Monday, November 9, 2015

वह निराकार नहीं

मोह अज्ञान भरमना , करम काल और सुंन ।
ये नाम सारे नींद के , निराकार निरगुन ।।
(श्री मुख वाणी- क. हि. २४/१९)

कारण प्रकृति में विकृति से जिस महत्तत्व की उत्पत्ति होती है, उसे ही निराकार, निर्गुण, मोह, अज्ञान, भ्रम, कर्म, काल और शून्य के नाम से जाना जाता है ।
महत्तत्व का स्वरूप इतना सूक्ष्म होता है कि सामान्य मानवीय बुद्धि उसे ग्रहण ही नहीं कर पाती, जिस कारण उसे निराकार कहते हैं । निराकार की उत्पत्ति होती है तथा महाप्रलय में उसका नाश भी होता है । परन्तु परमात्मा तो चेतन, अनादि व अखण्ड हैं ।
वेद में कहा है- उस धीर, अजर, अमर, नित्य तरुण परब्रह्म को ही जानकर विद्वान पुरुष मृत्यु से नहीं डरता है (अथर्ववेद १०/८/४४ ) । इस मंत्र में अक्षरातीत पूर्ण ब्रह्म को नित्य तरुण ( युवा स्वरूप वाला ) कहा गया है, किन्तु उसका शरीर मनुष्यों के पंचभौतिक शरीर के लक्षणों से सर्वथा विपरीत है । ब्रह्म के युवा स्वरूप वाले शरीर में हड्डी, माँस, रस, रक्त तथा नस-नाड़ियाँ नहीं हैं । श्वास-प्रश्वास की क्रिया उनमें नहीं होती है और क्षुधा भी उसको नहीं सताती है । न उसमें रंच मात्र भी ह्रास होता है और न विकास । अनादि काल से उसका स्वरूप वैसा ही है और अनन्त काल तक रहेगा ।
वेदों में अन्य मन्त्रों में ब्रह्म के लिए शुक्र (नूर) , भर्गः, आदित्यवर्णः , कान्तिमान , मनोहर , प्रकाशमान , आदि शब्दों का प्रयोग किया गया है ।
सामवेद में कहा है कि जो अपने गृह रूपी चेतन धाम में सम्यक् प्रदीप्त होकर चमकता है उस अत्यन्त तरुण, अद्भुत प्रभा वाले, अपने चेतन धाम में सर्वत्र व्यापक, महान, पृथ्वी और द्युलोक के बीच उत्तम प्रकार से स्तुति किए गए ब्रह्म को हम महानम्रता द्वारा प्राप्त हुए हैं (साम. ५/८/९/१) ।
अतः वह निराकार नहीं हो सकते ।
वस्तुतः साकार और निराकार से परे ब्रह्म का स्वरूप है, जो त्रिगुणातीत हैं ।

प्रणाम जी

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