Thursday, December 28, 2017

* ''स्वर्ग और नरक क्या हैं?''*

*''हम स्वयं!''*

एक बार किसी शिष्य ने अपने गुरु से पूछा, ''मैं जानना चाहता हूं कि स्वर्ग और नरक कैसे हैं?'' उसके गुरु ने कहा, ''आंखें बंद करो और देखो।'' उसने आंखें बंद की और शांत शून्यता में चला गया। फिर, उसके गुरु ने कहा, ''अब स्वर्ग देखो।'' और थोड़ी देर बाद कहा, ''अब नरक!'' जब उस शिष्य ने आंखें खोली थीं, तो वे आश्चर्य से भरी हुई थीं। उसके गुरु ने पूछा, ''क्या देखा?'' वह बोला, ''स्वर्ग में मैंने वह कुछ भी नहीं देखा, जिसकी कि लोग चर्चा करते हैं। न ही अमृत की नदियां थीं और न ही स्वर्ण के भवन थे- वहां तो कुछ भी नहीं था और नरक में भी कुछ नहीं था। न ही अग्नि की ज्वालाएं थी और न ही पीडि़तों के रुदन। इसका कारण क्या है? क्या मैंने स्वर्ग नरक देखें या कि नहीं देखे।''

 उसका गुरु हंसने लगा और बोला, ''निश्चय ही तुमने स्वर्ग और नरक देखें हैं, लेकिन अमृत की नदियां और स्वर्ण के भवन या कि अग्नि की ज्वाला और पीड़ा का रुदन तुम्हें स्वयं ही वहां ले जाने होते हैं। वे वहां नहीं मिलते। जो हम अपने साथ ले जाते हैं, वही वहां हमें उपलब्ध हो जाते हैं। हम ही स्वर्ग हैं, हम ही नरक हैं।''
व्यक्ति जो अपने अंदर मान्यता में होता है, उसे ही अपने बाहर भी पाता है। बाह्य, आंतरिक का प्रक्षेपण है। भीतर स्वर्ग हो, तो बाहर स्वर्ग है। और, भीतर नरक हो, तो बाहर नरक। स्वयं में ही सब कुछ छिपा है।
भीतर परमात्मा तो बाहर भी परमात्मा, *जो कण कण में परमात्मा को देखता है उसे वो कहीं नहीं मिलता ओर  जिसे अंदर परमात्मा का भास हो जाता है उसे कण कण में भी परमात्मा दिख जाता है..*
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Wednesday, December 27, 2017

*नित्य लोग धर्म पर विवाद करते हैं, कोई कृष्ण पर तो कोई राम पर, सभी दूसरों को अधर्मी बताते हैं, कृपया बताएं कि उनमें से अधर्मी कोन है ?*


सत्य एक ही है ओर वो निर्विवादित है अर्थात सत्य पर कोई  विवाद नहीं है, जिसमें विवाद है वो सत्य नहीं है, सूर्य से ऊष्मा मिलती है क्या इसपर कोई विवाद है ? इसपर विवाद कोन करेगा, जिसने सूर्य देखा ना हो जो सूर्य को जनता ना हो वो इसपर तरह तरह के विवाद करता है । इसलिए जो धर्म से दूर है वही धर्म पर विवाद करता है, तो धर्म क्या है ?

*ध्यान रखो स्वयं से जो दूर ले जावे, वही है, अधर्म और जो स्वयं में ले आवे, उसे ही मैंने धर्म जाना है।''*

*स्वयं के भीतर प्रकाश की छोटी-सी ज्योति भी हो, तो सारे संसार का अंधेरा पराजित हो जाता है। और, यदि स्वयं के केंद्र पर अंधकार हो, तो बाह्याकाश के करोड़ों सूर्य भी उसे नहीं मिटा सकते हैं।*

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Tuesday, December 26, 2017

मनुष्य को अपना सारा जीवन परमात्मा की खोज में दौड़ते हुए नहीं व्यर्थ करना है, मेरी दृष्टि में अगर वो अपने आप को पूरी तरह जान ले तो वो अभी और इसी वक्त परमात्मा है। स्वयं का सम्पूर्ण आविष्कार ही एकमात्र विकास है। कुछ ऐसा नहीं जो बाहर से खोजा जा सके। यह कुछ ऐसा है जो अन्दर से अनुभव किया जाता है। दौड़ नहीं लगानी है, डूबना है, गहरा ओर गहरा, खुदमे । फिर वो सबकुछ पालोगे जिसके लिए दौड़ रहे थे । तब पता चलेगा कि दौड़ना नहीं था ठहरना था ।

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Monday, December 25, 2017

*कृपया ऐसा कोई उपाय बताएं कि में जीवन मृत्यु से मुक्त हो जाऊं, मुझे बार बार मृत्यु का सामना ना करना पड़े ।*

मृत्यु से घबराकर हमने परमात्मा का अविष्कार कर लिया है । भय पर आधारित परमात्मा से असत्य और कुछ भी नहीं है। सारी उम्र मृत्यु के भय में अपना परमात्मा बना के उसके सहारे जीवन बिता देते हो, झूठ से बचने के लिए झूठ का सहारा लेते हो तो शत प्रतिशत तुम फसने वाले हो झूठे मृत्यु के जाल में क्योंकि अंधेरा अंधेरे का इलाज नहीं है । तुम मरोगे नहीं, यही सत्य है, यही सत्य का पहला कदम है । क्योंकि अगर तुम मर जाते तो जो तुम आज हो ये कोन है ?
समाप्त होने के बाद क्या तुम दोबारा वन गए ? नहीं, 
जो समाप्त हुआ था वो दोबारा नहीं बना, ओर जो समाप्त नहीं हुआ था वहीं आज मृत्यु से डर रहा है । जिसकी मृत्यु नहीं हुई थी, जो आज है, वह कल भी रहेगा, फिर झूठे भय में क्यों झूठ का सहारा लेकर झूठ का जाल बना कर उसमे उलझते हो । तुम नहीं मरोगे ये सत्य है, अब इसी सत्य से अपना सफर शुरू करो । सत्य को धारण करके सत्य को उपलब्ध हो जाओ । नहीं तो झूठे मृत्यु का भय दिखा कर कोई भी पाखंडी तुम्हे अपना दास बना लेगा । जैसे अनेक लोगों को बना रखा है ।
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Sunday, December 24, 2017

अभी आपके आंदर राम है, अभी आपके अंदर कृष्ण है, अभी आपके अंदर महापुरुष हैं, अभी आपके अंदर स्वामी विवेकानंद, स्वामी दयानन्द, आदिगुरु शंकाचार्य आदि अनेक विभूतियां हैं, अभी आपके अंदर शिष्य है, अभी अंदर गुरु है, अभी आपके अंदर ज्ञान है, आपके अंदर गुरु का दिया हुआ मंत्र है, आपके अंदर सबकुछ है *बस एक महत्वपूर्ण वस्तु का अभाव है ओर वो है आप खुद*
*स्वयं*
*कोन है जो आपमें इतना बोलता है ?*
*कोन है जो आपमें इतना शांत है ?*
सब जानते हो बस स्वयं को नहीं जानते
*जो जानना है वो नहीं जानते बाकी सब जानने का प्रयास करते हो*
*पहले आपको पहचानो बाकी सब देखा जायेगा*
*अगर अपने आपको नहीं पहचाना तो ये बाकी सब आपको के डूबेगा*

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Saturday, December 23, 2017

*सन्यास क्या है*

प्रकाश के आगमन पर अंधेरा चला जाता है । ऐसे ही ज्ञान के आगमन पर आंतरिक अवस्था में जो भी व्यर्थ है, वह बह जाता है और तब जो शेष रह जाता है वह संन्यास है ।
संन्यास का अर्थ है, यह बोध कि मैं शरीर ही नहीं हूं आत्मा हूं । इस बोध के साथ ही भीतर आसक्ति और मोह नहीं रह जाता है । इसी को सन्यास कहते है, यह आंतरिक आस्था है, अगर यह अवस्था है तो आप घर में रहो या हिमालय पर , वस्त्र भगवा पहनो या आधुनिक, बाल छोटे रखो या बड़े, काले रखो या सफेद, कोई फ़र्क नहीं पड़ता । ओर अगर ये नहीं है तो भी चाहे कुछ भी करलो कोई लाभ नहीं है ।
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Friday, December 22, 2017

*क्या विनम्र होकर, सबसे प्रेम करके या अन्य किसी प्रयास से अपने अहम को समाप्त कर सकते है?*


अहंकार के मार्ग अति सूक्ष्म हैं । ओढ़ी हुई विनम्रता उसकी सूक्ष्मतम गति है । ऐसी विनम्रता उसे ढकती कम- और प्रकट ज्यादा करती है । वस्तुत: न तो प्रेम को ओढ़कर अहम मिटाया जा सकता है और न ही विनम्रता के वस्त्रों से अहंकार की नग्नता ही ढकी जा सकती है । राख के नीचे जैसे अंगरे छिपे और सुरक्षित होते हैं और हवा का जरा-सा झोंका ही उन्हें प्रकट कर देता है ।

 ऐसे ही आरोपित व्यक्तित्त्वों में यथार्थ दबा रहता है । एक धीमी-सी खरोंच ही अभिनय को तोड़कर उसे प्रत्यक्ष कर देती है । ऐसी परोक्ष बीमारियां प्रत्यक्ष बीमारियों से ज्यादा ही भयंकर और घातक होती हैं, लेकिन स्वयं को ही धोखा देने में मनुष्य का कौशल बहुत विकसित है और वह उस कौशल का इतना अधिक उपयोग करता है कि वह उसका स्वभाव बन जाता है । हजारों वर्षों से जबरदस्ती अहम को दबाने के प्रयास में इस कौशल के अतिरिक्त और कुछ भी निर्मित नहीं हुआ है । अहम को मिटाने में तो नहीं, उसे ढकने में मनुष्य जरूर ही सफल हो गया है और इस भांति तथाकथित यह अहम एक महारोग सिद्ध हुआ है ।

*तो करना क्या है*


 *इसके विष्य में तुम्हे एक जबरदस्त बात बताता हूं*


*जब तुम बाल्टी या किसी भी अन्य पात्र से समुद्र को खाली करने का प्रयास करते हो तो समुंद्र कभी भी खाली नहीं होगा ये तो सत्य है, पर एक सत्य ओर है जिस से आप अनभिज्ञ रहते हो, वोंक्या है ? वो ये है कि आप जिस बाल्टी या पात्र से उसे खाली करने गए थे उसमें भी समुन्द आ गया है अर्थात वो भी खारा हो गया है। इसलिए जब तुम अहम को समाप्त करने का प्रयास करते हो तो अहम समाप्त नहीं होता बल्कि तुम्हारे प्रयासों में भी अहम आ जाता है, वो प्रयास है - विनम्र होना, सबसे प्रेम करना, सन्यासी होना, गुरु होना, चेला होना आदि आदि।*


तो ये समाप्त कैसे हो?


*अंधेरे को समाप्त नहीं कर सकते कभी भी, बस आप उजाला कर सकते हो। फिर अंधेरा रहेगा ही नही, अहम नहीं मिटाना बस आत्मज्ञान का उजाला करना है।*

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Thursday, December 21, 2017

*कृपया कर्ता ओर कर्म के विषय में बताएं*


कर्म नहीं बांधते, कर्ता बांध लेता है । कर्म नहीं छोड़ना है । कर्ता छूट जाए तो छटना हो जाता है । जो कर्म छोड्‌कर भागता है, उसकी कर्म की ऊर्जा व्यर्थ के कर्मों में सक्रिय हो जाती है ।कर्मनहीं छोड़ा जा सकता, फिर भी इस देश का संन्यासी हजारों साल से कर्म छोड़ने की असंभव चेष्टा कर रहा है, कर्म नहीं छूटा, सिर्फ निठल्लापन पैदा हुआ है । कर्म नहीं छूटा, सिर्फ अनिष्करियताता पैदा हुई है और निष्क्रियता का अर्थ है, व्यर्थ कर्मों का जाल, जिनसे कुछ फलित भी नहीं होता, लेकिन कर्म .जारी रहते हैं । *पाखंड उपलब्ध हुआ है* । जो कर्म को छोड्‌कर भागता है, उसकी कर्म की ऊर्जा, व्यर्थ के कर्मों में सक्रिय हो जाती है ।


कर्ता समाप्त करना होता है, ओर वास्तव में जो समाप्त करना है उसका अस्तित्व है ही नहीं, केवल स्त्य का अस्तित्व है, तो केवल सत्य को ही उपलब्ध होना है अस्त्ये अपने आप समाप्त हो जाएगा ।
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Wednesday, December 20, 2017

आत्मज्ञान एक समझ है सत्य को वैसे ही स्वीकारने की जैसा वो है, यह समझ है कि यही सब कुछ है, यही बिलकुल सही है , बस  यही है. आत्मज्ञान कोई उपलब्धि नहीं है, यह ये जानना है कि ना कुछ पाना है और ना कहीं जाना है.
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Tuesday, December 19, 2017

तीर्थयात्रा करने के लिए कहीं जाने की आवशयकता नहीं है।  सबसे अच्छी और बड़ी तीर्थयात्रा आपके अंतकरण की आत्मा की ओर है, जिसेमें विशेष रूप से अंतकरण शुद्ध हो जाता है। इसके अलावा कोई भी तीर्थयात्रा तुम्हे शुद्ध नहीं कर सकती चाहे पूरी उम्र वहीं बिता दो ।


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Monday, December 18, 2017

1- जिस तरह किसी दीपक को चमकने के लिए दूसरे दीपक की ज़रुरत नहीं होती है ठीक उसी तरह आत्मा को जो खुद ज्ञान का स्वरूप है उसे और क़िसी ज्ञान कि आवश्यकता नही होती है.

2- हमें आनंद तभी मिलता है जब हम आनंद कि तलाश नही कर रहे होते है.

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Thursday, December 14, 2017

जो मान्यता को नियंत्रित नहीं करते उनके लिए वह शत्रु के समान कार्य करती है।

आत्म-ज्ञान की तलवार से काटकर अपने ह्रदय से  मान्यता के द्वारा उत्पन्न अज्ञान के संदेह को अलग कर दो. अनुशाषित रहो. उठो।

क्योंकि नर्क के तीन द्वार हैं: वासना, क्रोध और लालच ओर ये सब मान्यता रूपी पेड़ की ही टहनियां हैं ।

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जो भी मनुष्य अपने जीवन में अध्यात्मिक ज्ञान के लिए दृढ़ संकल्पो मे स्थिर हैं, वह समान्य रूप से संकटो के आक्रमण को सहन कर सकते हैं. और निश्चित रूप से यह व्यक्ति आनंद और मुक्ति होने के पात्र हैं।
परमात्मा की शांति उनके साथ होती हैं जिसके मन और आत्मा मे एकता हो, वो इच्छा और क्रोध से मुक्त होते हैं, जो आत्मा को सही मायने मे जनता हो।
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Monday, December 4, 2017

*जैसे शुक्षम शरीर होता है, क्या वैसे ही सूक्ष्म संसार भी होता है ? अगर हां तो वो क्या है??*

 यह संसार दो प्रकार का है- एक स्थूल, दूसरा सूक्ष्म | शब्दादिक विषय सम्बन्धी जितने भौतिक पदार्थ हैं, वही स्थूल संसार है एवं इन पदार्थों की हृदय में जो बलवती कामना है वही सूक्ष्म संसार है | स्थूल संसार के छोड़ देने से सूक्ष्म संसार नहीं समाप्त होता अर्थात् सांसारिक पदार्थों के परित्याग मात्र से इच्छायें नहीं समाप्त होतीं | किन्तु यदि आत्मबोध हो जाय तो सूक्ष्म संसार अर्थात् इच्छाओं और स्थूल संसार का भान ही नहीं रहता |  इसलिय तू निरन्तर आत्मपद का अभ्यया करने से वासमनाओं का परित्याग अपने आप हो जायगा | नही तो यह जीवन  मुर्खों की भांती जीवन व्यर्थ निकल जायेगा |
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प्रणाम जी

Friday, December 1, 2017

अध्यात्मज्ञान नित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा।। (गीता, १३/११)


आत्मा के आधिपत्य में निरन्तर चलना अध्यात्म का आरम्भ है। उसके संरक्षण में चलते हुए परमतत्त्व परमात्मा का प्रत्यक्ष दर्शन और दर्शन के साथ मिलनेवाली जानकारी ज्ञान है। यही अध्यात्म की पराकाष्ठा है। इसके अतिरिक्त सृष्टि में जो कुछ है अज्ञान है।

Sunday, November 26, 2017

*माया ओर परमात्मा क्या है??*
होना सत्ता है, *है* परमात्मा है..


उस है का विस्तार और लय को होना कहा गया है कयोंकी ये होता है. यही माया है..


जो है सदा से सदा तक, जीसमें होना नही है , वह तो *है* ही ,अनंत से वही शब्द में परमात्मा है..


जो *है* को जान्ता है वह होने में है को देखलेता है..
जो *है* को नही जान्ता वह होने में भ्रमित रहता है..
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Monday, November 13, 2017

*कहते हैं सत्संग से बड़ा कोई लाभ नहीं है, पर सत्संग का सही अर्थ क्या है ? कृपया बताएं ।*

सवंय का संग ही सतसंग है.. तुम सवंय ही सत्य हो आनंद हो.. इसके अलावा कोई सत्यसंग नही है..अगर स्वंय को नही पहचाना तो कही भी भ्रमण करलो झूठ का झूठ ही रहेगा, और सवंय को जान लिया तो बस फिर निरंतर सत्य ही है.. फिर सतसंग के विकार भाव को भी पार करलोगे..
सतसंग को विकार भाव इसलिय काहा है कयोंकी इसमें दो का भाव है सत्य और संग, अर्थात सत्य का संग करने वाला, अर्थात *अहं* | अपने को सत्य से अलग मान्ते हो, यही अहं भाव सतसंग मे विकार रूप में उपस्थित रहता है.. इसलिय सवंय की शुद्ध पहचान ही सतसंग है..आनंद ही सत्य है ,आप ही आनंद हो..बाहर तो सब झूठ है..
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Sunday, November 12, 2017

*मैंने कई लोगों को झगड़ते देखा है कि कृष्ण पारब्रह्म है या नहीं । कृष्ण क्या है बताएं..*

नाम पर झगडा कयों ..??

