कृप्या ध्यान दें..
हम ब्रह्मसृष्ठ आई धाम से,अक्षर खेल देखन ।
खेल देख के जागिए, घर असलू अपने तन ॥
हम सब आत्मांये इन नश्वर शरिरो में माया का खेल देखने आई हैं व माया में खुद को भूलकर अपने को शरीर ही समझनें लगी बस यही से दुख शुरू ..इसको एक काहानी के माध्यम से समझें..
सरोवर के किनारे अपने आश्रम में तप करते-करते
मार्कण्डेय ऋषि को नारायण के दर्शन हुए । ऋषि ने
माया देखने की इच्छा प्रकट की । अतः नारायण ने
उनके ऊपर अज्ञान रूपी नींद का आवरण डाला ।
मार्कण्डेय ऋषि ने देखा कि प्रलय के जल में एक
बालक बह रहा है । उनकी सुरता(ध्यान) उसमें चली गयी ।
वहां अनेक योनियों में उन्होंने अनेक तन धारण
करते हुए सांसारिक क्रिया कलापों में बहुत दुःख
भोगा तथा माया में तल्लीन हो गये । तभी साधु भेष में नारायण ने उनसे भेंट की और उनको
प्रबोधित किया कि वे तो मार्कण्डेय ऋषि हैं ।
अज्ञान रूपी नींद के हटते ही उन्होंने पाया कि वे
उसी सरोवर के किनारे बैठे हैं तथा नारायण उनके
सामने विराजमान हैं । अर्थात् अभी एक क्षण भी
व्यतीत नहीं हुआ था ।
जिस प्रकार मार्कण्डेय ऋषि ने माया देखने की इच्छा की थी, उसी प्रकार अनादि परमधाम में आत्माओं ने परब्रह्म परमात्मा से माया देखने की इच्छा की थी । उनकी इच्छा पूरी करने के लिए सच्चिदानन्द परब्रह्म परमात्मा ने अपनी आत्माओं को वहां बैठे-बैठे दृष्टि (सुरता) मात्र से यह मायावी खेल दिखाया है । परमधाम की आत्मायें इस मायावी जगत में अपने परमात्मा को भूल गयी हैं ।
हम आतमायें इस संसार में आयी हैं इसके कुछ शब्द प्रमाण भी ग्रहण करें...
पुराण संहिता ग्रन्थ के अध्याय ३१ में शिव जी ने परब्रह्म की आत्माओं के पुनः संसार में प्रकटन का वर्णन किया हैं-
परमधाम की आत्माओं के अन्दर नश्वर जगत की दुःखमयी लीला को देखने के लिए, जो कभी भी इसके पहले उत्पन्न न होने वाली इच्छा थी, वह प्रियतम के साथ में रहने के कारण स्वभावतः पूरी नहीं हो सकी ।।२५।।
वह इच्छा उनके अन्दर बीज रूप से स्थित थी । सुख की वासना के लक्षणों से सम्बन्धित जीव ही संसार को प्राप्त हो सकते हैं । निश्चय ही जन्मजात संस्कार पूर्ण रूप से छूट नही पाते हैं । इसी प्रकार अक्षरातीत की प्रियायें भी खेल देखने की पहले वाली इच्छा से युक्त बनी रहीं । उसकी पूर्ति न होने से निजधाम में वे आत्माएँ जाग्रत न हो सकीं । इसके पश्चात् पहले की तरह ही वह कालमाया उत्पन्न हुई ।।२६-२८।।
अपनी इच्छा पूरी न होने के कारण अक्षरातीत की वे प्रियायें इस ब्रह्माण्ड में अवतरित होंगी । अपने परमधाम में कुछ समय तक सुषुप्त की तरह स्थित रहने के पश्चात् कालमाया के स्वप्न के ब्रह्माण्ड में पुनः अवतरित होंगी । वाराह नामक कल्प के दूसरे परार्द्ध में, स्वारोचिष आदि छः मन्वन्तरों के व्यतीत हो जाने पर सातवें वैवस्वत मन्वन्तर में अट्ठाइसवें कलयुग के प्रथम चरण में माया का खेल देखने की इच्छा शेष रह जाने के कारण वे असहनीय दुःख के भोग को प्राप्त होंगी ।।३०-३३।।
वे अलग-अलग देशों में तथा ब्राह्मण, आदि कुलों में भी पैदा होंगी । कुछ स्त्रियों का रूप धारण करेंगी तो कुछ पुरुषों का ।।३४।
हमें खुद की पहचान करके एकमात्र परब्रह्म का आश्रय लेके अपने धर जाना है कयोंकी हमारे धर में हमारी प्रतिक्षा हो रही है वो कह रहे हैं
"आजा सांझ हुइ मुझे तेरी फिकर ,कयों भटक रही तूं दर बदर आजा ना "
प्रणाम जी
हम ब्रह्मसृष्ठ आई धाम से,अक्षर खेल देखन ।
खेल देख के जागिए, घर असलू अपने तन ॥
हम सब आत्मांये इन नश्वर शरिरो में माया का खेल देखने आई हैं व माया में खुद को भूलकर अपने को शरीर ही समझनें लगी बस यही से दुख शुरू ..इसको एक काहानी के माध्यम से समझें..
