सुप्रभात जी
आत्मैव ह्यात्मनो बंधु: आत्मैव रिपुरात्मन:।
मनुय स्वयं ही अपने आपका मित्र है और स्वयं ही अपने आपका शत्रु । जो मनुष्य इन दोषो को निकालकर अंत:करण को निर्मल करता जाता है उसका ध्यान प्रगाढ होता जाता है और जो इन दोषो को निकालने में लापरवाह रहता है वह अपने आपका शत्रु हो जाता है भगवान बुद्ध कहते थे: ‘‘अप्प दीपो भव। अपना दीया आप बनो।’’
साधना के छ: विघ्न
निद्रा, तंद्रा, आलस्य, मनोराज, लय और रसास्वाद-ये छ: साधना के बड़े विघ्न हैं। ये विघ्न न आयें तो हर मनुष्य परमात्मा प्राप्ति के मार्ग पर तेजी से बढ़ सकता है ।
जब हम ध्यान करने बैठते हैं तब मन कहीं से कहीं भागता है। फिर ‘मन नही लग रहा...’ ऐसा कहकर उठ जातें हैं। काम करते हैं तो ध्यान का मन करता है और ध्यान करने बैठते हैं तब कोइ न कोइ काम याद आता है । यह एक व्यक्ति का प्रश्न नहीं, सबका प्रश्न है और यही मनोराज है।
मनोराज--
दो दोस्त थे । आपस में उनका बड़ा स्नेह था। एक दिन वे खेत में घूमने के लिए निकले और विचारने लगे कि: ‘हम एक बड़ी जमीन लें और भागीदारी में खेती करें...’
एक ने कहा: ‘‘मैं ट्रक्टर लाऊंगा। तू कुऑं खुदवाना।’’ दूसरा: ‘‘ठीक है। ट्रक्टर खराब हो जाये तो मैं बैल रखूंगा।’’
पहला: ‘‘अगर तेरे बैल मेरे हिस्से के खेत में घुस जायेंगे तो मैं उन्हें खदेड़ दूंगा।’’
दूसरा: ‘‘क्यों? मेरे बैलों को क्यों खदेड़गा?’’
पहला: ‘‘क्योंकि मेरी खेती को नुकसान पहुंचायेंगे।’’
इस प्रकार दोनों में कहा-सुनी हो गर्इ और बात बढते-बढते मारपीट तक पहुंच गर्इ । दोनों ने एक-दूसरे का सिर फोड़ दिया। मुकदमा हो गया।
दोनो न्यायालय में गये। न्यायाधीश ने पूछा: ‘‘आपकी लड़ार्इ कैसे हुर्इ?’’
दोनों बोले: ‘‘जमीन के संबंध में बात हुर्इ थी।’’
‘‘कितनी जमीन और कहां ली थी?’’
‘‘अभी तक ली नहीं है।’’
‘‘फिर क्या हुआ?’’
एक: ‘‘मेरे हिस्से में टै्रक्टर आता था, इसके हिस्से में कुऑं और बैल।’’
न्यायधीश: ‘‘बैल कहां हैं?’’
दूसरा: ‘‘अभी तक खरीदे नहीं हैं।’’
जमीन ली नही है, कुऑं खुदवाया नहीं है, टरक्टर और बैल खरीदे नहीं हैं फिर भी मन के द्वारा सारा बखेड़ा खड़ा कर दिया है और लड़ रहे हैं ।
इसका नाम मनोराज है । ध्यान करते-करते भी मनोराज करता रहता है यह साधना का बड़ा विघ्न है ।
लय-- कभी-कभी प्रकृति में मन का लय हो जाता है । आत्मा का दर्शन नही होता किन्तु मन का लय हो जाता है और लगता है कि ध्यान किया। ध्यान में से उठते हैं तो जम्हार्इ आने लगती है। यह ध्यान नही, लय हुआ। वास्तविक ध्यान में से उठते हैं तो ताजगी, प्रसन्नता और दिव्य विचार आते हैं किन्तु लय में ऐसा नही होता है।
रसास्वाद--
कभी-कभी साधक को रसास्वाद परेशान करता है। साधना करते-करते थोड़ा-बहुत आनंद आने लगता है तो मन उसी आनंद का आस्वाद लेने लग जाता है और अपना मुख्य लक्ष्य भूल जाता है।
नींद--
कभी साधना करने बैठते हैं तो नींद आने लगती है और जब सोने की कोशिश करते हैं तो नींद नही आती। यह भी साधना का एक विघ्न है।
तंद्रा--
तंद्रा भी एक विघ्न है। नींद तो नही आती किन्तु नींद जैसा लगता है। यह सूक्ष्म निद्रा अर्थात तंद्रा है ।
आलस्य--
साधना करने में आलस्य आता है। ‘अभी नही, बाद में करेंगे...’ यह भी एक विघ्न है
प्रणाम जी