कृष्ण शब्द के अनेक अर्थ हैं।
1-कृष् धातु का एक अर्थ है खेत जोतना,अर्थात वे जो खींच लेते हैं,
2-दूसरा अर्थ है आकर्षित करना।
वे जो प्रत्येक
को अपनी ओरआकर्षित करते हैं,
3-कृष्ण का अर्थ है विश्व का प्राण,
उसकी आत्मा। जो सम्पूर्ण
संसार के प्राण हैं- वही हैं कृष्ण।
4-कृष्ण का अर्थ है वह तत्व जो सबके 'मैं-
पन' में रहता है।मैं हूँ, क्योंकि परमात्मा है।
इसलिय धर्मगरन्थों में पूर्णब्रह्म परमात्मा को कृष्ण नाम से सम्बोधित किया गया है..
ईश्वर: परम : कृष्ण: सच्चिदानन्द विग्रह: |
अनादिरादि गोविन्द: सर्वकारणकारणम् ||
श्रीकृष्ण परम ईश्वर है, सच्चिदानन्द- विग्रह है, अनादि है| गोविन्द है एवम सब कारण के कारण है|


जबकी परमातमा शब्दातीत है..

*अछर अछररातीत कहावहि, सो भी कहियत इत सब्द ।*
*सब्दातित क्यों पाबही, ए जो दुनिया हद ॥ कि. १०७/७***

*इन सरूप की इन जुबां , कही न जाए सिफत ।*
*सब्दातीत के पार की , सो कहनी जुबां हद इत ।।*


परमात्मा कहते हैं, 'ये यथा मां प्रपद्यन्ते'
जो कुछ भी हम स्पर्श करते हैं, जो भी हम इस
विश्व में देखते हैं- वह सब कुछ परमात्मा का ही है।
उनकी ही सत्ता है..
कृष्ण कोई शरीर रही है कयोंकी शरीर त्रिगुणातमक है.. त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत्‌ ।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम्‌ ॥
(गीताः ७/१३)
प्रकृति के इन तीनों गुणों से उत्पन्न भावों द्वारा संसार के सभी जीव मोहग्रस्त रहते हैं, इस कारण प्रकृति के गुणों से अतीत मुझ परम-अविनाशी को नहीं जान पाते हैं....


इसलिय कृष्ण कोई वजूद का नाम नही है व्यापकता कृष्ण है.. परमधाम मे सत्य आकर्षण है परमधाम निज स्वरूप है आनंद का और आनंद ही बृह्म है.. आतमांये अंश है परमात्मा की ..और अंशी अपने अंश की और सदैव आकृषित रहती है जैसे मिट्टी का ढ़ेला कितना भी ऊपर फेंको पर वापस पृथ्वी की और ही आता है कयोंकी वो उसका अंश है इसी तरह ऐसे ही अग्नि उपर उठती है कयोंकी अंश है सुर्य का इसी इसी प्रकार हम आत्मांये आनंद अंग होने के कारण सदैव आनंद की और आकर्षित रहतीं हैं आनंद ही बृह्म है इसलिय हमारा परम आकर्षण परमात्मा है यानी वो हमारे सबसे बडे कृष्ण हैं. कयोंकी आकर्षण ही कृष्ण है परमात्मा परम आकर्षण हैं इसलिय वो परम कृष्ण हैं..आत्मांये धाम की और आकर्षित रहतीं है इसलिय परमधाम हमारा कृष्ण है..
कृष्ण को अगर किसी शरीर का नाम समझते हो तो तो तुरंत अपना मार्ग बदलें कयोंकी आप विपरित मार्ग पर हैं..संकिर्ता कृष्ण नही है व्यापकता कृष्ण है...यही शुक्षम भेद ना समझपाने के कारण हम परमात्मा को पाने के बजाय उनका नाम पकड कर बैठ जाते हैं व हममें विकार उत्पन्न हो जाते हैं ..ये भी सत्य है की संसीर में सभी प्राणी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष केवल परमात्मा का ही सेवन करते है और उसे ही याने कृष्ण को ही चाहते है..बस सत्यबोध के अभाव में सार त्तव गरहण नही हो पाता ..
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प्रणाम जी

Saturday, November 11, 2017

*लोग मन, अहम और आत्मा की बात तो करते है पर बताता कोई नहीं की ये असल में है क्या ?कृपया बताएं की..*

*मन कया है ?*

*अहं कया है ?*

*आत्मा कया है ?*

*सबसे पहले अहं---* आपका जो होने का अहसास है वो अहं है । इसमे आपको जो सवंय की उपस्थिती का अहसास रहता है निरंतर, वो अहं के कारण है ।

*मन*
  इस सवंय के अहसास के बाद जो भी भाव रहती है वो मन है , इसे हृदय भी कहते है इसके चार भाग है ( मन चित बुद्धी और अहंकार ) अहं के साथ ये सदा रहते हैं निरंतर । इसलिय मन पर काबू पाना नामूमकिन है जबतक की अहं को समझा ना जाये । आप जो भी करते है, अहं से ही होता है और जाहां अहं है वहा शत प्रतिशत मन रहता है, चाहे भक्ती हो त्याग हो तप हो बृह्मचार्य हो बैराग नाम जाप हो चितवनी हो या जो भी हो । मन की आयु बहेत ही अल्प होती है अर्थात यह निरंतर बनता और मिटता रहता है, इसका बनना और मिटना अहं की स्थिती के अनूसार है,अर्थात अगर आप सतसंग मे है तो वहां के अनुसार, अगर ध्यान में हैं तो तो वहां के अनुसार, अगर संसार में है तो वहां के अनुसार, प्रेम में है तो वहां के अनुसार, परिवार में हैं तो वहां के अनुसार, भक्ती में हैं तो वहां के अनुसार, चितवनी में है तो वहां के अनुसार या जहां भी आपकी उपस्थिती रहती है मन वही के अनुसार निर्मित हो जाता है ।

*आत्मा---*
आत्मा आनंद है। यह बुद्धि और गुणों से परे है।इसलिए उपस्थित(अहम) स्थिति से इसको समझना लगभग असम्भव है। यह अहम की ज्ञान अवस्था (एकरसता) से प्रतिबिंबित होती है। यह आंतरिक विषय है। इसके प्रतिबिंब के भान को पकड़ कर उसके विपरीत मूल आनंद की खोज करने से कुछ बात बन सकती है।

जिस भी वस्तु मे आपको आनंद की अनुभूति होती है वो आत्मा के कारण है। पर ऐसा बिल्कुल नहीं है कि वो आत्मा का आनंद है। आत्मा का आनंद नहीं होता आत्मा ही आनंद होती है जिसका भास रहता है जिसको खोजना होता है। इसलिए जो भी आनंद तुमने आजतक लिया है वो तिल भर भी नहीं है आत्मा के आगे। इसको खोजना थोड़ा कठिन हो सकता है पर सबसे सरल यही है।इसकी खोज में दासता  नहीं है , स्वतंत्रता है हर बंधनसे। केवल यही खोजने योग्य है केवल इसी की खोज करनी चाहिए। बाकी सब प्रतिबिंब है झूठ है मिथ्या है।अहम है।

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Friday, November 10, 2017

*बोहोत प्रयास के बाद भी मेरा मन परमात्मा में नहीं लगता, क्या करूं ? कृपया समाधान करें ।*

*प्रयास मत करें मन नहीं लगेगा । आजतक किसी का नहीं लगा । जो कहते हैं की मन लगता है वो झूठ कह रहें हैं और जो कहते है मन लगाओ वो तुम्हे भ्रमित कर रहे है*

*मन के दूारा परमात्मा को नही पाया जा लकता*
एक उदाहरण से समझें .. पहले आप (अहम)हो फिर आपका मन है, इसको इस प्रकार समझो की आपका शरीर और उसके हाथ पांव, जैसे शरीर के उप अंग उसके हाथ पांव होते हैं वैसे ही अहम के उप अंग में मन चित बुद्धि आदि हैं .. अब अगर आप सोची की आप तो मजदूरी करो ओर आपका हाथ या पांव घर पर विश्राम कर के आनंदित रहे तो क्या ये सम्भव है ? कयोंकी आपके हाथ पांव आपसे आलग होकर कार्य कैसे करेंगे बताओ कर सकते हैं कया ठीक वैसे ही हम कर रहे हैं हम खुद अहम रूप में प्रकृती के साथ आपनी स्थिती बनाऐ हुये हैं और कह रहे है हमारा मन परमात्मा मे लग जाय ,अरे मन आपका ही है ये वहीं रहेगा जाहां आप हो जैसे आपके हाथ पांव वही है जहा आप हो वैसे ही मन भी है , ये मन परमात्मा में कैसे लगेगा जब इसका कोइ खुदका अस्तितव ही नही है..क्योंकि मै अहम हूं तो मन है, इसमें मन का क्या दोष ? जबतक आप हो तो बाल(मन) उगेंगे ही इनको रोकना या समाप्त करना है तो खुद को समाप्त करदो खुद(अहम) नहीं रहोगे तो बाल उगेंगे ही नहीं..नही ये मन वहीं रहेगा जहां अहम हो । अहम सत्ता का घोतक है ओर परमात्मा आनंद है । सत्ता के लय के पश्चात आनंद है । *आनंद है, आनंद आएगा ऐसा नहीं है* आप अहम नहीं हो तो आप आनंद हो, ओर आप अहम हो तो आप सत्ता हो । अहम के नहीं होने में आनंद है, ओर अहम के होने में माया है सत्ता है, मन आदि सब है,  अब सोचो कितनी मर्खता कर रहे हो कि अहम के होने बाद की स्थिति याने मन को अहम के नहीं होने की स्थिति(आनंद) में लगाना चाहते हो, ये वैसा ही है जैसे आप चाहते हो कि आपकी मृत्यु के बाद की स्थिति को आपका हाथ पहले ही देख ले । खुद रह कर मनको परमात्मा मे लगाने में अनेक जीवन व्यर्थ गवां दिय ..और कह रहे हो की मन परमात्मा में नही लगता ...इसलिय 80 हजार साल समाधी के बाद भी मन वही आया जाहां विशवामित्र की सवंय की स्थिती थी, इसलिय इतनी तपस्या के बाद भी मन नही लगा परमात्मा में .... अरे 80 हजार नही करोडों वर्ष लगादो फिर भी कया होगा ..इसमें मनकी कया गलती इसलिय मन को नही लगाना है अहम समाप्त करना है । *बस यही बात गांठ बांधलो ओर सही दिशा में लग जाओ*


अब उपनिषदों का यह कथन हमारी समझ में आजायेगा और वेद भी कहता यही कहता है..


उपनिषदों का कथन है कि वह ब्रह्म मन तथा वाणी से परे है, अतः उसे इन्द्रियों, मन, वाणी तथा बुद्धि के साधनों से प्राप्त नहीं किया जा सकता ।*
( कठो. २/६/)
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ए मैं मैं क्यों ए मरत नहीं,और कहावत है मुरदा। आड़े नूर जमाल के, एही है परदा।।

Thursday, November 9, 2017

*मुक्ति का अर्थ क्या है ? कृपया समझाएं ।*

मुक्ति का अर्थ है आत्मा की परमात्मा के साथ अटूट संगति। दोनों में ऐसी अंतरगता जिसमें द्वैत असंभव हो जाए। परस्पर इस तरह घुल-मिल जाना कि उनमें विलगाव संभव ही न हो। जब ऐसी मुक्ति प्राप्त हो, तब कहा जाता है कि सांसारिक व्याधियों से दूरमन पूरी तरह निस्पृह निर्लिप्त हो चुका है। जैन दर्शन में इस अवस्था को कैवल्य’ कहा गया है। कैवल्य यानी अपनेपन की समस्तअनुभूतियों का त्यागकर ‘केवल वही’ का बोध रह जाना। यह बोध हो जाना कि मैं भी वहीं हूं और एक दिन उसी का हिस्सा बन जाऊंगा।उस समय न कोई इच्छा होगी न आकांक्षा। न कोई सांसारिक प्रलोभन मुझे विचलित कर पाएगा। इसी स्थिति को बौद्ध दर्शन में ‘निर्वाण’ कीसंज्ञा दी गई है, जिसका शाब्दिक अर्थ है-‘बुझा हुआ’। व्यक्ति जब इस संसार को जान लेता है, जब वह संसार में रहकर भी संसार से परे रहने की, कीचड़ में कमल जैसी निर्लिप्तता प्राप्त कर लेता है, तब मान लिया जाता है कि वह इस संसार को जीत चुका है।
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प्रणाम जी

Wednesday, November 8, 2017

*आज संसार में अनेक संप्रदाय व अनेक मत मतांतर हैं, जिनसे भर्म की स्थिति पैदा हो गई है । इन सबमें से सही मार्ग कोनसा है ? या कल्याण का एक मात्र मार्ग कोनसा है ? कृपया बताएं ।*

दूैत को त्याग कर उदूैतमय हो जाना ही सही व एक मात्र मार्ग है , इस अदूैत के कई नाम हैं जैसे- प्रेम, सत्य या सांच, शुद्ध अनन्यता, कैवल्य आदी आदी,
इसके अलावा सब संसारी ग्यान है, दूैत का है फिर चाहे पूरा वेद कंठस्त करलो पूरी वाणी को याद करलो पर दूैत से पीछा नही छूटेगा.. गीता में इस विषय पर बहोत सपष्ट कहा है...


अध्यात्मज्ञान नित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा।। (गीता, १३/११)


आत्मा के आधिपत्य में निरन्तर चलना अध्यात्म का आरम्भ है। उसके संरक्षण में चलते हुए परमतत्त्व परमात्मा का प्रत्यक्ष बोध और उसके साथ मिलनेवाली जानकारी ज्ञान है। यही अध्यात्म की पराकाष्ठा है। इसके अतिरिक्त सृष्टि में जो कुछ है अज्ञान है...


*"सांचा साहेब सांचसो पाइये सांचको सांच है प्यारा"*
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प्रणाम जी

Tuesday, November 7, 2017

*विज्ञान में धर्म को स्वीकार नहीं किया जाता, आधुनिक लोग वैज्ञानिक तर्क देकर धर्म को अस्वीकार कर देते है, क्या धर्म और विज्ञान परस्पर विरोधी हैं या इनका आपस में कोई संबंध है ?*

*विज्ञान और धर्म*

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विज्ञान क्षेत्र से धर्म पर यह आरोप लगाया जाता रहा है कि वह कपोल कल्पनाओं और अंध विश्वासों पर आधारित है। किंवदंतियों को इतिहास और उक्तियों को प्रमाण मानता है। तर्क और प्रमाण प्रस्तुत करने से कतराता है। अस्तु उसकी नींव खोखली है। धर्म, श्रद्धा एक ऐसा ढकोसला है, जिसकी आड़ में धूर्त ठगते और मूर्ख ठगाते रहते हैं। धर्म संप्रदायों ने मानवी एकता पर भारी आघात पहुँचाया है। पूर्वाग्रह, हठवाद एवं पक्षपात का ऐसा वातावरण उत्पन्न किया है, जिसमें अपनी मान्यता सही और दूसरो को गलत सिद्ध करने का अहंकारी आग्रह भरा रहता है। अपनी श्रेष्ठता दूसरे की निकृष्टता ठहराने, अपनी बात दूसरों से बलपूर्वक मनवाने के लिए धर्म के नाम पर रक्त की नदियाँ बहाई जाती रही हैं। अस्तु उससे दूर ही रहना चाहिए.. कट्टरतावादी सामयिक सुधारों की उपेक्षा करते रहते हैं और उनके साथ जुड़े जाने वाली विकृतियों को भी धर्म परंपरा मानने लगते हैं। ऐसी ही विकृत सांप्रदायिकता को लोग ‘धर्म’ की संज्ञा देते हैं। इसलिय लोग धर्म अलगाव करके उसकी उपहास किया जाता है..


