Wednesday, December 28, 2016

ग्यान और अग्यान ..

कभी भूलकर भी मत कहना की इस या उस संत ने बृह्म को प्राप्त किया है. बृह्म को प्राप्त वो कर सकता है जो बृह्म से बडा हो , जो प्राप्त हो सके वो बृह्म नही है. बृह्म तो सदा से ,अनादी काल से तुम में ही है.. फिर कया प्राप्त करना चाहते हो . कया ये घोर अग्यान नही है कि तुम उसे प्राप्त करना चाहते हो जो तुम में ही है.. बस तुम उसके तुममें होने के बोध में नही हो .. वो तुममें है सदा से ,निरंतर , इस बोध में बोधित रहना ही ग्यान है, योग है, प्रेम है, अदूैत भाव है, शुद्ध अन्यता है, अखंड आनंद है,

इस विषय के समानान्तर ही ओशो के विचार है..
जो कहते हैं : हमें परमात्मा का दर्शन हुआ है, वे गलत ही बात कहते हैं।

दर्शन तो पराए का हो सकता है, स्वयं का कैसे दर्शन होगा!

स्वयं के दर्शन का कोई उपाय नहीं है।

आत्म—दर्शन शब्द भी गलत है।

आत्म—अनुभूति होती है, दर्शन नहीं होता।

दर्शन का तो मतलब है दो हो गए—द्रष्टा और दृश्य।
वहां तो एक ही है, वहां कोई द्रष्टा नहीं, कोई दृश्य नहीं।

एक पुलक होती है; एक भाव—दशा होती है।

जिसको बुद्ध संवेग कहते हैं।
एक संवेग होता है। तुम जान लेते हो, बिना जाने।
पहचान लेते हो, बिना पहचाने।
सामने कोई दिखायी नहीं पड़ता।

असल में तो
जब सामने कुछ भी नहीं दिखायी पड़ता,

जब सब दृश्य खो जाते हैं,
|| ओशो ||

..इसी बोध के बिषय में वेद कहता है..

"" प्रकृति के अन्धकार से सर्वथा परे सूर्य के समान प्रकाशमान स्वरूप वाले परमात्मा को मै जानता हूँ , जिसको जाने बिना मृत्यु से छुटकारा पाने का अन्य कोई भी उपाय नहीं है (यजुर्वेद ३१/१८) """

अर्थात उसे पाना नही है वो तुममें है ये जान्ना है..पाया हूआ है सदा से ,बस उस पाई हुई स्थिती को जानलो बस मिल गया आनंद, वेद भी बार बार यही कह रहा है..की

""उस धीर, अजर, अमर, नित्य तरुण परब्रह्म को ही जानकर विद्वान पुरुष मृत्यु से नहीं डरता है (अथर्ववेद १०/८/४४ )""
*अर्थात पाना नही है, वो तुममें ही है ये जान्ना है..*
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प्रणाम जी

Tuesday, December 27, 2016

*निस्काम होना कया है?*

निष्काम भक्ति का अर्थ है जिसमें कोई भी कामना ना हो.. इसको समझना थोडा कठिन हो सकता है..कयोंकी हमें जो बताया या रटवाया गया है वो केवल साकाम ही है , इसलिय निष्काम भाव हमारे लिय नया विषय है जिसको पचा पाना थोडा कठिन हो सकता है.. आइये निष्काम भाव को जान्ने का प्रयास करते हैं.. अगर एक लाइन में समझें तो..

*साकाम याने जो हमसे अलग है अर्थात जो हमारे पास नही है उसकि कामना साकाम है..*
*और जो हमसे अलग नही है जो हमारा है उसकी कामना नही होती.. उसके प्रती हम निस्काम रहते है..*
पर केवल इतने से समझ में आने वाला नही है इसलिय इसे एक उदाहरण से समझें ---

*साकाम का अर्थ है केवल परमात्मा को चाहना याने अन्नय भाव!!!*
*जिसे आप निस्काम समझते हो वो साकाम है*
*तो निस्काम कया है*
कया दूध में सफेदी कि कामना है??
कया फूल में सुगंध कि कामना है ??
कया पानी मे प्यास कि कामना है ??
कया पृथ्वी में मिट्टी कि कामना है ??
कया पेड़ मे लकडी कि कामना है ??

उत्तर है नही नही नही

ध्यान दो सवंय से अलग विषय कि कामना होती है .
और सवंय के विषय मे हमारी निरंतर स्थिती रहती है .. ये निष्काम है
जैसे दूध में सफेदी स्थित है याने वो कामना रहीत है वो दूध कि स्थिती है , वो निष्काम ही है सदा से है सदा रहेगी इसमें कामना नही है..

जैसे आपका पांव या हाथ है..कया आप उसकि कामना करते हो ? नही कयोंकि ये आपमें स्थित है ये आपकि स्थिती है.. पांव या हाथ कि कामना वो करता है जिसके पाव या हाथ नही हैं..

*ध्यान देना*

हम आत्मा परामात्मा मे निरंतर स्थित है और परमात्मा आत्मा में स्थित है ये अदूैत भाव आत्मा और परमात्मा का निरंतर संबंध है यही आनंद है ..
जब आत्मा और परमात्मा एकरस, एकदिलि, या अदूैत है तो कामना किसकी .. ये तो आत्मा कि स्थिती है ... इसी भाव में आना निष्काम भक्ती है .
जबतक तुम परमात्मा को खुदसे अलग मानते हो तो तुम्हारी ये मान्यता ही साकाम भक्ति है ..इसलिय उसको पाने कि कामना करते हो, यही कामना ही तो साकाम भक्ती है..परमात्मा को पाने की कामना का आरोप लेना ही साकामता है ...
और जो सवंय मे स्थित है उसके लिय कामना नही होती ये निष्कामता है..इसमें कोई आरोप नही है, बस आप परमात्मा में स्थित हो और परमात्मा आपमें स्थित है ..यही आपकी याने आत्मा की स्थिती है बताओ इसमें कामना कया है..ये भाव ही निष्काम है ..हमें इसी स्थिती मे आना है , तो फिर  निष्काम है ..यही हमारा याने आत्मा का स्वभाव है बस हमें अपने स्वभाव में आना है...

इसी विषय पर श्री प्राणनाथ जी ने कहा है .
*अर्ष तुमहारा मेरा दिल है* और ऐसी अनेकों चौपाइयां है ..इस भाव से ढूंडोगे तो मिल जायेंगी

इसी विषय पर कबीर जी ने भी कहा है ..
*जल में रहकर मीन प्यासी, देख देख आवत मोहे हासी*

*पुर्ण विषय के लिय संगत आव्यश्यक है*
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प्रणाम जी

Monday, December 26, 2016

*ये मिथ्या है इसमें मत उल्झो...*

चारो वणोॅके नर - नारियोंको चौदह विध्याकी शिक्षा भी माया ही देती हैं . तथापि सबके ह्यदयमें मोह और निद्रा का आवरण डालकर यही माया उनको नचाती रहती हैं .

*चौदह विद्या है:-*
चार वेद ( ऋगवेद , यजुसवेॅद , सामवेद , अथवॅवेद )

छः वेदांग ( शिक्षा , कल्प , व्याकरण ,निरूत्क , ज्योतिष ,  छन्दशास्त्र ) और मिमांसा , न्याय ,धमॅशास्त्र एवं पूराण .

अथवा निम्न चौदह कलाओंको भी चौदह विध्या माना गया है .
नृत्य , संगीत , पढना , सीना , घर सजाना , भाषा सिखना , शस्त्र बनाना , औषधि बनाना ,
चित्रकारी , कढाई , बुनाई , खेती करना , पुष्प सजाना , श्रृंगार करना

परन्तु लोग इन सबमें सवंय का आनंद ढूंड़ने का प्रयास करते हैं..

