्जन्म दुःखालयमशाश्वतम् ।
नाप्नुवन्ति महात्मानः संसिद्धिं परमां गताः ।।८-१५।।

परम सिद्धि को प्राप्त हुये महात्माजन मुझे प्राप्त कर अनित्य दुःख के आलय पुनर्जन्म को प्राप्त नहीं होते ।

मनुष्य सकाम कर्म सुखों की आशा से करता है, किन्तु उन्हीं के कारण वह दुःखों में पड़ता है । सकाम कर्मों के फलस्वरूप ही 'दुःखालयम् अशाश्वतम्' रूपी पुनर्जन्म प्राप्त होता है । प्रत्येक शरीर में जन्म-मृत्यु, जरा व रोग लगते हैं । ये विकार नये-नये दुखों के श्रोत हैं । सभी दुःखों के मूल में सकाम कर्मों का भण्डार ही विद्यमान है ।
इसलिय ब्रह्मग्यान के माध्यम से परमात्मा का सत्य स्वरूप जान कर उनको ह्रदय में धारण करके गहनतम प्रेमलक्षणा भाव दूारा एकमात्र उन्ही को लक्षय मानकर सबके प्रती सेवा भाव व करता परमात्मा को जान कर बचा हुआ जीवन व्यतीत करो तो धोर दुखो से मुक्त होकर परमलक्षय पा लोगे..
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प्रणाम जी

नाव ..

जब सामान्य सी हवा चलती है तो पाल के सहारे नाव उचित गति से चलती रहती है, किन्तु आंधी में पाल के तने रहने से नाव के उलट जाने और पाल के फट जाने का खतरा हमेशा ही बना रहता है।
 बांस मन,
पाल चित्त है
रस्सी बुद्धि है।
जब विषय-सुखों का बहुत अधिक आकर्षण सामने होता है, तो बुद्धि के द्वारा उनकी विवेचना कोई सार्थक फल नहीं देती, क्योंकि यदि हृदय के अन्दर (अहं में) निज स्वरूप का बोध नहीं है, तो चित्त (पाल) में तो जन्म-जन्मान्तरों के विषय सुखों के संस्कार भरे पड़े हैं। कुसंस्कारों के जागृत होने का कारण पाप में डूबने में जरा भी देर नहीं लगेगी।
हे जीव ! इस भवसागर से सुरक्षित निकल जाने का एक ही मार्ग है कि तूं अपने परमात्मा के प्रेम में चलते हुए समर्पण का मार्ग अपना। अब इस भयानक स्थिति में शुष्क हृदय से मन, चित्त और बुद्धि से होने वाला मनन, चिन्तन और विवेचन भवसागर से पार नहीं करा पायेगा। जिस प्रकार भयानक आंधी में रस्सी खींचकर पाल को निष्क्रिय कर दिया जाता है, उसी प्रकार विषय - विकारों की प्रबलता में केवल समर्पण और प्रेम का अस्त्र ही काम में आयेगा। बुद्धि की अधिक चतुराई तुम्हें समर्पित नहीं होने देगी, जिसका परिणाम यह होगा कि भवसागर को पार करने से पहले ही नाव डूब जायेगी..

प्रणाम जी

सत्संग का अर्थ

सत्संग क्या है
जन्मो से हमे एक भयानक रोग हो गया है की हम सच को झूट और झूट को सच मानने लगे है इस कारण हम सत्संग का मतलब भी झूठ का संग समझने लगे है इसलिए सत्संग के नाम पे झूठ का ही संग करते है सत्संग की व्याख्या से पहले हमें ये जानना जरूरी है की सच क्या है और झूट क्या है ,
पहले जान लें की झूट क्या है ,हमारा ये पञ्च भोतिक शरीर या पञ्च तत्त्व से बनी कोई भी चीज़, अन्दर मन चित बुद्धी और अहंकार ये सब झूट है फिर सच क्या है एक मात्र परमात्मा और उसके अंशी आत्मा ही सत्ये है,
अब इसी थ्योरी से सच झूट को समझना होगा ..हमारे जीव को इस संसार में आये अनंत जन्म बीत चुके है इस कारण ये जीव पञ्च भोतिक तत्वों को ही सच मान बैठा है जरा सोचिये मंदिर में रखी मूर्ति क्या पञ्च भोतिक नही है तो क्या वो सच है? और ऊपर से है हम उन झूटी मूर्तियों की भी फोटो (याने झूठ का भी झूठ) लेके कहते है की ये हमारे परमात्मा हैं.. मतलब झूटी मूर्ति की भी झूटी तस्वीर के साथ हम सत्संग करते है क्या ये सत्संग है फिर झूटे शरीरो में आस्था रखते है चेतनता से हमारा कोई नाता नही रह गया है तो सत्ये क्या है ..?? सत्ये केवल परमात्मा का विषये है सत्ये का ध्यान सत्ये है सत्ये का ज्ञान सत्ये है सत्ये की बात सत्ये है सत्ये का बोध सत्ये है
इस सत्येता में उतर के देखिये आप अपने आप असत्य से दूर हो जायेंगे सावधान रहें झूट कब सत्ये में मिलके हमे भरमित कर देती है हमे पता भी नही चलता सत्ये का कोई नाम नही है इसलिए नाम को सत्ये मत मानो बल्कि केवल सत्ये को स्वीकार करो चाहे कोई भी नाम से हो सत्ये का कोई नाम नही होता क्योंकि हम तीन गुणों के संसार में रहते है इसलिए हम सत्ये को भी गुणों के आधार पर देखते है इसलिए उसका गुणों के अनुरूप नाम या संबोधन करते है जो कालांतर के साथ नाम बन जाता है जिस से भरम और असत्य का जन्म होता है |
इसलिए सत्ये को समझ कर केवल सत्संग करें ...मेरी बात से अगर किसी भी तरह से आपके अहंकार को ठेस पोहोचती है तो मै आपसे चरण वंदन क्षमा मंगतता हूँ .
सत सुपने में क्यों कर आये सत साईं है न्यारा {वाणी कि. ३२/२ }
प्रकृति के अन्धकार से सर्वथा परे सूर्य के समान प्रकाशमान स्वरूप वाले परमात्मा को मै जानता हूँ , जिसको जाने बिना मृत्यु से छुटकारा पाने का अन्य कोई भी उपाय नहीं है (यजुर्वेद ३१/१८)
उपनिषद में स्पष्ट रूप कहा गया है कि अमृतस्वरूप दिव्य ब्रह्मपुर में परब्रह्म स्थित है
( मुण्डकोपनिषद् २/२/७ ) ।
वेद का कथन है कि उस अनादि अक्षरातीत परब्रह्म के समान न तो कोई है , न हुआ है और न कभी होगा । इसलिए उस परब्रह्म के सिवाय अन्य किसी को भी परमात्मा नही कहा जा सकता
(ऋग्वेद ७/३२/२३)
तिन कबीले में रहना , पूजे पानी आग पत्थर।
बेसहूर इन भांत के , जान बूझ जले काफर।। (प्राणनाथ वाणी)
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प्रणाम जी

Thursday, November 26, 2015

केवल एक ...

केवल एक ...

उस परमात्मा की सभी देवी-देवता, ऋषि-मुनि, ब्रह्मा, विष्‍णु, महेश, राम और कृष्ण आराधना करते हैं। हिंदू धर्म ग्रंथ वेद, स्मृति, गीता आदि सभी में इस बात के प्रमाण हैं। वेद और पुराण के अनुसार 'वह परमात्मा एक ही है' दूसरा कोई परमात्मा नहीं है। मत्स्य अवतार से लेकर कृष्ण तक सभी अवतारी पुरुष उस परमात्मा की शक्ति से ही परमात्मा के संदेश को पहुँचाते रहे हैं।
परमात्मा न तो भगवान है, न देवता, न दानव और न ही प्रकृति या उसकी अन्य कोई शक्ति। ‍ परमात्मा एक ही है अलग-अलग नहीं। परमात्मा अजन्मा है। जिन्होंने जन्म लिया है और जो मृत्यु को प्राप्त हो गए हैं या फिर अजर-अमर हो गए हैं वे सभी परमात्मा नहीं हैं। जीन्होने वाणी मथन किया है या जो वेदज्ञ हैं, गीता के जानकार हैं और जिन्होंने उपनिषदों का अध्ययन किया है वे उक्त बातों से निश्चित सहमत होंगे। यही सनातन सत्य है।

ऋग्वेद (1-164-43)

।।इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्य: स सुपर्णो गरुत्मान्।
एकं सद् विप्रा बहुधा वदंत्यग्नि यमं मातरिश्वानमाहु: ।।-
भावार्थ :
जिसे लोग इन्द्र, मित्र, वरुण आदि कहते हैं, वह सत्ता केवल एक ही है; ऋषि लोग उसे भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते है..

(यजुर्वेद 13.4)

सारे संसार का एक और मात्र एक ही निर्माता और नियंता है । एक वही पृथ्वी, आकाश और सूर्यादि लोकों का धारण करने वाला है । वह स्वयं आनंदस्वरूप है । एक मात्र वही हमारे लिए उपासनीय है ..

(अथर्ववेद 13.4.16-21)

वह न दो हैं, न ही तीन, न ही चार, न ही पाँच, न ही छः, न ही सात, न ही आठ, न ही नौ , और न ही दस हैं । इसके विपरीत वह सिर्फ और सिर्फ एक ही है । उसके सिवाय और कोई परमात्मा नहीं है । सब देवता उसमे निवास करते हैं और उसी से नियंत्रित होते हैं । इसलिए केवल उसी की उपासना करनी चाहिए और किसी की नहीं ..

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प्रणाम जी

Wednesday, November 25, 2015

चार पदार्थ

चार पदार्थ..
चार पदार्थ पामिया रे , ऐ थी लीजिये धन अखण्ड ।
अवसर आ केम भूलिये , जेथी धणी थाय ब्रह्माण्ड ।।
( श्री मुख वाणी- किरन्तन १२८/४९)
अर्थात् चार अनमोल पदार्थ यथा कलयुग , भारतवर्ष , मनुष्य तन और ब्रह्मज्ञान पाकर इन्हें व्यर्थ नहीं खोना चाहिए , अपितु प्रत्येक क्षण का सदुपयोग कर परब्रह्म का साक्षात्कार प्राप्त करना चाहिए ||
1 कलयुग
2 भारतवर्ष
3 मनुष्य तन
4 ब्रह्मज्ञान
कलयुग--कलयुग को इसलिय महत्वपूर्ण माना गया है कयोंकी इसी कलयुग में ब्रह्म ग्यान प्रकट हुवा है ..
बुद्ध स्तोत्र
"" कलियुग ""के प्रथम चरण में वह सच्चिदानन्द परब्रह्म अचानक ही ज्ञान रूप से प्रकट होंगे, जिनके ज्ञान को प्राप्त करके तुम स्वयं भी ज्ञानमयी हो जाना ।।५।।
(हरिवंश पुराण भविष्य पर्व अध्याय ४ )
इसमें कहा गया है कि कभी न होने वाले वे ब्रह्ममुनि ""कलियुग"" में अवतरित होंगे, जो एकमात्र प्रधान पुरुष (अक्षरातीत) के ही आश्रय में रहने वाले होंगे और उनको छोड़कर अन्य किसी की भी उपासना नहीं करेंगे । उनका ग्यान अलौकिक होगा |
भारतवर्ष--
'बृहद्सदाशिव संहिता' ग्रन्थ के श्रुति रहस्य अध्याय में वर्णन है..
चिदघन स्वरूप परब्रह्म के आवेश से युक्त अक्षर ब्रह्म की बुद्धि परब्रह्म परमात्मा की आतमांओ को जाग्रत करने के लिए तथा सम्पूर्ण लोकों को मुक्ति देने के लिए ""भारतवर्ष""में प्रकट होगी । वह प्रियतम के द्वारा स्वामिनी (श्री श्यामा जी) के हृदय में स्थापित किए जाने पर चारों ओर फैलेगी । (श्रुति रहस्य १८,१९)
मनुष्य तन-- गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि " बड़े भाग मानुष तन पावा | सुर दुर्लभ सदग्रंथनि गावा ||"
अर्थात बड़े भाग्य से, अनेक जन्मों के पुण्य से यह मनुष्य शरीर मिला है जिसकी महिमा सभी शास्त्र गाते हैं कि यह देवताओं के लिए भी कठिन है |
यह देव-दुर्लभ मानव-तन आपको सौभाग्य से प्राप्त है तो अध्यात्म की दिशा पकड़ें। आप पशु हैं, कीटाणु हैं तो कोई बात नहीं है। ‘आहार निद्रा भय मैथुनं च सामान्य एतद् पशुभि: नराणाम्’– यह तो सबके पास है। परमात्मा तक को प्रसन्न कर लेने की क्षमता केवल मनुष्य शरीर में है।
ब्रह्मज्ञान--
शब्द ब्रम्हाणि निष्णातो निष्णायात् परे यदि।
श्रमस्तस्य श्रमफलो ह्यधेनुमिव रक्षतः।।
(श्रीमद्भागवत महापुराण ११/११/१८)
प्यारे उद्धव! जो पुरुष वेदों का तो परगामी विद्वान हो परन्तु परमब्रम्ह के ज्ञान( ब्रह्मज्ञान )से शून्य हो, उसके परिश्रम का कोई फल नहीं हैं। वह तो वैसा ही है, जैसे बिना दूध का गाय पालने, वाला..
(पुराण संहिता:३१/५०)
अज्ञानता के अगाध सागर से आत्माओं को निकाल कर परब्रह्म स्वयं अपने कृपा रूपी महासागर में स्नान करायेंगे और अपने अलौकिक ज्ञान (ब्रह्मज्ञान) से उन्हें जाग्रत करेंगे ।
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प्रणाम जी

Tuesday, November 24, 2015

लक्ष्य की प्राप्ति

सुप्रभात जी

जब तक संसार को हम अपना समझते रहेंगे और संसार से किसी भी प्रकार की आशा रखेंगे, तब तक परम-लक्ष्य की प्राप्ति असंभव है। जब तक अपना सुख, आदर, सम्मान चाहते रहेंगे तब तक परमात्मा को अपना कभी नहीं समझ सकेंगे। परमात्मा की कितनी भी बातें कर लें, सुन भी लें, पढ़ भी लें लेकिन जब तक सुख की चाहत बनी रहेगी तब तक परमात्मा में मन नहीं लग पायेगा।कयोंकी वो शुध्द आनंद स्वरूप गुणातीत है ओर हम गुणो में आनंद ले रहे है..
(गीताः ७/१३)
प्रकृति के इन तीनों गुणों से उत्पन्न भावों द्वारा संसार के सभी जीव मोहग्रस्त रहते हैं, इस कारण प्रकृति के गुणों से अतीत मुझ परम-अविनाशी को नहीं जान पाते हैं...

