सुप्रभात जी
दुर्लभं त्रयमेवैतद्देवानुग्रहहेतुकम्।
मनुष्यत्वं मुमुक्षत्वं महापुरुषसंश्रय:।।
(विवेक चूड़ामणि---३)
‘भगवत्कृपा ही जिनकी प्राप्ति का कारण है, वे मनुष्यत्व, मुमुक्षुत्व (मुक्त होने की इच्छा) और महान् पुरुषों का संग---ये तीनों ही दुर्लभ हैं।‘
अर्थात् चार अनमोल पदार्थ यथा कलयुग , भारतवर्ष , मनुष्य तन और ब्रह्मज्ञान ( तारतम ) पाकर इन्हें व्यर्थ नहीं खोना चाहिए , अपितु प्रत्येक क्षण का सदुपयोग कर अखण्ड धन (परब्रह्म का साक्षात्कार ) प्राप्त करना चाहिए ।
महामुनि कपिल जी सांख्य दर्शन में कहते हैं कि तीनों प्रकार के दुखों ( दैहिक, दैविक, भौतिक ) से पूर्ण रूप से छूटकर ब्रह्मानन्द को प्राप्त करना ही जीवन का सबसे बड़ा पुरुषार्थ है। ( सांख्य १/१ )
लब्ध्वा कथञ्चित्ररजन्म दुलभं तत्रापि पुंस्त्वं श्रुतिपारर्शनम्।
यः स्वात्ममुक्तौ न यतेत मूढ़धी: सह्यात्महास्वं विनिहंत्यसद्ग्रहात्।।
(विवेक चूड़ामणि—४)
‘किसी प्रक्रार इस दुर्लभ मनुष्य जन्म को पाकर और उसमें भी, श्रुति के सिद्धांत का यथार्थ ज्ञान होता है, ऐसा पुरुषत्व पाकर जो मूढ़बुद्धि अपनी आत्मा की मुक्ति के लिए प्रयत्न नहीं करता, वह निश्चित ही आत्मघाती है। वह असत्य में आस्था रखने के कारण अपने को नष्ट करता है।
संसार के सुख और भोग बादलों में कौंधने वाली विद्युत के समान अस्थिर हैं । जीवन हवा के झरोकों से लहलहाते कमल के पत्तों पर तैरने वाली पानी की बूँद के समान क्षणभंगुर है । जीवन की उमंगें और वासनाएँ भी अस्थायी हैं । बुद्धिमान को चाहिए कि इन सब बातों को समझकर अपने मन को स्थिरता और धैर्य के साथ ब्रह्मचिन्तन में लगाये । संसार के नाना प्रकार के सुख भोग क्षणभंगुर हैं और साथ ही संसार में आवागमन के कारण हैं । इस संसार का कोई भी सुख स्थिर नहीं है , अतः सुख के लिए मारे मारे फिरना व्यर्थ है । भोगों का संग्रह बंद करो और अपने आशा रूपी बन्धनों के त्याग से निर्मल हुए मन को अपने आत्म स्वरूप में और परब्रह्म में स्थिर करो । भोगों की ओर से मन को हटाकर परब्रह्म में लगाना ही सर्वोतम कार्य है ।
प्रणाम जी
दुर्लभं त्रयमेवैतद्देवानुग्रहहेतुकम्।
मनुष्यत्वं मुमुक्षत्वं महापुरुषसंश्रय:।।
(विवेक चूड़ामणि---३)
‘भगवत्कृपा ही जिनकी प्राप्ति का कारण है, वे मनुष्यत्व, मुमुक्षुत्व (मुक्त होने की इच्छा) और महान् पुरुषों का संग---ये तीनों ही दुर्लभ हैं।‘
अर्थात् चार अनमोल पदार्थ यथा कलयुग , भारतवर्ष , मनुष्य तन और ब्रह्मज्ञान ( तारतम ) पाकर इन्हें व्यर्थ नहीं खोना चाहिए , अपितु प्रत्येक क्षण का सदुपयोग कर अखण्ड धन (परब्रह्म का साक्षात्कार ) प्राप्त करना चाहिए ।
महामुनि कपिल जी सांख्य दर्शन में कहते हैं कि तीनों प्रकार के दुखों ( दैहिक, दैविक, भौतिक ) से पूर्ण रूप से छूटकर ब्रह्मानन्द को प्राप्त करना ही जीवन का सबसे बड़ा पुरुषार्थ है। ( सांख्य १/१ )
लब्ध्वा कथञ्चित्ररजन्म दुलभं तत्रापि पुंस्त्वं श्रुतिपारर्शनम्।
यः स्वात्ममुक्तौ न यतेत मूढ़धी: सह्यात्महास्वं विनिहंत्यसद्ग्रहात्।।
(विवेक चूड़ामणि—४)
‘किसी प्रक्रार इस दुर्लभ मनुष्य जन्म को पाकर और उसमें भी, श्रुति के सिद्धांत का यथार्थ ज्ञान होता है, ऐसा पुरुषत्व पाकर जो मूढ़बुद्धि अपनी आत्मा की मुक्ति के लिए प्रयत्न नहीं करता, वह निश्चित ही आत्मघाती है। वह असत्य में आस्था रखने के कारण अपने को नष्ट करता है।
संसार के सुख और भोग बादलों में कौंधने वाली विद्युत के समान अस्थिर हैं । जीवन हवा के झरोकों से लहलहाते कमल के पत्तों पर तैरने वाली पानी की बूँद के समान क्षणभंगुर है । जीवन की उमंगें और वासनाएँ भी अस्थायी हैं । बुद्धिमान को चाहिए कि इन सब बातों को समझकर अपने मन को स्थिरता और धैर्य के साथ ब्रह्मचिन्तन में लगाये । संसार के नाना प्रकार के सुख भोग क्षणभंगुर हैं और साथ ही संसार में आवागमन के कारण हैं । इस संसार का कोई भी सुख स्थिर नहीं है , अतः सुख के लिए मारे मारे फिरना व्यर्थ है । भोगों का संग्रह बंद करो और अपने आशा रूपी बन्धनों के त्याग से निर्मल हुए मन को अपने आत्म स्वरूप में और परब्रह्म में स्थिर करो । भोगों की ओर से मन को हटाकर परब्रह्म में लगाना ही सर्वोतम कार्य है ।
प्रणाम जी
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