आज के समय में सबसे ज्यादा भ्रम में डालने वाला संगीत है, जिसमे मिलने वाले सवंय के आनंद को न समझ पाने के कारण लोग उसमें आनंद जानकर भ्रमित व बाह्यमुखि हुये रहते है..
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Tuesday, December 13, 2016

सुप्रभात जी

कालमाया के ब्रह्माण्ड में द्वैत की लीला है अर्थात् जीव (नारायण, त्रिदेव, देवी-देवता, मनुष्य, अन्य चराचर प्राणी) तथा प्रकृति (माया) की लीला है । इसमें जन्म-मरण , सुख-दुःख का चक्र चलता रहता है । स्थूल व शुक्ष्म अहंकार रूपी कड़ी जब तक नहीं छूटती, तब तक संसार झूठा होते हुए भी सच्चा लगता है और उसे कोई छोड़ना नहीं चाहता । जब तक जीव का स्थूल व शुक्ष्म अहंकार नष्ट नहीं होगा तब तक आवागमन का चक्र समाप्त नहीं हो सकता । अतः नारायण से लेकर जीवों तक यह सारी सृष्टि मोह  रूप है । ब्रह्मज्ञान,तारतम,अदूैत या प्रेम का मार्ग पकड़कर ही इस स्थूल व शुक्ष्म रूपी भवसागर को पार किया जा सकता है ।
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प्रणाम जी

Friday, December 9, 2016

खोल आंखें रूह नूर की, क्यों नूर न देखे बेर बेर।
क्यों न आवे बीच नूर के, ज्यों नूर लेवे तोहे घेर।।
(श्री प्राणनाथ वाणी)
हे मेरी आत्मा ! अब तू अपनी अदूैत रूपी मनोहर आंखों को खोल, तू अपने हृदय में अखंडअदूैत आनंद रुपि परमधाम की इस नूरमयी शोभा को बार-बार क्यों नहीं देख रही है ? तू इस दूैत के मायावी जगत को छोड़कर इस अदूैत नूरी धाम में क्यों नहीं आ जाती, जहाँ तेरे चारों ओर नूर ही नूर(आनंद) घिरा (फैला) हुआ है ?
भावार्थ-
परात्म का स्वरूप अखंड आनंद से नूरमयी है। यद्यपि इस संसार में अखंड आनंद नहीं आ सकता, क्योंकि इस *'अर्स की एक कंकरी, उड़ावे चौदे तबक।।‘ श्रृ. 21/39* ।
आत्मा प्रतिबिम्ब है परात्म की, इसलिये आत्मा के नेत्रों को अति सुन्दर (नूरमयी) कहा गया है। इस चौपाई में  सब को अपने अदूैत रूपी आत्मिक नेत्रों को खोलने का निर्देश दिया है।

प्रणाम जी

Thursday, December 8, 2016

बाहर मत ढूंडो

अरस कहिये दिल तिन का, जित है हक सहूर|
इलम इसक दोऊ हक के, दोऊ हक रोसनी नूर||

उन्ही आत्माओं का दिल वस्तुतः परमधाम कहा गया है, जहाँ पर हर पल परमात्मा का से योग, उन्ही का प्रेम रहता है| वस्तुतः ज्ञान और प्रेम, दोनों ही श्री परमात्मा के तेजोमय प्रकाश स्वरुप की अमूल्य निधियाँ हैं| इसलिय जब परमात्मा को हम हृदय मे अनुभव करने लगते हैं तो ग्यान और प्रेम स्वतः ही उत्पन्न होने लगता है..

बृहच्च तद् दिव्यमचिन्त्यरूपं सूक्ष्माच्च तत् सूक्ष्मतरं विभाति ।
दूरात् सुदूरे तदिहान्तिके च पश्यन्त्विहैव निहितं गुहायाम् ॥७॥
(मुण्डक)

बृह्म सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है बाहर ढूंडने वालो के लिय वो दूर से भी दूर है पर जो हृदय मे धारते हैं उनके लिय वो अन्दर ही घुलमिलकर रहता है..

न चक्षुषा गृह्यते नापि वाचा नान्यैर्देवैस्तपसा कर्मण वा ।
ज्ञानप्रसादेन विशुद्धसत्त्वस्ततस्तु तं पश्यते निष्कलं ध्यायमानः ॥८॥

(मुण्डकोपनिषद् )

परमात्मा को न तो इन आंखों से देखा जा सकता है, न वचनों को सुनने से और न ही अन्य इंद्रियों के द्वारा परमात्मा की प्राप्ति संभव है। तपस्या एवं कर्मो से भी परमात्मा की प्राप्ति नहीं हो सकती।  जब उनको अंतर हृदय मे धारण करते हैं तब ज्ञान मय होते है तभी जीव के अंतर में अन्य किसी प्रकार की चाह नही रह जाती तभी जीव ब्रह्म का ध्यान करते हुए परमात्मा का दर्शन करता है। satsangwithparveen.blogspot.com
प्रणाम जी

Thursday, December 1, 2016

*मैं सवंय कौन हूं??*
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इस संसार आडम्बर में मैं कौन हूँ जो बोलता हूँ?? देह और यह जगत् तो मैं नहीं, यह तो असत्य उपजा है और जड़रूप पवन से स्फुरणरूप होता है सो मैं कैसे होऊँ?

यह देह भी मैं नहीं क्योंकि यह तो क्षण-क्षण में काल से लीन होता है और जड़ रूप है।

श्रवणरूपी जड़ भी मैं नहीं, क्योंकि जो शब्द सुनते हैं वह शून्य से उपजा है

त्वचा इन्द्रिय भी मैं नहीं इसका क्षण-क्षण विनाश स्वभाव है।

 प्राप्त हुआ अथवा न हुआ, यह इष्ट है, यह अनिष्ट है, इन्द्रियाँ आप जड़ हैं पर इनके जानने वाला चैतन्य तत्त्व है और चैतन्य के प्रमाद से ये विषय उपलब्धहोते हैं । इससे न मैं त्वचा इन्द्रिय हूँ, और न स्पर्श विषय हूँ, यह जड़ात्मक है

यह जो चच्चलरूपी तुच्छ जिह्वा इन्द्रिय है और जिसके अग्र में अल्प जल अणु स्थित है वही रस ग्रहण करता है, वह रस भी जीवसत्ता करके लब्धरूप होता है वो आप जड़ है,
इससे यह जड़रूप जिह्वा और रस मैं नहीं

ये जो विनाशरूप नेत्र दृश्य के दर्शन में लीन हैं सो मैं नहीं और न मैं इनका विषयरूप हूँ, ये जड़ हैं । यह जो नासिका पृथ्वी का अंश है सो केवल जीव के आधार है यह आप जड़ है पर इसका जाननेवाला चैतन्य है, सो न मैं नासिका हूँ, न गन्ध हूँ, मैं अहं मम से और मन के मनन से रहित शान्तरूप हूँ और ये पञ्च इन्द्रियाँ मेरे में नहीं

*मैं शुद्ध चैतन्यरूप कलना कलंक से और चित्त से रहित चिन्मात्र  निःसंकल्प निर्मल शान्तरूप हूँ ।* अब मुझको अपना स्वरूप स्मरण आता है । *प्रकाशकरूप चैतन्य अनुभव अद्वैत मेरे अनुभव से स्थित है*।
मेरी एक और *मैं* सवंय प्रकृती के साथ स्थित था जिस कारण मेरा मन अन्नत प्रयास के बाद भी अदूैैत परमात्मा में नही लग रहा था.. सदा से मैं सवंय प्रकाशकरूप चैतन्य  अद्वैत परमात्मा में स्थित हूं , अब में इस बोध से बोधित होकर *बुद्ध* हो गया हूतो मन आदी भी अब यहीं है..

इसलिय सवंयम की खोज करने से मूल तत्व का मार्ग मिलेगा..
*पेहेले आप पेहेचानो रे साधो, पेहेले आप पेहेचानो ।बिना आप चीन्हें पार ब्रह्मको, कौन कहे मैं जानो।।*
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प्रणाम जी

Monday, November 28, 2016

*मन*
दो मन हैं..
एक है- म और न = मन ,म=मैं - न=नही = जो आप सवंय नही हो वो मानी हूई मान्यता कि स्थिती है *मन* अर्थात जो आप नहि हो .

और दूसरा मन है - म=मैं , न=नही अर्थात जो आप नही हो उसमें जो सत्य "है" की स्थिती है ,वो आप सवंय है...
पहला मन---सत्य और स्थूल के बीच की *नही* की स्थिती मन है.. वास्तव में यह है ही नही यह केवल *मान्यता* है .. तो मन याने *मैं नही* अर्थात मन है ही नही केवल मान्यता है... तो जो है नही उसका तुमने पहाड वना रख्खा है .. और मान्यता में भ्रमित हो रहे हो..
दूसरा मन----एक मन और है , ये है "मैं नही" की अवस्था शुक्ष्म अंह के पार की अवस्था..*इसका विस्तार से विवरण श्रि प्राणनाथ वाणी में दिया गया है..*

*इलाज-* -- केवल एक, इस मन की मान्यता अर्थात *नही* की जड़ पर "मैं नही" की अवस्था से प्रहार..
इसलिय कहा है " *मन ही बान्धे मन ही खोले*
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प्रणाम जी

Sunday, November 27, 2016

सुख और आनंद में कया भेद है..??

