Friday, November 13, 2015

वाणी..

ए माया आद अनाद की , चली जात अंधेर ।

निरगुन सरगुन होए के व्यापक , आए फिरत है फेर ।।
( कि. ६५/१ )

यह आदि माया ( कालमाया ) सृष्टि के प्रारम्भ ही से अज्ञान स्वरूपा है , जो सभी प्राणियों को अपने जाल में फँसाती रही है । यद्यपि यह अपने मूल रूप में शब्द , स्पर्श , रूप , रस तथा गन्ध आदि गुणों से रहित निराकार है , किन्तु सगुण रूप में इन गुणों को धारण कर लेती है अर्थात् निराकार माया (निर्गुण) ही सृष्टि उत्पत्ति काल में स्थूल रूप (सगुण) कार्य रूप जगत में परिवर्तित हो जाती है । इसका मूलरूप कार्य रूप जगत (सगुण) में अति सूक्ष्म रूप (आकाश) से व्यापक रहता है । प्रलय काल में यही प्रकृति (माया) साकार से निराकार में रूपांतरित हो जाती है । सभी प्राणी इसी सर्वव्यापक माया के जाल में फँसकर जन्म-मरण के चक्र में भटकते रहते हैं ।
सृष्टि उत्पत्ति व लय का यह क्रम अनादि काल से चला आ रहा है तथा अनन्त काल तक चलता रहेगा । ब्रह्म इस नाशवान प्रकृति (सृष्टि) से सर्वथा परे है ।

प्रणाम जी

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