हम परमात्मा से परमात्मा को नहीं चाहते है, हम परमात्मा से संसारिक सुख, सांसारिक मान, सांसारिक सम्पदा चाहते हैं।

जब तक हमारे अन्दर परमात्मा से परमात्मा को ही पाने की चाहत नहीं होगी तब तक परमात्मा को कैसे प्राप्त हो सकेंगे? संसारिक सभी रिश्ते तो स्वार्थ के रिश्ते हैं, हमारी जितनी सामर्थ्य हो सके उतना ही सांसारिक रिश्तों को निभाने का प्रयत्न करना चाहिये। हमें अपनी शक्ति-सामर्थ्य के अनुसार ही संसार की सेवा करनी चाहिये, स्वयं के सुख-सुविधा की अपेक्षा संसार से नही करनी चाहिये।

परमात्मा में हमारा मन तभी लग पायेगा जब तक हम यह नहीं समझ लेंगे कि संसार में न तो हमारा कभी कोई था, न ही कभी कोई हमारा होगा और न ही कोई हमारा है। केवल परमात्मा ही हमारे थे, परमात्मा ही हमारे हैं और परमात्मा ही हमारे रहेंगे। इस संसार में कोई हमारा हो भी नहीं सकता है जो हमें चिर स्थाई सुख-सुविधा और प्रसन्नता दे सके। संसार में तो सभी सुख-सुविधा के भूखे हैं, मान के भूखे हैं, संपत्ति के भूखे हैं तो वह हमारे को सुख-सुविधा, मान-सम्मान, धन-संपदा कैसे दे सकते हैं

इसलिय बार बार कह रहा हूं की एकमात्र परमातमा में ध्यान लगा कर उसे ही प्राप्त करना हमारा लक्ष्य होना चाहिय वो भी इसी जन्म में ओर अती शिघ्र..
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प्रणाम जी

धर में हमारी प्रतिक्षा हो रही है ..

कृप्या ध्यान दें..

हम ब्रह्मसृष्ठ आई धाम से,अक्षर खेल देखन ।
खेल देख के जागिए, घर असलू अपने तन ॥

हम सब आत्मांये इन नश्वर शरिरो में माया का खेल देखने आई हैं व माया में खुद को भूलकर अपने को शरीर ही समझनें लगी बस यही से दुख शुरू ..इसको एक काहानी के माध्यम से समझें..

सरोवर के किनारे अपने आश्रम में तप करते-करते
मार्कण्डेय ऋषि को नारायण के दर्शन हुए । ऋषि ने
माया देखने की इच्छा प्रकट की । अतः नारायण ने
उनके ऊपर अज्ञान रूपी नींद का आवरण डाला ।
मार्कण्डेय ऋषि ने देखा कि प्रलय के जल में एक
बालक बह रहा है । उनकी सुरता(ध्यान) उसमें चली गयी ।
वहां अनेक योनियों में उन्होंने अनेक तन धारण
करते हुए सांसारिक क्रिया कलापों में बहुत दुःख
भोगा तथा माया में तल्लीन हो गये । तभी साधु भेष में नारायण ने उनसे भेंट की और उनको
प्रबोधित किया कि वे तो मार्कण्डेय ऋषि हैं ।
अज्ञान रूपी नींद के हटते ही उन्होंने पाया कि वे
उसी सरोवर के किनारे बैठे हैं तथा नारायण उनके
सामने विराजमान हैं । अर्थात् अभी एक क्षण भी
व्यतीत नहीं हुआ था ।
जिस प्रकार मार्कण्डेय ऋषि ने माया देखने की इच्छा की थी, उसी प्रकार अनादि परमधाम में आत्माओं ने  परब्रह्म परमात्मा से माया देखने की इच्छा की थी । उनकी इच्छा पूरी करने के लिए सच्चिदानन्द परब्रह्म परमात्मा ने अपनी आत्माओं को वहां बैठे-बैठे दृष्टि (सुरता) मात्र से यह मायावी खेल दिखाया है । परमधाम की आत्मायें इस मायावी जगत में अपने परमात्मा को भूल गयी हैं ।
हम आतमायें इस संसार में आयी हैं इसके कुछ शब्द प्रमाण भी  ग्रहण करें...

पुराण संहिता ग्रन्थ के अध्याय ३१ में शिव जी ने परब्रह्म की आत्माओं के पुनः संसार में प्रकटन का वर्णन किया हैं-

परमधाम की आत्माओं के अन्दर नश्वर जगत की दुःखमयी लीला को देखने के लिए, जो कभी भी इसके पहले उत्पन्न न होने वाली इच्छा थी, वह प्रियतम के साथ में रहने के कारण स्वभावतः पूरी नहीं हो सकी ।।२५।।

वह इच्छा उनके अन्दर बीज रूप से स्थित थी । सुख की वासना के लक्षणों से सम्बन्धित जीव ही संसार को प्राप्त हो सकते हैं । निश्चय ही जन्मजात संस्कार पूर्ण रूप से छूट नही पाते हैं । इसी प्रकार अक्षरातीत की प्रियायें भी खेल देखने की पहले वाली इच्छा से युक्त बनी रहीं । उसकी पूर्ति न होने से निजधाम में वे आत्माएँ जाग्रत न हो सकीं । इसके पश्चात् पहले की तरह ही वह कालमाया उत्पन्न हुई ।।२६-२८।।

अपनी इच्छा पूरी न होने के कारण अक्षरातीत की वे प्रियायें इस ब्रह्माण्ड में अवतरित होंगी । अपने परमधाम में कुछ समय तक सुषुप्त की तरह स्थित रहने के पश्चात् कालमाया के स्वप्न के ब्रह्माण्ड में पुनः अवतरित होंगी । वाराह नामक कल्प के दूसरे परार्द्ध में, स्वारोचिष आदि छः मन्वन्तरों के व्यतीत हो जाने पर सातवें वैवस्वत मन्वन्तर में अट्ठाइसवें कलयुग के प्रथम चरण में माया का खेल देखने की इच्छा शेष रह जाने के कारण वे असहनीय दुःख के भोग को प्राप्त होंगी ।।३०-३३।।

वे अलग-अलग देशों में तथा ब्राह्मण, आदि कुलों में भी पैदा होंगी । कुछ स्त्रियों का रूप धारण करेंगी तो कुछ पुरुषों का ।।३४।
हमें खुद की पहचान करके एकमात्र परब्रह्म का आश्रय लेके अपने धर जाना है कयोंकी हमारे धर में हमारी प्रतिक्षा हो रही है वो कह रहे हैं
"आजा सांझ हुइ मुझे तेरी फिकर ,कयों भटक रही तूं दर बदर आजा ना "

प्रणाम जी

Monday, November 23, 2015

आन्तरिक रुप से अलग रहो

सुप्रभात जी

माया के इस लुभावने खेल को देखकर साधू-सन्त प्रत्यक्ष रुप से सावधान करते हैं। सच तो ये है की हम माया को ठगने में लगे रहते है और माया हमारे को ठगने में लगी रहती है इस प्रकार दोनों ठग एक दूसरे को ठगते रहते हैं।

भ्रम के कारण हम समझते हैं कि हम माया को भोग रहें है जबकि माया जन्म-जन्मान्तर से हमारा भोग कर रही है..
माया भय का दूसरा नाम है भय से चिंता और चिंता से रोग उत्पन्न होते हैं..
भर्तृहरिजी कहते हैं—
भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालाद्भयं
माने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जराया भयम् ।
शास्त्रे वादभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयं
सर्व वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम्

‘भोगोंमें रोगादिका, कुलमें गिरनेका, धनमें
राजाका, मानमें दैन्यका, बलमें शत्रुका, रूपमें
बुढ़ापेका, शास्त्रमें विवादका, गुणमें दुर्जनका
और शरीरमें मृत्युका भय सदा बना रहता है । इस
पृथ्वीमें मनुष्योंके लिये सभी वस्तुएँ भयसे युक्त हैं ।
एक वैराग्य (मन माया से हटाकर परमात्मा में लगाना)ही ऐसा है, जो सर्वथा भयरहित है !’
तुम इसमें बाह्य रुप से रहते हुए भी आन्तरिक रुप से अलग ही रहो, जिससे तुम्हें माया के अथाह बन्धनों से छुटकारा मिल सके।  बार-बार इस प्रकार का उत्तम समय नहीं आने वाला है और न कोई तुम्हें इस प्रकार बोल- बोलकर समझायेगा। ज्ञान द्वारा प्रबोधित होने के पश्चात् तुम सबके सत्य कथनों के सार तत्व को ग्रहण करो।  उस सार का भी सार यह है कि उस सच्चिदानन्द परब्रह्म के चरणों से ही अपना अटूट बन्धन बांधो और उनके अखण्ड प्रेम तथा आनन्द में हमेशा डूबे रहो। माया के कार्यों को करते हुए भी माया में लिप्त न हो। इसका परिणाम यह होगा कि संसार को छोड़ते समय हृदय में माया की चाहना नहीं रहेगी।
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प्रणाम जी

नयन

देखो नैना नूरजमाल, जो रूहों पर सनकूल ।
अरवाहें जो अरस की, सो जिन जाओ छिन भूल ।।

आत्म कहती है ! परमात्मा के नयनो को अपनी आत्मिक नज़र से देखिए ! परमात्मा के नयन हमेशा ही आत्म पर आनंद ही आनंद बरसाते है तो जो आत्मा आनंद को चाहती हो वो इन नयनो को एक पल के लिए भी ना भूले !!
एक आत्मा कहती है मेने परमात्मा के नयनो को  देखा है ..
उनकी आँखों में जैसे ही मेने देखा तो उन्होंने मेरी आँखों से मेरा कलेजा निकाल लिया और एक दम से नही निकला बल्कि धीरे धीरे इस प्रकार निकाला की ये मुझे ही पता है की कैसे वो मेरे कंठ को रुंदता  हुवा मेरी आँखों से बहार जाके उनकी आँखों से उनके हृदये में जा मिला इसके बाद तो उनके हृदये का आनंद जैसे वो निरंतर मेरे हृदये में उड़ेलते जा रहे थे और मैं इस प्रकार ठगी सी खड़ी थी की मेरा कोई अस्तित्व ही न हो उन्होंने मेरे हृदये को अपने  आनंद का ही हिस्सा बना लिया था उस आनंद की लहरे मुझे बहा के ले जा रही थी और मैं भी बहे जा रही थी उन्होंने अपने नैनो से ही मुझे आनंद का ऐसा खेल दिखाया की मुझे पूरा परमधाम का अनंत आनंद उनके नैनो में ही दिखाई पड़ने लगा ...

प्रणाम जी

Sunday, November 22, 2015

सतगुरु कौन?