बाहरी दृष्य में आनंद का प्रतिबिंबित होना सुख है .. अर्थात सुख का अस्तितव है ही नही, यह तो केवल आनंद का प्रतिबिंब है.. प्रतिबिंब भ्रम होता है सत्य नही.. प्रतिबिंब कभी पकड़ में नही आता इसलिय सुख भी कभी पकड़ में नही आता .. *प्रतिबिंब हमेंशा अमने सत्य स्वरूप के विपरीत दिशा में बन्ता हैं* .. इसलिय सुख भी बाहर दिखता है.. अर्थात आनंद=परमात्मा या सवंय अन्दर है , बाहर तो हर वस्तु में आपका ही प्रतिबिंब सुख बनकर आपको भ्रमित कर रहा है..
*बाहर से अंदर की और मुड जाओ, असत्य से सत्य की और चलो, प्रतिबिंब से मूल स्वरूप की और चलो, सुख से आनंद की और चलो, दूैत से अदूैत की और चलो, अपनी और चलो, सवंय को जान जाओ, तुम सवंय आनंद हो फिर प्रतिबिंब कयो पकडते हो ?
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प्रणाम जी

Friday, November 25, 2016


*आनंद का मार्ग भेद*

तीन चीजें है
१- दृष्य
२-दृष्टा
३-और आप "सवंय"

आप सवंय आनंद अंश हो ,जिसका प्रभाव दृष्टा को  दृष्य में दिखता है, और दृष्टा दृष्य में आनंद समझ कर भ्रमित रहता है.. यह भाव ध्यान व भक्ति में रहता है...अर्थात सवयं की विमुखता का आनंद तुम्हे अन्य वस्तुओं में आता है... जबतक सवंय में नही आओगे यह भ्रम बना रहेगा..
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प्रणाम जी

Thursday, November 24, 2016

*मन को समझना बहोत विकट व आवश्यक है ..*

कर्ता और क्रिया के मेल से उत्पन्न अवस्था मन है ..उदाहरण-जैसे ढोल बजाने वाला कर्ता है और बजने वाला ढोल से जो ध्वनी उत्पन्न होती है वो मन है.. यह मन क्रिया के अनुसार अपना रूप बदलता रहता है इसलिय कईबार इसकी उपस्थिती न दिखने पर भी यह भ्रमित करता रहता है.. ऐसा भ्रम अध्यात्म में सबसे ज्यादा होता है..
जब आपका अहं "अस्तितव" भक्ति से जुडता है तो वहां भी कर्ती याने अहं "अस्तितव" और क्रिया याने भक्ती के संयोग से जो मन उतपन्न होता है वह मन अद्रिश्य सा रहता है और हम समझ लेते हैं कि मन लय हो गया और हम मन से परे हो गये.. पर वहां भी मन उपस्थित रहता है , वह भी घातक है, यह अवस्था भी परमात्मा से विमुखता ही है..
इसलिय सही मार्ग ढूंडो..
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प्रणाम जी

Saturday, November 5, 2016

*बन्धन का कारण कया है??*

कारण शरीर ”प्रकृति” का नाम है। सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण, इन तीनों के समुदाय का नाम प्रकृति है। ये सूक्ष्मतम कण हैं। उसी का नाम ‘कारण-शरीर’ है।
 अब उस प्रकृति रूपी कारण शरीर से दूसरा जो शरीर उत्पन्न हुआ, उसका नाम ‘सूक्ष्म शरीर’ है। आपने शरीर पर सूती कुर्ता कपड़ा पहन रखा है। इसका कारण है धागा। और धागे का कारण है- रूई। रूई, धागा और कॉटन-कुर्ता ये तीन वस्तु हो गयीं। कुर्ता, धागा और रूई, तो ऐसे तीन शरीर हैं- स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर। पर इनमें से बंधन का जो महा कारण है वह है महाकारण शरीर ये है  महाअग्यान इसके भी पीछे छिपी है सब बंधनो की जड़ .. परमात्मा का आपके साथ जो 'वियोग' मालुम देता है कि 'परमात्मा'के साथ हमारा 'वियोग' है-ऐसा जो अनुभव होता है, वह है महा कारण , और जिसको ये वियोग अनुभव होता है वह है सब बन्धनो की जड़ ... और यह है *शुक्षम अहम* *इसको पालिया तो समझो आधा काम हो गया*.. कयोंकी इसको पाकर ही इसे समाप्त किया जा सकेगा..
*मारा कह्या काढ़ा कह्या, और कह्या हो जुदा। एही मैं खुदी टले, तब बाकी रह्या खुदा।।*

*ए मैं मैं क्यों ए मरत नहीं,और कहावत है मुरदा। आड़े नूर जमाल के, एही है परदा*

(विषय सपष्ट न होने पर सत्यसंगत का सहारा लें)
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प्रणाम जी

Monday, October 31, 2016

*वैराग्य की दो भाव दशाएँ हैं*

१. साधन वैराग्य, २. सिद्ध वैराग्य।
इन्हें यूँ भी कहा जा सकता है, १. अपर वैराग्य, २. पर वैराग्य।
इस साधन वैराग्य या अपर वैराग्य को ही वशीकार संज्ञा दी गयी है। इस का मतलब है—देखे और सुने गए विषयों के प्रति वितृष्णा। इनके प्रति भोगासक्ति का न होना। इन विषय भोगों के लिए मन में गहरी निराकांक्षा। ऐसा होना ही अपर वैराग्य है।

*सिद्ध वैराग्य यापर वैराग्य क्या है?*

तत्परं पुरुषख्यातेर्गुणवैतृष्ण्यम्॥ १/१६॥
(योगदर्शन)
शब्दार्थ- पुरुषख्यातेः= पुरुष के ज्ञान से;गुणवैतृष्ण्यम्= जो प्रकृति के गुणों में तृष्णा का अभाव हो जाना है; तत्= वह;परम्= पर वैराग्य है।
अर्थात् यह पर वैराग्य निराकांक्षा की अन्तिम अवस्था है- मान्यता के पुरुष के परम शुद्ध निर्विकार पुरुष के अन्तरतम स्वभाव को जानने के कारण समस्त इच्छाओं का विलीन हो जाना। (यहां दो पूरूषो का जिक्र है इनके विषय में जान्ना परम आव्यशक है ..श्वेताश्वतर उपनिषदमें भी यह बात स्पष्ट की है ।
द्वा सुपर्णा सयुजौ सखायौ, समाने वृक्षे परिषस्वजाते ।
तयोरेकं पिप्पलं स्वादुमत्तिः अनश्ननन्यो अभिचाकषीति ।।

अर्थात् एक वृक्षमें दो पक्षी सखाभावसे रहते हैं । उनमेंसे एक उस वृक्षके फलका आस्वादन करता है तो दूसरा मात्र देखता रहता ) *इसकी पूर्ण व्याख्या के लिय आप हमारी कर्ता भोक्ता भेद की post पढ. सकते हैं*

       वैराग्य की यह अवस्था अतिदुर्लभ है। सवंय में अन्तश्चेतना के विलीन हो जाने पर यह अपने आप ही प्रकट हो जाती है। इसीलिए इसे पर वैराग्य कहते हैं। सिद्ध महापुरुषों की यह स्वाभाविक दशा होने के कारण इसे सिद्ध वैराग्य भी कहा जाता है। यह समस्त साधनाओं का फल है, जो सिद्ध योगियों को सहज सुलभ रहता है। अन्तर्चेतना सवंय में विलीन होने के कारण विषयों के प्रति, भोगों के प्रति न गति होती है, न रुचि और न ही रुझान। यह निर्विकार भावदशा की सहज अभिव्यक्ति है।

*पर इनदोनो ही अवस्थाओं का परमात्मा के प्रेम से कोई सम्बन्ध नही है परमात्मा प्रेम इन दोनो अवस्थाओं से परे है*
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प्रणाम जी