धर्म कहकर जिसका उपहास उड़ाया जाता और अनुपयोगी ठहराया जाता है, वह विकृत संप्रदायवाद ही है। आरंभ में संप्रदायों की संरचना भी सदुद्देश्य से ही हुई थी और उसमें बदली हुई परिस्थितियों में परिवर्तन की गुंजायश रखी गई थी। कट्टरतावादी सामयिक सुधारों की उपेक्षा करते रहते हैं और उनके साथ जुड़े जाने वाली विकृतियों को भी धर्म परंपरा मानने लगते हैं। ऐसी ही विकृत सांप्रदायिकता को लोग ‘धर्म’ की संज्ञा देते हैं।


विज्ञान का अर्थ है विशिष्ट ज्ञान—अर्थात ‘विवेक’ है। विज्ञान का लक्ष्य है—सत्य की शोध। यथार्थता के साथ दूरदर्शिता एवं सद्भावना के जुड़ जाने में विवेक दृष्टि बनती है। विज्ञान से तात्पर्य भौतिकी नहीं है।


संसार में रहते हुए अपने कार्य या अपनी परम आवश्यकता को पूर्ण करने के लिय सबसे उत्तम साधन को अपना कर  अपने लक्ष्य को सरलता से प्राप्त करना यही विग्यान है ..यही विवेक है । इसके अतिरिक्त अन्य सभी मजदूरी है, व्यर्थ बोझा उठाना और अपने आपको मूढ़ सिद्ध करने जैसा है । ऎसा विवेक या विग्यान धारण कर अपने आपको परम मार्ग पर चला दें तो सभी कुछ उचित हो जाये, जीवन सार्थक हो जाये ।


विज्ञान का जो प्रयोजन है, उसे हम आधुनिक मनीषियों की कुछ व्याख्याओं के आधार पर और भी अधिक स्पष्टता के साथ समझ सकते हैं।


‘कामन सेन्स ऑफ लाइफ’ ग्रंथ के लेखक जेकोव ब्रोनोवस्की ने विज्ञान को चिंतन का एक समग्र दर्शन माना है और कहा है-‘‘जो चीज काम दे, उसकी स्वीकृति और जो काम न दे, उसकी अस्वीकृति ही विज्ञान है।’’ इस संदर्भ में वे अपनी बात को और भी अधिक स्पष्ट करते हैं-‘‘विज्ञान की यही प्रेरणा है कि हमारे विचार वास्तविक हों, उनमें नई-नई परिस्थितियों के अनुकूल बनने की क्षमता हो, निष्पक्ष हो तो वह विचार भले ही जीवन के, संसार के किसी भी क्षेत्र का क्यों न हो विज्ञान माना जायेगा। ऐसी विचारधारा वैज्ञानिक ही कही जायेगी।’ यही विवेक जाग्रती है यही विग्यान है..
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प्रणाम जी

Friday, November 3, 2017

*जानें बिनु न होइ परतीती । बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती ।*
*प्रीति बिना नहिं भगति दिढ़ाई । जिमि खगपति जल कै चिकनाई |*

स्त्ये को जाने बिना वह अंतकरण में प्रतीत (घटित,महसूस, अनुभव) नहीं होती एवं बिना प्रतीत के प्रीत (प्रेम, एकरस, अदुयत) नहीं होती । बिना प्रेम के दृढ़ता से भगति (जुङाव या दो का भाव न होना) नहीं होती । इसलिए सत्य को बिना जाने अदुयेत, एकरसता, या प्रेम सम्भव ही नहीं है ।शुद्ध सत्य को जाने बिना लोग जो भगति करते है उसमे में ओर तू का भाव रखते है, मिलने की इच्छा करते है, विरह में रोते हैं, परमात्मा को अलग मानकर अपनी भक्ति का आधार बनाते है। ऐसे भक्त कभी भी सत्य के करीब नहीं जा सकते वो भक्ति करके भी परमात्मा से ऐसे  अलग रहते है *जैसे जल और चिकनाई परस्पर मिले हुये भी प्रथक ही रहते हैं ।*

इसलिए सत्य को जानना परम आवश्यक है।

*जैसे तिल में तेल है, ज्यों चकमक में आग|*
*तेरा साईं तुझ में है, तू जाग सके तो जाग||*

ओर गहनता में कबीर जी कहते है..

*एक कहूँ तो है नहीं, दो कहूँ तो गारी|*
*है जैसा तैसा रहे, कहे कबीर बिचारी|*

*ज्ञान, प्रेम, सत्य, परमात्मा, आनंद, आत्मा ये सब एक ही हैं*
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Tuesday, October 31, 2017

*अगर मै पूरी जिंदगी भक्ति करूं तो क्या मृत्यु के बाद परमधाम चला जाऊंगा ?*

जो लोग सोचते है की नाम जाप, भजन, भक्ती तिर्थ, तप, ध्यान आदी से मृत्यु के बाद वो किसी आनंद के लोक या परमधाम में चले जायेंगे तो वो धोर अंधकार में हैं | उस आनंद की स्थिती को पहले ही पा कर उस पद में मृत्यु से पहले ही लय होना होगा  तभी शरीर समाप्ती के पश्चात वह स्थिती बनी रह सकती है | अन्यथा अनंनत जन्मों के लिय धोर अंधकार है..
*उस ब्रह्म से प्रकट यह संपूर्ण विश्व है जो उसी प्राण रूप में गतिमान है। उद्यत वज्र के समान विकराल शक्ति ब्रह्म को जो मानते हैं, अमरत्व को प्राप्त होते हैं। इसी ब्रह्म के भय से अग्नि व सूर्य तपते हैं और इसी ब्रह्म के भय से इंद्र, वायु और यमराज अपने-अपने कामों में लगे रहते हैं। शरीर के नष्‍ट होने से पहले ही यदि उस ब्रह्म का बोध प्राप्त कर लिया तो ठीक अन्यथा अनेक युगों तक विभिन्न योनियों में पड़ना होता है।'।। 2-8-1।।-तैत्तिरीयोपनिष*
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Sunday, October 29, 2017

*सतगुरु के विषय में लोगों में अनेक भ्रम हैं, कृपया बताएं कि गुरु कौन है ।*

परमात्मा को ही सतगुरु कहते हैं, सतगुरु और परमात्मा ये दो नही है, अगर कोई दूसरी वस्तु है तो वह है यह शरीर व अहं | गुरू को शरीर की परिधियो में सिमित करना अल्पग्यता है गुरू और परमात्मा को अलग मान्ना अल्पग्यता है,

 *तो गुरुतत्व कया है?*

जब हम आनंद की और आकृषित होते है अर्थात सत्य मार्ग की और चलते हैं तो इसे ही अंधेरे से प्रकाश की और चलना कहते है, एक बात और ध्यान देना की अंधेरे में केवल प्रकाश के कारण ही हम मार्ग खोज सकते हैं, ये प्रकाश ही आनंद है यही प्रमात्मा है, और यही गुरू है, इसको समझने के लिय शरीर और अहं भाव से बाहर आना होगा, इसके पश्चात ही सवंय,परमात्मा या सतगुरू को प्राप्त कर पाओगे..
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Friday, October 27, 2017

*क्षमा करें सांसारिक प्रश्न है, पर व्यवहारिक दृष्टि से अहम प्रश्न है । जिसमें सदा सबको संदेह रहता है कि आत्मविस्वास और अहंकार में क्या भेद है कृपया सपष्ट करें ।*

आत्मविस्वास और अहंकार
*लोग कहते है सूर्य डूब रहा है* सूर्य डूब रहा है ऐसा सत्य नही है, ऐसा इसलिय है कयोंकी पृथ्वी ऊपर उठ रही है |
वास्तव में सूरज डूबता ही नही है केवल पृथ्वी ही उपर आती है कयोंकी वो सूर्य के चारो और चक्र लगाती है, जब उसकी स्थिती सूर्य से नीचे होती है तो सूर्य उपर दिखता है और जब सूर्य से उपर होती है तो सूर्य नीचे प्रतीत होता है |
बस यही समझने वाली बात है की कोई भी डूबता या कम नही होता वो केवल इसलिय लगता है की तुम उस समय उपर जा रहे हो ना की वो नीचे..
किसी को नीचे जाते हुऐ समझना ही भ्रम या अहंकार है ..
और खुदमें निरंतर उदय देखना ही आत्मविस्वास है |
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Wednesday, October 25, 2017

*अहम से छुटकारा कैसे पा सकते है ? इसका त्याग कैसे करें ? कृपया बताएं ।*

अहम या "मैं’ से भागने की कोशिश मत करना। उससे भागना हो ही नहीं सकता, क्योंकि भागने में भी वह साथ ही है। उससे भागना नहीं है बल्कि समग्र शक्ति से उसमे प्रवेश करना है। खुद की अंह  की सत्ता में जो जितना गहन होता जाता है उतना ही पाता है कि अंहता की कोई वास्तविक सत्ता है ही नहीं। अहम को शुक्षमता से देखने पर अहम की सत्ता समाप्त होने लगती है..इसको त्यागना नहीं है क्योंकि त्यागने में अहम रहता है।


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Tuesday, October 24, 2017

*गुरु से नाम लिए हुए 20 साल हो गए, बताया गया था कि नाम लेने से आत्म जाग्रति हो जाती है, बोहोत नाम जाप करता हूं पर आध्यात्मिक प्रगति न के बराबर है । क्या मै सही मार्ग पर हूं या मार्ग कोई ओर है ?*

जाग्रति क्या है?
शारीरिक भाव से आत्मिक अनुभव में आना जागर्ती है.. जागनी शारीरिक बंधनो सेे निकल कर आत्मिक उन्मुक्तता में आने का नाम है..आत्मिक पहचान होना जागनी है.. जागनी से शरीर के निमित सभी बन्धन जैसे सम्प्रदायवाद, जप, स्थानवाद, चित्रवाद, आदी आदी सभी बंधन स्वतः ही छूट जाते हैं इन्हे छोडना नही पड़ता..
अगर आप इनमें बंधे है तो आप आत्म जाग्रति के आस पास भी नहीं हैं ।

जागनी कया नही है..
*पायो निजनाम आत्मा जागी* गाने से जाग्रती नही आती, हां इसके पिछे जो भाव है वो जरूर जाग्रती से सबंध रखता है...भाव यह है की पायो नित नाम अर्थात
निज= सवंय
नाम= पहचान
*सवंय की पहचान होने से आत्म जागर्ती या जागनी होती है* ( पायो निजनाम आत्मा जागी)
इसका भाव न जानने के कारण शब्दो को पकड़ कर खुद के बंधन बढ़ा लेते है...अपने को और नये नियमों में बांध लेते हैं..
निष्कर्ष यह है की हमें जागनी समझे जाने वाले सभी बंधनो को त्याग कर आत्म जाग्रती की और बढ़ना ही पड़ेगा..
जाग्रती या जागनी जीते जी मुक्त की अवस्था है
*जो अनभिज्ञ हैं कि वे अँधेरे में चल रहे हैं वे कभी प्रकाश की तलाश नहीं करेंगे।*
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Sunday, October 22, 2017

*कोई ज्ञान मार्ग को श्रेष्ठ बताता है तो कोई प्रेम मार्ग को, कृपया स्पष्ट करें की कोनसा मार्ग श्रेष्ठ है ।*

जिन लोगो को या ग्यानीयों को ग्यान में आनंद आता है वो प्रेम को ज्यादा अहमियत नही देते, वो अपने आप को अपने स्थान पर सही मानते है व प्रेम के लिय ग्यान से मिलने वाले आनंद को छोड़ना नही चाहते..
वहीं जो प्रेमी होते हैं वो प्रेम में ही आनंद लेते है रोते हैं रिझाते हैं | ये भी अपने को ग्यानीयों से सही मान्ते हैं व प्रेम से मिलने वाले आनंद को छोड़ नही सकते..
इसलिय ये दो मार्ग बन गये..
*अब प्रश्न उठता है की सही मार्ग कौन सा है और कया वो इन दोनो से अलग है और यह भी कहा गया है की सभी मार्ग परमात्मा की और जाते हैं फिर गलत कया है ???*
इन सभी शंकाओं का निवारण आज हम इस पोस्ट में करेंगें तो ध्यान से पढिये...
तो ध्यान दो ग्यान और प्रेम ये दो वस्तुऐ नही हैं, ये एक ही वस्तु के दो नाम याहां ध्यान देने वाली बात यह है की ग्यानी और प्रेमी ये दो अलग भाव के नाम हैं ये दूैत के नाम हैं पर ग्यान व प्रेम दो नही हैं यह एक ही है.. ये अदूैत के भाव हैं |
ग्यान व प्रेम एक कैसे है ?
जब ग्यानी और प्रेमी समाप्त हो जाता है तब ग्यान और प्रेम शेष रहता है यह वही है जो सत्य है नित्य है और जो आनंद है यही आत्मा है यही परमात्मा है यही ग्यान है यही प्रेम है | इसलिय ये एक ही है दो नही है.. ग्यानी और प्रेमी दो हैं कयोंकी इनमें अहं विद्यमान रहता है अहं से ही ग्यानी और प्रेमी हो जाते हैं|
सभी मार्ग परमात्मा की और जाते हैं फिर गलत कया है ???
ग्यानी को ग्यान में *आनंद* आता है प्रेमी को प्रेम में *आनंद* आता है दोनो अपने को सही मानते हैं कयोंकी दोनो को *आनंद* आता है | याहां ध्यान देने वाली वाल यह है की दोनो में आनंद की समानता है , दोनो का जो कोमन भाव है वह आनंद है और आनंद ही आत्मा है आनंद ही परमात्मा या बृह्म है, तो अब बात को ध्यान से पकडना की आनंद कही बाहर से नही आता ये दोनो का सवंय का ही आनंद है जो उन्हे ग्यानी और प्रेमी होने मे भास हो रहा है इसलिय मार्ग दोनो का एक ही है *आनंद* इसलिय सभी मार्ग आनंद की और ही जाते है पर इनमें जो गलत है वो है *अहं* जिस की उपस्थिती से ग्यानी और प्रेमी हो जाते हो.. भोग व योग में भी आनंद है कयोंकी सब आनंद से ही बना है पर अहं के कारण भोगी व योगी हो जाते हो.. तो सभी मार्ग जैसे कर्म, ग्यान, योग, भक्ती, प्रेम, या भोग सभी आनंद के ही मार्ग हैं पर ये सभी अहं के कारण सत्य से विमुख हैं, अहं समाप्ती के बाद सब एक ही हैं दो तीन या चार नही हैं....


*ए मैं मैं क्यों ए मरत नहीं,और कहावत है मुरदा। आड़े नूर जमाल के, एही है परदा।*


प्रणाम जी
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Saturday, October 21, 2017

*मेरे मन में कई बार ये धारणा आती है की मै बैरागी होकर जंगल, पहाड़, वृन्दावन, या गंगा तट पर जाकर रहूं ओर निर्विघ्न अपनी साधना करूं, क्या इस मार्ग से कल्याण सम्भव है?*

तुम जहां भी रहोगे, जो भी बनके रहोगे तो ये होनापन तुम्हारा साथ नहीं छोड़ेगा, सही मार्ग में कोई विघ्न नहीं होता, ओर जिसमें तुम्हें विघ्न नज़र आता है वो मार्ग सही नहीं है। तुम्हे अपने ओर साधना में को विघ्न नज़र आता है वो केवल इसलिए है कि तुम हो ओर साधना है। ओर जहां भी जाओगे तुम रहोगे ओर वहां का वातावरण रहेगा, तो वहां भी नई परिस्थितियां मिलेंगी, ओर अगर तुम रहोगे तो निश्चित है की विचलित भी रहोगे, फिर क्या फ़र्क है यहां में ओर वहां में। समस्या का मुख्य कारण परिस्थितियां या वातावरण नहीं है, मुख्य कारण है तुम्हारा होना या अहम। जहां भी जाओगे या तो बैरागी रहोगे या संत या गुरु या चेला या भगत या दास या तुच्छ या महान, पर रहोगे जरूर कुछ ना कुछ। बस यही मूल बंधन है, जिसको खोलने तुम जाओगे अज्ञानवश ओर बन्धन बना लोगे।
मूल तत्व है आत्मतत्व बोध जिसके बाद ये ग्रहस्त, बैरागी, संत आदि सब तो रहेगा पर वो तुम नहीं रहोगे।

शास्त्रों के अनुसार...
यदि मिट्टी और भस्म लपेटने से ही मनुष्य मुक्त हो जाता तो फिर क्या इस मिट्टी और भस्म में नित्य पड़े रहने वाला कुत्ता क्यों नहीं मुक्त हो जाता?
तिनका, पत्ता और जल का आहार करने वाले और निरंतर जंगल में ही रहने वाले मनुष्य यदि तपस्वी हो जायेँ, तो फिर क्या वे गीदड़, चूहे और हिरण आदि तपस्वी क्यों नहीं हो सकते?
जन्म से लेकर मरण पर्यन्त गंगाजी के तट पर पड़े रहने के कारण लोग यदि योगी हो जाये तो फिर वे मेढक और मत्स्य आदि क्यों नहीं योगी हो सकते?
ककड़-पत्थर खाने वाला कबूतर और धरती के जल को कभी न पीने वाले चातक क्या व्रती हो सकते हैं?
इसलिये हे सत्यमार्गीयों ! ये सब कर्म तो लोक को प्रसन्न करने वाले हैं, परमआनंद का कारण तो  केवल ‘परमात्मातत्त्वज्ञान’ ही है...
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प्रणाम जी

Thursday, October 19, 2017

एक बार एक पागल व्यक्ति के कपड़ों पर किसी ने इत्र छिड़क दिया, उस पागल को वो खुशबू बोहोत अच्छी लगी, अब लगा वो उसे ढूंडने, उस खुशबू तो आ रही थी पर वो समझ नहीं पा रहा था कि कहां से आ रही है ओर लोग उसे देख कर उसका उपहास कर रहे, उस पागल ने उसे उस इत्र को *बाहर* हर जगह ढूंडा पर उसे बाहर कहीं नहीं मिला, वो जहां भी बाहर ढूंढता लोग उतना ही हंसते, पर लोग उस समय हंस हंस कर जमीन पर गिर पड़े जब वो उस इत्र को ढूंडने गोबर में भी गया। पर शायद हम पागल नहीं है, हम ऐसा नहीं करेंगे...