सतगुरु

ब्रह्मानंदं परम सुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिम्,
द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्वमस्यादि लक्ष्यम्।
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वदा साक्षिरूपम्,
भावातीतं त्रिगुण रहितं सतगुरु तन्नमामि ॥
(स्कन्द्पुराणे गुरुगीतायम्)

अर्थ:= सच्चिदानंद ब्रह्म का आनन्द अन्ग, जिन्हे श्यामा कहा गया, वही सत्गुरु हैं। वे सर्वोत्तम ज्ञान एवं परम सुख के दाता हैं। वे द्वंद्व अर्थात माया, निरंजन निराकार एवं साकार ब्रह्मांड से परे हैं । आकाश जैसा उनका स्वभाव है, तत्वमसि में से असि पद ब्रह्म को कह गया है । तत पद ईश्वर से परे ब्रहं क लक्ष्य देते हैं। वह अचल रूप, सदा साक्षी स्वरूप हैं । स्वभाव अर्थात अध्यात्म अर्थात अक्षरब्रह्म से भी परे हैं । तीनों गुण सत-रज-तम के स्वरूप ब्रह्मा, विष्णु और महेश से परे हैं । ऐसे सतगुरु को सप्रेम नमस्कार है ।

ऋग्वेद 10.49.1

केवल एक परमात्मा ही सत्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करने वालों को सत्य ज्ञान का देने वाला है । वही ज्ञान की वृद्धि करने वाला और  धार्मिक मनुष्यों को श्रेष्ठ कार्यों में प्रवृत्त करने वाला है । वही एकमात्र इस  सारे संसार का रचयिता और नियंता है । इसलिए कभी भी उस एक परमात्मा को छोड़कर और किसी की भी उपासना नहीं करनी चाहिए .

प्रणाम जी

Saturday, November 21, 2015

खेल खेलने लगोंगे तो ..

सुप्रभात जी

वास्तवमें संसार तो खेल ही होता है । अगर हम इसे खेल समझकर खेल खेलने लगोंगे तो  हार जीतकी कामना नहीं रहेगी इसलिए हम हर्ष और शोकसे ऊपर उठ जायेंगे ।  इसे खेल समझ कर देखने लगेंगे तो हर्ष-शोकसे रहित होकर आनन्दका अनुभव होगा । ब्रह्मात्माएँ द्रष्टा होनेसे ममत्त्व और परत्त्वका आरोप किए बिना ही माया मोहमें अलिप्त होकर उनको यह खेल देखना चाहिए । मायाके झूठे जीव ही छल कपटका साहरा लेकर झूठी सम्पत्ति और प्रतिष्ठा प्राप्त करना चाहते हैं । यदि वह सम्पत्ति या प्रतिष्ठा मिल भी जाय तो भी शरीर छूटने पर तो वह छूट ही जायेगा । इसलिए अपने परमात्माको छोड़ कर मायाके पीछे दौड़ना नहीं चाहिए । यद्यपि शरीर रहने तक माया का भी महत्त्व रहता है, सारे लौकिक कार्य लौकिक सम्पत्तिके द्वारा ही सम्पन्न होंगे तथापि मायाके साधनोंसे हमारी तृप्ति नहीं होगी । हमारी (आत्माकी)भूख मायाके आहारसे शान्त नहीं होगी इसके लिए तो जागृत होकर धाम और परमात्माका आश्रय लेना ही पडेगा । आत्मामें जागृति आते ही हमें अनुभव होगा कि हम परमात्मा से दूर नहीं अपितु उनके ही चरणोंमें रह कर मायाका खेल देख रहे हैं |for more click this link👇👇👇
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प्रणाम जी

वाणी..

सुख हक इस्क के, जिनको नाहीं सुमार।
सो देखन की ठौर इत है, जो रूह सों करो विचार।।

परमधाम में परमात्मा के प्रेम का अनन्त आनन्द है, किन्तु हे साथ जी ! यदि आप अपनी आत्मिक दृष्टि से विचार करें तो उन सुखों की पहचान इस  ब्रह्माण्ड में ही होनी है।
परमधाम में  प्रेम और आनन्द का विलास है, किन्तु इस  ब्रह्माण्ड में तारतम ग्यान के प्रकाश में हम अपने ज्ञान चक्षुओं से इश्क और आनन्द के शुक्ष्म भेद को जान सकते हैं। ध्यान( चितवनि )द्वारा अष्ट प्रहर की लीला सहित सम्पूर्ण पक्षों का शुक्ष्म का भी  शुक्ष्म भेद जान सकते हैं और उस अवस्था को जान सकते हैं जिसमें आत्मा और परात्म में भेद नहीं रह जाता...

प्रणाम जी

Friday, November 20, 2015

साधक को श्रवण मनन से संतुष्ट नहीं होना चाहिए


अधिकतर लोग यह समझते है की शास्त्र अध्ययन ,सत्संग आदि से आत्म ज्ञान की प्राप्ति होती है .
शास्त्रों के अनुसार पहले सत्य का श्रवण करना चाहिए ,शास्त्र अध्ययन ,सत्संग करना चाहिए .
फिर उसका मनन करना चाहिए ताकि संशय की निवृति हो एवं बौद्धिक रूप से तत्व की समझ हो ,स्पष्टता हो .
किन्तु इतनी सी बात से जीवन में परिवर्तन नहीं आता है ,मोक्ष नहीं होता है ,मन से मुक्ति नहीं होती है .
इसीलिए शास्त्र आगे कहते है कि श्रवण मनन पर्याप्त नहीं है ,आपको इसके आगे ध्यान [निदिध्यासन ] भी करना होगा ,अन्यथा
आत्म साक्षात्कार या मुक्ति नहीं होगी .शास्त्र का कहना है कि ध्यान -समाधी के बिना मुक्ति या साक्षात्कार संभव नहीं है.
अतः साधक को श्रवण मनन से संतुष्ट नहीं होना चाहिए ,साथ में ध्यान भी करना चाहिए .

Thursday, November 19, 2015

करनी माफक कृपा..

करनी माफक कृपा..
सुप्रभात जी
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तिलों और तेल में कुछ भेद नहीं तैसे ही परमात्मा  और आत्मा में कुछ भेद नहीं । जो परमात्मा है वह आत्मा है और जो आत्मा है वह परमात्मा है, परमात्मा और आत्मा दोनों एक वस्तु के नाम हैं, जैसे विटप और पादप दोनों एक वृक्ष के नाम हैं ।   विचार से रहित को परमात्मा भी ज्ञान नहीं दे सकता । आत्मा के साक्षात्कार में मुख्य कारण अपने पुरुषार्थ से उपजा विचार है इसलिय तू मुख्य कारण का आश्रय कर ।
प्रथम पाँचों इन्द्रियों को वश कर और चित्त को आत्मविचार में लगा । जो कुछ किसी को प्राप्त होता है वह अपने पुरुषार्थ से होता है, पुरुषार्थ बिना नहीं होता । अपने पुरुषार्थ प्रयत्न से इन्द्रियरूपी पर्वत को लाँघे तो फिर संसारसमुन्द्र से तर जावे और तब परमपद की प्राप्ति हो । जो पुरुष के प्रयत्न बिना परमात्मा मुक्ति दें तो मृग पक्षियों को क्यों दर्शन देकर उद्धार नहीं करता जो गुरु अपने पुरुषार्थ बिना उद्धार करते तो अज्ञानी अविचारी ऊँट, बैल आदिक पशुओं को क्यों नहीं कर जाते ।  अपने मन के स्वस्थ किये बिना परम सिद्धता की प्राप्ति महात्मा पुरुष नहीं जानते । जिन्होंने वैराग्य और अभ्याससे इन्द्रियरूपी शत्रु वश किये हैं वे अपने आपसे उसको पाते हैं और किसी से नहीं पाते । हे जिवों! आपसे अपनी आराधना और अर्चना करो,आत्मत्तव की खोज करो, आपसे आपको देखो और आपसे आपमें (आत्मा )स्थित रहो । कयोंकी जो परमात्मा है वह आत्मा है और जो आत्मा है वह परमात्मा है..इसलिय अपने आप मे रह कर जो करनी करोगे तो अपने में से ही परमात्मा कृपा करेंगे...
वदन्तुशास्त्राणि यजन्तु देवान् कुर्वन्तु कर्माणि भजन्तुदेवता:।
आत्मैक्यबोधेनविना विमुक्तिर्न सिध्यतिब्रम्हशतान्तरेsपि।।
(विवेक चूड़ामणि--६)

‘भले ही कोई शास्त्रों की व्याख्या करे, इष्टदेव का भजन करे, नाना शुभ कर्म करे अथवा इष्टदेव को भजे, तथापि जब तक आत्मा और परमात्मा की एकता का बोध नहीं होगा, तब तक सौ ब्रम्हा के बीत जाने पर भी (अर्थात् सौ कल्प में भी) मुक्ति नहीं हो सकती।
तावत्तपो व्रतं तीर्थं जप होमार्चनादिकम्।
वेदशास्त्रागम कथा यावत्तत्त्वं न विन्दति।।
(गरुड़ पुराण १६/९८)
तब तक ही तप, व्रत, तीर्थाटन, जप, होम और देवपूजा आदि हैं तथा तब तक ही वेदशास्त्र और आगमों की कथा है जब तक कि तत्त्वज्ञान प्राप्त नहीं होता;आत्मा परमात्मा का ग्यान( परमतत्त्वज्ञान ) प्राप्त होने पर ये सब कुछ भी नहीं रह जाते हैं..
पहले आप पहचानो रे साधो ..(वाणी)
प्रणाम जी

Wednesday, November 18, 2015

तू देह में अहं अहं करता है...


सुप्रभात जी

हे मूर्ख मन! जो तू देह में अहं अहं करता है सो तेरा अहं किस अर्थ का है । अंगुष्ठा से लेकर मस्तक पर्यन्त अहं वस्तु कुछ नहीं ।
यह शरीर तो अस्थि, माँस और रक्त का थैला है । यह पञ्चतत्त्वों का जो शरीर बना है उसमें अहंरूप वस्तु तो कुछ नहीं है । हे मूर्ख मन! तू अहं अहं क्यों करता है? यह जो तू कहता है कि मैं देखता हूँ, मैं सुनता हूँ, मैं सूँघता हूँ मैं स्पर्श करता हूँ, मैं स्वाद लेता हूँ और इनके इष्ट-अनिष्ट में रागद्वेष से जलता है सो वृथा कष्ट पाता है ।

रूप को नेत्र ग्रहण करते हैं, नेत्र रूप से उत्पन्न हुए हैं और तेज का अंश उनमें स्थित है जो अपने विषय को ग्रहण करता है, इसके साथ मिलकर तू क्यों तपायमान होता है?

शब्द आकाश में उत्पन्न हुआ है और आकाश का अंश श्रवण में स्थित है जो अपने गुण शब्द को ग्रहण करता है इसके साथ मिलकर तू क्यों रागद्वेष कर तपायमान होता है?

स्पर्श इन्द्रिय वायु से उत्पन्न हुई है और वायु का अंश त्वचा में स्थित है वही स्पर्श को ग्रहण करता है, उससे मिलकर तू क्यों रागद्वेष से तपायमान होता है?

रसना इन्द्रिय जल से उत्पन्न हुई है और जल का अंश जिह्वा है जो अग्रभाग में स्थित है वही रस ग्रहण करती है, इससे मिलकर तू क्यों वृथा तपाय मान होता है?

और घ्राण इन्द्रिय गन्ध से उपजी है और पृथ्वी का अंश घ्राण में स्थित है वही गन्ध को ग्रहण करती है, उसमें मिलकर तू क्यों वृथा रागद्वेषवान् होता है?

मूर्ख मन! इन्द्रियाँ तो अपने-अपने विषय को ग्रहण करती हैं पर तू इनमें अभिमान करता है कि मैं देखता हूँ, मैं सुनता हूँ, मैं सूँघता हूँ, मैं स्पर्श करता हूँ और रस लेता हूँ । यह इन्द्रियाँ अपने विषय को ग्रहण करती हैं और के विषय को ग्रहण नहीं करती कि नेत्र देखते हैं श्रवण नहीं करते और कान सुनते हैं देखते नहीं इत्यादिक । सब इन्द्रियाँ अपना धर्म किसी को देती भी नहीं और न किसी का लेती हैं । वे अपने धर्म में स्थित हैं और विषय को ग्रहण कर इनको रागद्वेष कुछ नहीं होता । इनको ग्रहण करने की वासना भी कुछ नहीं होती और तू ऐसा मूर्ख है कि औरों के धर्म आपमें मानकर रागद्वेष से जलता है । जो तू भी राग द्वेष से रहित होकर चेष्टा करे तो तुझको दुःख कुछ न हो ।
और कर्मबन्धन भी न हो...

