इन जेहेर जिमीसे कोई ना निकस्या, अमल चढयो अति भारी ।
मुझ देखते सैयल मेरी, कैयों जीत के बाजी हारी।।
(वाणी मेरे पियू की न्यारी जो संसार)
इस संसारमें मोह-माया ,सत का भ्रम और अहङ्कारका विष इतना अधिक फैल गया है कि उनमेंसे कोई भी बाहर निकल नहीं सकता. कयोंकी सब उलटे रसते पर जा रहे है ..और जो सीधा है उसका किसी को अभ्यास नही है ...रस्ते केवल दो ही है एक जड़ और दूसरा चेतन जब हम जड़ पूजा की और जा रहे होते हैं तो चेतन को पीठ रहती है जब चेतन को जाते हैं तो जड को..अगर कोइ ये सोचता है की वो जड़ से चेतन को पा लेगा तो यह बहोत बडा भ्रम है ..पर अन्नत जन्मों से जड़ पूजा के कारण जीव के कारण शरीर मे जड़ता संसकार रूप मे विरामान है इसलिय इसे चेतन की बात विपरीत या धर्म विरोधी लगती हैं..मार्ग बताने वाले भी इसी रोग से ग्रसित होने के करण यह बिमारी पिढी दर पिढी चली आ रही है ..सब कीसी के बताए रस्ते पर जा रहे हैं .. खुद की खोज कोइ नही करना चाहता ..जो की आत्म कल्याण के लीय परम आवशयक है.. इसलिय मेरे देखते-देखते अनेक लोगोंने यह मानव-तनरूपी शुभावसर प्राप्त करके भी उसे गँवा दिया.
यं न योगेन सांख्येन दानब्रततपोध्वरै: ।
व्याख्यास्वाध्याय संन्यासै: प्राप्नुयाद् यत्नवानपि ॥
(श्रीमद् भा॰ महापुराण ११/१२/९)
उद्धव ! बड़े-बड़े प्रयत्नशील साधक योग, सांख्य, दान, व्रत, तपस्या, यज्ञ, श्रुतियों की व्याख्या, स्वाध्याय और सन्यास आदि साधनों के द्वारा मुझे नहीं प्राप्त कर सकते, परन्तु सत्य के ग्यान के द्वारा तो मैं अत्यन्त सुलभ हो जाता हूँ।
मन्माया मोहितधिय: पुरुषा: पुरुषर्षभ ।
श्रेयोवदन्त्यनेकान्तं यथाकर्म यथारुचि ॥
(श्रीमद् भा॰ महापुराण ११/१४/९)
प्यारे उद्धव ! सभी की बुद्धि मेरी माया से मोहित हो रही है; इसी से वे अपने-अपने कर्म-संस्कार और अपनी-अपनी रुचि के अनुसार आत्मकल्याण के साधन भी एक नहीं, अनेकानेक बतलाते हैं
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प्रणाम जी
मुझ देखते सैयल मेरी, कैयों जीत के बाजी हारी।।
(वाणी मेरे पियू की न्यारी जो संसार)
इस संसारमें मोह-माया ,सत का भ्रम और अहङ्कारका विष इतना अधिक फैल गया है कि उनमेंसे कोई भी बाहर निकल नहीं सकता. कयोंकी सब उलटे रसते पर जा रहे है ..और जो सीधा है उसका किसी को अभ्यास नही है ...रस्ते केवल दो ही है एक जड़ और दूसरा चेतन जब हम जड़ पूजा की और जा रहे होते हैं तो चेतन को पीठ रहती है जब चेतन को जाते हैं तो जड को..अगर कोइ ये सोचता है की वो जड़ से चेतन को पा लेगा तो यह बहोत बडा भ्रम है ..पर अन्नत जन्मों से जड़ पूजा के कारण जीव के कारण शरीर मे जड़ता संसकार रूप मे विरामान है इसलिय इसे चेतन की बात विपरीत या धर्म विरोधी लगती हैं..मार्ग बताने वाले भी इसी रोग से ग्रसित होने के करण यह बिमारी पिढी दर पिढी चली आ रही है ..सब कीसी के बताए रस्ते पर जा रहे हैं .. खुद की खोज कोइ नही करना चाहता ..जो की आत्म कल्याण के लीय परम आवशयक है.. इसलिय मेरे देखते-देखते अनेक लोगोंने यह मानव-तनरूपी शुभावसर प्राप्त करके भी उसे गँवा दिया.
यं न योगेन सांख्येन दानब्रततपोध्वरै: ।
व्याख्यास्वाध्याय संन्यासै: प्राप्नुयाद् यत्नवानपि ॥
(श्रीमद् भा॰ महापुराण ११/१२/९)
उद्धव ! बड़े-बड़े प्रयत्नशील साधक योग, सांख्य, दान, व्रत, तपस्या, यज्ञ, श्रुतियों की व्याख्या, स्वाध्याय और सन्यास आदि साधनों के द्वारा मुझे नहीं प्राप्त कर सकते, परन्तु सत्य के ग्यान के द्वारा तो मैं अत्यन्त सुलभ हो जाता हूँ।
मन्माया मोहितधिय: पुरुषा: पुरुषर्षभ ।
श्रेयोवदन्त्यनेकान्तं यथाकर्म यथारुचि ॥
(श्रीमद् भा॰ महापुराण ११/१४/९)
प्यारे उद्धव ! सभी की बुद्धि मेरी माया से मोहित हो रही है; इसी से वे अपने-अपने कर्म-संस्कार और अपनी-अपनी रुचि के अनुसार आत्मकल्याण के साधन भी एक नहीं, अनेकानेक बतलाते हैं
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