Sunday, October 30, 2016

*लक्ष्मी का अर्थ*

दीपावली के दिन जो पूजा होती है उसे लक्ष्मी पूजन कहा जाता है। आज ज्यादातर लोग समझते हैं कि लक्ष्मी का अर्थ है धन की देवी। ये लक्ष्मी शब्द का बहुत संकुचित अर्थ हो गया। वास्तव में इस शब्द का अर्थ बहुत विशाल है। लक्ष्मी शब्द की उत्पत्ति संस्कृत की लक्ष धातु से हुई है। लक्ष का शाब्दिक अर्थ है ध्यान लगाना, ध्येय बनाना, ध्यानपूर्वक निरीक्षण करना इत्यादि। इसका अर्थ ये है कि जब हम एकाग्रचित्त होकर कोई कार्य या साधना करते हैं तो उसका जो फल प्राप्त होता है उसे लक्ष्मी कहते हैं। जैसे आगर आप अदूैत भाव में साधना करते है तो उसकेफलस्वरूप जो आप अदुैत मे एकरसता को पराप्त करते है वह अदुैत भाव में तो शब्दातीत भाव है पर शब्दो में कहें तो यह उस साधना का फल है इस फल को ही या  साधना के उस फलस्वरूप भाव को ही लक्ष्मी कहते है...
*अतः धन, मूर्ती या अन्य बाह्य साधनो से पूजा करके लक्ष्मी के भाव को तुच्छ ना बनायें अपितु इसका व्यापक अर्थ ग्रहण करें..*
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प्रणाम जी

Saturday, October 29, 2016

सुप्रभात जी

इस जगत के दूैत व मान्यता के जाल ने बंधन की गांठ को इस प्रकार जोर से बांधा हैं, कि मानव इसे सत्य एवं सुखद समझ कर आत्मा एवं परमात्मा के अदैत सम्बन्ध को असत्य मानने लगा हैं और इसके विपरीत दूैत के झूठी देह और जगत को सत्य माने बैठा हैं।

इस संसार के समस्त लोग शारीरिक सम्बंध को ही सच्चा मानते चले जा रहे हैं। आत्मा व परमात्मा की पहचान कोई भी नहीं करता। क्षण भंगुर शरीर के झूठे सम्बंधो को स्वीकार कर उन्हें पालन करने में सारा जीवन व्यतीत कर देते हैं क्योंकि देह को ही उन्हों ने सर्वस्व मान लिया हैं।

इस शरीर पर चंदन का लेप लगाकर इसे बार बार धोते हैं और सुगन्धित इत्र आदि लगाते हैं फिर अच्छे अच्छे भोजन पका कर बडे प्यार से इसे पुष्ट करते हैं और इसकी सुरक्षा हेतु अनेक प्रयास करते हैं। वे इस तथ्य को भूल जाते हैं कि उनकी यह द्रष्टि (लक्ष्य) तो नश्वर मिट्टी की काया - खाक से ही बांधी हैं।

इस शरीर का सर्वोतम और एक मात्र उपयोग आत्मा में परमात्मा को पहचान कर उस भाव को अदैुत प्रेम से पोषित करना है...
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प्रणाम जी

Wednesday, October 19, 2016

*एक बात और समझना,*
बहोत ध्यान से,  कि हम समर्पण और उपहार (gift)मे भेद न जान्ने के कारण परमात्मा में समर्पण ना करके उन्हे उपहार देने का प्रयास करते रहते है , ध्यान देना इसका भी केवल प्रयास करते हैं दे नही पाते , कयोंकी संवय को परमात्मा मे लगाना या उन्हे देना समर्पण है, और सवंय का कुछ परमात्मा को देना उपहार कहलायगा, ..
आप अपना मन उन्हेदेकर समर्पण सोच रहेहोना तो ध्यान से सुनो ये समर्पण नही उपहार देने का प्रयास कर रहे हो.. समर्पण होता है खुदको देना...अरे संसारी ग्यान से ही समझलो एकलव्य ने द्रोंण को अंगुठा दे दिया तो समर्पण कहलाया या गुरू दक्षिणा, ध्यानदेना *दक्षिणा* कहलाया समर्पण नही.. यही हम किये जा रहे है अपना अर्थात मेरा मन, मेरी बुद्धि, मेरा चित ये तो आपका है आप नही हो, आपका दोगे तो उपहार होगा और सवंय को देना या लगाना समर्पण होगा...एक और संसारीक उदाहरण- कि जैसे पत्नी पती को कोइ भी अपनी वस्तु दे तो ये उपहार है, और खुद को देने से समर्पण हो जाता है..ध्यान रहे परमात्मा तुम्हारे उपहार का भूखा नही है, संसारीक बोल बोलूं तो उपहार देने का परयास करके तुम उसका अपमान कर रहे हो...

ये है अध्यात्म का A, और हम समझते हैं की गुरू से नाम ले लिया तो हमारी शुरूआत हो गयी हमारा कल्याण हो गया...
 *ध्यान दो*

 *केवल नाम लेके बैठना जीवन को व्यर्थ गवाना है* *और नाम लेके ये सोचना की मैने तारतम ले लिया है तो यह तारतम का घोर अपमान है* तारतम कोई लेने देने की वस्तु नही है...
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प्रणाम जी

Sunday, September 25, 2016

पी को काहां ढ़ूंड़ू मैं सखी री, जहां खोजे सब बीदेस |
सोई तो पियु मिले नही, जागी तो वो अपने देस ||

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Saturday, September 17, 2016

*मन*

म और न = मन
म=मैं - न=नही = जो आप सवंय नही हो वो मानी हूई मान्यता कि स्थिती है *मन* अर्थात जो आप नहि हो .
सत्य और स्थूल के बीच की *नही* की स्थिती मन है.. वास्तव में यह है ही नही यह केवल *मान्यता* है .. तो मन याने *मैं नही* अर्थात मन है ही नही केवल मान्यता है... तो जो है नही उसका तुमने पहाड वना रख्खा है .. और मान्यता में भ्रमित हो रहे हो..
*इलाज-* -- केवल एक, इस मान्यता अर्थात *नही* की जड़ (मूल, जहां से मान्यता उत्पन्न हुइ है)पर प्रहार....

इसलिय कहा है " *पर मनवा दिय विन हाथ न आवे सतकी बडी ठकुराई*
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प्रणाम जी

Tuesday, September 13, 2016

*दो बातें*

1- परमात्मा को पाने का प्रयास मत करना कयोंकी वो प्राप्त है .. हमारे अंदर है, बस मान्यता का परदा हटाने का प्रयास करो , जो बाधा है ...

2- "ग्यान" की स्थिती में परमात्मा से निरंतर साक्षातकार है.. ("ग्यान" जानकारी का बोझ नही है)
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प्रणाम जी

Thursday, September 8, 2016

दो बातें..
1- केवल तुम सवंय ही सत्य हो बाकी सब अंहकार है, असत्य है ,नही है..

2- सत्य कभी शब्दो में नही आता जो शब्दो में बताया जाये वो सब असत्य है...
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प्रणाम जी

Saturday, August 27, 2016

*अदैूत*

सुप्रभात जी

अगर तुम्हें पता है कि तुम परमात्मा—अदूैतअंश हो तो तुम्हें पता होगा कि बिछुड़ा कभी भी नहीं। तुमने बिछुड़ने का सपना देखा। बिछुड़ा कभी भी नहीं, क्योंकि अदूैतअंश बिछुड़ कैसे सकता है? अदूैत तो अदूैत ही होता है।ये हो सकता है तुम्हें याद भूल गई हो, बिछुड़न नहीं हो सकती, विस्मृति हो सकती है। बिछुड़ने का तो उपाय ही नहीं है। हम जो हैं, वही हैं। चाहे हम भूल जाएं, विस्मरण कर दें, चाहे हम याद कर लें—सारा भेद विस्मृति और स्मृति का है।

‘मूल से कब, क्यों और कैसे बिछुड़ा?’
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बिछुड़ा होता तो हम बता देते कि कब, क्यों और कैसे बिछुड़ा। बिछुड़ा नहीं। तुमहारी नजर जीव की नजर से मिली, जिसे कह देते है कि तुम सोए, जीव की मान्यता से उसका जो मान्यता का अस्तित्व बना , जिसे कहते है की तुमने सपना देखा, कि सपने में तुम जीव की मान्यता का रूप हो गए। अब जागने पर तुम पूछो कि हम ये क्यों, कैसे, कब हुए—बहुत मुश्किल की बात है।कयोंकि तुम हुए ही नहीं, पहली तो बात। हो गए होते तो पूछने वाला बचता? मान्यता का अस्तित्व है ही नही। तुम कभी हुए नहीं, सिर्फ सपना देखा अर्थात जीव की मान्यता से मिले।  जागकर तुमने पाया कि अरे, खूब सपना देखा! जब तुम सपना देख रहे थे तब भी तुम मान्यता वाला रूप नहीं थे, याद रखना। हालांकि —तुम बिलकुल ही लिप्त हो गए थे इस भाव में कि वही हो । यही तो अष्टावक्र की मूल धारणा है। अष्टावक्र कहते हैं जिस बात से भी तुम सवंय को जोड़ लोगे, वही हो जाओगे।
गीता भी यही कहती है..
'अहंकार विमूढात्मा कर्ता अहम् इति मन्यते'(गीता ३।२७)-यह माना हुआ है,

देहाभिमान—तो देह हो गए। कहा ‘मैं देह हूं’, तो देह हो गए। तुम जिससे अपने मैं को जोड़ लेते हो, वही हो जाते हो। सपने में तुमने जिस से जोड लिया, तुम वही हो गए। अभी तुमने शरीर से जोड़ लिया तो तुम आदमी हो गए। लेकिन तुम हुए कभी भी नहीं हो। हो तो तुम वही, जो तुम हो। जस—के—तस! वैसे के वैसे! तुम्हारे स्वभाव में तो कहीं कोई अंतर नहीं पड़ा है। धारणा सही रखो तो सब सुलभ है परमात्मा से कभी हम अलग है ही नही..

