Sunday, November 29, 2015

बिछुड़ा नही..

बिछुड़ा नही..
सुप्रभात जी

 अगर तुम्हें पता है कि तुम ईश्वर—अंश हो तो तुम्हें पता होगा कि बिछुड़ा कभी भी नहीं। तुमने बिछुड़ने का सपना देखा। बिछुड़ा कभी भी नहीं, क्योंकि अंश बिछुड़ कैसे सकता है? अंश तो अंशी के साथ ही होता है। तुम्हें याद भूल गई हो, बिछुड़न नहीं हो सकती, विस्मृति हो सकती है। बिछुड़ने का तो उपाय ही नहीं है। हम जो हैं, वही हैं। चाहे हम भूल जाएं, विस्मरण कर दें, चाहे हम याद कर लें—सारा भेद विस्मृति और स्मृति का है।

‘मूल से कब, क्यों और कैसे बिछुड़ा?’

बिछुड़ा होता तो हम बता देते कि कब, क्यों और कैसे बिछुड़ा। बिछुड़ा नहीं। रात तुम सोए, तुमने सपना देखा कि सपने में तुम घोड़े हो गए। अब सुबह तुम पूछो कि हम घोड़े क्यों, कैसे, कब हुए—बहुत मुश्किल की बात है। ‘क्यों घोड़े हुए?’ हुए ही नहीं, पहली तो बात। हो गए होते तो पूछने वाला बचता? घोड़े तो नहीं पूछते। तुम कभी हुए नहीं, सिर्फ सपना देखा। सुबह जागकर तुमने पाया कि अरे, खूब सपना देखा! जब तुम सपना देख रहे थे तब भी तुम घोड़े नहीं थे, याद रखना। हालांकि —तुम बिलकुल ही लिप्त हो गए थे इस भाव में कि घोड़ा हो गया। यही तो अष्टावक्र की मूल धारणा है। अष्टावक्र कहते हैं जिस बात से भी तुम अपने मैं— भाव को जोड़ लोगे, वही हो जाओगे।

देहाभिमान—तो देह हो गए। कहा ‘मैं देह हूं’, तो देह हो गए। ब्रह्माभिमान—कहा कि मैं ब्रह्मआत्मा हूं तो  हो गए। तुम जिससे अपने मैं को जोड़ लेते हो, वही हो जाते हो। सपने में तुमने घोड़े से जोड लिया, तुम घोड़े हो गए। अभी तुमने शरीर से जोड़ लिया तो तुम आदमी हो गए। लेकिन तुम हुए कभी भी नहीं हो। हो तो तुम वही, जो तुम हो। जस—के—तस! वैसे के वैसे! तुम्हारे स्वभाव में तो कहीं कोई अंतर नहीं पड़ा है। धारणा सही रखो तो सब सुलभ है परमात्मा से कभी हम अलग है ही नही..

प्रणाम जी

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