प्रणाम जी

आत्मा और जीव

भी बेवरा वासना जीव का , याके जुदे जुदे हैं ठाम ।
जीव का घर है नींद में , वासना घर श्री धाम ।।

आत्मा और जीव में यह भी अन्तर है कि इनके मूल घर अलग-अलग हैं । जीव का मूल घर नींद (निराकार) में है तथा आत्मा का मूल घर परब्रह्म का अनादि एवं अखण्ड परमधाम है ।आत्मा और जीव में यह भी अन्तर है कि झूठा जीव स्वप्न से उत्पन्न होने के कारण नींद (निराकार) को पार नहीं कर पाता । जबकि आत्मायें निराकार एवं अक्षरधाम को भी पार करके अपने मूल घर अखण्ड परमधाम में पहुँच जाती हैं ।
श्रुति के कथनानुसार नारायण ही जीवों के साक्षात् परब्रह्म हैं और जीव उनका प्रतिभास रूप हैं। जीव स्वतन्त्र नही हैं, अपितु पराधीन हैं । वे मोह, अविद्या और अहंकार से ही बने हैं और जन्म-मरण एवं सुख-दुःख (कर्मफल भोग) के चक्र में ही फँसे रहते हैं । जीव माता के गर्भ में प्रवेश करता है । मनुष्य शरीर के अतिरिक्त जीव अनेक योनियों में भी शरीर (जीवन) धारण करता है । नारायण का स्वप्न टूटते ही अर्थात् महाप्रलय होते ही जीव उनमें समा जाते हैं ।
आत्मा अनादि और अखण्ड है । वह कभी गर्भ में नहीं आती, अपितु जन्म के पश्चात् ही शरीर में प्रवेश करती है । आत्मा कभी भी मनुष्य तन के अतिरिक्त किसी अन्य योनि में शरीर धारण नहीं करती । परब्रह्म का स्वरूप होने से वह प्रेम व आनन्द में मग्न रहती हैं । वे एक क्षण के लिए भी उनसे अलग नहीं हो सकती |

प्रणाम जी

Tuesday, November 17, 2015

अरे मन !

अरे मन ! तू परमात्मा का गुणगान क्यों नहीं करता ? इस भूल भुलैया के खेल वाले संसार में तू क्यों धोखा खा रहा है ? मुक्ति एवं भुक्ति ये दोनों अत्यन्त प्रबल चुड़ैलें हैं, तू इनके चक्कर में क्यों आ रहा है | स्त्री, पुत्र, धन, यह तीनों तिजारी के समान हैं | तू इनको क्यों अपना रहा है ? इन इन्द्रियों के विषयों को पीकर तू क्यों इतना सुख मान रहा है ?  यह मनुष्य का शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है | यह चार दिन का जीवन जा रहा है, अतएव शीघ्र ही परमात्मा का ध्यान कर |

प्रणाम जी

सत्य तो सब्दातीत है..


अछर अछररातीत कहावहि, सो भी कहियत इत सब्द ।
सब्दातित क्यों पाबही, ए जो दुनिया हद ॥
कि. १०७/७

आज सब परमात्मा के नाम पे झगड़ रहे हैं सब अपने अपने नाम बना उसी की पूजा कर रहे है दूसरा नाम आते ही उसको अग्यान का रूप मानते है ,ये हाल सबका है सबके लिए वही केवल परमात्मा है जो उन्होंने अपने गुरु से सीखा है उसके अलावा कुछ भी न सुनने को तैयार है न मानने को कोई राम को परमात्मा मानता है कोई कृष्ण को कोई अल्लाह को कोई नारायण को कोई निराकार को आदि आदि और अग्यान के कारण ही प्रमात्मा जो की अन्नत है उस असीम को भी समप्रदाय के बन्धन मे समझते है और अपने सम्प्रदाय को श्रेषट मान्ते हैं ..
""हद तो तब हो जाती है जब अपने आप को एक ही सम्परदाय के मान्ने वाले लोग भी आपस में उसके नाम पर लडते हैं""..
पर ये नाम तो यहीं के है हम जैसे ही है हमारी बुद्धि केवल इन्हे ही ग्रहण करती है इसलिए मूल तत्व से दूर रह जाती है नामों में ही उलझी रहती है ..क्योंकि बुद्धि जीव के विषय ग्रहण करती है और जीव की हद केवल निराकार या साकार तक ही है यहीं से शब्द उतपन्न होते है जिसको बुद्धि ग्रहण करती है ..परमात्मा जिस भी शरीर से हमे ज्ञान देने आये हमने उस शरीर को ही परमात्मा मान लिया जबकि सार तत्व हमसे दूर ही रहा जिसकारण ज्ञान का प्रकाश नही हो पाया और अज्ञानता वष उसके नाम पर ही आपस में लड़ने लगे ..सबने अपने अलग परमात्मा बना लिए ..कई लोग तो नाम जप कर ही पार उतरने की सोच रहे है जबकि वाणी कहती है ..

""अछर अछररातीत कहावहि, सो भी कहियत इत सब्द ।
सब्दातित क्यों पाबही, ए जो दुनिया हद ""
इसलिए सब्दो में न उलझ कर मूल तत्व की खोज करनी चाहिए ..

अकृत्वा दृश्यविलमज्ञात्वा तत्त्वमात्मनः।
बाह्य शब्दै: कुतो मुक्तिरुक्तिमात्रफलैर्नृणाम्।।
(विवेक चूड़ामणि—६५)

विना दृश्य प्रपंच का विलय किये और बिना ‘आत्मतत्त्वम्’ को जाने, केवल बाह्य शब्दों से जिनका फल केवल उच्चारण मात्र ही है, मनुष्यों की मुक्ति कैसे हो सकती है..

प्रणाम जी

Monday, November 16, 2015

ध्यान..

सुप्रभात जी

 ध्यान का उद्देश्य क्या है ?
उत्तर : ध्यान का उद्देश्य एक ऐसे 'आनंद ' की प्राप्ति है ,असिमित आनंद वोभी सदा के लिय ,जो कभी नष्ट न होता है ,जो हमारा स्वभाव है .
'आनंद' की प्राप्ति में दुखों का नाश छिपा हुआ है अर्थात दुखों की आत्यंतिक निवृति होना .
'आनंद ' हमारा स्वभाव है ,स्वरूप है .आत्मा आनंद स्वरूप है .
सुख-दुःख मन के अंतर्गत हैं ,आनंद औरआत्मा मन के परे हैं .
अतः मन की किसी क्रिया द्वारा आत्मा के आनंद को नहीं पाया जा सकता है.
ध्यान मन का अतिक्रमण है ,ध्यान मन से मुक्ति है ताकि मन के अतीत आत्मा के आनंद को पाया जा सके .
ध्यान मन की कोई क्रिया नहीं है ,अपितु मन की अक्रिय अवस्था को ध्यान कहते है .मन की अक्रिय जागरूक अवस्था ध्यान
है .
एकाग्रता ,पूजा -पाठ ,मंत्र जाप ,त्राटक ,चक्र व कुण्डिलिनी जागरण ये सभी ध्यान नहीं है ,ये सभी मन की क्रियाएँ हैं.
मन की क्रिया द्वारा मन का अतिक्रमण संभव नहीं है .क्योंकि प्रत्येक मन की क्रिया में मन व अहम उपस्थित रहेगा .
जब मन की कोई क्रिया नहीं है अर्थात आप कुछ नहीं कर रहे है सिर्फ जागरूक हैं ,साक्षी है ,विश्रांत हैं ,मात्र होनापन है
यह है 'ध्यान '.आप न तो एकाग्रता कर रहे है ,न मंत्र जाप कर रहे हैं ,न त्राटक,न पूजा पाठ ,न चक्र या कुण्डिलिनी जागरण
आप मात्र मन के साक्षी हैं ,दृष्टा है ,मात्र "आप हैं " -यह है ध्यान . ध्यान का आपका स्वरूप है ,आप आनंद स्वरूप है..आनंद अंश है ओर अपने अंशी को पाना है ..यही परम लक्ष्य है..
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प्रणाम जी

अनन्यता...

अनन्यता ..

"त्वमेव माता च पिता त्वमेव,
त्वमेव बन्धुश्चसखा त्वमेव।
त्वमेव विद्या द्रविणम् त्वमेव,
त्वमेव सर्वम् मम देव देव॥"
तुम मेरे पति हो, तुम मेरी पत्नी हो, तुम मेरे गुरु हो, तुम मेरे शिष्य हो, तुम मेरे पिता हो, तुम मेरी माता हो, तुम मेरी कान्ता हो, तुम मेरे दुश्मन हो, तुम मेरे मित्र हो, मेरे जो कुछ हो-तुम हो।

अगर तुम कहो यह तुम्हारा शत्रू नहीं हो सकता तो शत्रु के लिए दूसरे का हाथ पकडोगे? एक गोपी उपर से कूड़ा फेंक रही थी। तो कूड़ा फेंकते हुए उसने आँख मींचते हुए कहा-'
'कृष्णार्पणमस्तु।'
वहाँ से जा रहे थे एक महात्मा। महात्मा ने पूछा- 'मैया,चन्दन(चढ़ाती) हो ? आरती उतारती हो ? फूल (चढ़ाती) हो? जय-जयकार शंख बजाती हो ? हमने सब भक्तों को सुना, लेकिन तू तो कूड़ा चढ़ा रही है।
'उस गोपी ने नीचे आकर महात्मा का हाथ पकड़ लिया। वह गोपी थी बड़ी तेज। उसने कहा-'मेरा धर्म बिगाड़ता है ?'
'क्यों ?'
'प्राण उसे दिया, मन उसे दिया, जीवन उसे दिया तो कूड़ा देने के लिए किसी और का हाथ (पकड़ूँ)?
'यह अनन्यता है।......'

प्रणाम जी

Sunday, November 15, 2015

"सतगुरू"

"सतगुरू"

सास्त्र पुरान भेख पंथ खोजो , इन पैंडों में पाइए नाहीं ।
सतगुर न्यारा रहत सकल थें , कोई एक कुली में काँही ।।
(श्री मुख वाणी- किरन्तन ५/७)

शास्त्रों और पुराणों के विद्वानों, तरह-तरह की वेशभूषा धारण करने वाले महात्माओं और विभिन्न पन्थों में तुम भले ही खोजते रहो, लेकिन सदगुरु का स्वरूप नहीं मिलेगा । सदगुरु का स्वरूप इन सबसे अलग ही होता है ।क्योंकि गुरु का अर्थ होता  है जो अँधेरे से उजाले की और ले जाये अर्थात जो मन से माया का अँधेराे दूर करके हृदये मे  ज्ञान का प्रकाश  कर दे अब ध्यान देने की बात यह है की क्या परमात्मा के अलावा कोई और ऐसा  कर सकता है तो जवाब है नही क्योंकि परमात्मा ही केवल मायातीत है और जो माया से परे है या माया का स्वामी है केवल वही माया से निकल सकता है  अन्य कोई नही और ऐसे केवल परमात्म ही हो सकते है ,क्योंकि माया के गुरु जिनको भगवत पराप्ति नही हुई है वो तो आपको अन्धेरे मे ही भटका सकते है ये वैसा ही है की जैसे कोई अंधा अंधे को मार्ग दिखा रहा हो या कोइ मगर पे बैठ कर नदी पार कर रहा हो .. आजकल ऐसे हजारो गुरु हैं जो केवल अपनी भक्ती करवा कर जीव को और खुद को नरक मे डाल रहे  है  और जीव को परमात्म से विमुख कर रहे  है ..तो सतगुरू कोन है
सतगुरू केवल परमात्मा है कयोंकी सत केवल परमातमा है उनके अलावा कया कोइ सतगुरू है इसलिय काहा गया है "सतगुरू मेरे श्याम जी "पर परमात्मा सवंय नही आ सकते कयोंकी उनके सत्य या चित या आनंद की एक बूंद भी एक बूंद भी आजाये तो आन्नत ब्रह्ममान्डो का लय हो ताये ..तो सतगुरू मिले कैसे ,ऐसी कोइ आत्मा अर्थात जिसने परमात्मा को आत्मसात कर लिया हो जिसके ह्रदय मे परमात्मा का वास हो गया हो और उसका आभास उसे निरंतर हो ऐसे आत्मा ह्रदय वाले जीव के माध्यम से परमात्मा अन्य जीवों का कल्याण करते हैं पर इसका अर्थ ये कदापि नही की उस शरीर को सतगुरू की उपाधी दी जाये सतगुरू केवल और केवल परमात्मा हैं जो आतमाओं के ह्रदय से जीवों का कल्याण करतें है ऐसी आत्मा के संपर्क मे परमात्मा का और सत्य ग्यान का आभास यवंम से ही होने लगता है ..और ऐसे जीव जीनके ह्रदय से परमात्मा सतगुरू की लीला करते हैं वो जीव आडंबर रहीत होते है वो कोइ विषेश वेशभूषा या बाहरी आवरण नही रखते केवल सत्य मार्ग पर चलने वाले ही उनको खोज सकते हैं इनको पाना बेहद दुर्लभ है कयोंकी..
वास्तविक सदगुरु तो इस कलयुग में कहीं कोइ एक ही होगा ...जिसे मिल जाये उसे परमात्मा मिल जाते हैं..

खोज बड़ी संसार रे तुम खोजो रे साधो, खोज बड़ी संसार ।
खोजत खोजत सतगुर पाइए, सतगुर संग करतार ।।
शब्दजालं महारण्यं चित्तभ्रमणकारणम्।
अतः प्रयत्नाज्ज्ञातव्यं तत्त्वज्ञात्तत्त्वमात्मनः।।
(विवेक चूड़ामणि—६२)

शब्द जाल (धार्मिक ग्रन्थ) तो चित्त को भटकाने वाला एक महान् बन है, इस लिए किन्हीं तत्त्व ज्ञानी महापुरुष से यत्न पूर्वक ‘आत्मतत्त्वम्’ को जानना चाहिए |

प्रणाम जी

Saturday, November 14, 2015

कटु लेकिन सत्य..