*इसलिय सदा खुदको परमात्मा से जोडकर रखना, पर ध्यान रहे इसमें भी सुकक्ष्म अंह है*

वो कया है ?

वो हो तुम, जब तुम खुदको परमात्मा से जोडकर रखते हो तो इसमें तुम भी हो और परमात्मा भी है , ये दूयेत है... अभी और गहरे जाओ...
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प्रणाम जी

Wednesday, August 24, 2016

शून्य मरे अजपा मरे अनहद हूं मरजाय,
राम स्नेही न मरे, कहे कबीर समझाय ||
( कबीर )

शून्य या निराकार नाशवान है, अजपा जाप भी प्राणहीन है अर्थात ये भी शरीर के साथ नष्ट हो जाता है, और अनहद नाद भी असत्य व लय होने वाला है.. परन्तु जो परमात्मा से अदूैत भाव में रहते हैं वे अदूैत परमात्मा के साथ सदा स्नेह अर्थात अखंड आनंद में विश्रामित रहते है.. कबीर जी यह सबको समझा रहे हैं...पर कबीर को मान्ने वाले अभी भी अदूैत भाव से दूर अजपा में ही जीवन गवां रहे है.. कोई और कबीर को परमात्मा तुल्य ना माने तो उन्हे बुरा लगता है पर सवंय कबीर के भाव ना जान कर कबीर विरोधी हो रहे है...
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प्रणाम जी

Thursday, August 18, 2016



परमात्मा का गुणगान...???
बचपन से सुन्ता आया हूं कि परमात्मा का गुणगान करने से परमात्मा खुश होते हैं..
पर परमात्मा गिणातीत हैं अर्थात परमात्मा तक गुण नही पहुंच सकते फिर वो गुणगान करने से कैसै खुश होंगे..
सबसे अहम बात की परमात्मा को खुश करना पडे कया ऐसा हो सकता है..?? अर्थात परमात्मा तो सवंय आनंद है तो कया आनंद को भी खुश करना पडता है.?? नही ..
अनादि काल से परमात्मा प्राप्ति के साधन सुन्ते आये हैं और उनपर चले भी हैं पर परिणाम शून्य कयोंकि केवल ऊपरी साधन अपनाये हैं कभी मूल पर ध्यान नही गया ना ही किसी ने बताया .. अगर बतााया भी तो निरंतर संगत नही हो पाने के कारण विषय स्पष्ट नही हो पाया..
तो स्पष्ट है कि परमात्मा का गुणगान या अन्य सुने हुये साधन (नाम जाप,रूप ध्यान, पारायण, परिकरमा, गुरू के शरीर का ध्यान..आदी अन्य साधन जो अबतक सुने है)उसको पाने का माध्यम नही है , कुछ और है , तो वो कया है??

केवल तीन विषय ग्रहण करने पर हमारे लिय परमात्मा का साक्षातकार सुगम हो जाता है वो है..
1.मन से परमात्मा नही मिलेंगे
2.कर्ता-भोक्ता
3.प्रेम कया है..
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प्रणाम जी
परमात्मा कितने है ?

एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्नि यमं
मातरिश्वानमाहुः ।।८।।
(ऋग्वेद मं० १। सूक्त १६४। मन्त्र ४६)
भावार्थ :- वह परमात्मा एक ही है जो बहुत से नामो से जाना जाता है ।

इसके बारे में कैवल्य उपनिषद लिखता है
स ब्रह्मा स विष्णुः स रुद्रस्स
शिवस्सोऽक्षरस्स परमः स्वराट्।
स इन्द्रस्स कालाग्निस्स चन्द्रमाः।।७।।
(कैवल्य उपनिषत)

अर्थात ब्रह्मा भी वही है विष्णु ,रूद्र , शिव ;अक्षर , परम् ,स्वराट ,इंद्र , काल , अग्नि चन्द्रमा इत्यादि उसी एक परमात्मा के नाम है ।  
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प्रणाम जी

Monday, August 8, 2016

  विषय कोई क्रिया नहि है . अर्थात जिसे करना आप गलत मान्ते हो और उसे विषय वासना कि श्रेणी में रखते हो,, तो में बता दूं के संसार कि कोई भी क्रिया विषय नही है,, तो विषय कया है , विषय केवल चिंतन है, अर्थात जो भी कार्य आप करते हो, जिसे बूरे कि श्रेणी में रखा जाता है , तो वो आपके अंतःकरण को नुकसान नही पहुंचा सकता, केवल उसका चिंतन ही नुकसान दायक है ..चाहे क्रिया न करके केवल चिंतन करते हो तो भी ये उतना ही घातक है..
*तो विषय कया है, विषय केवल चिंतन है*
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प्रणाम जी

Sunday, August 7, 2016

"""वैराग्य कितने प्रकार का होता है"" और श्रेष्ठ कोन सा है..
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योगदर्शन में पर और अपर भेद से दो प्रकार के वैराग्य बतलाये गये हैं । इनमें अपर वैराग्य चार प्रकार के हैं:
1) यतमान : जिसमें विषयों को छोड़ने का प्रयत्न तो रहता है, किन्तु छोड़ नहीं पाता यह यतमान वैराग्य है ।
2) व्यतिरेकी : शब्दादि विषयों में से कुछ का राग तो हट जाये किन्तु कुछ का न हटे तब व्यतिरेकी वैराग्य समझना चाहिए ।
3) एकेन्द्रिय : मन भी एक इन्द्रिय है । जब इन्द्रियों के विषयों का आकर्षण तो न रहे, किन्तु मन में उनका चिन्तन हो तब एकेन्द्रिय वैराग्य होता है । इस अवस्था में प्रतिज्ञा के बल से ही मन और इन्द्रियों का निग्रह होता है ।
4) वशीकार : वशीकार वैराग्य होने पर मन और इन्द्रियाँ अपने अधीन हो जाती हैं तथा अनेक प्रकार के चमत्कार भी होने लगते हैं। यहाँ तक तो ‘अपर वैराग्य’ हुआ । लेकिन इसमें भी भटकाव है..

श्रेष्ठ कोन सा है..

पर वैराग्य-
जब गुणों का कोई आकर्षण नहीं रहता, सर्वज्ञता और चमत्कारों से भी वैराग्य होकर स्वरुप में स्थिति रहती है तब ‘पर वैराग्य’ होता है अथवा एकाग्रता से जो सुख होता है उसका भी त्याग हो जाता है, पर अहम बात यह है कि इसमें त्यागना कुछ नही है, गुणातीत हो जाना ही ‘पर वैराग्य’ है।
यह वैराग्य मन से नही होता कयोंकी मन गुणातीत नही है इसके लिय मन से उलग कोई स्थिती है.. सबसे अहम बात कि यह सबसे सरल है..
*इसे पाने के लिय या तो सवंय खोज करो या जिसने पाया हो उस से संगत करो..*
*पहले दिन से लाभ होना शुरू हो जाता है*
प्रणाम जी
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Saturday, August 6, 2016

ग्यान और अग्यान ..