Happy *गोबरधन* ....
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Wednesday, October 18, 2017

*लोग दीपावली को लक्ष्मी पूजन करते है, वैसे लक्ष्मी की सही पूजा कैसे करें व लक्ष्मी का सही अर्थ बताएं*


दीपावली के दिन जो पूजा होती है उसे लक्ष्मी पूजन कहा जाता है। आज ज्यादातर लोग समझते हैं कि लक्ष्मी का अर्थ है धन की देवी। ये लक्ष्मी शब्द का बहुत संकुचित अर्थ हो गया। वास्तव में इस शब्द का अर्थ बहुत विशाल है। लक्ष्मी शब्द की उत्पत्ति संस्कृत की लक्ष धातु से हुई है। लक्ष का शाब्दिक अर्थ है ध्यान लगाना, ध्येय बनाना, ध्यानपूर्वक निरीक्षण करना इत्यादि। इसका अर्थ ये है कि जब हम एकाग्रचित्त होकर कोई कार्य या साधना करते हैं तो उसका जो फल प्राप्त होता है उसे लक्ष्मी कहते हैं, इसी फल को धन के नाम से संबोधित करते है। जैसे आगर आप अदूैत भाव में साधना करते है तो उसकेफलस्वरूप जो आप अदुैत मे एकरसता को प्राप्त करते है वह एकरसता अदुैत भाव में तो शब्दातीत भाव है पर शब्दो में कहें तो यह उस साधना का फल है, अर्थात यह उसका धन है, जो कभी समाप्त नहीं होगा,इस फल को ही या साधना के उस फलस्वरूप भाव को ही लक्ष्मी कहते है...यही सही लक्ष्मी पूजन है। इस लक्ष्मी पूजन से वो धन प्राप्त होगा जो कभी समाप्त नहीं होगा।
*अतः धन, मूर्ती या अन्य बाह्य साधनो से पूजा करके लक्ष्मी के भाव को तुच्छ ना बनायें अपितु इसका व्यापक अर्थ ग्रहण करें..*
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प्रणाम जी

Saturday, October 14, 2017

*दृष्टा कौन है ? बार बार कहा जाता है की दृष्टा बनों, क्या दृष्टा बनना आत्म भाव है? या ये आत्मा से अलग है? क्या साक्षी भाव दृष्टा से अलग है*


विचारों के अलावा जो शेष चेतना है ,वह यदि सोयी हुई है ,तो वह विचारक है यदि यह शेष चेतना जागी हुई है तो यही दृष्टा है . सोई हुई चेतना को विचारक या मन कहते हैं ,अहम का विकार कहते हैं ,कई लोग इस अहम भी कहते है।जाग्रत चेतना को ही दृष्टा कहते हैं । यही मूल अहम भाव है इसमें विकार नहीं है, ये विचार रहित है। इसमें सव्येम का आभास मात्र है। इसलिए इसको निर्विकार अवस्था या दृष्टा कहते हैं। (यहां विकार का अर्थ विचार उत्पन अवस्था से है)


*फिरविचार क्या है ?*

विचार इस चेतना का ही छोटा सा अंश है . विचार विचारक से पृथक नहीं है ,उसी का ही अंश है . विचार विचारक की क्रिया है .जब आप विचार के साक्षी होंगे ,दृष्टा होंगे तब विचार और विचारक का अस्तित्व ही नहीं रहेगा .सिर्फ आप खालिस जागरूकता होंगे . मूल अहम भाव रहेगा जो दृष्टा है।


*तो साक्षी भाव क्या है???*

इन सबका मूल ही इन सबका साक्षी है। कोई भाव नहीं, वो तो केवल "है" सदा से। इस भाव के विषय में केवल बात हो सकती है, इसे थोड़ा बोहोत महसूस कर सकते हैं, *पर इसमें जबतक हम हैं हम आ नहीं सकते*। जैसे सूर्य के विषय में बात कर सकते हैं , उसकी ऊष्मा को महसूस कर सकते हैं, पर उसपर जायेंगे तो हम समाप्त हो जाएंगे। वैसे ही साक्षी भाव है , यही आत्मा है यही परमात्मा है.. *इसे गीता में उपदृष्टा कहा है* ...


भगवद्गीता के तेरहवें अध्याय में भगवान कृष्ण कहते हैं -

उपद्रष्टानुमन्ता च भर्ता भोक्ता महेश्वरः ।
परमात्मेति चाप्युक्तो देहेऽस्मिन्पुरुषः परः ।22।

*इस देह में स्थिति आत्मा (पुरुष) ही परमात्मा है। वह साक्षी होने के कारण उपद्रष्टा जाना जाता है.*

नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत तत्ववित्‌ ।
पश्यञ्श्रृण्वन्स्पृशञ्जिघ्रन्नश्नन्गच्छन्स्वपंश्वसन्‌ ।8।
प्रलपन्विसृजन्गृह्णन्नुन्मिषन्निमिषन्नपि
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेषु वर्तन्त इति धारयन्‌ ।9।

इसी प्रकार भगवद्गीता के पांचवें अध्याय में भगवान कृष्ण बताते हैं -
तत्व को जानने वाला योगी, मैं पन के अभाव से रहित हो जाता है और वह देखता हुआ, सुनता हुआ, स्पर्श करता हुआ, सूघंता हुआ, भोजन करता, हुआ गमन, करता हुआ, सोता हुआ, श्वास लेता हुआ, बोलता हुआ, त्यागता हुआ, ग्रहण करता हुआ, आँख खोलता हुआ, मूँदता हुआ किसी भी शारीरिक कर्म में सामान्य मनुष्य की तरह लिप्त नहीं होता है। वह यह जानता है कि इन्द्रियाँ अपने अपने कार्यों को कर रही हैं अतः उसमें कर्तापन का भाव नहीं होता है।  दृष्टा रहता है.

वेदों में अनेक स्थानों में स्वास नियम्य आया है जो केवल दृष्टा होने पर ही संभव है.

इस पद्धित को महात्मा बुद्ध ने भी अपनाया वर्त्तमान  में यह विपश्यना के नाम से भी प्रचारित हो रही है.

मुंडकोपनिषद में दृष्टा भाव को बड़े सुन्दर ढंग से सुस्पष्ट किया है.


तयोरन्यः पिप्पलं स्वादात्त्य नश्रन्नन्यों अभिचाकशीत.

एक वृक्ष में दो सुंदर पक्षी रहते हैं उनमें एक मधुर कर्म फल का भोग करता है दूसरा भोग न करके केवल देखता (दृष्टा)  रहता है. *ध्यान देना इसमें दोनों रहते हैं*

तुम्हारे पास केवल दो ही रास्ते हैं. या तो कर्ता भोक्ता बन कर सुख दुःख भोगो अथवा  दृष्टा  होकर उस साक्षी की ओर चल पड़ो जिसमें दृष्टा भी समाप्त हो जाता है.
यदि तुम आंतरिक दृष्टा हो तो सदा मुक्त हो पर तुम केवल बाह्य दृष्टा हो इसलिए सीमा में बंधे हो. अपने दृष्टा होने पर मूल दृष्टा का भाव भी अलग किया जा सकता है फिर विशुद्ध बोध का भाव स्वयं विकसित हो जाएगा.

यही भगवद गीता, अष्टावक्र गीता, वेदान्त का तत्त्व ज्ञान है. श्री कृष्ण कहते हैं - व्यवहार में मेरा स्मरण करकर.
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Tuesday, October 10, 2017

*आजकल साधु और चोर के बीच का भेद समझना बोहोत विकट हो गया है, जिसको साधू समझते हैं वो चोर निकलते है, इसका क्या समाधान हो ?*

वास्तव में न तो कोई चोर होता है और न कोई साधु। यह सब त्रिगुणात्मक माया के मान्यता रूपी प्रभाव से ही होता है। प्रकृती सदा प्रिवर्तनशील है |इसमें हुय प्रिवर्तन को ही सत्व, रज और तम आदी गुणों के माध्यम से जीव को असत में सत्य का भ्रम होता है व इसी में त्रिगुणात्मक रस ग्रहण कर अच्छे बुरे की कल्पना करके अपनी माया का निर्धारण सवंय करता है व उसी में उलझा रहता है | अपने निर्धारण के अनुसार ही आत्मा परमात्मा व गूरू की असत व त्रिगुणात्मक व्याख्या बना लेता है  ... इसलिय इस आडम्बर में फंसे हुए कई लोग ध्यान का नाटक करते हैं। संगीत की कलाओं, व्याकरण आदि सभी प्रकार की विद्याओं तथा ज्ञान की अनेक प्रकार की शाखाओं (विद्याओं) पर भी त्रिगुणात्मक प्रिवर्तनशील माया ने अपना वर्चस्व स्थापित कर लिया है।
इसलिय  अदूैत से रहित शुष्क ज्ञान और भौतिकवादी संगीत जीवन में शाश्वत आनन्द की प्राप्ति नहीं करा सकते हैं। अदूैत रस में डूबकर सत्व, रज और तम से मुक्त हुए बिना परम तत्व की प्राप्ति सम्भव ही नहीं है....
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प्रणाम जी

Sunday, October 8, 2017

*सत्संग में रोज जाता हूं, पर लाभ नहीं हो रहा, क्या करूं??*

जन्मो से हमे एक भयानक रोग हो गया है की हम सच को झूट और झूट को सच मानने लगे है इस कारण हम सत्संग का मतलब भी झूठ का संग समझने  लगे है इसलिए सत्संग के नाम पे झूठ का ही संग करते है सत्संग की व्याख्या से पहले  हमें  ये जानना जरूरी है की सच क्या है और झूट क्या है ,
पहले जान  लें की झूट क्या है ,हमारा ये पञ्च भोतिक शरीर या पञ्च तत्त्व से बनी कोई भी चीज़,  अन्दर मन चित बुद्धी और अहंकार ये सब झूट है, शब्द जो तुम सत्संग जानकर सुनते हो वो भी झूठ है। फिर सच क्या है एक मात्र परमात्मा या आत्मा ही सत्ये है,
अब इसी थ्योरी से सच झूट को समझना होगा ..हम पञ्च भोतिक तत्वों को ही सच मान बैठे है जरा सोचिये मंदिर में रखी मूर्ति क्या पञ्च भोतिक नही है तो क्या वो सच है? और  ऊपर से है हम उन झूटी मूर्तियों की भी फोटो (याने झूठ का भी झूठ) लेके कहते है की आज के दर्शन मतलब झूटी मूर्ति की भी झूटी तस्वीर के साथ हम सत्संग करते है क्या ये सत्संग है फिर झूटे शरीरो में आस्था रखते है चेतनता से हमारा कोई नाता नही रह गया है तो सत्ये क्या है ..?? *दूैत परिवर्तनशील है इसलिय इसे असत्य कहा है और अदूैत सदा से है वैसा ही, अदूैत हमारा मूल है इसलिय सत्य कहा है* इसी सत्ये मेें सत्ये का बोध सत्ये है
इस सत्येता में उतर के देखिये आप अपने आप असत्य से दूर हो जायेंगे सावधान रहें झूट कब सत्ये में मिलके हमे भरमित कर देती है हमे पता भी नही चलता सत्ये का कोई नाम नही है इसलिए नाम को सत्ये मत मानो बल्कि केवल सत्ये को स्वीकार करो चाहे कोई भी नाम से हो सत्ये का कोई नाम नही होता क्योंकि हम तीन गुणों के संसार में रहते है इसलिए हम सत्ये को भी गुणों के आधार  पर देखते है इसलिए उसका गुणों के अनुरूप नाम या संबोधन करते है जो कालांतर के साथ नाम बन जाता है जिस से भरम और असत्य का जन्म होता है |
इसलिए सत्ये को समझ कर केवल  सत्संग करें .
फिर सत्संग क्या है?
*सवंय का संग ही सतसंग है.. तुम सवंय ही सत्य हो आनंद हो.. इसके अलावा कोई सत्यसंग नही है..*
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Friday, September 29, 2017

*क्या मैं परमात्मा को पा सकता हूं या उसका दर्शन कर सकता हूं*

बृह्म को प्राप्त वो कर सकता है जो बृह्म से बडा हो , जो प्राप्त हो सके वो बृह्म नही है. बृह्म तो सदा से ,अनादी काल से तुम में ही है.. फिर कया प्राप्त करना चाहते हो . कया ये घोर अग्यान नही है कि तुम उसे प्राप्त करना चाहते हो जो तुम में ही है.. बस तुम उसके तुममें होने के बोध में नही हो .. वो तुममें है सदा से ,निरंतर , इस बोध में बोधित रहना ही ग्यान है, योग है, प्रेम है, अदूैत भाव है, शुद्ध अन्यता है, अखंड आनंद है,

जो कहते हैं : हमें परमात्मा का दर्शन हुआ है, वे गलत ही बात कहते हैं।


दर्शन तो पराए का हो सकता है, स्वयं का कैसे दर्शन होगा!


स्वयं के दर्शन का कोई उपाय नहीं है।


आत्म—दर्शन शब्द भी गलत है।


आत्म—अनुभूति होती है, दर्शन नहीं होता।


दर्शन का तो मतलब है दो हो गए—द्रष्टा और दृश्य।
वहां तो एक ही है, वहां कोई द्रष्टा नहीं, कोई दृश्य नहीं।


एक पुलक होती है; एक भाव—दशा होती है।


जिसको बुद्ध संवेग कहते हैं।
एक संवेग होता है। तुम जान लेते हो, बिना जाने।
पहचान लेते हो, बिना पहचाने।


..इसी बोध के बिषय में वेद कहता है..


*"" प्रकृति के अन्धकार से सर्वथा परे सूर्य के समान प्रकाशमान स्वरूप वाले परमात्मा को मै जानता हूँ , जिसको जाने बिना मृत्यु से छुटकारा पाने का अन्य कोई भी उपाय नहीं है (यजुर्वेद ३१/१८) """*


अर्थात उसे पाना नही है वो तुममें है ये जान्ना है..पाया हूआ है सदा से ,बस उस पाई हुई स्थिती को जानलो बस मिल गया आनंद, वेद भी बार बार यही कह रहा है..की


*""उस धीर, अजर, अमर, नित्य तरुण परब्रह्म को ही जानकर विद्वान पुरुष मृत्यु से नहीं डरता है (अथर्ववेद १०/८/४४ )""*
*अर्थात पाना नही है, वो तुममें ही है ये जान्ना है..*
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  • प्रणाम जी
*सच्चा तीर्थ क्या है? मैं देखता हूं की अनेकों लोग तीर्थो पर जाकर  प्राकृतिक आपदा के शिकार होकर प्राण त्याग देते है, और उनके परिजन विलाप करते हुए उन तीर्थों को बुरा भला कहते हैं। तो कृपया तीर्थ का अर्थ बताएं।*

तीर्थ का अर्थ है ऐसा पवित्र जिसके साथ संयोग करने से पवित्रता आये, जिसके साथ संयोग से अपने को पवित्र समझते है उसे तीर्थ कहते है। तो ध्यान देना कि दो ही चीजे है एक जड़ और एक चेतन। इसमें से हम सब जाने या अनजाने चेतन को ही पवित्र मानते हैं क्योंकि शरीर से चेतन प्राण निकल जाने पर हम उसको छूने मात्र से स्नान करते है। अर्थात उसको अपवित्र समझते है । तो कहने का अर्थ है कि जो चेतन है वहीं पवित्र है और जो पवित्र है वहीं तीर्थ है। अर्थात तीर्थ बाहरी विषय नहीं है ये आंतरिक विषय है पर हम सारी उम्र इस वास्तविक तीर्थ से अनजान होकर जड़ पदार्थो में ही तीर्थ मानकर भ्रमित रहते है। तो सच्चे तीर्थ के लिऐ सबसे पवित्र वस्तु का संग करना चाहिए वो है आपकी चेतना जिससे आप अनजान हैं।इस चेतना रूपी तीर्थ को करने से आपके अनंत जन्मों के पाप कट जाते हैं। इस मार्ग पर चलना ही भक्ति है, प्रेम भी यही है, आत्मा भी यही है । परमात्मा भी यही है, यही योग है, यही परमतत्व है।


जनाः यैः तरन्ति तानि तीर्थानि’ अर्थात् मनुष्य जिस माध्यम भवसागर से पार हो, वही तीर्थ है। आंतरिक प्रेम का बोध ही वास्तविक तीर्थ है। निरर्थक इधर उधर भटकते रहना तथा नदियों के जल में डुबकी लगाकर जड़ पदार्थों की परिक्रमा करना तीर्थ नहीं है।
आजन्म मरणान्तं च गंगादि तटनीस्थिता:।
मण्डूक मत्स्य प्रमुखा योगिनस्ते भवन्ति किम्।।
(गरुड़ पुराण १६/६८)

जन्म से लेकर मरण पर्यन्त गंगाजी के तट पर पड़े रहने के कारण लोग यदि योगी हो जाये तो फिर वे मेढक और मत्स्य आदि क्यों नहीं योगी हो सकते.


सच्चा तीर्थ वह है, जिसमें अपने चित्त को एकाग्र कर आंतरिक सफर पर चला जाए। इसमें कर्मों का कोई भी बन्धन नहीं लगता और वास्तविक तीर्थ यात्रा का लाभ मिलता है। अर्थात तिर्थ तन से नही अतः करण से होता है ..तन को कष्ट देने से परमात्मा नही मिलते...


तावत्तपो व्रतं तीर्थं जप होमार्चनादिकम्।
वेदशास्त्रागम कथा यावत्तत्त्वं न विन्दति।।
(गरुड़ पुराण १६/९८)
तब तक ही तप, व्रत, तीर्थाटन, जप, होम और देवपूजा आदि हैं तथा तब तक ही वेदशास्त्र और आगमों की कथा है जब तक कि परमतत्त्व का बोध प्राप्त नहीं होता;  परमतत्त्व का बोध प्राप्त होने पर इनसबका कुछ भी अर्थ नहीं रह जाता है...
इसलिय तिर्थ आदी मे भटकने की अपेक्षा परमतत्व की खोज करो जो कहीं बाहर नही है हमारे हृदय में ही है...
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प्रणाम जी

Saturday, September 9, 2017

क्या मैं रोज़ थोड़ा थोड़ा प्रेम बढ़ा कर परमात्मा को पा सकता हूं ???

क्या तुम रोज छोटे छोटे पानी के गढढे बना कर समुन्द्र का निर्माण कर पाओगे ? तुम प्रेम का अर्थ ही भी समझे हो। प्रेम खुद ही परमात्मा है। प्रेम अथाह है । अथाह को छोटे छोटे टुकड़ों में कैसे बांट सकते हो। हम गलती ये कर रहे हैं कि हमें जो बौद्ध होना है उसको अपने अनुसार बना लेते हैं। अर्थात हम प्रेम बढ़ा कर परमात्मा को पाना चाहते हैं, जबकी परमात्मा स्वयं प्रेम ही है, तो तुम जिसे बढ़ाने का प्रयास कर रहे हो वो प्रेम नहीं है, ये मोह है, एक गुण है, ये वही वस्तु है जो तुम संसार मे सबसे करते हो, ये भी तुम इतना नहीं कर पाओगे जितना तुम संसार में करते हो। फिर क्यों खुदको धोखा दे रहे हो।
जिस दिन प्रेम का बोध होगा उस दिन कुछ पाना नहीं रह जायेगा। ध्यान रहे प्रेम को ही पाना है, प्रेम से पाने जैसे कुछ नहीं है। प्रेम क्या है? इस विषय पर हमारी पहले एक पोस्ट आ चुकी है वो आप satsangwithparveen.bolgspot.com पर जाकर पढ़ सकते हैं। या fb पर www.facebook.com/kevalshudhsatye

Wednesday, August 30, 2017

मन कया है ?