कटु , लेकिन सत्य

सुप्रभात जी
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वास्तविक दृष्टि से देखा जाए तो शरीर मल-मूत्र बनाने की एक मशीन ही है । इसको उत्तम-से-उत्तम भोजन या भगवान् का प्रसाद खिला दो तो वह मल बनकर निकल जाएगा तथा उत्तम-से-उत्तम पेय या गंगाजल पिला दो तो वह मूत्र बनकर निकल जाएगा । जब तक प्राण हैं, तब तक तो यह शरीर मल-मूत्र बनाने की मशीन है और प्राण निकल जाने पर यह मुर्दा है, जिसको छू लेने पर स्नान करना पड़ता है । वास्तव में यह शरीर प्रतिक्षण ही मर रहा है, मुर्दा बन रहा है । इसमें जो वास्तविक तत्व (चेतन) है, उसका चित्र तो लिया ही नहीं जा सकता । चित्र लिया जाता है तो उस शरीर का, जो प्रतिक्षण नष्ट हो रहा है । इसलिए चित्र लेने के बाद शरीर भी वैसा नहीं रहता, जैसा चित्र लेते समय था । इसलिए चित्र की पूजा तो असत् (‘नहीं’)- की ही पूजा हुई । चित्र में चित्रित शरीर निष्प्राण रहता है, अतः हाड़-मांसमय अपवित्र शरीर का चित्र तो मुर्दे का भी मुर्दा हुआ ।
श्रद्धातत्व अविनाशी है । अतः उन साधकों के अविनाशी सिद्धान्तों तथा वचनों पर ही श्रद्धा होनी चाहिए न कि विनाशी देह या नाम में । नाशवान् शरीर तथा नाम में तो मोह होता है, श्रद्धा नहीं । परन्तु जब मोह ही श्रद्धा का रूप धारण कर लेता है तभी ये अनर्थ होते हैं ।

अतः परमात्मा के शाश्वत, दिव्य, अलौकिक श्रीविग्रह की अविनाशी चेतन और आनंद के ध्यान को छोड़ कर इन नाशवान् शरीरों तथा नामों को महत्व देने से न केवल अपना जीवन ही निरर्थक होता है, प्रत्युत् अपने साथ महान् धोखा भी होता है ...
मोह एव महामृत्युर्मुमुक्षोर्वपुरादिषु।
मोहो विनिर्जितो येन स मुक्तिपदमर्हति।।
(विवेक चूड़ामणि—८७)
शरीरादि में मोह रखना ही मुमुक्ष की बड़ी भारी मौत है; जिसने हर प्रकार के मोह को जीता है वही मुक्तिपद का अधिकारी है...

प्रणाम जी

वाणी..

सुपन बुध बैकुण्ठ लों , या निरंजन निराकार ।
सो क्यों सुन्य को उलंघ के , सखी मेरी क्यों कर लेवे पार ।।
( श्री मुख वाणी- परि. २/४ )

इस माया के संसार में परब्रह्म का "स्वरूप" नहीं है । इस कालमाया के ब्रह्माण्ड के शब्द , मन , चित्त और बुद्धि के द्वारा निराकार से आगे नहीं जाया जा सकता है । सपने की बुद्धि बैकुण्ठ और निराकार तक ही जा सकती है । इससे भी परे बेहद एवं उससे परे अक्षर-अक्षरातीत तक सपने की बुद्धि की पहुँच हो ही नहीं सकती है ।

गीता में पृथ्वी , जल , अग्नि , वायु , आकाश , मन , बुद्धि एवं अहंकार को अपराशक्ति कहा गया है क्योंकि यह बनते और मिटते हैं । यह मिथ्या नाशवान शक्ति हैं । ( गीता ७/४ )

इस अपरा से परे दूसरी चेतन अखण्ड शक्ति है , जिससे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड बनता है (गीता ७/५)। अतः जिससे करोड़ों ब्रह्माण्ड पैदा होते हैं और नष्ट होते हैं , उसे ही पराशक्ति कहते हैं । उसे बेहद मण्डल , योगमाया अथवा अक्षर ब्रह्म का चतुर्ष्पाद स्वरूप भी कहते हैं ।

प्रकृति के अन्धकार से सर्वथा परे सूर्य के समान प्रकाशमान स्वरूप वाले परमात्मा को मै जानता हूँ , जिसको जाने बिना मृत्यु से छुटकारा पाने का अन्य कोई भी उपाय नहीं है (यजुर्वेद ३१/१८)

प्रणाम जी

Friday, November 13, 2015

वाणी..

ए माया आद अनाद की , चली जात अंधेर ।

निरगुन सरगुन होए के व्यापक , आए फिरत है फेर ।।
( कि. ६५/१ )

यह आदि माया ( कालमाया ) सृष्टि के प्रारम्भ ही से अज्ञान स्वरूपा है , जो सभी प्राणियों को अपने जाल में फँसाती रही है । यद्यपि यह अपने मूल रूप में शब्द , स्पर्श , रूप , रस तथा गन्ध आदि गुणों से रहित निराकार है , किन्तु सगुण रूप में इन गुणों को धारण कर लेती है अर्थात् निराकार माया (निर्गुण) ही सृष्टि उत्पत्ति काल में स्थूल रूप (सगुण) कार्य रूप जगत में परिवर्तित हो जाती है । इसका मूलरूप कार्य रूप जगत (सगुण) में अति सूक्ष्म रूप (आकाश) से व्यापक रहता है । प्रलय काल में यही प्रकृति (माया) साकार से निराकार में रूपांतरित हो जाती है । सभी प्राणी इसी सर्वव्यापक माया के जाल में फँसकर जन्म-मरण के चक्र में भटकते रहते हैं ।
सृष्टि उत्पत्ति व लय का यह क्रम अनादि काल से चला आ रहा है तथा अनन्त काल तक चलता रहेगा । ब्रह्म इस नाशवान प्रकृति (सृष्टि) से सर्वथा परे है ।

प्रणाम जी

Wednesday, November 11, 2015

मात्र एक परमात्मा बस..


सुप्रभात जी

जो पदार्थ हमारे लिए उपयोगी होते हैं वो देवता कहलाते हैं । लेकिन वेदों में ऐसा कहीं नहीं कहा गया कि  हमे उनकी उपासना करनी चाहिए । परमात्मा देवताओं का भी देवता है और इसीलिए वह महादेव कहलाता है , सिर्फ और सिर्फ उसी की ही उपासना करनी चाहिए ।
वेदों में 33 कोटि का अर्थ 33 करोड़ नहीं बल्कि 33 प्रकार (संस्कृत में कोटि शब्द का अर्थ प्रकार होता है) के देवता हैं  । और ये शतपथ ब्राह्मण में बहुत ही स्पष्टतः वर्णित किये गए हैं, जो कि इस प्रकार है  :

8 वसु (पृथ्वी, जल, वायु , अग्नि, आकाश, सूर्य, चन्द्रमा, नक्षत्र ), जिनमे सारा संसार निवास करता है ।

10 जीवनी शक्तियां अर्थात प्राण (प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त , धनञ्जय ), ये तथा 1 जीव ये ग्यारह रूद्र कहलाते हैं

12 आदित्य अर्थात वर्ष के 12 महीने

1 विद्युत् जो कि हमारे लिए अत्यधिक उपयोगी है

1 यज्ञ अर्थात मनुष्यों के द्वारा निरंतर किये जाने वाले निस्वार्थ कर्म ।

शतपथ ब्राहमण के 14 वें कांड के अनुसार इन 33 देवताओं का स्वामी महादेव (परमात्मा)ही एकमात्र उपासनीय  है ।   लेकिन वैदिक शास्त्रों में इतना तो स्पष्ट वर्णित है कि ये देवता परमात्मा नहीं हैं और इसलिए इनकी उपासना नहीं करनी चाहिए ।
परमात्मा अनंत गुणों वाला है । अज्ञानी लोग अपनी अज्ञानतावश उसके विभिन्न गुणों को विभिन्न ईश्वर मान लेते हैं ।

ऋग्वेद 10.48.1

एक मात्र परमात्मा ही सर्वव्यापक और सारे संसार का नियंता  है । वही  सब विजयों का दाता और सारे संसार का मूल कारण है । सब जीवों को परमात्मा को ऐसे ही पुकारना चाहिए जैसे एक बच्चा अपने पिता को पुकारता है । वही एक मात्र सब जीवों का पालन पोषण करता और सब सुखों का देने वाला है ।

ऋग्वेद 10.48.5

परमात्मा सारे संसार का प्रकाशक है । वह कभी पराजित नहीं होता और न ही कभी मृत्यु को प्राप्त होता है । वह संसार का बनाने वाला है ।  सभी जीवों को ज्ञान प्राप्ति के लिए तथा उसके अनुसार कर्म करके सुख की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए । उन्हें परमात्मा  की मित्रता से कभी अलग नहीं होना चाहिए ।

ऋग्वेद 10.49.1

केवल एक परमात्मा ही सत्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करने वालों को सत्य ज्ञान का देने वाला है । वही ज्ञान की वृद्धि करने वाला और  धार्मिक मनुष्यों को श्रेष्ठ कार्यों में प्रवृत्त करने वाला है । वही एकमात्र इस  सारे संसार का रचयिता और नियंता है । इसलिए कभी भी उस एक परमात्मा को छोड़कर और किसी की भी उपासना नहीं करनी चाहिए ।

यजुर्वेद 13.4

सारे संसार का एक और मात्र एक ही निर्माता और नियंता है । एक वही पृथ्वी, आकाश और सूर्यादि लोकों का धारण करने वाला है । वह स्वयं सुखस्वरूप है । एक मात्र वही हमारे लिए उपासनीय है ।

अथर्ववेद 13.4.16-21

वह न दो हैं, न ही तीन, न ही चार, न ही पाँच, न ही छः, न ही सात, न ही आठ, न ही नौ , और न ही दस हैं । इसके विपरीत वह सिर्फ और सिर्फ एक ही है । उसके सिवाय और कोई परमात्मा नहीं है । सब देवता उसमे निवास करते हैं और उसी से नियंत्रित होते हैं । इसलिए केवल उसी की उपासना करनी चाहिए और किसी की नहीं ।

अथर्ववेद 10.7.38

मात्र एक परमात्मा ही सबसे महान है और उपासना करने के योग्य है । वही समस्त ज्ञान और क्रियाओं का आधार है |

इस्लाम में शहादा का जो पहला भाग है उसे लिया जाये  : ला इलाहा  इल्लल्लाह  (सिर्फ और सिर्फ एक अल्लाह के सिवाय कोई और  परमात्मा नहीं है )  यह वैदिक परमात्मा की ही मान्यता के समान है ।
इस्लाम में भी एक अल्लाह को छोड़कर और किसी को भी पूजना शिर्क (सबसे बड़ा पाप ) माना जाता है । अगर इसी मान्यता को और आगे देखें और अल्लाह के सिवाय और किसी मुहम्मद या गब्रेइल को मानाने से इंकार कर दें तो आप वेदों के अनुसार महापाप से बच जायेंगे ।

प्रणाम जी

Tuesday, November 10, 2015

अखंड दिपक..

सुप्रभात जी

मेरा दिपक बडा निराला है मेरे आत्म ह्रदय को दमकाता है |
कैसे करूं इसका महिमा वर्णन ये अन्नत सूर्यों को चमकाता है ||
इस दिपक कि महिमा न्यारी जिसको इसकी पहचान है |
बलीहारी हैं वो पतंगे इसपर वो कोटि बार
कुरबान हैं ||
इस दिपक कि ज्योती से ही ,शब्द रूप झन्कार है |
इसकी लौ मे भरमित होतो ,साकार और निराकार है ||

इसकी लौ से प्रेम बढ़े तो ,पलमे अपना करलेती है |
दुखमाया से दूर हटा कर ,अखंड आनंद घरदेती है
||

परइसको पाओगे कैसे ,ये सबसे कठिन सवाल है |
बेदो मेंभी नेती नेती ,सब शब्द रूप जंजाल हैै ||

कोइ ढुंडे मन्दिर मस्जिद, झुक झुक सजदे बजाते है |
कोइ पहाड पानी गुफा में बैठे ,मिलनेकी आस लगाते हैं ||

कइ पंचभौतिक में आस लगाके ,जीवनभर सेवा करते हैं |
उसीतनमें भरमित होरहते ,खालीहाथ ही मरते हैं ||

पर वो दिपक तो सबसे न्यारा, ऐसे ना कोइ पायेगा |
आत्म ह्रदय में झाकोंगे गर ,सवतः ही मिलजायगा ||

बाहर का दिया तो एक पल का है , अगले पल बुझजायगा |
अंदरका दिया  एकबार दिखातो अखंड प्रकाश  जगमगायगा...

जिसने भी पाया है अबतक, उनकी बात मतवाली है
हरपल मे आनंदित हैं वो ,हर दिन फिर दिवाली है..

(दीप से दीप जलाओ जागो और जगाओ)
आप सबको दिपावली की ह्रदय दिपक से शुभकामनायें...