कभी भूलकर भी मत कहना की इस या उस संत ने बृह्म को प्राप्त किया है. बृह्म को प्राप्त वो कर सकता है जो बृह्म से बडा हो , जो प्राप्त हो सके वो बृह्म नही है. बृह्म तो सदा से ,अनादी काल से तुम में ही है.. फिर कया प्राप्त करना चाहते हो . कया ये घोर अग्यान नही है कि तुम उसे प्राप्त करना चाहते हो जो तुम में ही है.. बस तुम उसके तुममें होने के बोध में नही हो .. वो तुममें है सदा से ,निरंतर , इस बोध में बोधित रहना ही ग्यान है, योग है, प्रेम है, अदूैत भाव है, शुद्ध अन्यता है, अखंड आनंद है, ..इसी बोध के बिषय में वेद कहता है..

"" प्रकृति के अन्धकार से सर्वथा परे सूर्य के समान प्रकाशमान स्वरूप वाले परमात्मा को मै जानता हूँ , जिसको जाने बिना मृत्यु से छुटकारा पाने का अन्य कोई भी उपाय नहीं है (यजुर्वेद ३१/१८) """

अर्थात उसे पाना नही है वो तुममें है ये जान्ना है..पाया हूआ है सदा से ,बस उस पाई हुई स्थिती को जानलो बस मिल गया आनंद, वेद भी बार बार यही कह रहा है..की

""उस धीर, अजर, अमर, नित्य तरुण परब्रह्म को ही जानकर विद्वान पुरुष मृत्यु से नहीं डरता है (अथर्ववेद १०/८/४४ )""
*अर्थात पाना नही है, वो तुममें ही है ये जान्ना है..*
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प्रणाम जी

Thursday, August 4, 2016

प्रेम कया है ?? *उल्टि बात*

सुप्रभात जी
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परमात्मा से भूलकर भी प्रेम करने का प्रयास मत करना वरना परमात्मा से बहोत दूर हो जाओगे ..
कयोंकि ऐसा करोगे तो तुम परमात्मा के लिय रोओगे, उस से मिलने कि प्रार्थना करोगे, और ये सारे प्रयास तुम्हे परमात्मा से अलग कर देंगे..
कयोंकि परमात्मा इन सबसे नही मिलेंगे बल्कि प्रेम से मिलेंगे.?????? ये कया , प्रेम नही करना और प्रेम से मिलेंगे ??? जी हां , ऐसा इसलिय कयोंकि हम जिसे प्रेम समझते आये हैं वो प्रेम नही है , ये तो परमात्मा से अलगाव है, ये प्रेम नही कर रहे अपितु परमात्मा को अपने से दूर मान्ने का अभ्यास कर रहे हो.. ये प्रेम नही अल्गाव है,तो प्रेम कया है?? प्रेम रस है, प्रेम एक रूपता है , प्रेम में और तू नही है , प्रेम केवल "है" है ,
जैसे फूल में सूगंध है, ये प्रेम है.
दूध में सफेदी है, ये प्रेम है.
पृथ्वी में मिट्टि है, ये प्रेम है.
अग्नी में उष्मा है, ये प्रेम है.
ये "है" कभी अलग नही होता ,ऐसे ही आत्मा में परमात्मा है और परमात्मा में आत्मा है , ये होना नही है , ये सदा से है ,यहि प्रेम है.
अब सोचो अगर दूध की सफेदी दूध से मिलना चाहे उसके लिय रेय तो ये इसलिय है कयोंकी उसने खुद को दूध से अलग होने कि मान्यता कर रख्खी है.. अगर वो ये मान्यता सदा रख्खे तो वो दूध मे होते हुये भी दूध से अल्गाव भाव में रहेगी.. और वो अपनी ये झूठी मान्यता हटा दे तो फिर प्रेम है
, ऐसा नही है कि ये प्रेम अभी हुआ है ,ये तो सदा से है बस  झूठी मान्यता के कारण हमें आभास नही हो रहा ,, इसलिय तुम्हारे बहोत प्रयास के बाद भी तुम निरंतर परमात्मा में नही लग पाते कयोंकि जिस अवस्था में तुम निरंतर परमात्मा में हो सदा से , तुमने उससे उलट मान्यता कर रखी है फिर कैसे निरंतर होगे..जैसे अग्नी में उष्मा है निरंतर , यही एकरसता प्रेम है.. *ध्यान दो* परमात्मा की दो लिलाऐं हैं एक वास्विकी और एक वैवहारिकि, वैवहारिकि का वास्विकी में प्रवेश नही है, कयोंकि वास्विकी में करना नहि होता , वो तो "है" सदा से ... वैवहारिकि में करना होता है ,वैवहारिकि को समाप्त करने के लिय..  वैवहारिकि और  वास्विकी को मिलाओ मत, ये मिलेंगे नही....सतसंग करना भी वैवहारिकि है...ये जो मैं कह रहा हूं ये भी वैवहारिकि है.. इसके शुक्ष्म भेद को जाने बिना वैवहारिकि के पार नही जा पाओगे जहा वास्तविकि है और ये दोनो कहीं बाहर नही है...
इसके सही भाव को समझने के लिय किसी सत्य तत्वदर्शी की संगत किजिय...
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प्रणाम जी

Friday, July 29, 2016

*कबीर*

में रोऊँ सब जगत को, मोको रोवे न कोय |
मोको रोवे सोचना, जो शब्द बोय की होय ||
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मैं हर किसी को अदैूत के लिय कहता रहता हूं..बार बार अदूैत में आने को कहता हूं..  किन्तु मेरी अदूैत कि भाषा कोई नही समझ पा रहा है..सब दूैत मे अटके पडे हैं...मेरे लिए कोई नहीं रोता अर्थात् मेरे दर्द को कोई नहीं समझता | मेरे दर्द को वही प्राणी देख और समझ सकता है जो केवल मेरे शब्दो के फेर में ना पड़के ‘शब्द-सार’ को समझता है | अर्थात मेरे शब्दो को हृदय में बोने के बाद उससे जो सार रूपी वृक्ष लगेगा उसपे अदूैत के फल लगेंगे उन फलो से अदूैत का रस लेने से तुम माया को और बृह्म को जानकर अदूैत में स्थित हो पाओगे..
इसलिय शब्दो के सार को गृहण करो..
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प्रणाम जी

Tuesday, July 26, 2016

परमात्मा एक ही हैं.

वेद के आचार्यों के भाष्यों तथा उनके आधार पर लिए गए पाश्चात्य विद्वानों के वेदों के अनुवादों को पढने से पाठकों ने वेद जगत के कर्ता- धर्ता और नियन्ता एक परमात्मा को मानने के स्थान पर अग्नि, इन्द्र, वरुण, मित्र आदि अनेक देवी देवताओं को मानने लगे.व देवी देवताओं की पूजा का विधान बन गया..और अग्यान कि हद तब हो जाती है जब केवल एक परमात्मा को मान्ने में भय लगता है कि देवी देवता नराज होकर अनिष्ट न कर दें..  
स्वामी दयानंद ने स्पष्ट रूप से घोषणा की वेद एकेश्वरवादी हैं न की बहुदेवतावादी.
वेदों में एकेश्वरवाद के प्रमाण

१. ऋग्वेद १.१६४.४६ – उसी एक परमात्मा को इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि, दिव्या, सुपर्ण, गरुत्मान, यम और मातरिश्वा आदि अनेक नामों से कहते हैं.
२. यजुर्वेद ३२.१- अग्नि, आदित्य, वायु, चंद्रमा, शुक्र, ब्रह्मा, आप: और प्रजापति- यह सब नाम उसी एक परमात्मा के हैं.

३. ऋग्वेद १०.८२.३ और अथर्ववेद २.१.३- वह परमात्मा एक हैं और सब देवों के नामों को धारण करने वाला हैं, अर्थात सब देवों के नाम उसी के हैं.

४. ऋग्वेद २.१ सूक्त में अग्नि शब्द को ज्ञानस्वरूप परमात्मा का वाचक के रूप में संबोधन करते हुए कहाँ गया हैं की हे अग्नि, तुम इन्द्र हो, तुम विष्णु हो, तुम ब्रह्मणस्पति, वरुण, मित्र, अर्यमा, त्वष्टा हो. तुम रूद्र, पूषा, सविता, भग, ऋभु , अदिति, सरस्वती,आदित्य और ब्रह्मा हो.