अहं कया है ?

आत्मा कया है ?

सबसे पहले अहं--- आपका जो होने का अहसास है वो अहं है । इसमे आपको जो सवंय की उपस्थिती का अहसास रहता है निरंतर, वो अहं के कारण है ।

 मन--- इस सवंय के अहसास के बाद जो भी भाव रहती है वो मन है , इसे हृदय भी कहते है इसके चार भाग है ( मन चित बुद्धी और अहंकार ) अहं के साथ ये सदा रहते हैं निरंतर । इसलिय मन पर काबू पाना नामूमकिन है जबतक की अहं को समझा ना जाये । आप जो भी करते है, अहं से ही होता है और जाहां अहं है वहा शत प्रतिशत मन रहता है, चाहे भक्ती हो त्याग हो तप हो बृह्मचार्य हो बैराग नाम जाप हो चितवनी हो या जो भी हो । मन की आयु बहेत ही अल्प होती है अर्थात यह निरंतर बनता और मिटता रहता है, इसका बनना और मिटना अहं की स्थिती के अनूसार है,अर्थात अगर आप सतसंग मे है तो वहां के अनुसार, अगर ध्यान में हैं तो तो वहां के अनुसार, अगर संसार में है तो वहां के अनुसार, प्रेम में है तो वहां के अनुसार, परिवार में हैं तो वहां के अनुसार, भक्ती में हैं तो वहां के अनुसार, चितवनी में है तो वहां के अनुसार या जहां भी आपकी उपस्थिती रहती है मन वही के अनुसार निर्मित हो जाता है ।

आत्मा--- आत्मा आनंद है। यह बुद्धि और गुणों से परे है।इसलिए उपस्थित(अहम) स्थिति से इसको समझना लगभग असम्भव है। यह अहम की ज्ञान अवस्था (एकरसता) से प्रतिबिंबित होती है। यह आंतरिक विषय है। इसके प्रतिबिंब के भान को पकड़ कर उसके विपरीत मूल आनंद की खोज करने से कुछ बात बन सकती है।

जिस भी वस्तु मे आपको आनंद की अनुभूति होती है वो आत्मा के कारण है। पर ऐसा बिल्कुल नहीं है कि वो आत्मा का आनंद है। आत्मा का आनंद नहीं होता आत्मा ही आनंद होती है जिसका भास रहता है जिसको खोजना होता है। इसलिए जो भी आनंद तुमने आजतक लिया है वो तिल भर भी नहीं है आत्मा के आगे। इसको खोजना थोड़ा कठिन हो सकता है पर सबसे सरल यही है।इसकी खोज में दासता  नहीं है , स्वतंत्रता है हर बंधनसे। केवल यही खोजने योग्य है केवल इसी की खोज करनी चाहिए। बाकी सब प्रतिबिंब है झूठ है मिथ्या है।अहम है।

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सतगुरुतत्व क्या है ?


ब्रह्मानंदं परम सुखदं केवलं ज्ञानमूर्तिम्,
द्वन्द्वातीतं गगनसदृशं तत्वमस्यादि लक्ष्यम्।
एकं नित्यं विमलमचलं सर्वदा साक्षिरूपम्,
भावातीतं त्रिगुण रहितं सतगुरु तन्नमामि ॥
(स्कन्द्पुराणे गुरुगीतायम्)


अर्थ:= *सच्चिदानंद ब्रह्म आनन्द स्वरूप है, उसका आनंद ही प्रत्येक प्राणी में अक्रषण रूप में विद्यमान रह कर उसे आनंद की और आकर्षित करता है, यही आनंद जब आंतरिक रूप में जान लिया जाता है तो इसी को सत्गुरु य गुरुतत्व कहा जाता है।वही मूल आनंद आकर्षण सत्गुरु हैं। क्योंकि गु का अर्थ है अंधेरा या माया और रू का अर्थ है आनंद या प्रकाश,तो जो माया रूपी अंधेरे में आंतरिक आनंद रूपी प्रकाश के आकर्षण के माध्यम से हमें सत्य आनंद का बोध होता है यही माध्येम गुरूतत्वा या सतगुरु है* इसी आनंद के माध्यम तत्व को राधा या श्यामा कहा गया है।इसी कारण किसी मूलआनंदतत्वदर्शी ने कहा था राधे राधे श्याम मिला दे, राधा अर्थात उपरोक्त माध्यम व श्याम अर्थात मूल आनंद। पर अज्ञानवश लोगो ने इसे रटना शुरू कर दिया कि राधे राधे श्याम मिला दे।इस राधा तत्व से अनभिज्ञ होने के कारण लोगों ने इसे स्त्री या पुरुष बना कर देखना शुरू कर दिया।इसी के कारण राधा नाम के जाप का भ्रम पैदा हो गया।यही मूलतत्व सर्वोत्तम ज्ञान एवं परम सुख का दाता है। यह द्वंद्व अर्थात माया, निरंजन निराकार एवं साकार ब्रह्मांड से परे हैं । आकाश जैसा इसका स्वभाव है, क्योंकि ये परम शांत व अनंत्ता लिए हुए है।तत्वमसि में से असि पद ब्रह्म को कह गया है । तत पद ईश्वर से परे ब्रहं का लक्ष्य देते हैं। वह अचल रूप, सदा साक्षी स्वरूप हैं । स्वभाव अर्थात अध्यात्म अर्थात मूल अहम या अक्षरब्रह्म से भी परे हैं । तीनों गुण सत-रज-तम के स्वरूप ब्रह्मा, विष्णु और महेश से परे हैं । ऐसे सतगुरु को सप्रेम नमस्कार है ।


ऋग्वेद 10.49.1


केवल एक परमात्मा ही सत्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करने वालों को सत्य ज्ञान का देने वाला है । वही ज्ञान की वृद्धि करने वाला और  धार्मिक मनुष्यों को श्रेष्ठ कार्यों में प्रवृत्त करने वाला है । वही एकमात्र इस  सारे संसार का रचयिता और नियंता है । इसलिए कभी भी उस एक परमात्मा को छोड़कर और किसी को भी धारण नहीं करना चाहिए ..

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Monday, August 21, 2017

सुख और आनंद में कया भेद है..?? (नया संसकरण)


बाहरी दृष्य में आनंद का प्रतिबिंबित होना सुख है .. अर्थात सुख का अस्तितव है ही नही, यह तो केवल आनंद का प्रतिबिंब है.. प्रतिबिंब भ्रम होता है सत्य नही.. प्रतिबिंब कभी पकड़ में नही आता इसलिय सुख भी कभी पकड़ में नही आता .. *प्रतिबिंब हमेंशा अमने सत्य स्वरूप के विपरीत दिशा में बन्ता हैं* .. इसलिय सुख भी बाहर दिखता है.. अर्थात आनंद=परमात्मा या सवंय अन्दर है , बाहर तो हर वस्तु में आपका ही प्रतिबिंब सुख बनकर आपको भ्रमित कर रहा है..
*बाहर से अंदर की और मुड जाओ, असत्य से सत्य की और चलो, प्रतिबिंब से मूल स्वरूप की और चलो, सुख से आनंद की और चलो, दूैत से अदूैत की और चलो, अपनी और चलो, सवंय को जान जाओ, तुम सवंय आनंद हो फिर प्रतिबिंब कयो पकडते हो ?
इस प्रतिबिम्ब रूपी सुख के लिय मूल आनंद को कयों भूलाऐ बैठे हो ? और घोर अग्यान दोखिये अपने मूल आनंद को त्याग कर झूठे प्रतिबिम्ब के सुख को पाने के लिय और खोने के भय से अनेक देवी देवताओं की गुलामी करते हो । मूल को पकडो, स्वतंत्र बनो, झूठ में सदा भय रहता है, झूठ गुलाम बनाता है सत्य सदा स्वतंत्र है । केवल सत्य, नित्य भाव में रहो, आनंद रहो ।
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प्रणाम जी

Sunday, August 6, 2017

प्रश्न -मैं पाप करने से कैसे बच सकता हूं ???

उत्तर- मैं पाप नही करूंगा, यही सोच तुम्हे पापी बना देती है .."मैं पाप नही करूंगा" भाव के पीछे जो बोलने वाला है वही तो पापी है, कौन है वो ?
वो अहं है, यही पापी है होने में रहता है, यही वैरागी होने में, ग्यानी होने में, धर्मी होने में, गूरू होने में, शिष्य होने में, भक्त होने में , परमात्मा से प्रेम करके प्रेमी होने में, सब में यही रहता है | यही जड़ है पापी होने की या पाप करने की | अगर पाप से बचना चाहते हो तो पापी को समाप्त करो.. अहं को समाप्त करो, जब पाप करने वाला ही नही रहेगा तो पाप कौन करेगा...
*अहं का अर्थ अहंकार से नही है, अहं जड़ है अहंकार पत्ते के समान है*

*ए मैं मैं क्यों ए मरत नहीं,और कहावत है मुरदा। आड़े नूर जमाल के, एही है परदा।*
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Saturday, July 29, 2017

जैसे धूप में छाया नहीं, जैसे सूर्य में अंधकार नहीं, जैसे अग्नि में बरफ नहीं, और जैसे अणु में सुमेरु नहीं होता, तैसे ही आत्मामें जगत् नहीं होता । सत्यरूप आत्मा में असत्यरूप जगत् कैसे हो? आत्मा कारण से भी मुक्त है..कारण दो प्रकार का होता है-एक समवाय कारण और दूसरा निमित्तकारण, आत्मा दोनों कारणों से रहित है । निमित्तकारण तब होता है जब कार्य से कर्त्ता भिन्न हो, पर आत्मा तो अद्वैत है, उसके निकट दूसरी वस्तु नहीं, वह कर्त्ता कैसे हो और किसका हो, वह तो मन और इन्द्रियों से रहित निराकार अविकृ तरूप है । और समवाय कारण भी परिणाम से होता है । जैसे वट बीज परिणाम से वृक्ष होता है, पर आत्मा तो अखंड़ है , परिणाम को कदाचित् नहीं प्राप्त होता तो समवाय कारण कैसे हो? जायते, अस्ति, वर्धते, विपरिणमते, क्षियते, नश्यति, इनषट् विकारों से रहित निर्विकार आत्मा जगत् का कारण कैसे हो? इससे यह जगत् अकारणरूप भ्रान्ति से दिखता है ।

 जैसे आकाश में नीलता,सीप में रूपा और निद्रादोष से स्वप्न दिखते हैं वैसे ही यह जगत् भ्रान्ति से दिखाइ देता है । और जब अपने सवंय के स्वरूप में जागे तब जगत्‌भ्रम मिट जाता है । इससे कारणकार्य भ्रम को त्यागकर तुम अपने स्वरूप में स्थित हो । दुर्बोध और मान्यता से संकल्प रचना हुई है उसको त्याग करो और आदि, मध्य और अन्त से रहित जिसकी सत्ता है उसी आनंदस्वरूप में स्थित हो तब जगत्‌भ्रम मिट जायेगा ।
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प्रणाम जी

Sunday, July 23, 2017

प्रश्न- अगर मेरी मृत्यु हो गई तो कया मेरी भक्ती का अगले जन्म में कया होगा..??

उत्तर- अगर इसका उत्तर जान लिया तो सफर यहीं समाप्त हो जायगा कयोंकी इसके उत्तर में पूरी गहनता छिपी हुई है.

चलिय जान्ने का प्रयास करते हैं...

पहले तो ये जान लो की जो भक्ती या सत्य का मार्ग है वो कोन कर रहा है अर्थात इस मार्ग का मुसाफिर कौन है.. कयोंकी अगले जन्म मे भक्ती के सफर की बात कर रहे हो तो मुसाफिर कौन है ये भी तो पता होना चाहिये..
1. कया ये शरीर भक्ती कर रहा है, नही ये जड़ है ये कैसे भक्ती कर सकता है..

2. तो कया मन भक्ती कर रहा है, नही ये मन है ही नही ये जो मन जैसा लग रहा है ये आपसे उत्पन्न स्थिती है जो निरंतर बदलती है इसलिय इसके भक्ती करने का ते सवाल ही नही होता. बुद्धि और अहंकार भी इसी श्रेणी में आते है इसलिय वो भी नही..
तो कौन???
अब रहा केवल चेतना या चेतन, जिसकी मृत्यु नही हो सकती..( ये कौन है ये अलग विषय है तो अभी मोटे तौर पर अपने को चेतन ही मानो)

तो अब उत्तर शपष्ट है की जिसे तुम मृत्यु कह रहे हो वो उसकी होती है जो भक्ती कर ही नही सकता, और जो भक्ती कर रहा है उसकी मृत्यु होती नही है वो निरंतर अपनी साधना करता है,पुर्ण होने तक निरंतर केवल शरीर बदल सकते है चेतना वही रहती है, जो भक्ती कर रही होती है.. तुम्हारी मृत्यु ही नही होनी, तो जिसकी मृत्यु होनी है तुम वो अपने को मान बैठे हो इसलिय ये सवाल कर रहे हो..
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Friday, July 21, 2017

पहले के समय तीर्थयात्रा पर जाना बहुत कठिन होता था। यात्रा पैदल या बैलगाड़ी से की जाती थी। थोड़े-थोड़े अंतर पर यात्रियों को रुकना होता था। उन्हें कई तरह के लोगों से मिलना होता था। कई अनुभव भी वे प्राप्त करते थे। एक बार तीर्थयात्रा पर जाने वाले लोगों का संघ संत तुकाराम जी के पास जाकर उनसे साथ चलने की प्रार्थना करने लगा।

तुकाराम जी ने अपनी असमर्थता बताई। उन्होंने तीर्थयात्रियों को एक कड़वा कद्दू देते हुए कहा, मैं तो आप लोगों के साथ जा नहीं सकता, लेकिन आप इस कद्दू को साथ ले जाइए और जहां-जहां आप स्नान करें, इसे भी पवित्र जल में स्नान करा लाएं।

लोगों ने उनके गूढ़ार्थ पर गौर किए बिना वह कद्दू ले लिया। वे जहां-जहां गए, स्नान किया, वहां-वहां उन्होंने कद्दू को स्नान करवाया; उन्होंने मंदिर में जाकर दर्शन किया, तो कद्दू को भी दर्शन करवाया। इसी तरह उन्होंने यात्रा पूरी की, और वापस आकर कद्दू संत जी को दे दिया।

तुकाराम जी ने सभी यात्रियों को रात्रिभोज पर आमंत्रित किया। तीर्थयात्रियों को विविध पकवान परोसे गए। उस आयोजन में तीर्थ में घूमकर आए हुए कद्दू की सब्जी विशेष रूप से बनवाई गई थी। सभी यात्रियों ने खाना शुरू किया और सबने सब्जी कड़वी होने की बात कही।

तुकाराम जी ने आश्चर्य जताते हुए कहा, यह तो उसी कद्दू से बनी है, जो तीर्थ स्नान कर आया है। बेशक यह तीर्थाटन के पूर्व कड़वा था, मगर तीर्थदर्शन तथा स्नान के बाद भी इसमें कड़वाहट ही है!

*यह सुनकर सभी यात्रियों को बोध हुआ कि सुधारा अंदर से होना है.. बाहर से तीर्थ का लाभ नहीं केे समान है, अगर अंदर की यात्रा नही की तो बाहर की तीर्थयात्रा का कोई मूल्य नहीं है। हम भी कड़वे कद्दू जैसे कड़वे रहकर वापस आए हैं।*
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प्रणाम जी

Sunday, July 16, 2017

सुप्रभात जी

लोहेके टुकड़ेको चुम्बकके साथ एक ही दिशामें घसने(रगड़ने) लगेंगे तो वह भी चुम्बकीय गुण प्राप्त करता है । इस प्रक्रियामें चुम्बकसे लोहेके टुकड़ेमें चुम्बकीय शक्ति नहीं जाती है अपितु चुम्बकके साथ एक दिशामें घर्षण होने पर लोहेके टुकड़ेके अणु-परमाणुओंको एक दिशा प्राप्त होती हैं । शक्ति तो उन्हीं अणुओंमें है किन्तु वे एक दिशामें न होनेसे संगठित नहीं हो पाते हैं । चुम्बकके संसर्गसे उन्हें एकदिशा प्राप्त होती है जिससे उन अणुओंकी शक्ति प्रकट होती है । इस प्रकार एक सामान्य लोहा चुम्बक बन जाता है ।

इसी प्रकार मनुष्यके अन्तःकरणकी वृत्तियाँ, जो चारों दिशाओंमें फिरती रहती हैं, साधनाके द्वारा एक सही दिशा प्राप्त करती हैं । उससे अपार शक्ति प्रकट होती है उसीको लोगोंने सिद्धि कहा है । ऐसी साधना आत्मा के मार्गदर्शनमें हो तो व्यक्तिके अन्तःकरणकी वृत्तियोंको आनंद या परमात्माकी दिशा प्राप्त होती है जिससे व्यक्ति आत्म बोध प्राप्त कर सकता है । इसीको सही दिशा की साधना कहा है ।
इसी साधनाके द्वारा आत्माकी अनुभूति होती है, परमात्माकी अनुभूति होती है और परमधामकी अनुभूति होती है । आत्मा परमात्मा व प्रेम एक ही हैं  इसलिए इस साधनाको प्रेम साधना भी कहा है ।
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प्रणाम जी

Saturday, July 15, 2017

जो लोग सोचते है की नाम जाप, भजन, भक्ती तिर्थ, तप, ध्यान आदी से मृत्यु के बाद वो किसी आनंद के लोक या परमधाम में चले जायेंगे तो वो धोर अंधकार में हैं | उस आनंद की स्थिती को पहले ही पा कर उस पद में मृत्यु से पहले ही लय होना होगा  तभी शरीर समाप्ती के पश्चात वह स्थिती बनी रह सकती है | अन्यथा अनंनत जन्मों के लिय धोर अंधकार है..
*उस ब्रह्म से प्रकट यह संपूर्ण विश्व है जो उसी प्राण रूप में गतिमान है। उद्यत वज्र के समान विकराल शक्ति ब्रह्म को जो मानते हैं, अमरत्व को प्राप्त होते हैं। इसी ब्रह्म के भय से अग्नि व सूर्य तपते हैं और इसी ब्रह्म के भय से इंद्र, वायु और यमराज अपने-अपने कामों में लगे रहते हैं। शरीर के नष्‍ट होने से पहले ही यदि उस ब्रह्म का बोध प्राप्त कर लिया तो ठीक अन्यथा अनेक युगों तक विभिन्न योनियों में पड़ना होता है।'।। 2-8-1।।-तैत्तिरीयोपनिष*
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Friday, July 14, 2017

पढ़ पढ़ इल्म तू फाजिल होईया कदे आपने आपनू पढ़िया ही नही...
बूल्ले शाह..