आत्मैव ह्यात्मनो बंधु: आत्मैव रिपुरात्मन:।
मनुय स्वयं ही अपने आपका मित्र है और स्वयं ही अपने आपका शत्रु । जो मनुष्य इन दोषो को निकालकर अंत:करण को निर्मल करता जाता है उसका ध्यान प्रगाढ होता जाता है और जो इन दोषो को निकालने में लापरवाह रहता है वह अपने आपका शत्रु हो जाता है भगवान बुद्ध कहते थे: ‘‘अप्प दीपो भव। अपना दीया आप बनो।’’
साधना के छ: विघ्न
निद्रा, तंद्रा, आलस्य, मनोराज, लय और रसास्वाद-ये छ: साधना के बड़े विघ्न हैं। ये विघ्न न आयें तो हर मनुष्य परमात्मा प्राप्ति के मार्ग पर तेजी से बढ़ सकता है ।
जब हम ध्यान करने बैठते हैं तब मन कहीं से कहीं भागता है। फिर ‘मन नही लग रहा...’ ऐसा कहकर उठ जातें हैं। काम करते हैं तो ध्यान का मन करता है और ध्यान करने बैठते हैं तब कोइ न कोइ काम याद आता है । यह एक व्यक्ति का प्रश्न नहीं, सबका प्रश्न है और यही मनोराज है।
मनोराज--
दो दोस्त थे । आपस में उनका बड़ा स्नेह था। एक दिन वे खेत में घूमने के लिए निकले और विचारने लगे कि: ‘हम एक बड़ी जमीन लें और भागीदारी में खेती करें...’
एक ने कहा: ‘‘मैं ट्रक्टर लाऊंगा। तू कुऑं खुदवाना।’’ दूसरा: ‘‘ठीक है। ट्रक्टर खराब हो जाये तो मैं बैल रखूंगा।’’
पहला: ‘‘अगर तेरे बैल मेरे हिस्से के खेत में घुस जायेंगे तो मैं उन्हें खदेड़ दूंगा।’’
दूसरा: ‘‘क्यों? मेरे बैलों को क्यों खदेड़गा?’’
पहला: ‘‘क्योंकि मेरी खेती को नुकसान पहुंचायेंगे।’’
इस प्रकार दोनों में कहा-सुनी हो गर्इ और बात बढते-बढते मारपीट तक पहुंच गर्इ । दोनों ने एक-दूसरे का सिर फोड़ दिया। मुकदमा हो गया।
दोनो न्यायालय में गये। न्यायाधीश ने पूछा: ‘‘आपकी लड़ार्इ कैसे हुर्इ?’’
दोनों बोले: ‘‘जमीन के संबंध में बात हुर्इ थी।’’
‘‘कितनी जमीन और कहां ली थी?’’
‘‘अभी तक ली नहीं है।’’
‘‘फिर क्या हुआ?’’
एक: ‘‘मेरे हिस्से में टै्रक्टर आता था, इसके हिस्से में कुऑं और बैल।’’
न्यायधीश: ‘‘बैल कहां हैं?’’
दूसरा: ‘‘अभी तक खरीदे नहीं हैं।’’
जमीन ली नही है, कुऑं खुदवाया नहीं है, टरक्टर और बैल खरीदे नहीं हैं फिर भी मन के द्वारा सारा बखेड़ा खड़ा कर दिया है और लड़ रहे हैं ।
इसका नाम मनोराज है । ध्यान करते-करते भी मनोराज करता रहता है यह साधना का बड़ा विघ्न है ।
लय-- कभी-कभी प्रकृति में मन का लय हो जाता है । आत्मा का दर्शन नही होता किन्तु मन का लय हो जाता है और लगता है कि ध्यान किया। ध्यान में से उठते हैं तो जम्हार्इ आने लगती है। यह ध्यान नही, लय हुआ। वास्तविक ध्यान में से उठते हैं तो ताजगी, प्रसन्नता और दिव्य विचार आते हैं किन्तु लय में ऐसा नही होता है।
रसास्वाद--
कभी-कभी साधक को रसास्वाद परेशान करता है। साधना करते-करते थोड़ा-बहुत आनंद आने लगता है तो मन उसी आनंद का आस्वाद लेने लग जाता है और अपना मुख्य लक्ष्य भूल जाता है।
नींद--
कभी साधना करने बैठते हैं तो नींद आने लगती है और जब सोने की कोशिश करते हैं तो नींद नही आती। यह भी साधना का एक विघ्न है।
तंद्रा--
तंद्रा भी एक विघ्न है। नींद तो नही आती किन्तु नींद जैसा लगता है। यह सूक्ष्म निद्रा अर्थात तंद्रा है ।
आलस्य--
साधना करने में आलस्य आता है। ‘अभी नही, बाद में करेंगे...’ यह भी एक विघ्न है
प्रणाम जी
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