५. अथर्ववेद १३.४ (२), १५-२०- जो व्यक्ति इस परमात्मा देव को एक रूप में विद्यमान जनता हैं, जो की वह न दूसरा हैं, न तीसरा हैं और न चौथा हैं ऐसा जानता हैं, जोकि वह पांचवा हैं, न छठा हैं और न सांतवा हैं ऐसा जानता हैं, जोकि वह न आठवां हैं, न नवां हैं और न दसवां हैं ऐसा जानता हैं, वह सब कुछ जानता हैं. वह चेतन और अचेतन संपूर्ण रहस्य को जन लेता हैं. उसी परमात्मा देव में यह सारा जगत समाया हुआ हैं. वह देव अत्यंत सहन शक्ति वाला हैं. वह एक ही हैं, अकेला ही वर्तमान हैं, वह एक ही हैं.

इस प्रकार वेदों में अनेक प्रमाण केवल एक परमात्मा के हैं  बहुदेवतावाद का स्पष्ट खंडन है..
जो अब भी बहुदेवतावाद को मान्ता है वो वेद विरोधि है अर्थात 'धर्मविरोधी'
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प्रणाम जी

Sunday, July 24, 2016

आनन्दस्य कुलं प्राप्तं नित्येधाम्नी प्रकिर्तितम । सम्प्रदायश्चिदानन्दो निजानंदै: प्रकाशित: ।।
(श्री माहे०तं० २८)

गहनअर्थ -आत्मसाक्षातकार के द्वारा पूर्ण आनन्द परमात्मा मे सदा स्थित रहने वाले ब्रह्ममुनियों का एक मायातीत "समूह" कलयुग में जाहिर या अवतरित होगा आंतरिक दृष्टि न होने के कारण संसार के लोग भविष्य मे उन्हे केवल सम्प्रदाय मात्र मान कर उन्हे केवल निजानंद सम्प्रदाय के नाम से जानेंगे पर जो उनको पहचान कर उनके गहन व अलौकिक अदूैत ग्यान को ग्रहण करेंगे उन सभी को आत्मसाक्षात्कार होगा ..
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प्रणाम जी

Saturday, July 23, 2016


अविद्यायामंतरे वर्तमाना: स्वयंधीरा: पण्डितं मन्यमाना:।
जंघन्यमाना: परियन्ति मूढा अन्धेनैव नीयमाना यथान्धा:।।
(मुण्डकोपनिषद् १/२/८)

व्याख्या:- जब अन्धे मनुष्य को मार्ग दिखलाने वाला भी अंधा मिल जाता है तब जैसे वह अपने अभीष्ट स्थान पर नहीं पहुँच पाता, बीच में ही ठोकरें खाता-भटकता है, वैसे ही उन मान बडाई के लालच में गूरू बने हुये मूर्खो को भी पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि विविध दु:ख पूर्ण योनियों में एवं नरकादि में प्रवेश करके अनन्त जन्मों तक अनन्त यन्त्रणाओं का भोग करना पड़ता है, जो अपने आप को ही बुद्धिमान और विद्वान समझते हैं, थोडा बहोत धर्म सास्त्रो का दूैत में भाव निकाल के अर्थ का अनर्थ बना रखा है..धर्म सास्त्रो को कंठस्त करके विद्या-बुद्धि के मिथ्याभिमान में "परा विद्या" की कुछ भी परवाह न करके उनकी अवहेलना करते हैं और प्रत्यक्ष सुख रूप प्रतीत होने वाले भोग का भोग करने में तथा उनके उपार्जन में ही निरन्तर संलग्न रहकर मनुष्य जीवन का अमूल्य समय व्यर्थ नष्ट करते रहते है.. और अंधकार में भटकाते हैं..

अदूैत के मार्ग के बिना माया का फन्दा नही हट सकता, बडे बडे संत गुरू भी दूैत की भक्ति करके दूैत रूपी माया में ही अटक कर विषय वासनाओ कि अग्नी में जलते रहते हैं. और जल्ती हुई वस्तु अपने सम्पर्क से दूसरो को भी जलाती है इसलिय उनके अनुयायी व उनके शिष्य भी विषय वासनाओ  घिरे रहते हैं... एकमात्र अदैत ही मार्ग है..
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प्रणाम जी

Wednesday, July 20, 2016


*मन का कार्य है आपकी सवंय की स्थिती से उत्पन्न विषय में निरंतर वृद्धि करना..*
उदाहरण-
जैसे आपके सवंय कि स्थिती वैज्ञानिक की है तो मन आपके इसी स्थिती के अनुसार आपके विषय में निरंतर वृद्धि करता रहता है, कहने का भाव है कि जहा आपकी संवय कि स्थिती होती है मन आपको उसी स्थिती के अनुसार सहायता व विषय वृद्धि करता है..
कहने का अर्थ है कि आप जहां होंगे मन वहीं होगा .. अगर आप किसी संसारी प्रेम में हो चाहे वो कोई विषय वस्तु हो या स्त्री पुरूष का प्रेम हो अर्थात आप अपनी स्थिती किसी भी प्रेम में रखें, तो आपका मन भी निरंतर वही रहेगा.. मनको विषय आप दे रहे हैं .. ध्यान दो मनको विषय आप दे रहे हैं और उलाहना मनको देते हो कि मन परमात्मा में नही लगता.. कैसे लगेगा मन वही होगा जहा आप होगे, बडे चालाक हो खुद माया से जुडे हो और मन परमात्मा जे जोडना चाहते हो ..

बहोत ही simple है खुदको परमात्मा से जोडलो मनको वही आना पडेगा और आपके परमात्मा विषय में खुद वृद्धि करता रहेगा निरंतर, ये नियम है,
इसलिय कभी भी परमात्मा में मन लगाने का व्यर्थ प्रयास मत करना, नही लगेगा, जीवन लगा दो फिर भी नही लगेगा...

*कयोंकि मन का कार्य है आपकी सवंय की स्थिती से उत्पन्न विषय में निरंतर वृद्धि करना..*

सवंय कि स्थिती परमात्मा में करलो मन लगाना नही पडेगा लगजायेगा, अपने आप...

पर ध्यान रहे विषय परमात्मा ही हो अर्थात अदूैत, जोकी 99% जीवो का नही होता 1% जीव होते हैं जो अदूैत में रहते है अन्यथा सभी दूैत में है .. और जो 99% दूैत में हैं तो उनका मन भी दूैत के विषय मे निरंतर वृद्धि करता रहता है इसलिय अदूैत उनके लिय कठिन हो जाता है...
इसलिय अदूैत को समझना परम आव्यषक है..
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प्रणाम जी


गुरू का संबंध कोई पुर्णिमा से नही है, पुर्णिमा तो महिने में एक बार आती है मासिक है, और उसमें भी अंधेरे का आधिपत्य रहता है , गुरू तो सूर्य के समान नित्य है, जिसकि उपस्थिती मात्र से निरंतर  अंतरहृदय में अग्यान रूपी अंधेरे का नाश है.....
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प्रणाम जी


दूैत को त्याग कर उदूैतमय हो जाना ही सही व एक मात्र मार्ग है , इस अदूैत के कई नाम हैं जैसे- प्रेम, सत्य या सांच, शुद्ध अनन्यता, कैवल्य आदी आदी,
इसके अलावा सब संसारी ग्यान है, दूैत का है फिर चाहे पूरा वेद कंठस्त करलो पूरी वाणी को याद करलो पर दूैत से पीछा नही छूटेगा.. गीता में इस विषय पर बहोत सपष्ट कहा है...

अध्यात्मज्ञान नित्यत्वं तत्त्वज्ञानार्थदर्शनम्।
एतज्ज्ञानमिति प्रोक्तमज्ञानं यदतोऽन्यथा।। (गीता, १३/११)

आत्मा के आधिपत्य में निरन्तर चलना अध्यात्म का आरम्भ है। उसके संरक्षण में चलते हुए परमतत्त्व परमात्मा का प्रत्यक्ष दर्शन और दर्शन के साथ मिलनेवाली जानकारी ज्ञान है। यही अध्यात्म की पराकाष्ठा है। इसके अतिरिक्त सृष्टि में जो कुछ है अज्ञान है...