पढ़  पढ़  के  इलम  की बाते  तू ज्ञानी तो हो  गया  पर  कभी अपने  आप  को  जानने का प्रयास  नही कीया ,
तू  मंदिर मस्जित भागता फिरता हैं  कभी अपने हृदये  में  झांक के नही देखता ,
तू सोचता  हैं की शैतान बहार  हैं और रोज इसी  उलझन  में रहता  हैं पर  कभी अपने अंदर के दूैत रूपी अंधकार को दूर नही करता  जहाँ से शैतान  उत्पन्न होता हैं ,
तू समझता हैं की खुदा आसमान में रहता हैं पर वो तो तेरे  आत्महृदये में हैं याने तेरे  घर में हैं जीसे तूने कभी  खोजने का प्रयास नही कीया..

प्रणाम जी

Thursday, July 13, 2017

*पूरा दिन परमात्मा में ध्यान नही रख पाता कई बार सांसारिक कार्य करते हुऐ भूल लग जाती है...कृप्या निवारण किजीय..*

ऐसा उल्टे स्वभाव के कारण है..तुमने अपना स्वभाव उल्टा बना रखा है..कैसे? जो तुम नही हो वो बनकर जो तुम हो वो करना चाहते हो..अर्थात तुम प्राथमिक को अन्य व अन्य को प्राथमिक समझ रहे हो..कहने का अर्थ यह है कि तुम अपने आत्म स्वभाव को करने की सोच रहे हो और जो तुम नही हो वो मानकर सांसारिक कार्य करते हो..
*तो करना कया है?*
बस अपने आत्म भाव को सवंय मान कर कार्य को अन्य समझ कर करना है.. *अर्थात*

पूरा दिन अपने स्वभाव में रहो और कार्य को अन्य समझ कर करो..
बस जो प्राथमिक है उसे प्राथमिकता देनी है और जो अन्य है उसको अन्य समझना है..(यह केवल मार्ग है मंजिल नही है)
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Sunday, July 2, 2017

सवंय का संग ही सतसंग है.. तुम सवंय ही सत्य हो आनंद हो.. इसके अलावा कोई सत्यसंग नही है..अगर स्वंय को नही पहचाना तो कही भी भ्रमण करलो झूठ का झूठ ही रहेगा, और सवंय को जान लिया तो बस फिर निरंतर सत्य ही है.. फिर सतसंग के विकार भाव को भी पार करलोगे..
सतसंग को विकार भाव इसलिय काहा है कयोंकी इसमें दो का भाव है सत्य और संग, अर्थात सत्य का संग करने वाला, अर्थात *अहं* | अपने को सत्य से अलग मान्ते हो, यही अहं भाव सतसंग मे विकार रूप में उपस्थित रहता है.. इसलिय सवंय की शुद्ध पहचान ही सतसंग है..आनंद ही सत्य है ,आप ही आनंद हो..बाहर तो सब झूठ है..
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Wednesday, June 28, 2017

किसमें कितनी शक्तियां थी.. कोन कम था कौन ज्यादा..ये सब बातें तोते की तरह रटने से कोई लाभ नही होने वाला, और न ही धर्म ग्रन्थों के शब्दो के अर्थ बता कर इस बात पर बहस करने से कोई लाभ है की मेरे अर्थ तुमसे अच्छे है.. अगर आत्म जाग्रती नही हुई तो ये सब भी तुम्हे नर्क में जाने से नही रोक पायेंगे.. आत्म जाग्रती के पश्चात भी ये सब व्यर्थ है और पहले भी | इससे अलग एक मार्ग और है जो सत्य को जाता है, जो तुम तक आता है, उसकी खोज करो..
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Tuesday, June 27, 2017

मन

*मन का भेद*

अहं की उपस्थिती से उत्पन्न भाव, दशा, स्थिती, या अनुभव मन है.. ध्यान के अनुभव या भजन भक्ती में होने वाले सुख या आनंद का भास भी इसके अंतर्गत आते हैं..
प्रश्न-कया मन होता है ?
उत्तर- नही मन है ही नही, ये तो अहं का क्रिया या अक्रिया का भास है..
कया मन का लय होना होता है?
उत्तर - नही मन का कभी लय नही होता..

प्रश्न- आप कहते हो की मन है ही नही, फिर कहते हो की मनका लय नही होता, कया ये विरोधाभास नही है ??
उत्तर- अहं की उपस्थिती ही मन कहा जाता है अर्थात जो है वो अहं ही है, मन का कोई अलग अस्तितव नही है, इसलिय कहा है मन नही है |
*मनका लय नही होता* का अर्थ है की जब मन है ही नही तो लय किस का होगा, जब तक अहं है इस मन के भास के भाव का लय नही होता, लय केवल अहं का होना है, अहं के लय के साथ ही इसकी उपस्थिती से उत्पन्न भाव का भी लय हो जाता है जिसे आप मन कहते हो | अहं की उपस्थिती की क्रिया को ही मन, चित, बुद्धि, अंकार कह दिया जाता है, मन, चित, बुद्धि, अंकार को ही मन कह दिया जाता है, मन, चित, बुद्धि, अंकार को ही बुद्धि कह दिया जाता है, मन, चित, बुद्धि, अंकार को ही चित कह दिया जाता है, मन, चित, बुद्धि, अंकार को ही हृदय कह दिया जाता है, परन्तु ये अहं ही है |
ये भेद भी सत्य के मार्ग में सहायक हो सकता है |
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अहं की उपस्थिती से उत्पन्न भाव, दशा, स्थिती, या अनुभव मन है.. ध्यान के अनुभव या भजन भक्ती में होने वाले सुख या आनंद का भास भी इसके अंतर्गत आते हैं..
प्रश्न-कया मन होता है ?
उत्तर- नही मन है ही नही, ये तो अहं का क्रिया या अक्रिया का भास है..
कया मन का लय होना होता है?
उत्तर - नही मन का कभी लय नही होता..

प्रश्न- आप कहते हो की मन है ही नही, फिर कहते हो की मनका लय नही होता, कया ये विरोधाभास नही है ??
उत्तर- अहं की उपस्थिती ही मन कहा जाता है अर्थात जो है वो अहं ही है, मन का कोई अलग अस्तितव नही है, इसलिय कहा है मन नही है |
*मनका लय नही होता* का अर्थ है की जब मन है ही नही तो लय किस का होगा, जब तक अहं है इस मन के भास के भाव का लय नही होता, लय केवल अहं का होना है, अहं के लय के साथ ही इसकी उपस्थिती से उत्पन्न भाव का भी लय हो जाता है जिसे आप मन कहते हो | अहं की उपस्थिती की क्रिया को ही मन, चित, बुद्धि, अंकार कह दिया जाता है, मन, चित, बुद्धि, अंकार को ही मन कह दिया जाता है, मन, चित, बुद्धि, अंकार को ही बुद्धि कह दिया जाता है, मन, चित, बुद्धि, अंकार को ही चित कह दिया जाता है, मन, चित, बुद्धि, अंकार को ही हृदय कह दिया जाता है, परन्तु ये अहं ही है |
ये भेद भी सत्य के मार्ग में सहायक हो सकता है |
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Monday, June 26, 2017

दो गलतियाँ

अदूैतसत्य के रस्ते पर कोई दो ही गलतियाँ कर सकता है, या तो वह पूरा सफ़र तय नहीं करता या सफ़र की शुरुआत ही नहीं करता...
सफ़र की शुरुआत न करना सबसे ज्यादा होने वाली गलती है, इस गलती से अपने को वो कदापी अलग न समझें जो नाम जाप, चितवनी, परिक्रमा, परायण, रूपध्यान, रोना, रिझाना आदीआदी करते हैं | अगर मार्ग सत्य नही है तो ये सब वैसे ही है जैसे आप अपने और सांसारिक कार्य करते हैं..
सफ़र की शुरुआत सही करें फिर धैर्य से पूरा सफ़र तय करें..
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 प्रणाम जी

Thursday, June 22, 2017

परमात्मा से प्रेम बढ़ाने का कया उपाय है

*प्रश्न- परमात्मा से प्रेम बढ़ाने का कया उपाय है ? कृपया समाधान करें |*

उत्तर- प्रेम में घटना-बढ़ना, कम या ज्यादा नही होता | जिसे तुम बढ़ाने की बात कर रहे हो वो प्रेम नही है ये सौदा है व्यापार है, इसमें एक भाव छिपा रहता है की मैं आपसे प्रेम करूंगा तो तुम मुझे अपने पास बुला लोगे या मुझे पार उतार दोगे, ये व्यपार कर रहे हो| प्रेम की बात में मैं और तूं काहां से आ गया ? जाहां मैं और तू है वो प्रेम नही है.. ध्यान देना जब मैं नही और तू नही जब प्रेम है | तो प्रेम कया है ?? और कैसे होता है ?
परमात्मा से भूलकर भी प्रेम करने का प्रयास मत करना वरना परमात्मा से बहोत दूर हो जाओगे ..
कयोंकि ऐसा करोगे तो तुम परमात्मा के लिय रोओगे, उस से मिलने कि प्रार्थना करोगे, और ये सारे प्रयास तुम्हे परमात्मा से अलग कर देंगे..
कयोंकि परमात्मा इन सबसे नही मिलेंगे बल्कि प्रेम से मिलेंगे.?????? ये कया , प्रेम नही करना और प्रेम से मिलेंगे ??? जी हां , ऐसा इसलिय कयोंकि हम जिसे प्रेम समझते आये हैं वो प्रेम नही है , ये तो परमात्मा से अलगाव है, ये प्रेम नही कर रहे अपितु परमात्मा को अपने से दूर मान्ने का अभ्यास कर रहे हो.. ये प्रेम नही अल्गाव है,तो प्रेम कया है?? प्रेम रस है, प्रेम एक रूपता है , प्रेम में और तू नही है , प्रेम केवल "है" है ,
जैसे फूल में सूगंध है, ये प्रेम है.
दूध में सफेदी है, ये प्रेम है.
पृथ्वी में मिट्टि है, ये प्रेम है.
अग्नी में उष्मा है, ये प्रेम है.
ये "है" कभी अलग नही होता ,ऐसे ही आत्मा में परमात्मा है और परमात्मा में आत्मा है , ये होना नही है , ये सदा से है ,यहि प्रेम है.
ये जो आत्मा और परमात्मा को अलग मानते हो यही सारी बिमारी की जड़ है.. इनकी एकरूपता ही प्रेम है..
अब सोचो अगर दूध की सफेदी दूध से मिलना चाहे उसके लिय रेय तो ये इसलिय है कयोंकी उसने खुद को दूध से अलग होने कि मान्यता कर रख्खी है.. अगर वो ये मान्यता सदा रख्खे तो वो दूध मे होते हुये भी दूध से अल्गाव भाव में रहेगी.. और वो अपनी ये झूठी मान्यता हटा दे तो फिर प्रेम है
, ऐसा नही है कि ये प्रेम अभी हुआ है ,ये तो सदा से है बस  झूठी मान्यता के कारण हमें आभास नही हो रहा ,, इसलिय तुम्हारे बहोत प्रयास के बाद भी तुम निरंतर परमात्मा में नही लग पाते कयोंकि जिस अवस्था में तुम निरंतर परमात्मा में हो सदा से , तुमने उससे उलट मान्यता कर रखी है कि मैं परमात्मा से अलग हूं फिर कैसे निरंतर होगे..जैसे अग्नी में उष्मा है निरंतर , यही एकरसता प्रेम है.. जबतक आपकी उपस्थिती रहेगी प्रेम को नही समझपाओगे.. ये अहं समाप्त होगा तभी प्रेम दिखेगा जिसमे करना नही होता कयोंकी करने में तुम रहते हो.. करना प्रेम नही है होना प्रेम है और ये होना करना नही होता ये तो है यदा से इसलिय करने का प्रयास करोगे तो अहं आ जायेगा फिर प्रेमी हो जाओगे और प्रेम से दूर हो जाओगे..
*ए मैं मैं क्यों ए मरत नहीं,और कहावत है मुरदा। आड़े नूर जमाल के, एही है परदा।*
(श्री प्राणनाथ वाणी)

*जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहिं।
प्रेम गली अति सॉंकरी, तामें दो न समाहिं।।*
(कबीर)

*एक आशिक अपनी प्रेमिका के घर पहुँच दरवाजा खटखटाता है प्रेमिका नें पूछा कौन है प्रेमी नें जवाब दिया मैं हूँ प्रेमिका नें बगैर दरवाजा खोले कहा अच्छा अभी तक ""मैं""जिन्दा है तो यहाँ दो आदमी की जगह नहीं जब मैं खत्म हो जाऐ तब आना*

...मूल सत्य तो इस से भी गहन है..
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प्रणाम जी

Wednesday, June 21, 2017

सुप्रभात जी

जब तक आत्मपद का बोध नहीं होता और भोगों में लिप्तता का अनूभव होता है तबतक संसार समुद्र में बहे जावोगे और दुःख का अन्त न होगा । जैसे आकाश में धूलि दिखती है परन्तु आकाश को धूलि का सम्बन्ध कुछ नहीं और जैसे जल में कमल दिखता है परन्तु जल से स्पर्श नहीं करता, सदा निर्लेप रहता है, वैसे ही सवंय के बोध से रहित आत्मा देह से मिश्रित दिखती है परन्तु देह से आत्मा का कुछ स्पर्श नहीं, सदा विलक्षण रहता है जैसे सोना कीच और मल से अलेप रहता है । देह जड़ है आत्मा उससे भिन्न है अग्यान में ही सुख दुःख का अभिमान आत्मा में दिखता है वह भ्रममात्र असत्यरूप है । जैसे आकाश में दूसरा चन्द्रमा और नीला रंग असत्यरूप है वैसे ही आत्मा में सुख दुःखादि असत्यरूप हैं । सुख दुःख जीव के देह को होता है, सबसे मिर्लेप आत्मा में सुख दुःख का अभाव है । देह बोध के नाश हुए आत्मा का प्रकाश नहीं होता, इससे सुख दुःख भी आत्मा में कोई नहीं, सर्वात्मामय शान्तरूप है । यह जो विस्तृत रूप जगत् दिखाई देता है वह मायामय है, इसलिय अपने सवंय के आत्म स्वरूप में स्थापित होकर सभी प्रकार के दुखों से निवर्त होकर परम आनंद को प्राप्त करो....
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प्रणाम जी

Monday, June 12, 2017

प्रश्न - मैं सारा दिन प्रयत्न करता हूं पर विकार कम नही होते..

प्रश्न - मैं सारा दिन प्रयत्न करता हूं पर विकार कम नही होते..
उत्तर -- कयों विकार विकार करते हो, तुम कभी विकारित नही हो सकते, जिसको तुम विकार, काम,क्रोध, लोभ, मोह,अहंकार आदि मान्ते हो वो तो जीव और शरीर का विषय सम्बंध है, तुम तो शुद्ध आत्मा हो तुममें कभी विकार नही आ सकते, फिर तुम कयों व्यर्थ में सवंय को आरोपित कर रहे हो.. मत लो ये आरोप अपने उपर की तुम विकारित हो..और तुम लाख प्रयत्न करलो इस शरीर से विकार अलग नहीं होगें, कयोंकी ये इस जीव का विषय है, ये जीव और शरीर बना ही विकार से है तो इनसे अलग कैसे होगा..जैसे मिट्टी के ढेले से मिट्टी को अलग नही कर सकते कयोंकी वो बना ही मिट्टी से है, इसी प्रकार तुम भी आत्मा हो आनंद हो, तुम्हारा विषय आनंद है तुम आनंद से बने हो, तुम अपना विषय भूलकर जीव व शरीर के विषय को अपने पर आरोपित मत करो, बल्कि अपना विषय शरीर और जीव को दो ताकी यो भी तुम्हारे विषय को जान सकें..ये भी आनंदित हो सकें..
प्रणाम जी
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Saturday, June 10, 2017

*बाह्य आवरण*

बाह्य आवरण से कोई संत नही होता..जो बाह्य आवरण से संत अपने को संत प्रतीत करता है वो अहं रूप से संत होता है.. उसके अहं ने ये मान लिया है की वो संत है. अर्थात वो सवंय के व्यक्तित्व को मान्ता है अर्थात उसके और परमात्ता के बिच में ये संत या गुरू होने पन का अहं है अर्थात वो अभी विमुख है अपने वास्तविक स्वरूप से कयोंकी वो अभी अपने को वो मानता है जो वो नही है वो अभी अपने को गुरू या संत या महात्मा भक्त या परमात्मा का प्रेमी मानता है. और ये सब मान्यता की स्थितीयां हैं .अभी वो सत्य बोध से विमुख है ..जो अन्दर से अति निर्मल हो, अर्थात अत्मभाव या अदूैत भाव मे आ चुका हो..उसके लिय सब प्रकार के व्यक्तित्व समाप्त हे जाते हैं.. वो ऊपर से वेश-भूषा आदि से अपनी पहचान नही देतेे अर्थात् उनकी आन्तरिक स्थिति का का बोध उनके शब्दभाव से होता है, वही सत्य को जो की शब्दों से परे है उसी सत्य को वो शब्दभाव से समझा सकते हैं..
*शबद शबद सब कोय कहे । शबद न जाने कोय ।*
*आदि शब्द जो गुप्त है । बूझे बिरला कोय ।*
(कबीर)
वही वास्तव में परब्रह्म की पहचान रखने वाला होता है। ऐसे ही ब्रह्मज्ञानी की संगति करनी चाहिए जो व्यकतित्व रूप में ब्रह्मज्ञानी न हो ...
*कबीर जी इस विषय में कहते हैं..*
*बिन सद्गुरु कोई नाम न पावै । पूरा गुरु अकह समझावै ।*
*अकह नाम वह कहा न जाई । अकह कहि कहि गुरु समुझाई ।*
*अर्थात जो कहने में नही आता वो उसको भी समझा सकता है कययोंकी जो सतगुरू है वह सत्गुरू नही है और जो सतगुरू नही है वही सतगुरू है* (यह गहरा भेद है)
तथा उस से ही अध्यात्म के शुद्धअदूैत के गुह्य रहस्यों को जानना चाहिए..

