सुप्रभात जी
माया के इस लुभावने खेल को देखकर साधू-सन्त प्रत्यक्ष रुप से सावधान करते हैं। सच तो ये है की हम माया को ठगने में लगे रहते है और माया हमारे को ठगने में लगी रहती है इस प्रकार दोनों ठग एक दूसरे को ठगते रहते हैं।
भ्रम के कारण हम समझते हैं कि हम माया को भोग रहें है जबकि माया जन्म-जन्मान्तर से हमारा भोग कर रही है..
माया भय का दूसरा नाम है भय से चिंता और चिंता से रोग उत्पन्न होते हैं..
भर्तृहरिजी कहते हैं—
भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालाद्भयं
माने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जराया भयम् ।
शास्त्रे वादभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयं
सर्व वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम्
॥
‘भोगोंमें रोगादिका, कुलमें गिरनेका, धनमें
राजाका, मानमें दैन्यका, बलमें शत्रुका, रूपमें
बुढ़ापेका, शास्त्रमें विवादका, गुणमें दुर्जनका
और शरीरमें मृत्युका भय सदा बना रहता है । इस
पृथ्वीमें मनुष्योंके लिये सभी वस्तुएँ भयसे युक्त हैं ।
एक वैराग्य (मन माया से हटाकर परमात्मा में लगाना)ही ऐसा है, जो सर्वथा भयरहित है !’
तुम इसमें बाह्य रुप से रहते हुए भी आन्तरिक रुप से अलग ही रहो, जिससे तुम्हें माया के अथाह बन्धनों से छुटकारा मिल सके। बार-बार इस प्रकार का उत्तम समय नहीं आने वाला है और न कोई तुम्हें इस प्रकार बोल- बोलकर समझायेगा। ज्ञान द्वारा प्रबोधित होने के पश्चात् तुम सबके सत्य कथनों के सार तत्व को ग्रहण करो। उस सार का भी सार यह है कि उस सच्चिदानन्द परब्रह्म के चरणों से ही अपना अटूट बन्धन बांधो और उनके अखण्ड प्रेम तथा आनन्द में हमेशा डूबे रहो। माया के कार्यों को करते हुए भी माया में लिप्त न हो। इसका परिणाम यह होगा कि संसार को छोड़ते समय हृदय में माया की चाहना नहीं रहेगी।
Satsangwithparveen.blogspot.com
प्रणाम जी
माया के इस लुभावने खेल को देखकर साधू-सन्त प्रत्यक्ष रुप से सावधान करते हैं। सच तो ये है की हम माया को ठगने में लगे रहते है और माया हमारे को ठगने में लगी रहती है इस प्रकार दोनों ठग एक दूसरे को ठगते रहते हैं।
भ्रम के कारण हम समझते हैं कि हम माया को भोग रहें है जबकि माया जन्म-जन्मान्तर से हमारा भोग कर रही है..
माया भय का दूसरा नाम है भय से चिंता और चिंता से रोग उत्पन्न होते हैं..
भर्तृहरिजी कहते हैं—
भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालाद्भयं
माने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जराया भयम् ।
शास्त्रे वादभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयं
सर्व वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम्
॥
‘भोगोंमें रोगादिका, कुलमें गिरनेका, धनमें
राजाका, मानमें दैन्यका, बलमें शत्रुका, रूपमें
बुढ़ापेका, शास्त्रमें विवादका, गुणमें दुर्जनका
और शरीरमें मृत्युका भय सदा बना रहता है । इस
पृथ्वीमें मनुष्योंके लिये सभी वस्तुएँ भयसे युक्त हैं ।
एक वैराग्य (मन माया से हटाकर परमात्मा में लगाना)ही ऐसा है, जो सर्वथा भयरहित है !’
तुम इसमें बाह्य रुप से रहते हुए भी आन्तरिक रुप से अलग ही रहो, जिससे तुम्हें माया के अथाह बन्धनों से छुटकारा मिल सके। बार-बार इस प्रकार का उत्तम समय नहीं आने वाला है और न कोई तुम्हें इस प्रकार बोल- बोलकर समझायेगा। ज्ञान द्वारा प्रबोधित होने के पश्चात् तुम सबके सत्य कथनों के सार तत्व को ग्रहण करो। उस सार का भी सार यह है कि उस सच्चिदानन्द परब्रह्म के चरणों से ही अपना अटूट बन्धन बांधो और उनके अखण्ड प्रेम तथा आनन्द में हमेशा डूबे रहो। माया के कार्यों को करते हुए भी माया में लिप्त न हो। इसका परिणाम यह होगा कि संसार को छोड़ते समय हृदय में माया की चाहना नहीं रहेगी।
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प्रणाम जी
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