सरोवर के किनारे अपने आश्रम में तप करते-करते
मार्कण्डेय ऋषि को नारायण के दर्शन हुए । ऋषि ने
माया देखने की इच्छा प्रकट की । अतः नारायण ने
उनके ऊपर अज्ञान रूपी नींद का आवरण डाला ।
मार्कण्डेय ऋषि ने देखा कि प्रलय के जल में एक
बालक बह रहा है । उनकी सुरता(ध्यान) उसमें चली गयी ।
वहां अनेक योनियों में उन्होंने अनेक तन धारण
करते हुए सांसारिक क्रिया कलापों में बहुत दुःख
भोगा तथा माया में तल्लीन हो गये । तभी साधु भेष में नारायण ने उनसे भेंट की और उनको
प्रबोधित किया कि वे तो मार्कण्डेय ऋषि हैं ।
अज्ञान रूपी नींद के हटते ही उन्होंने पाया कि वे
उसी सरोवर के किनारे बैठे हैं तथा नारायण उनके
सामने विराजमान हैं । अर्थात् अभी एक क्षण भी
व्यतीत नहीं हुआ था ।
जिस प्रकार मार्कण्डेय ऋषि ने माया देखने की इच्छा की थी, उसी प्रकार अनादि परमधाम में आत्माओं ने परब्रह्म परमात्मा से माया देखने की इच्छा की थी । उनकी इच्छा पूरी करने के लिए सच्चिदानन्द परब्रह्म परमात्मा ने अपनी आत्माओं को वहां बैठे-बैठे दृष्टि (सुरता) मात्र से यह मायावी खेल दिखाया है । परमधाम की आत्मायें इस मायावी जगत में अपने परमात्मा को भूल गयी हैं ।
हम आतमायें इस संसार में आयी हैं इसके कुछ शब्द प्रमाण भी ग्रहण करें...
पुराण संहिता ग्रन्थ के अध्याय ३१ में शिव जी ने परब्रह्म की आत्माओं के पुनः संसार में प्रकटन का वर्णन किया हैं-
परमधाम की आत्माओं के अन्दर नश्वर जगत की दुःखमयी लीला को देखने के लिए, जो कभी भी इसके पहले उत्पन्न न होने वाली इच्छा थी, वह प्रियतम के साथ में रहने के कारण स्वभावतः पूरी नहीं हो सकी ।।२५।।
वह इच्छा उनके अन्दर बीज रूप से स्थित थी । सुख की वासना के लक्षणों से सम्बन्धित जीव ही संसार को प्राप्त हो सकते हैं । निश्चय ही जन्मजात संस्कार पूर्ण रूप से छूट नही पाते हैं । इसी प्रकार अक्षरातीत की प्रियायें भी खेल देखने की पहले वाली इच्छा से युक्त बनी रहीं । उसकी पूर्ति न होने से निजधाम में वे आत्माएँ जाग्रत न हो सकीं । इसके पश्चात् पहले की तरह ही वह कालमाया उत्पन्न हुई ।।२६-२८।।
अपनी इच्छा पूरी न होने के कारण अक्षरातीत की वे प्रियायें इस ब्रह्माण्ड में अवतरित होंगी । अपने परमधाम में कुछ समय तक सुषुप्त की तरह स्थित रहने के पश्चात् कालमाया के स्वप्न के ब्रह्माण्ड में पुनः अवतरित होंगी । वाराह नामक कल्प के दूसरे परार्द्ध में, स्वारोचिष आदि छः मन्वन्तरों के व्यतीत हो जाने पर सातवें वैवस्वत मन्वन्तर में अट्ठाइसवें कलयुग के प्रथम चरण में माया का खेल देखने की इच्छा शेष रह जाने के कारण वे असहनीय दुःख के भोग को प्राप्त होंगी ।।३०-३३।।
वे अलग-अलग देशों में तथा ब्राह्मण, आदि कुलों में भी पैदा होंगी । कुछ स्त्रियों का रूप धारण करेंगी तो कुछ पुरुषों का ।।३४।
हमें खुद की पहचान करके एकमात्र परब्रह्म का आश्रय लेके अपने धर जाना है कयोंकी हमारे धर में हमारी प्रतिक्षा हो रही है वो कह रहे हैं
"आजा सांझ हुइ मुझे तेरी फिकर ,कयों भटक रही तूं दर बदर आजा ना "
प्रणाम जी
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