*जो मांहें निरमल बाहेर दे न देखाई, वाको पारब्रह्मसों पेहेचान।*
*महामत कहे संगत कर वाकी, कर वाही सों गोष्ट ग्यान।।*
(श्री प्राणनाथ वाणी)
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प्रणाम जी

Thursday, June 8, 2017

पद गाए मन हरषियां, साषी कह्यां अनंद ।
सो तत नांव न जाणियां, गल में पड़िया फंद ॥

भावार्थ - मन हर्ष में डूब जाता है भजन गाते हुए ऐसा प्रतीत होता है की हम परमात्मा से बात कर रहे हैं,  परन्तु यह भजन से उत्पन्न मन का खेल होता है,और कथा सुन्ने  में भी मन ही खेलता है । लेकिन अगर अदूैतरूपी सारतत्व को नहीं समझा, और आनंदरूपी मर्म न समझा, तो गले में फन्दा ही पड़नेवाला है | अर्थात सत्यअदैतआनंदरस्वरूप बृह्म को जाने बिना कुछ भी करलो सब व्यर्थ है..

वेद में कहा है- उस धीर, अजर, अमर, नित्य तरुण परब्रह्म को ही जानकर विद्वान पुरुष मृत्यु से नहीं डरता है (अथर्ववेद १०/८/४४ )

इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति ।
न चेदिहावेदीन महती विनष्टिः ॥

’यदि इस जीवन में ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर लिया या परमात्मा को जान लिया, तब तो जीवन की सार्थकता है और यदि इस जीवन में परमात्मा के अदूैत भाव को नहीं जाना तो महान विनाश है ।’ (केनोपनिषद : २.५)
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प्रणाम जी

Wednesday, June 7, 2017

*ग्यान v/s प्रेम*
अक्सर लोग इस विषय पर बहस करते हैं |
जिन लोगो को या ग्यानीयों को ग्यान में आनंद आता है वो प्रेम को ज्यादा अहमियत नही देते, वो अपने आप को अपने स्थान पर सही मानते है व प्रेम के लिय ग्यान से मिलने वाले आनंद को छोड़ना नही चाहते..
वहीं जो प्रेमी होते हैं वो प्रेम में ही आनंद लेते है रोते हैं रिझाते हैं | ये भी अपने को ग्यानीयों से सही मान्ते हैं व प्रेम से मिलने वाले आनंद को छोड़ नही सकते..
इसलिय ये दो मार्ग बन गये..
*अब प्रश्न उठता है की सही मार्ग कौन सा है और कया वो इन दोनो से अलग है और यह भी कहा गया है की सभी मार्ग परमात्मा की और जाते हैं फिर गलत कया है ???*
इन सभी शंकाओं का निवारण आज हम इस पोस्ट में करेंगें तो ध्यान से पढिये...
तो ध्यान दो ग्यान और प्रेम ये दो वस्तुऐ नही हैं, ये एक ही वस्तु के दो नाम याहां ध्यान देने वाली बात यह है की ग्यानी और प्रेमी ये दो अलग भाव के नाम हैं ये दूैत के नाम हैं पर ग्यान व प्रेम दो नही हैं यह एक ही है.. ये अदूैत के भाव हैं |
ग्यान व प्रेम एक कैसे है ?
जब ग्यानी और प्रेमी समाप्त हो जाता है तब ग्यान और प्रेम शेष रहता है यह वही है जो सत्य है नित्य है और जो आनंद है यही आत्मा है यही परमात्मा है यही ग्यान है यही प्रेम है | इसलिय ये एक ही है दो नही है.. ग्यानी और प्रेमी दो हैं कयोंकी इनमें अहं विद्यमान रहता है अहं से ही ग्यानी और प्रेमी हो जाते हैं|
सभी मार्ग परमात्मा की और जाते हैं फिर गलत कया है ???
ग्यानी को ग्यान में *आनंद* आता है प्रेमी को प्रेम में *आनंद* आता है दोनो अपने को सही मानते हैं कयोंकी दोनो को *आनंद* आता है | याहां ध्यान देने वाली वाल यह है की दोनो में आनंद की समानता है , दोनो का जो कोमन भाव है वह आनंद है और आनंद ही आत्मा है आनंद ही परमात्मा या बृह्म है, तो अब बात को ध्यान से पकडना की आनंद कही बाहर से नही आता ये दोनो का सवंय का ही आनंद है जो उन्हे ग्यानी और प्रेमी होने मे भास हो रहा है इसलिय मार्ग दोनो का एक ही है *आनंद* इसलिय सभी मार्ग आनंद की और ही जाते है पर इनमें जो गलत है वो है *अहं* जिस की उपस्थिती से ग्यानी और प्रेमी हो जाते हो.. भोग व योग में भी आनंद है कयोंकी सब आनंद से ही बना है पर अहं के कारण भोगी व योगी हो जाते हो.. तो सभी मार्ग जैसे कर्म, ग्यान, योग, भक्ती, प्रेम, या भोग सभी आनंद के ही मार्ग हैं पर ये सभी अहं के कारण सत्य से विमुख हैं, अहं समाप्ती के बाद सब एक ही हैं दो तीन या चार नही हैं....
प्रणाम जी
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Tuesday, June 6, 2017

जनक को शुकजी ने कहा कि भगवन् जो कुछ तुम कहते हो वही मेरे पिता भी कहते थे , वही शास्त्र भी कहता है और विचार से मैं भी ऐसा ही जानता हूँ कि यह संसार मान्यता से उत्पन्न होता है और मान्यता हटने से भ्रम की निवृत्ति होती है,पर मुझको आनंद नहीं प्राप्त होता है ? जनकजी बोले, हे मुनीश्वर ! जो कुछ मैंने कहा और जो तुम जानते हो इससे पृथक उपाय न जानना और न कहना ही है । यह संसार चित्त के संवेदन से हुआ है, जब चित्त भटकाव से रहित होता है तब भ्रम निवृत्त हो जाता है । आत्मतत्त्व नित्य शुद्ध; परमानन्दरूप केवल चैतन्य है, जब उसका अभ्यास करोगे तब तुम आनंद पावोगे । तुम अधिकारी हो, क्योंकि तुम्हारा यत्न आत्मा की ओर है, दृश्य की ओर नहीं, इससे तुम बड़े उदारात्मा हो । हे मुनीश्वर! तुम मुझको व्यासजी से अधिक जान मेरे पास आये हो, पर तुम मुझसे से भी अधिक हो , क्योंकि हमारी चेष्टा  बाहर से कुछ भी नहीं,  तब शुकजी ने निःसंग निष्प्रयत्न और निर्भय होकर अदूैतचेतन का अभ्यास किया। जैसे समुद्र में बूँद लीन हो जाती है और जैसे सूर्य का प्रकाश सन्ध्याकाल में सूर्य के पास लीन हो जाता है वैसे ही कलनारूप कलंक को त्यागकर वे ब्रह्मपद को प्राप्त हुए ...*निष्कर्ष यह है की हमें जो दृष्यमान है इसका अनंत काल से अभ्यास है पर जो दृष्य में आनंद प्रतीत होता है जो हमारा नित्य स्वरूप है उसका हमें अभ्यास करना है*
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प्रणाम जी

Sunday, June 4, 2017

तो अगर तुम्हें कभी भीतर का रस जन्मने लगे और भीतर स्वाद आने लगे.. और देर नहीं लगती आने में, जरा भीतर मुड़ो कि वह सब मौजूद है। सरोवर की तरफ पीठ किये खड़े हो, इसलिए प्यासे हो। बदलो रुख, संसार की तरफ पीठ करो और अपनी तरफ मुंह करो। और तुम चकित हो जाओगे कि क्यों तुम प्यासे थे इतने दिन तक! तुम रोओगे इसलिए कि कितना गंवाया और हसोगे इसलिए कि यह भी खूब रही, जो अपने पास था उसकी तलाश कर रहे थे! जो मिला ही था उसे खोजने निकले थे, और नहीं मिलता था तो तड़प रहे थे, परेशान हो रहे थे। और मिल सकता नहीं था, क्योंकि जो भीतर होगा बाहर नहीं मिलेगा। जो जहां है वहीं मिलेगा...
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Friday, June 2, 2017

*ज्ञान कया है*

एक मार्मिक बात है कि सबके परिवर्तन का ज्ञान होता है, पर स्वयंके परिवर्तन का ज्ञान कभी किसी को नहीं होता। सबका एकरूपता से ज्ञान होता है, पर अपने स्वरूप का एकरूपता या समरूपता से ज्ञान कभी किसी को नहीं होता सबके अभाव का ज्ञान होता है, पर अपने अभाव का ज्ञान कभी किसी को नहीं होता। तात्पर्य है कि ‘है’ (आनंदस्वरूप) में हमारी स्थित स्वतः है करनी नहीं है। भूल यह होती है कि हम ‘संसार है’—इस प्रकार ‘नहीं’ में ‘है’ का आरोप कर लेते हैं। ‘नहीं’ में ‘है’ का आरोप करने से ही ‘नहीं’ (संसार) की सत्ता दीखती है और ‘है’ की तरफ दृष्टि नहीं जाती। वास्तव में ‘है में संसार’—इस प्रकार ‘नहीं’ में ‘है’ का अनुभव करना चाहिये। ‘नहीं’ में ‘है’ का अनुभव करने से ‘नहीं’ नहीं रहेगा और ‘है’ रह जायगा।
*गीता कहती हैं।*

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।
(गीता 2। 16)

‘असत् की सत्ता विद्यमान नहीं है अर्थात् असत्का अभाव ही विद्यमान है और सत् का अभाव विद्यमान नहीं है अर्थात् सत् का भाव ही विद्यमान है।’

एक ही देश काल वस्तु, व्यक्ति, अवस्था, परिस्थिति आदि में अपनी जो सत्ता दीखती है, वह अहम् (व्यक्तित्व, मान्यता) को लेकर ही दीखती है। जबतक अहम रहता है, तभी तक मनुष्य अपने को एक देश, काल आदि में देखता है। अहम् के मिटने पर एक देश, काल आदि में दिखनेवाली सत्ता नहीं रहती, प्रत्युत नहीदिखनेवाली सत्तामात्र रहती है।

वास्तव में अहम है नहीं, प्रत्युत केवल उसकी मान्यता है। सांसारिक पदार्थों की जैसी सत्ता प्रतीत होती है, वैसी सत्ता भी अहम् की नहीं है। सांसारिक पदार्थ तो उत्पत्ति-विनाशवाले हैं, पर अहम् उत्पत्ति-विनाशवाला भी नहीं है। इसलिये परमतत्त्वबोध होने पर शरीरादि पदार्थ तो रहते हैं, पर अहम् मिट जाता है।

अतः परमतत्त्वबोध होने पर ज्ञानी नहीं रहता, प्रत्युत ज्ञानमात्र रहता है। इसलिये आजतक कोई ज्ञानी हुआ नहीं, ज्ञानी है नहीं, ज्ञानी होगा नहीं और ज्ञानी होना सम्भव ही नहीं। अहम् ज्ञानी में होता है, ज्ञान में नहीं। अतः ज्ञानी नहीं है, प्रत्युत ज्ञानमात्र है, सत्तामात्र है।  उस ज्ञानका कोई ज्ञाता नहीं है, कोई धर्मी नहीं है, मालिक नहीं है। कारण कि वह ज्ञान स्वयंप्रकाश है, अतः स्वयं से ही स्वयं का ज्ञान होता है। वास्तव में ज्ञान होता नहीं है, प्रत्युत अज्ञान मिटता है। अज्ञान मिटाने को ही परमतत्त्वज्ञान का होना कह देते हैं।
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Thursday, June 1, 2017

*तत्त्वज्ञान का सहज उपाय, यह समझ आ गया तो आधा काम बन जायेगा*

हमारा स्वरूप आनंदस्वरूप है और उसमें अहम् नहीं है—यह बात यदि समझ में आ जाय तो इसी क्षण जीवनमुक्ति है ! इसमें समय लगने की बात नहीं है। समय तो उसमें लगता है, जो अभी नहीं और जिसका निर्माण करना है। जो अभी है, उसका निर्माण नहीं करना है, प्रत्युत उसकी तरफ दृष्टि डालनी है, उसको स्वीकार करना है जैसे—

*संकर सहज सरूपु सम्हारा। लागि समाधि अखंड अपारा।।*
(मानस, बाल. 58/4)

दो अक्षर हैं—‘मैं हूँ’। इसमें ‘मैं’ प्रकृति का अंश है और ‘हूँ’ परमात्मा का अंश है। ‘मैं’ जड़ है और ‘हूँ’ चेतन है। ‘मैं’ आधेय है और ‘हूँ’ आधार है। ‘मैं’ प्रकाश्य है और ‘हूँ’ प्रकाशक है। ‘मैं’ परिवर्तनशील है और ‘हूँ’ अपरिवर्तनशील है। ‘मैं’ अनित्य है और ‘हूँ’ नित्य है। ‘मैं’ विकारी है और ‘हूँ’ निर्विकार है। ‘मैं’ और ‘हूँ’ को मिला लिया—यही मान्यता (जड़ में चेतन की मान्यता) है, यही बन्धन है, यही अज्ञान है। *यही अहं है* ‘मैं’ और ‘हूँ’ को अलग-अलग अनुभव करना ही आत्मबोध है मूलतत्त्वबोध है। यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि ‘मैं’ को साथ मिलाने से ही ‘हूँ’ कहा जाता है। अगर ‘मैं’ को साथ न मिलायें तो ‘हूँ’ नहीं रहेगा, प्रत्युत ‘है’ रहेगा। वह ‘है’ ही अपना स्वरूप है। इसमें अहं नही है यह निर्विकार है, इसमें अस्तित्व नही है..

एक ही व्यक्ति अपने बापके सामने कहता है कि ‘मैं बेटा हूँ’, बेटे के सामने कहता है कि ‘मैं बाप हूँ’, दादा के सामने कहता है कि ‘मैं पोता हूँ’, पोता के सामने कहता है कि ‘मैं दादा हूँ’, बहन के सामने कहता है कि ‘मैं भाई हूँ’, पत्नी से के सामने कहता है कि ‘मैं पति हूं’, भानजे के सामने कहता है कि ‘मैं मामा हूँ’, मामा के सामने कहता है कि ‘मैं भानजा हूँ’ आदि-आदि। तात्पर्य है कि बेटा, बाप, पोता, दादा, भाई, पति, मामा, भानजा आदि तो अलग-अलग हैं, पर ‘हूँ’ सबमें एक है। ‘मैं’ तो बदला है, पर ‘हूँ’ नहीं बदला। वह ‘मैं’ बाप के सामने बेटा हो जाता, बेटे के सामने बाप हो जाता है अर्थात् वह जिसके सामने जाता है, वैसा ही हो जाता है। अगर उससे पूछें कि ‘तू कौन है’ तो उसको खुद का पता नहीं है ! यदि ‘मैं’ की खोज करें तो ‘मैं’ मिलेगा ही नहीं, प्रत्युत सत्ता मिलेगी। कारण कि वास्तव में सत्ता ‘है’ की ही है, ‘मैं’ की सत्ता है ही नहीं।

बेटे की अपेक्षा बाप है, बापकी अपेक्षा बेटा है—इस प्रकार बेटा, बाप, पोता, दादा आदि नाम अपेक्षासे (सापेक्ष) हैं; अतः ये स्वयं के नाम नहीं हैं। स्वयं का नाम तो निरपेक्ष ‘है’ है। वह ‘है’ ‘मैं’ को जाननेवाला है। ‘मैं’ जाननेवाला नहीं है और जो जाननेवाला है, वह ‘मैं’ नहीं है। ‘मैं’ ज्ञेय (जानने में आनेवाला) है और ‘है’ ज्ञाता (जाननेवाला) है। ‘मैं’ एकदेशीय है और उसको जानने वाला ‘है’ सर्वदेशीय है। ‘मैं’ से सम्बन्ध मानें या न मानें, ‘मैं’ की सत्ता नहीं है। सत्ता ‘है’ की ही है। परिवर्तन ‘मैं’ में होता है, ‘है’ में नहीं। ‘हूँ’ भी वास्तव में ‘है’ का ही अंश है। परमात्मा से अलग मान्यता से ही वह अंश है। अगरअगर परमात्मा से अलग नही हो का बोध हो जाये तो वह अंश (‘हूँ’) नहीं है,  ‘है’ (स्वरूप है) ‘मैं’ अहंता और ‘मेरा बाप, मेरा बेटा’ आदि ममता है। अहंता-ममतासे रहित होते ही मुक्ति है—
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति।।
(गीता 2/71)
यही ‘ब्राह्मी स्थिति’ है। इस ब्राह्मी स्थितिको प्राप्त होनेपर अर्थात् ‘है’ में स्थिति का अनुभव होने पर शरीर का कोई मालिक नहीं रहता अर्थात् शरीर को मैं—मेरा कहनेवाला कोई नहीं रहता।

मनुष्य है, पशु है, पक्षी है, ईंट है, चूना है, पत्थर है—इस प्रकार वस्तुओं में तो फर्क है, पर ‘है’ में कोई फर्क नहीं है। ऐसे ही मैं मनुष्य हूँ, मैं देवता हूँ, मैं पशु हूँ, मैं पक्षी हूँ—इस प्रकार मनुष्य आदि योनियाँ तो बदली हैं, पर स्वयं नहीं बदला है। अनेक शरीरों में, अनेक अवस्थाओं में चिन्मय सत्ता एक है। बालक, जवान और वृद्ध—ये तीनों अलग-अलग हैं, पर तीनों अवस्थाओं में सत्ता एक है। कुमारी, विवाहिता और विधवा—ये तीनों अलग-अलग हैं, पर इन तीनोंमे सत्ता एक है। जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, मूर्च्छा और समाधि—ये पाँचों अवस्थाएं अलग-अलग हैं, पर इन पाँचों में सत्ता एक है। अवस्थाएँ बदलती हैं, पर उनको जाननेवाला नहीं बदलता। ऐसे ही मूढ़, क्षिप्त, विक्षिप्त, एकाग्र, और निरुद्ध—इन पाँचों वृत्तियों में फर्क पड़ता है, पर इनको जाननेवाले में कोई फर्क नहीं पड़ता।

*एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।।*
(गीता) 2/72)
'हे पार्थ ! यह ब्राह्मी स्थिति है। इसको प्राप्त होकर कभी कोई सम्मोहित नहीं होता। इस स्थिति में यदि अन्तकाल में भी स्थित हो जाय तो निर्वाण (शान्त,आनंद) ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है।
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Wednesday, May 31, 2017

*कृपया संकिर्ण मानसिकता वाले ये लेख ना पढ़ें*

जागनी या जाग्रती कया है??