प्रणाम जी

निष्काम कर्मयोग मार्ग

आपण निद्रा केम करूं, निद्रानो नथी लाग।
भरमनी निद्रा जे करे, कांई तेहेनो ते मोटो अभाग।।

जिस प्रकार रात्रि के समय गहरी नींद में सो जाने वाला व्यक्ति स्वयं को तथा संसार को पूरी तरह से भूला रहता है, उसी प्रकार जो लौकिक कार्यों(अर्थोपार्जन, पारिवारिक कर्त्तव्यों के पालन तथा विषय भोग) को ही सब कुछ मानकर प्रियतम अक्षरातीत तथा निज स्वरूप को भूला रहता है, उसे माया की नींद में सोया हुआ कहते हैं। अक्षरातीत के प्रेम को प्राथमिकता देकर लौकिक कार्यों को करना नींद में फंसना नहीं है, बल्कि राजा जनक एवं महाराजा छत्रसाल का निष्काम कर्मयोग मार्ग है, जो संसार में रहते हुए भी संसार से परे रहे..

एक बार संत कबीर से किसी ने पूछा, 'आप दिन भर कपड़ा बुनते रहते हैं तो भगवान का स्मरण कब करते हैं?' कबीर उस व्यक्ति को लेकर अपनी झोपड़ी से बाहर आ गए। बोले, 'यहां खड़े रहो। तुम्हारे सवाल का जवाब सीधे न देकर, मैं उसे दिखा सकता हूं।' कबीर ने दिखाया कि एक औरत पानी की गागर सिर पर रखकर लौट रही थी। उसके चेहरे पर प्रसन्नता और चाल में रफ्तार थी। उमंग से भरी हुई वह नाचती हुई-सी चली जा रही थी। गागर को उसने पकड़ नहीं रखा था, फिर भी वह पूरी तरह संभली हुई थी।
कबीर ने कहा, 'उस औरत को देखो। वह जरूर कोई गीत गुनगुना रही है। शायद कोई प्रियजन घर आया होगा। वह प्यासा होगा, उसके लिए वह पानी लेकर जा रही है। मैं तुमसे जानना चाहता हूं कि उसे गागर की याद होगी या नहीं।' कबीर की बात सुनकर उस व्यक्ति ने जवाब दिया,'उसे गागर की याद नहीं होती तो अब तक तो गागर नीचे ही गिर चुकी होती।'
कबीर बोले, 'यह साधारण सी औरत सिर पर गागर रखकर रास्ता पार करती है। मजे से गीत गाती है, फिर भी गागर का ख्याल उसके मन में बराबर बना हुआ है। और तुम मुझे इससे भी गया गुजरा समझते हो कि मैं कपड़ा बुनता हूं और परमात्मा का स्मरण करने के लिए मुझे अलग से वक्त की जरूरत है। मेरी आत्मा हमेशा उसी में लगी रहती है। कपड़ा बुनने के काम में शरीर लगा रहता है और आत्मा प्रभु के चरणों में लीन रहती है। आत्मा हर समय प्रभु के चिंतन में डूबी रहती है। इसलिए ये हाथ भी आनंदमय होकर कपड़ा बुनते रहते हैं़़़

प्रणाम जी

Monday, November 9, 2015

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सर्वोतम कार्य ..

सुप्रभात जी

दुर्लभं त्रयमेवैतद्देवानुग्रहहेतुकम्।
मनुष्यत्वं मुमुक्षत्वं महापुरुषसंश्रय:।।
(विवेक चूड़ामणि---३)
‘भगवत्कृपा ही जिनकी प्राप्ति का कारण है, वे मनुष्यत्व, मुमुक्षुत्व (मुक्त होने की इच्छा) और महान् पुरुषों का संग---ये तीनों ही दुर्लभ हैं।‘
अर्थात् चार अनमोल पदार्थ यथा कलयुग , भारतवर्ष , मनुष्य तन और ब्रह्मज्ञान ( तारतम ) पाकर इन्हें व्यर्थ नहीं खोना चाहिए , अपितु प्रत्येक क्षण का सदुपयोग कर अखण्ड धन (परब्रह्म का साक्षात्कार ) प्राप्त करना चाहिए ।

महामुनि कपिल जी सांख्य दर्शन में कहते हैं कि तीनों प्रकार के दुखों ( दैहिक, दैविक, भौतिक ) से पूर्ण रूप से छूटकर ब्रह्मानन्द को प्राप्त करना ही जीवन का सबसे बड़ा पुरुषार्थ है। ( सांख्य १/१ )


लब्ध्वा कथञ्चित्ररजन्म दुलभं तत्रापि पुंस्त्वं श्रुतिपारर्शनम्।
यः स्वात्ममुक्तौ न यतेत मूढ़धी: सह्यात्महास्वं विनिहंत्यसद्ग्रहात्।।
(विवेक चूड़ामणि—४)
‘किसी प्रक्रार इस दुर्लभ मनुष्य जन्म को पाकर और उसमें भी, श्रुति के सिद्धांत का यथार्थ ज्ञान होता है, ऐसा पुरुषत्व पाकर जो मूढ़बुद्धि अपनी आत्मा की मुक्ति के लिए प्रयत्न नहीं करता, वह निश्चित ही आत्मघाती है। वह असत्य में आस्था रखने के कारण अपने को नष्ट करता है।

संसार के सुख और भोग बादलों में कौंधने वाली विद्युत के समान अस्थिर हैं । जीवन हवा के झरोकों से लहलहाते कमल के पत्तों पर तैरने वाली पानी की बूँद के समान क्षणभंगुर है । जीवन की उमंगें और वासनाएँ भी अस्थायी हैं । बुद्धिमान को चाहिए कि इन सब बातों को समझकर अपने मन को स्थिरता और धैर्य के साथ ब्रह्मचिन्तन में लगाये । संसार के नाना प्रकार के सुख भोग क्षणभंगुर हैं और साथ ही संसार में आवागमन के कारण हैं । इस संसार का कोई भी सुख स्थिर नहीं है , अतः सुख के लिए मारे मारे फिरना व्यर्थ है । भोगों का संग्रह बंद करो और अपने आशा रूपी बन्धनों के त्याग से निर्मल हुए मन को अपने आत्म स्वरूप में और परब्रह्म में स्थिर करो । भोगों की ओर से मन को हटाकर परब्रह्म में लगाना ही सर्वोतम कार्य है ।

प्रणाम जी

वह निराकार नहीं

मोह अज्ञान भरमना , करम काल और सुंन ।
ये नाम सारे नींद के , निराकार निरगुन ।।
(श्री मुख वाणी- क. हि. २४/१९)

कारण प्रकृति में विकृति से जिस महत्तत्व की उत्पत्ति होती है, उसे ही निराकार, निर्गुण, मोह, अज्ञान, भ्रम, कर्म, काल और शून्य के नाम से जाना जाता है ।
महत्तत्व का स्वरूप इतना सूक्ष्म होता है कि सामान्य मानवीय बुद्धि उसे ग्रहण ही नहीं कर पाती, जिस कारण उसे निराकार कहते हैं । निराकार की उत्पत्ति होती है तथा महाप्रलय में उसका नाश भी होता है । परन्तु परमात्मा तो चेतन, अनादि व अखण्ड हैं ।
वेद में कहा है- उस धीर, अजर, अमर, नित्य तरुण परब्रह्म को ही जानकर विद्वान पुरुष मृत्यु से नहीं डरता है (अथर्ववेद १०/८/४४ ) । इस मंत्र में अक्षरातीत पूर्ण ब्रह्म को नित्य तरुण ( युवा स्वरूप वाला ) कहा गया है, किन्तु उसका शरीर मनुष्यों के पंचभौतिक शरीर के लक्षणों से सर्वथा विपरीत है । ब्रह्म के युवा स्वरूप वाले शरीर में हड्डी, माँस, रस, रक्त तथा नस-नाड़ियाँ नहीं हैं । श्वास-प्रश्वास की क्रिया उनमें नहीं होती है और क्षुधा भी उसको नहीं सताती है । न उसमें रंच मात्र भी ह्रास होता है और न विकास । अनादि काल से उसका स्वरूप वैसा ही है और अनन्त काल तक रहेगा ।
वेदों में अन्य मन्त्रों में ब्रह्म के लिए शुक्र (नूर) , भर्गः, आदित्यवर्णः , कान्तिमान , मनोहर , प्रकाशमान , आदि शब्दों का प्रयोग किया गया है ।
सामवेद में कहा है कि जो अपने गृह रूपी चेतन धाम में सम्यक् प्रदीप्त होकर चमकता है उस अत्यन्त तरुण, अद्भुत प्रभा वाले, अपने चेतन धाम में सर्वत्र व्यापक, महान, पृथ्वी और द्युलोक के बीच उत्तम प्रकार से स्तुति किए गए ब्रह्म को हम महानम्रता द्वारा प्राप्त हुए हैं (साम. ५/८/९/१) ।
अतः वह निराकार नहीं हो सकते ।
वस्तुतः साकार और निराकार से परे ब्रह्म का स्वरूप है, जो त्रिगुणातीत हैं ।

प्रणाम जी

Sunday, November 8, 2015

प्रकृति से परे परमात्मा स्वरूप


सुप्रभात जी

जिस प्रकार अन्धेरे के कण-कण में सूर्य व्यापक नहीं हो सकता , उसी प्रकार इस मायावी जगत के कण-कण में सच्चिदानन्द परब्रह्म का वह अखण्ड प्रकाशमान (नूरमयी) स्वरूप व्यापक नहीं हो सकता । इस जगत के कण-कण में उसकी सत्ता अवश्य है , किन्तु स्वरूप नहीं ।
इस हद के ब्रह्माण्ड से परे बेहद का मण्डल है । इसके अन्तर्गत अक्षर ब्रह्म के चारों पाद सत्स्वरूप , केवल , सबलिक और अव्याकृत हैं । मूल तत्व सच्चिदानन्द पूर्ण ब्रह्म अक्षरातीत हैं , जो अक्षर से भी परे हैं ।
परब्रह्म सर्वव्यापक अवश्य है किन्तु अपने निजधाम में , जहाँ के कण-कण में अनन्त सूर्यों का प्रकाश है , जहाँ अनन्त आनन्द है (ऋग्वेद ९/११३/७) । गीता में भी कहा गया है कि उस ब्रह्मधाम में न तो सूर्य प्रकाशित होता है न चन्द्रमा और न अग्नि ही । जहाँ जाने पर पुनः लौटना नहीं पड़ता वह मेरा परमधाम है ।
प्रकृति के अन्धकार से सर्वथा परे सूर्य के समान प्रकाशमान स्वरूप वाले परमात्मा को मै जानता हूँ , जिसको जाने बिना मृत्यु से छुटकारा पाने का अन्य कोई भी उपाय नहीं है (यजुर्वेद ३१/१८) ।

प्रणाम जी

परमात्मा के धर का विवरण..

जेती चीजें अर्स में, सो सब मुतलक न्यामत।
सो मुतलक इलम बिना, क्यों पाइए हक खिलवत।।

परमधाम में जो भी एकत्व (एकदिली), नूर, प्रेम, आनन्द, आदि  हैं, वे सभी निश्चित रूप से आत्माओं के लिये नेमतें (उनका आनंद सागर) हैं। ऐसी स्थिति में सर्वोपरि ज्ञान (तारतम ) के बिना परमात्मा की खिल्वत (आनंद का मूल सत्रोत)की पहचान नहीं हो सकती।