शारीरिक भाव से आत्मिक अनुभव में आना जागर्ती है.. जागनी शारीरिक बंधनो सेे निकल कर आत्मिक उन्मुक्तता में आने का नाम है..आत्मिक पहचान होना जागनी है.. जागनी से शरीर के निमित सभी बन्धन जैसे सम्प्रदायवाद, जप, स्थानवाद, चित्रवाद, आदी आदी सभी बंधन स्वतः ही छूट जाते हैं इन्हे छोडना नही पड़ता..

जागनी कया नही है..
*पायो निजनाम आत्मा जागी* गाने से जाग्रती नही आती, हां इसके पिछे जो भाव है वो जरूर जाग्रती से सबंध रखता है...भाव यह है की पायो नित नाम अर्थात
निज= सवंय
नाम= पहचान
*सवंय की पहचान होने से आत्म जागर्ती या जागनी होती है* ( पायो निजनाम आत्मा जागी)
इसका भाव न जानने के कारण शब्दो को पकड़ कर खुद के बंधन बढ़ा लेते है...अपने को और नये नियमों में बांध लेते हैं..
निष्कर्ष यह है की हमें जागनी समझे जाने वाले सभी बंधनो को त्याग कर आत्म जाग्रती की और बढ़ना ही पड़ेगा..
*जो अनभिज्ञ हैं कि वे अँधेरे में चल रहे हैं वे कभी प्रकाश की तलाश नहीं करेंगे।*
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Monday, May 29, 2017

सुप्रभात जी

जागृति satsangwithparveen.blogspot.com
हे आनंद के अभीप्सु ! परम सत्य के पुजारी! उठ! अदूैत में में जाग। उस अमृतमय आनंद को हृदयंगम कर। तुझे सत्य पथ प्राप्त होगा। तू आत्म-चेतना में उठेगा। आत्म-सत्य में जागेगा। आत्म-उपलब्धि रूपी पीयूष-सिंधु पर तेरा अधिकार होगा।
तू शरीर रूपी इस पिंजरे से सोचने विचारने वाला प्राणी मात्र नही है। तेरे इस मृण्मय शरीर में अमर आत्मा का, एक दिव्य पुरूष का निवास है। वह तेरे अस्तित्व का सच्चा स्वामी  है। उस सवंय को ढूंढ। आंतरिक खोज को जीवन लक्ष्य के रूप में चुन। अगर तू अपनी खोज में सच्चा रहेगा, अगर तेरी अभीप्सा में शारिरीक चेसटा की अपेक्षा आत्मिक चेस्टा है तो तू आत्म जाग्रती में अवश्य सफल होगा और देखेगा कि तू अमर आत्मा है, यह दिव्य पुरूष (आनंद=परमात्मा)तेरे अंदर ही है। इसे जानने के पश्चात् तू असहाय-सा प्राणी होकर पृथ्वी पर नही भटकेगा। सब प्रकार की अकिंचनताएं तेरे मन से झड़ जाएंगी। विचार तेरे दिव्य स्वभाव के अनुरूप हो उठेंगे । इंद्रियां तेरा आदेश पालन करेंगी । तेरा शरीर एक शुद्ध समर्पित यंत्र के रूप में कार्य करेगा। तू अपने आपको आज की भॉंति अपनी प्रकृति के दास के रूप में नहीं वरन् इसके स्वामी के रूप में पायेगा। एक बार जहां आत्मा का साक्षात् हुआ, अंतस्थ सत्ता से तादात्म्य स्थायी बना, तू क्षुद्र प्राणी की जगह अपने आपको भूमा, विराट अनंत आनंद के रूप में अनुभव करेगा। वही तेरी सत्य और नित्य स्थिति है और इसके साथ ही समझेगा कि यह सब जो तेरी असहाय अवस्था थी, केवल एक नाटक था। सृष्टि मंच पर तेरा एक अभिनय था.
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प्रणाम जी

Sunday, May 28, 2017

सवंय का संग ही सतसंग है.. तुम सवंय ही सत्य हो आनंद हो.. इसके अलावा कोई सत्यसंग नही है..अगर बाहर कहीं सतसंग करने जाते हो तो  झूठ को सत्य समझ कर भ्रमित हो रहे हो.. सत्य को पाना है तो तुरंत दिशा बदलो इससे पहले की शरीर बदल जाये..
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Saturday, May 27, 2017

सुप्रभात जी

वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! *आत्मबोध* के बारे में मैं तुम को बारम्बार सार कहता हूँ कि आत्मा का साक्षात्कार अदूैत के अभ्यास बिना न होगा | यह जो अज्ञान अविद्या है यह अनन्त जन्म का दृढ़ हुआ भ्रम है..

हे राम जी! जो कुछ  *बहिर्मुख* वृत्ति है सो अविद्या है, क्योंकि वह वृत्ति आत्मतत्त्व  से परेे  है और जो अन्तर्मुख आत्मा की ओर  है सो विद्या , यही अविद्या का नाश करेगी |

*अविद्या के दो रूप हैं-एक प्रधान रूप और दूसरा निकृष्टरूप है |*

 अविद्या से विद्या उपजकर अविद्या का नाश करती है और फिर आप भी नष्ट हो जाती है |(कयोंकी प्रमातमा विद्या और अविद्या से परे है..इन दोनो के समाम्त होने पर ही वो मिलता है) जैसे बाँस से अग्नि उपजती है और बाँस को जलाकर आप भी शान्त हो जाती है वैसे ही जो अन्तर्मुख है सो  विद्या है और जो बहिर्मुख है अविद्या का नाश करती है | हे रामजी | अभ्यास बिना कुछ सिद्ध नहीं होता | जो कुछ किसी को प्राप्त होता है सो अभ्यासरूपी वृक्ष का फल है | अनंत काल जो अविद्या का दृढ़ अभ्यास हुआ है तब अविद्या दृढ़ हुई है | जब आत्मज्ञान के लिय यत्न करके दृढ़ अभ्यास करोगे तब अविद्या नष्ट हो जायेगी |
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प्रणाम जी

Tuesday, May 23, 2017

तत्व ज्ञान की सबसे पहली सीढ़ी है इस बात का चिंतन करना "मैं नित्य चेतन आत्मा हूँ। शरीर नहीं हूँ" और मैं प्रमात्मा से अलग नही हूं | आपने अपने को देह मान लिया है और अपने को प्रमात्मा से अलग मानते हो, बस यहीं से सारी गड़बड़ शुरू होती
है। जैसे गणित में यदि पहले कदम पे ही गलती हो जाये तो फिर आगे गलती होती ही जाती है। इसी प्रकार स्वयं को शरीर मान लेने से हम गलत दिशा में चलते जाते हैं। अत: सदा सावधान रहो एवं नित्य अभ्यास करो। हम शरीर नहीं आत्मा हैं और प्रमात्मा में ही है बस इस बात का बोध होना है..

पेहेले आप पेहेचानो रे साधो, पेहेले आप पेहेचानो ।
बिना आप चीन्हें पार ब्रह्मको, कौन कहे मैं जानो।।
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Monday, May 22, 2017

तीर्थ कया है ?

यैः तरन्ति तानि तीर्थानि’ अर्थात् मनुष्य जिस माध्यम भवसागर से पार हो, वही तीर्थ है। *प्रेम* ही वास्तविक तीर्थ है। निरर्थक इधर उधर भटकते रहना तथा नदियों के जल में डुबकी लगाकर जड़ पदार्थों की परिक्रमा करना तीर्थ नहीं है।
आजन्म मरणान्तं च गंगादि तटनीस्थिता:।
मण्डूक मत्स्य प्रमुखा योगिनस्ते भवन्ति किम्।।
(गरुड़ पुराण १६/६८)
जन्म से लेकर मरण पर्यन्त गंगाजी के तट पर पड़े रहने के कारण लोग यदि योगी हो जाये तो फिर वे मेढक और मत्स्य आदि क्यों नहीं योगी हो सकते.

*सच्चा तीर्थ वह है, जिसमें अपने दूैत रूप के अलावा अदूैत स्वरूप का भी बोध हो व आत्मा व परमात्मा के एकत्व भाव का भान हो*। इसमें कर्मों का कोई भी बन्धन नहीं लगता और वास्तविक तीर्थ यात्रा का लाभ मिलता है। अर्थात तिर्थ तन से नही होता यह आत्मिक विषय है ..तन को कष्ट देने से परमात्मा नही मिलते...

तावत्तपो व्रतं तीर्थं जप होमार्चनादिकम्।
वेदशास्त्रागम कथा यावत्तत्त्वं न विन्दति।।
(गरुड़ पुराण १६/९८)
तब तक ही तप, व्रत, तीर्थाटन, जप, होम और देवपूजा आदि हैं तथा तब तक ही वेदशास्त्र और आगमों की कथा है जब तक कि परमतत्त्व का बोध प्राप्त नहीं होता;  परमतत्त्व का बोध प्राप्त होने पर इनसबका कुछ भी अर्थ नहीं रह जाता है...
इसलिय तिर्थ आदी मे भटकने की अपेक्षा परमतत्व की खोज करो जो कहीं बाहर नही है हमारे आत्महृदय में ही है...
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प्रणाम जी

Sunday, May 21, 2017

प्रश्न - *आप कहते हो की ध्यान या चितवनी मन का खेल है..तो आत्मिक ध्यान या चितवनी कया है??*

उत्तर- ध्यान का सन्धि विछेद.. अनुभव और आनंद |
ध्यान में जो बाहर या अंदर दिख रहा है वो सब ध्यान में होने वाले अनुभव हैं..ये सब मिथ्या है..मनका खेल है..यह बाह्य विषय है..

और जो ध्यान में आनंद महसूस होता है वह आपका आन्तरिक विषय है.. यही सत्य है , यही पकड़ना है, यही ध्यान का उदेश्य है..इसी में आगे बढ़ोगे तो सवंय का ध्यान होगा यही चितवनी है..

यह भेद ना जान पाने के कारण हम ध्यान में होने वाले अनुभव को ही आनंद समझ लेते है और आत्मिक विषय से वंचित रह जाते हैं..
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Saturday, May 20, 2017

वंदनीय है उपनिषत

वंदनीय है उपनिषत , यामे ज्ञान महान।
श्याम प्रेम बिनु ज्ञान सो , प्राणहीन तनु जान।।

भावार्थ - उपनिषत् का ग्यान महान हैं। अतः वन्दनीय हैं। उनमें अनंत ज्ञान भरा पड़ा है। उपनिषद के ग्यान को दंडवत प्रणाम है..किन्तु अगर किसी भी ग्यान से परमात्मा का प्रेम(प्रेम अर्थात एकरसता) नहीं बढ़ता तो वह ज्ञान , प्राणहीन शरीर के समान है।

 एक बहुत बड़े सूफी फकीर हसन के पास एक युवक आया। वह बहुत कुशल तार्किक था पंडित था, शास्त्रों का ज्ञाता था। जल्दी ही उसकी खबर पहुंच गई और हसन के शिष्यों में वह सब से ज्यादा प्रसिद्ध हो गया। दूर—दूर से लोग उससे पूछने आने लगे। यहां तक हालत आ गई कि लोग हसन की भी कम फिक्र करते और उसके शिष्य की ज्यादा फिक्र करते। क्योंकि हसन तो अक्सर चुप रहता। और उसका शिष्य बड़ा कुशल था सवालों। को सुलझाने में।
एक दिन एक आदमी ने हसन से आकर कहा, इतना अदभुत शिष्य है तुम्हारा! इतना वह ग्यान जानता है कि हमने तो दूसरा ऐसा कोई आदमी नहीं देखा। धन्यभागी हो तुम ऐसे शिष्य को पाकर। हसन ने कहा कि मैं उसके लिए रोता हूं क्योंकि वह केवल जानता है। और जानने में इतना समय लगा रहा है कि आत्मभावना कब कर पाएगा? परमात्मा से प्रेम  (प्रेम अर्थात एकरसता)  कब कर पाएगा? जानने में ही जिंदगी उसकी खोई जा रही है, तो परआत्मसंयोग कब करेगा? मैं उसके लिए रोता हूं। उसको अवसर भी नहीं है, समय भी नहीं है। वह बुद्धि से ही लगा हुआ है।

बुद्धि से सब कुछ मिल जाए, प्रेम का स्रोत नहीं मिलता। वह वहा नहीं है।  बुद्धि एक उपयोगिता है; एक यंत्र ‘ है, जिसकी जरूरत है। लेकिन वह आपसवंय नहीं हैं। जैसे हाथ है, ऐसे बुद्धि एक आपका यंत्र है। उसकी उपयोग करें, लेकिन उसके साथ एक मत हो जाएं। उसका उपयोग करें और एक तरफ रख दें। प्रेम से ही परमात्मा मिलेंगे... (प्रेम अर्थात एकरसता)
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प्रणाम जी

Friday, May 19, 2017

समप्रदाय
जिन लोगो को निज आनंद का बोध नही है.. उनको ही निजानंद समप्रदाय(समप्रदायवाद) के रूप में भाषित होता है...
प्रणाम जी

Thursday, May 18, 2017

सुप्रभात जी

माया के इस लुभावने खेल को देखकर साधू-सन्त प्रत्यक्ष रुप से सावधान करते हैं। सच तो ये है की हम माया को ठगने में लगे रहते है और माया हमारे को ठगने में लगी रहती है इस प्रकार दोनों ठग एक दूसरे को ठगते रहते हैं।

भ्रम के कारण हम समझते हैं कि हम माया को भोग रहें है जबकि माया जन्म-जन्मान्तर से हमारा भोग कर रही है..
माया भय का दूसरा नाम है भय से चिंता और चिंता से रोग उत्पन्न होते हैं..
भर्तृहरिजी कहते हैं—
भोगे रोगभयं कुले च्युतिभयं वित्ते नृपालाद्भयं
माने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपे जराया भयम् ।
शास्त्रे वादभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयं
सर्व वस्तु भयान्वितं भुवि नृणां वैराग्यमेवाभयम्

‘भोगोंमें रोगादिका, कुलमें गिरनेका, धनमें
राजाका, मानमें दैन्यका, बलमें शत्रुका, रूपमें
बुढ़ापेका, शास्त्रमें विवादका, गुणमें दुर्जनका
और शरीरमें मृत्युका भय सदा बना रहता है । इस
पृथ्वीमें मनुष्योंके लिये सभी वस्तुएँ भयसे युक्त हैं ।
एक मात्र सत्य वैराग्य (आत्मा-परमात्मा का अभेद बोध)ही ऐसा है, जो सर्वथा भयरहित है !’
तुम इसमें बाह्य रुप से रहते हुए भी आन्तरिक रुप से अलग ही रहो, जिससे तुम्हें माया के अथाह बन्धनों से छुटकारा मिल सके।  बार-बार इस प्रकार का उत्तम समय नहीं आने वाला है और न कोई तुम्हें इस प्रकार बोल- बोलकर समझायेगा। आत्मज्ञान द्वारा प्रबोधित होने के पश्चात् तुम सबके सत्य कथनों के सार तत्व को ग्रहण करो।  उस सार का भी सार यह है कि उस सच्चिदानन्द परब्रह्म के साथ अपना अटूट बन्धन जानो जो सदा है कभी टूटा नही था.. और उनके अखण्ड प्रेम तथा आनन्द में हमेशा डूबे रहो। माया के कार्यों को करते हुए भी माया में लिप्त न हो। इसका परिणाम यह होगा कि तुम्हारी दृष्टि माया पर नही रहेगी व  जीव के हृदय में भी माया की चाहना नहीं रहेगी।
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प्रणाम जी

Sunday, May 14, 2017

होना सत्ता है, *है* परमात्मा है..

उस है का विस्तार और लय को होना कहा गया है कयोंकी ये होता है. यही माया है..

जो है सदा से सदा तक, जीसमें होना नही है , वह तो *है* ही ,अनंत से वही शब्द में परमात्मा है..

जो *है* को जान्ता है वह होने में है को देखलेता है..
जो *है* को नही जान्ता वह होने में भ्रमित रहता है..
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Thursday, May 11, 2017

मंदिर के द्वार को उसका द्वार मत समझ लेना, क्योंकि मंदिर के द्वार में तो अहं, वासना ( इच्छाऐं )सहित आप जा सकते हैं।
उसका द्वार तो आपके ही हृदय में है। और उस हृदय पर ये अहं ओर दूैतवादी इच्छाओं की ही दीवार है। वह दीवार हट जाए, तो द्वार खुल जाए..
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