भाव--साथ जी परमात्मा के धर का विवरण करने का प्रयास है असत्य मे सत्य का विवरण केसे संभव होगा लेकीन कयोंकी करने वाले कोइ और हैं इसलिय उनके सहारे ये प्रयास है ..
खिलवत के वेसे तो परमधाम मे अनेक अर्थ हैं या ये कहें की अन्नत अर्थ हैं ...इसलिय सबका विवरण या व्याख्या संभव नही है , याहां केवल खिलवतखाना (मूलमिलावे) मे हम आतमायें कैसे परमात्मा से आनंद ग्रहण करते है यह बहोत ही गहन विषय है...
मूलमिलावे में जब परमात्मा अपने हृदये में हम आत्माओं को अपने सामने चाहते है तो उसी वक्त हम सब उनके सामने होते है क्योंकि हम सब उनके हृदये के अंग है परमात्मा हमे वहाँ  आने का भी आनंद देते है वहा आने के बाद हमे आत्माओं  को ऐसा अहसास होता है की हम केसे आये  है ये केवल आने के भाव का आनंद है जो परमात्मा हम सब आत्मवों में डालते है तो किसी को  लगता है की हम उनके लिए कोई दौड़ के आयी है कोई गाते  हुए आयी है कोई छलांगे  लगा के आयी है कोई घूमते हुए आयी है कोई पलक में प्रकाश से गतिमय होकर आयी है कोई बिना पांव चलाये ही गति से आयी है कोई चुम्बक कीतरह तेजी से खिचते हुए आई है कोई केवल प्रकाश को देखती हुयी आकर्षण  के आनंद में आयी है इस प्रकार अनेक भाव परमात्मा हम आत्माओं में डालते है और  ये भाव हम सब में एक साथ उत्पन्न होते है इसलिए हर आत्मा में सब भाव उत्पन्न होते है किसी को किसी से भिन्न भाव नही है सब को सभी भाव का आनंद मिलता है ,ये तो आने  मात्र का भाव है वह आने  के बाद हम सब आत्मायें  एक साथ गुथ  के बैठ जाते है जैसे खिचड़ी में दाने गूथे हुए होते  है हम सबके अंग दुसरे से इस प्रकार गुथे है की हमे अहसास ही नही है की पास कोन  है आगे  कोन  है पीछे कोन  है क्योंकि सबको एकत्व का भाव ही रहता है सबको ऐसा लगता है की  सब आत्मवो का पूरा समूह एक ही शरीर है और  सबको अहसास होता है की जैसे वो परमात्मा  के सबसे निकट है इसके बाद प्रमात्मा हमे अपनी नजरो से निहारते है उनकी नजरो से निकले वाला आनंद हम सब आत्माओं को इस प्रकार स्तब्ध कर  देता है की जैसे हम सब मुर्तिया हो हम सब बेजान  बुतों की तरह  केवल आनंद ग्रहण करने में इतने मदमस्त हो जाते है की हमे उनके आलावा कोई भी बोध नही रहता उनकी नजरो से निकले वाला प्रकाशपुंज हमारी नजरो में समाने लगता है वो हमारी नजरो से हमारे हृदये में जाता हुआ स्पष्ट अनुभव होता है और वो अनुभव भी कैसा  है जैसे कोई अत्येंत  आन्नदित  चीज़ हमारे कंठ से होकर हृदये में जा रही हो हृदये आनंद में तैरने  लगया है आनंद अन्दर इतना हो जाता है की अब शरीर में समाना बंद हो जाता है और  हमारे प्रत्येक रोमछिद्रो  से बाहर निकले लगता है यह  अहसास  भी बोहोत आनंद दायक है प्रत्येक रोम  छिद्र आनंद से भर जाता है  पुरे शरीर में आनंद ही आनंद  अब उसकी क्या व्याख्या करूं और  ऐसा हर आत्मा के साथ होता है इसलिए हर आत्मा का आनंद रोम छिद्रों से बहार निकल कर हर आत्मा को मिलता है और  मिलता भी केसे है क्योंकि हम सब एक साथ चौकड़ी  लगा के बैठी  है तो सबके तलवो याने पाँव के निचे का भाग एक दुसरे की  तरफ होता है वही से हमे एक दुसरे का आनंद मिलता है इसी आनंद में परमात्मा हमे पुरे परम धाम की शैर करवा देते है ये भी बोहोत आनंद दायक विषये है जिसको कभी परमात्मा के हुकुम से ही  जाहिर किया जायेगा ..यही खील्वात्खाना है जिसको देखने की इजाजत अक्षर ब्रह्म  को भी नही है उनको भी नही पता की वहां केसी आनंद की लीला होती है मूलमिलावा ही परमधाम के आनंद का मूल है इसलिए हमे वहीं का ध्यान करना चाहिए .... यहीं पर हजरत मुहम्द साहिब  ने देखा था की सब आत्मन्ये मूर्तियों की तरह बैठी है पर क्यों  बैठी है जान नही पाया था ..ऐसा आनंद परमात्मा हमे दे रहे है ..

प्रणाम जी

Saturday, November 7, 2015

सच्चा रिश्ता ....

जब तुम रोड पर चल रहे हो जहाँ बोहोत वाहन आते जाते है और अपने छोटे बच्चे का हाथ तुमने पकड़ रखा है जो अभी नादान है वो  हजार कोशिश करे की तुमसे हाथ छुड़ा  ले पर तुम उसका हाथ नही छोड़ते क्योंकि तुमे पता है इसमें उसका अहित होगा दोडेगा वो वाहनों की तरफ जो अत्यंत खतरनाक है उसके लिये तुम जाने नही देते उसे बुरा लगता है फिर भी, वो एक पल के लिए रोता चिल्लाता है फिर भी ,
ऐसा तुम करते हो सांसारिक रिश्ते के लिए जो झूठे है मिटजाने  वाले हैं |
बस अब जरा रुक के सोचो तुम्हारा हाथ भी पकड़ रखा है परमात्मा ने जिस से तुम्हारा सत्ये रिश्ता है  नही छोड़ेगा कभी भी उसे पता है की तुम हर वो चीज़ मांगते हो जो तुम्हे नुक्सान देगी खतरनाक है तुम्हारे लिए तुम रोते हो चिल्लाते हो पर वो नही देता क्योंकि वो ख्याल रखता है तुम्हारा पर तुम नही देख रहे उसकी तरफ विमुख हो गये हो इसलिए अपना अच्छा बुरा नही समझ रहे जब उस से सम्बन्ध पता चल जायेगा तब अपने आप समझ आ जायेगा की वो क्या कर  रहा है तुम्हारे लिए उसकी तरफ मुह कर  लो फिर तुम्हे नही आकर्षित करेगा वो सब जिस से तुम्हे सावधान रहना है जो खतरनाक है तुम्हारे लिए फिर अपने आप बाच जावोगे और आनंद प्राप्त होगा उस से जिस से तुम्हारा सत्ये रिश्ता है आनंद मिलेगा अपने सत्ये रिश्ते का क्योंकि उसने तो हाथ पकड रखा है तुम्हारा तुम ही विमुख दोड़ रहे हो ||
satsangwithparveen.blogspot.com
प्रणाम जी 

कलंकित हो रहे हो..

ए झूठी तुमको लग रही, तुम रहे झूठी लाग ।
ए झूठी अब उड. जायगी, दे जासी झूठा दाग ।।
(कलश हि. १२/११,१२)

स्वयंको समझदार कहलानेवाले लोगभी मायाके खेलमें भूलकर काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद एवं मत्सरके कारण हृदयमें छल, कपट रखकर मात्र दिखानेके लिए अच्छा कार्य करते हैं । इसका कारण यही हैं कि मायाके जीव मायाके जीव मायाकी ओर ही आकृष्ट होते हैं । उन्हें यह भी पता है कि वे गलत कार्य रहे हैं, दंभ एवं आडम्बर दिखा रहे है फिर भी उसीमें मस्त हैं, जानते हुए भी गहरी खाईमें पड. रहे हैं । इसलिए ब्रह्मात्माओं यह झूठा खेल मिटने वाला तो है ही किन्तु तुम सत्य आत्मा भी मायाके झूठे प्रलोभनमें आकृष्ट हो जाओगी तो यह माया तुम्हें कलंकित करेगी । झूठ तो झूठ ही है वह एक दिन मिटेगा ही किन्तु तुम्हें कलंकित करके मिटेगा । इसलिए तुम व्यर्थमें क्यों कलंकित हो रहे हो, अब जागो और अपने कर्तव्यको समझो । तुम्हें दुनियांकी सम्पत्ति एवं सत्ता मिल भी जाएगी फिर भी सन्तोष तो नहीं होगा न ।

प्रणाम जी

Friday, November 6, 2015

अहंकार..

सुप्रभात जी

कालमाया के ब्रह्माण्ड में द्वैत की लीला है अर्थात् जीव (नारायण, त्रिदेव, देवी-देवता, मनुष्य, अन्य चराचर प्राणी) तथा प्रकृति (माया) की लीला है । इसमें जन्म-मरण , सुख-दुःख का चक्र चलता रहता है । अहंकार रूपी कड़ी जब तक नहीं छूटती, तब तक संसार झूठा होते हुए भी सच्चा लगता है और उसे कोई छोड़ना नहीं चाहता । जब तक जीव का अहंकार नष्ट नहीं होगा तब तक आवागमन का चक्र समाप्त नहीं हो सकता । अतः नारायण से लेकर जीवों तक यह सारी सृष्टि मोह  रूप है । ब्रह्मज्ञान (तारतम) व प्रेम का मार्ग पकड़कर ही इस भवसागर को पार किया जा सकता है ।

प्रणाम जी

आत्माओं के हृदय को...

हकें अर्स किया दिल मोमिन, ए मता आया हक दिल से।
हकें दिल दिया किया लिख्या, हाए हाए मोमिन डूब न मुए इनमें।।
परमात्मा ने आत्माओं के हृदय को अपना धाम बनाया है। तारतम का यह सम्पूर्ण ज्ञान भी परमात्मा के दिल से ही मेरे दिल (हृदय) में आया है। धर्म ग्रन्थों में परमात्मा ने कहलाया है कि मैंने अपनी आत्माओं को अपना दिल दे दिया है और उनके हृदय को अपना धाम बनाकर उसमें विराजमान हो गया हूं। हाय ! हाय ! इस प्रकार का वर्णन पढ़कर भी आत्मायें लज्जा से क्यों नहीं डूब मरतीं ...
प्रणाम जी

Thursday, November 5, 2015

जीव का हृदय..

सुप्रभात जी

हे मेरी आत्मा ! यदि तुम्हारे जीव का हृदय निर्मल नहीं है तो शरीर को बार- बार जल से नहलाने से कोई लाभ नहीं है। शरीर को स्वच्छ रखकर यदि तूं दिखावे वाली कर्मकाण्ड की भक्ति करोड़ों बार भी करोगी तो भी प्रियतम परब्रह्म से मिलन नहीं होगा। हमारी आत्मा परआतम का प्रतिबिम्ब है । अतः उसके विकार ग्रस्त होने का प्रश्न ही नहीं। वह तो जीव पर बैठकर दृष्टा के रूप में इस खेल को देख रही है। आत्मा का दिल अलग है और जीव का दिल अलग है। जन्म-जन्मान्तरों से जीव का दिल मायावी विकारों से ग्रसित है, इसलिये उसके ही निर्मल होने की आवश्यकता है। आत्मा या उसके दिल को निर्मल करने का प्रश्न ही नहीं है, क्योंकि वह स्वभाव से ही निर्मल है, आवश्यकता है केवल जगत से आत्मिक दृष्टि को हटाकर युगल स्वरूप की ओर लगा देने की।

प्रणाम जी

प्रेम लक्षणा भक्ति...

कई  दरवाजे  खोजे  कबीरें ,     बैकुण्ठ  सुन्य  सब  देख्या ।
आखिर  जाए  के  प्रेम  पुकारया ,  तब  जाए  पाया  अलेखा ।। ( श्री मुख वाणी- कि. ३२/१० )

कबीर जी ने ब्रह्म प्राप्ति के लिए अनेक मार्गों को अपनाया । उन्होंने वैकुण्ठ-शून्य सबकी अनुभूति की । अन्त में जब प्रेम की सच्ची राह पकड़ी , तब उन्हें उस अलख अगोचर ब्रह्म की प्राप्ति हुई ।अक्षरातीत पूर्ण ब्रह्म का साक्षात्कार करने के लिए हमें शरीर, मन, बुद्धि आदि के धरातल पर होने वाली उपासना पद्धतियों को छोड़कर  तारतम ग्यान के आधार पर उस मार्ग का अवलम्बन करना पड़ेगा, जिसके विषय में गीता में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि 'पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्तु अनन्यया' अर्थात् वह परब्रह्म अनन्य प्रेम लक्षणा भक्ति द्वारा प्राप्त होता है, जो नवधा आदि सभी प्रकार की उपासना पद्धतियों से भिन्न है। अखण्ड मुक्ति की प्राप्ति भी इसी अनन्य प्रेम द्वारा होती है ।

प्रणाम जी

Wednesday, November 4, 2015

साधना के छ: विघ्न...

सुप्रभात जी

आत्मैव ह्यात्मनो बंधु: आत्मैव रिपुरात्मन:।

मनुय स्वयं ही अपने आपका मित्र है और स्वयं ही अपने आपका शत्रु । जो मनुष्य इन दोषो को निकालकर अंत:करण को निर्मल करता जाता है उसका ध्यान प्रगाढ होता जाता है और जो इन दोषो को निकालने में लापरवाह रहता है वह अपने आपका शत्रु हो जाता है भगवान बुद्ध कहते थे: ‘‘अप्प दीपो भव। अपना दीया आप बनो।’’
       
         साधना के छ: विघ्न
निद्रा, तंद्रा, आलस्य, मनोराज, लय और रसास्वाद-ये छ: साधना के बड़े विघ्न हैं। ये विघ्न न आयें तो हर मनुष्य परमात्मा प्राप्ति के मार्ग पर तेजी से बढ़ सकता है ।
जब हम ध्यान करने बैठते हैं तब मन कहीं से कहीं भागता है। फिर ‘मन नही लग रहा...’ ऐसा कहकर उठ जातें हैं। काम करते हैं तो ध्यान का मन करता  है और ध्यान करने बैठते हैं तब कोइ न कोइ काम याद आता है । यह एक व्यक्ति का प्रश्न नहीं, सबका प्रश्न है और यही मनोराज है।
मनोराज--
दो दोस्त थे । आपस में उनका बड़ा स्नेह था। एक दिन वे खेत में घूमने के लिए निकले और विचारने लगे कि: ‘हम एक बड़ी जमीन लें और भागीदारी में खेती करें...’
एक ने कहा: ‘‘मैं ट्रक्टर लाऊंगा। तू कुऑं खुदवाना।’’ दूसरा: ‘‘ठीक है। ट्रक्टर खराब हो जाये तो मैं बैल रखूंगा।’’
पहला: ‘‘अगर तेरे बैल मेरे हिस्से के खेत में घुस जायेंगे तो मैं उन्हें खदेड़ दूंगा।’’
दूसरा: ‘‘क्यों? मेरे बैलों को क्यों खदेड़गा?’’
पहला: ‘‘क्योंकि मेरी खेती को नुकसान पहुंचायेंगे।’’
इस प्रकार दोनों में कहा-सुनी हो गर्इ और बात बढते-बढते मारपीट तक पहुंच गर्इ । दोनों ने एक-दूसरे का सिर फोड़ दिया। मुकदमा हो गया।
दोनो न्यायालय में गये। न्यायाधीश ने पूछा: ‘‘आपकी लड़ार्इ कैसे हुर्इ?’’
दोनों बोले: ‘‘जमीन के संबंध में बात हुर्इ थी।’’
‘‘कितनी जमीन और कहां ली थी?’’
‘‘अभी तक ली नहीं है।’’
‘‘फिर क्या हुआ?’’
एक: ‘‘मेरे हिस्से में टै्रक्टर आता था, इसके हिस्से में कुऑं और बैल।’’
न्यायधीश: ‘‘बैल कहां हैं?’’
दूसरा: ‘‘अभी तक खरीदे नहीं हैं।’’
जमीन ली नही है, कुऑं खुदवाया नहीं है, टरक्टर और बैल खरीदे नहीं हैं फिर भी मन के द्वारा सारा बखेड़ा खड़ा कर दिया है और लड़ रहे हैं ।
इसका नाम मनोराज है । ध्यान करते-करते भी मनोराज करता रहता है यह साधना का बड़ा विघ्न है ।
लय-- कभी-कभी प्रकृति में मन का लय हो जाता है । आत्मा का दर्शन नही होता किन्तु मन का लय हो जाता है और लगता है कि ध्यान किया। ध्यान में से उठते हैं तो जम्हार्इ आने लगती है। यह ध्यान नही, लय हुआ। वास्तविक ध्यान में से उठते हैं तो ताजगी, प्रसन्नता और दिव्य विचार आते हैं किन्तु लय में ऐसा नही होता है।
रसास्वाद--
कभी-कभी साधक को रसास्वाद परेशान करता है। साधना करते-करते थोड़ा-बहुत आनंद आने लगता है तो मन उसी आनंद का आस्वाद लेने लग जाता है और अपना मुख्य लक्ष्य भूल जाता है।
नींद--
कभी साधना करने बैठते हैं तो नींद आने लगती है और जब सोने की कोशिश करते हैं तो नींद नही आती। यह भी साधना का एक विघ्न है।
तंद्रा--
तंद्रा भी एक विघ्न है। नींद तो नही आती किन्तु नींद जैसा लगता है। यह सूक्ष्म निद्रा अर्थात तंद्रा है ।
आलस्य--
साधना करने में आलस्य आता है। ‘अभी नही, बाद में करेंगे...’ यह भी एक विघ्न है

प्रणाम जी

(राजन जी का भास्य)


तले सात तबक जिमीय के, या बीच ऊपर आसमान।
मूल बिरिख पात फूल फैलिया, सब हुआ इस्क सुभान।।
(श्री प्राणनाथ वाणी)
पृथ्वी के नीचे सात पाताल लोक हैं तथा ऊपर छः लोक आकाश में हैं। इस ब्रह्माण्ड रूपी वृक्ष की जड़ से लेकर पत्तों और फूलों तक में धनी के प्रेम की सुगन्धि का अनुभव हो रहा है।
भावार्थ-
नीचे के सात पाताल लोक पृथ्वी से अलग नहीं हैं, बल्कि सात समुद्रों के निकटवर्ती वे स्थान जो हिमालय से नीचे आते हैं, पाताल लोक कहलाते हैं। जैसे- भीमसेन का विष खाने के कारण गंगा में डूबते-डूबते पाताल लोक में पहुँच जाना, सगर के पुत्रों द्वारा यज्ञ के घोड़े को खोजते-खोजते पाताल (कपिल मुनि के आश्रम) में पहुँचना। ये दोनों स्थान बंगाल की खाड़ी के पास के तटवर्ती भाग है। इसी प्रकार अमेरिका तथा आस्ट्रेलिया भी पाताल लोकों के अन्तर्गत ही हैं।
ब्रह्माण्ड रूपी वृक्ष का फूल हिमालय है तथा फल सम्पूर्ण भारतवर्ष है। इसी में ज्ञान, भक्ति तथा वैराग्य के फूल खिलते हैं और मोक्ष रूपी फल प्राप्त होता है...
प्रणाम जी

Tuesday, November 3, 2015

सतसंग..

सुप्रभात जी

आत्मा-परमात्मा की प्राप्ति से सम्बंधित विचारधारा एवं क्रियाओं-प्रक्रियाओं को आत्मिक या साधनात्मक धारणा कहते हैं। अधिकतर सद्ग्रन्थों की रचना इसी धारणा वाले लोगों द्वारा हुई है। सृष्टि की रचना दो वस्तुओं के मेल से हुयी है, जड़ और चेतन। जड़ के अन्तर्गत पंच पदार्थ तत्त्व---आकाश, वायु, अग्नि, जल और थल आते हैं। इन्हीं पंच पदार्थ तत्त्वों से बनी विभिन्न रूप-आकृति ही सम्पूर्ण दृश्यमान जगत् है, जिसमें मानव-शरीर सर्वोत्तम आकृति है। यह देव-दुर्लभ है। जीव के लाखों-करोड़ों योनियों के संचित-पुण्यों के फलस्वरूप परमप्रभु की अहेतुकी कृपा से कहीं जीव को यह शरीर प्राप्त होता है। यही कारण है कि चेतन की जानकारी रखने वाले ऋषि-महर्षि एवं महात्मागण जड़ प्रधान (सांसारिक) व्यक्तियों को बारम्बार संचेत करते रहते हैं कि हे मानव बंधुओं! आप चेतन हो, जड़-शरीर एवं जड़-संसार (कामिनी-कांचन) में मत फँसो। कीट-पतंग आदि चौरासी लाख योनियों से भटकते आए हो। यह मानव-शरीर आपको मुक्त होने और परमात्मा को पाने के लिए ही मिलती है। यदि इससे मुक्ति और अमरता (अखंड धाम) को प्राप्त नहीं कर लेते हैं तो पुनः उन्हीं कीट-पतंग, शूकर-कूकर आदि चौरासी लाख योनियों में करोड़ों वर्ष तक भटकना पड़ेगा। आप क्षणिक भौतिक सुखों पर मोहित न हो....
Satsangwithparveen.blogspot.com

प्रणाम जी

जड़ पूजा को वर्जित किया गया है।

तिन कबीले में रहना , पूजे  पानी  आग पत्थर।
बेसहूर  इन   भांत   के , जान  बूझ  जले  काफर।।
जड़ पूजा को वाणी तथा अन्य ग्रंथो में वर्जित  किया  गया है।
इसको अन्य उदाहरणों से समझें-
अंधतमः प्रविशन्ति ये सम्भूति उपासते.- यजुर्वेद
जो १ चेतन परमात्मा को छोड़कर जड़ की उपासना करता है, वह घोर अंधकार  में चला जाता है.
कबीर जी कहते हैं-
पत्थर पूजे हरी मिले तो मै पूजू पहाड़।।
पुराण संहिता के इश्क़ रब्द के प्रसंग में अक्षरातीत राज जी कहते हैं-
फूल्ल पद्मम् सरः त्यक्त्वा मृगतृष्णाम् नु धावथः।
मामानन्दम् परित्यज्य पाषणम् पूजयिष्यथः।।
मेरे आनंद को छोड़कर तुम संसार में पत्थर की पूजा करोगे और वही हो रहा है।
आज ब्रम्हज्ञान के आने के बाद भी अगर हम जड़ की पूजा करते रहे तो तारतम ज्ञान लेने का कोई लाभ नहीं है.
इसलिए चेतन परमात्मा की उपासना करें।

प्रणाम जी

Monday, November 2, 2015

कलियुग रूपी यह ......



कलियुग रूपी यह शैतान अज्ञान का ही स्वरूप है, जिसने ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव को भी भयभीत कर रखा है। ज्ञान, भक्ति तथा वैराग्य के क्षेत्र में अग्रगण्य शिरोमणि महात्माओं को भी इसने मायावी युद्ध में हराकर निराश कर दिया।
यहां कलियुग से तात्पर्य उस मोहसागर से है, जिसे कोई पार नहीं कर पाता। सृष्टिकर्ता आदिनारायण भी जब इसके बन्धन में हैं तो उनके अंश से उत्पन्न होने वाले ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव जी का इससे भयभीत रहना स्वाभाविक ही है। महानारायण उपनिषद् में कहा गया है कि उनके रोम-रोम में चौदह लोकों सहित असंख्यों ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव स्थित हैं..

प्रणाम जी

Sunday, November 1, 2015

प्रेम रस का पान ....

सुप्रभात जी

मेरे जीवन के आधार (परमात्मा)! सुगन्धित फूलों पर मंडराते हुए मद से भरे ये भौंरे गुंजार कर रहे हैं। अब आप ही बताइए कि इस मनोहर ऋतु में आपके बिना एक भी घड़ी भी कैसे व्यतीत की जाये ? यदि तुच्छ भौरों को हर फूल पर मंडराने एवं उनका पराग चूसने का अधिकार है, आत्मा के हृदय रूपी भौंरे को अपने प्राणेश्वर( परमात्मा )के दीदार (दर्शन) एवं उनके प्रेम रस का पान करने का अधिकार क्यों नहीं ? क्या आत्मा की महिमा एक भौंरे से भी कम है, जो उसे हमने इतना असहाय बना दिया गया ?
आत्मा के हृदय रूपी भौंरे को अपने प्राणेश्वर( परमात्मा )रूपी पुष्प के उपर ही मंडराते रहने से आतम को अखंड रस की प्राप्ती होने लगती है..

प्रणाम जी

बंसी कान्हन अजब बजाई

परमात्मा ने बड़ी ही विचित्र बंसी बजाई है
तू  बंसी बजाने वाला सब से  प्रेम करने वाला है तू  प्रेम का सगर है
तू अपने आनंद रूपी डोर से अपनी आनंद अंग  आत्मवो को नियंत्रित करता है अर्थात हुकुम से चलता है
इसलिए हम सबका सुर तूने आप ही हुकुम से मिला रखा है
परमात्मा की वंसी बड़ी ही विचित्र है

तेरे इस बंसी रूप को लोग कान्हा कहते है तू ही सबको अखंड करने वाला है
पर तू किसी को भी जाहिरी रूप में नजर नही आता केवल बातूनी रूप से ही जाहिर होता है
इसलिए तेरा ये खेल बड़ा ही विचित्र प्रतीत होता है
तूने बड़ी ही विचित्र बंसी बजा रखी है

तेरी ये बंसी हर कोई सुनता है अर्थात तेरी और हर कोई आकर्षित हो रहा है
पर कोई बिरला ही इसका का भेद जान  पाता है
जीस  किसी को भी चेतन अर्थात बेहद का भेद मिल जाता है वही इस बंसी के आनंद का अधिकारी बनता है

इस बंसी की आवाज सुनके मेरी आत्मा में हिलोरे उठने लगते है
परन्तु ज्ञानी कहलाने वाले इसके अलग अलग मतलब निकाल कर आपस में ही लड़ते है
वे केवल इसका एक सुर ही देख पते है अर्थात केवल जाहिरी अर्थ ही लेते है

इस बंसी की याने तेरे  प्रेम की महिमा बड़ी ही विस्तार से है  जिसने अपने में खोजा है उसने ही पाया है
इसको पाना बड़ा ही सरल है कईयों ने अपने हृदये में पाया है ऐसे प्रमाण मिलते है
इसलिए ये बंसी बड़ी ही विचित्र है

इस बनसी के पांच सत्ये तारे है [अक्षर ब्रह्म और उसके चतुर्स्पाद ]
पर इसको फुकने वाला अर्थात इनके आनंद का स्त्रोत इनसे अलग है
जिसने सबके होश भुला रखे है
इसलिए ये बंसी विचित्र है

पर बुल्लेशाह कई मिटने वाले संसार में ही मान सम्मान में आनंद खोजदे है
मिटने वाली मूर्तियों को ही अपने यार बनाये फिरते है
धर्म के नाम पे ब्योपार चलाये रखते है
पर इनसे अलग  केवल सत्ये के मार्ग पे चलने वालो की गवाही कयामत में खुद हजरत करेंगे
इसलिए ये बंसी बड़ी विचित्र है इसकी तान कोई बिरला ही समझ पाता  है

प्रणाम जी