*"सांचा साहेब सांचसो पाइये सांचको सांच है प्यारा"*
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प्रणाम जी

Saturday, July 16, 2016

सुप्रभात जी
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अरे जीव ! तुने प्रकृती से संबंध बना कर अपनी स्थिती उसमें करके तू बाह्यमुखी हो गया है.. तूं अपनी मुर्खता में इधर - उधर क्यों भटक रहा है ? प्रकृती से संबंध से तूने कूकर, शूकर, कीट पतंगादि अनन्त शरीर धारण किये | अनंत स्त्री, पति, पुत्र बनाये, एवं अब भी बनाता जा रहा है | किंतु तू जिस दिव्यानंद को चाहता है, वह कहाँ है, यह नहीं सोच पाता | अरे जीव सुन ! वेद - पुराणादि द्वारा यह निर्विवाद सिद्ध है कि वह परमानन्द एकमात्र तेरी शरणागति व प्रेम मार्ग से ही प्राप्त हो सकता है | *ध्यान दे, तेरी शरणागती, नाकि तेरे मनकि शरणागती..* जब तू परमात्माको भलीभांती शुक्ष व अन्नत रूप मे जानकर अन्नय अदूैत प्रेमभाव से उनको धारण करेगा तब तू अनन्त काल के लिए आनन्दमय होजायगा; इस प्रकार तेरी सब बिगड़ी बन जायेगी | शिघ्र कर समय निकल रहा है... *अपने को प्रकृती से हटा कर परमात्मा में स्थित करले इसके अलावा कोई मार्ग नही है..*
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प्रणाम जी

Friday, July 15, 2016

*सार*

सुप्रभात जी
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तुम्हारा याहां किसी से भी संयोग नहीं है, तुम आत्मा हो शुद्ध आनंद स्वरूप व चेतन जबकी यह संसार जड व दुख के घर की मान्यता मात्र है ,इसलिय तुम्हारा इस से संयोग कैसे हो सकता है.. ये तो मात्र तुम्हारे जीव की मान्यता से यह संसार तुम्हे भाषित हो रहा है. जिस दिन तुम अपनी मान्यता संसार से हटा लोगे उसी दिन तुम्हारा बनाया हुआ संसार लय हो जायगा ... ध्यान दो तुम शुद्ध हो, और ये संसार है ही नही, तुम हो, सदा से हो, पर ये संसार परपंच है ही नही, सदा से नही, इसलिय तुम हो और ये नही है, तो "है" और "नहि" का कया मेल अर्थात कोई मेल नही है .. तुम "हो" इसलिय तुमने अपनी मान्यता से इस "नही" को भी "है" बना रखा है..कयोंकि "है" कि मान्यता में "नही" भी "है" जैसा लगता है पर वास्तव मे ये है ही नही केवल तुमहारी मान्यता मात्र है बस..*इसलिय जब तुम्हारा और संसार का मेल ही नही है तो तुम क्या त्यागना चाहते हो,* जो तुम्हारा है (परमात्मा) वो तो सदा से तुमहारा है और सदा रहेगा तो उसमें पाना कया है, जो तुमसे अलग नही है उसे पाने के लिय मूढंता में रोते हो ओर कहते हो ये प्रेम है, *और जो तुम्हारा है हि नही (संसार) तो उसमे त्यागना कया.* उसे तुम मुर्खता में त्यागना चाहते हो.. अरे मान्यता का बनाया संसार है तो अपनी मान्ता इस से हटालो, तुम्हारा संसार खत्म.. इसलिय इस (अवास्तविक) मेल को समाप्त कर के "है" से "है" को मिलाकर पहले जैसा "है" करदो अर्थात ब्रह्म से योग (एकरूपता) को प्राप्त करो॥
यहि सार है ..
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प्रणाम जी

Wednesday, July 13, 2016

*अदैूत*

सुप्रभात जी

अगर तुम्हें पता है कि तुम परमात्मा—अंश हो तो तुम्हें पता होगा कि बिछुड़ा कभी भी नहीं। तुमने बिछुड़ने का सपना देखा। बिछुड़ा कभी भी नहीं, क्योंकि अंश बिछुड़ कैसे सकता है? अंश तो अंशी के साथ ही होता है। तुम्हें याद भूल गई हो, बिछुड़न नहीं हो सकती, विस्मृति हो सकती है। बिछुड़ने का तो उपाय ही नहीं है। हम जो हैं, वही हैं। चाहे हम भूल जाएं, विस्मरण कर दें, चाहे हम याद कर लें—सारा भेद विस्मृति और स्मृति का है।

‘मूल से कब, क्यों और कैसे बिछुड़ा?’
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बिछुड़ा होता तो हम बता देते कि कब, क्यों और कैसे बिछुड़ा। बिछुड़ा नहीं। रात तुम सोए, तुमने सपना देखा कि सपने में तुम घोड़े हो गए। अब सुबह तुम पूछो कि हम घोड़े क्यों, कैसे, कब हुए—बहुत मुश्किल की बात है। ‘क्यों घोड़े हुए?’ हुए ही नहीं, पहली तो बात। हो गए होते तो पूछने वाला बचता? घोड़े तो नहीं पूछते। तुम कभी हुए नहीं, सिर्फ सपना देखा। सुबह जागकर तुमने पाया कि अरे, खूब सपना देखा! जब तुम सपना देख रहे थे तब भी तुम घोड़े नहीं थे, याद रखना। हालांकि —तुम बिलकुल ही लिप्त हो गए थे इस भाव में कि घोड़ा हो गया। यही तो अष्टावक्र की मूल धारणा है। अष्टावक्र कहते हैं जिस बात से भी तुम सवंय को जोड़ लोगे, वही हो जाओगे।

देहाभिमान—तो देह हो गए। कहा ‘मैं देह हूं’, तो देह हो गए। तुम जिससे अपने मैं को जोड़ लेते हो, वही हो जाते हो। सपने में तुमने घोड़े से जोड लिया, तुम घोड़े हो गए। अभी तुमने शरीर से जोड़ लिया तो तुम आदमी हो गए। लेकिन तुम हुए कभी भी नहीं हो। हो तो तुम वही, जो तुम हो। जस—के—तस! वैसे के वैसे! तुम्हारे स्वभाव में तो कहीं कोई अंतर नहीं पड़ा है। धारणा सही रखो तो सब सुलभ है परमात्मा से कभी हम अलग है ही नही..

*इसलिय सदा खुदको परमात्मा से जोडकर रखना, पर ध्यान रहे इसमें भी सुकक्ष्म अंह है*

वो कया है ?

वो हो तुम, जब तुम खुदको परमात्मा से जोडकर रखते हो तो इसमें तुम भी हो और परमात्मा भी है , ये दूयेत है... अभी और गहरे जाओ...
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प्रणाम जी

Tuesday, July 12, 2016

यमराज और चित्रगुप्त कौन हैं ??
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*यमराज* यम का अर्थ है "जोडना" या "दो" हमारा माया के साथ योग से माया हमपर राज करने लगती है यही यम का राज है आर्थात यमराज इसके कई पार्षद है जैसे मन, चित, बुद्धि, अहंकार इन्द्रियां आदी. इन सबके वशिभूत होकर जीव यमराज से संयोग करता है या यूं कहें कि यमराज के साथ संयोग से ही उसके पार्षद जीव को पकड़ लेते है...
यमराज का वाहन भैसा बताया गया है जो काल का प्रतीक है अर्थात माया काल से चलायमान है या यूं कहें की माया याने यम का वाहन काल याने भैंसा है..जो बना है वो मिटेगा यही काल है इसी काल रूपी भैंसे की थ्योरी पर माया याने यमराज विराजमान है ...

*यमराज का रंग नीला कहा गया है* ये हमारी परकृती के साथ स्थिती का रंग है इसको आप ध्यान में बडी आसानी से देख सकते हैं.. अर्थात ध्यान में हमें कई बार जो नीला रंग दिखाई देता है वह हम पर यम याने माया का राज या हमारी माया या पृकृती के सात स्थिती को दर्शाता है अर्थात ध्यान में दिखने वाला नीला रंग ही हमारा यमराज है..
यमराज का दूसरा नाम धर्मराज भी है , अर्थात जीव की प्रकृती से संयोग की मान्यता से उसे अनेक धर्मों का पालन करना पडता है जैसे पूत्र धर्म, पिता धर्म, राज धर्म आदि आदि.. यही प्रकृती से संयोग की मान्यता से अनेक धर्मों की हमारी दासता या धर्मों की हमपर सत्ता या राज ही धर्मराज है.. प्रकृती से संयोग याने यमराज से ही हम पर अनेक धर्मों का राज होता है अर्थात यमराज का दूसरा नाम ही धर्मराज है..
सर्व धर्मान परित्यज्य माम् एकम सरणं व्रज : I
अहम त्वाम सर्व पापेभ्यो मोक्ष्य इस्यामि माँ शुच :II (भ.गी:अ १६,श्लो६६)

यमराज को गदाधारी दर्शाने का भाव उसे बलवान दिखाने से है.. जैसे हनुमान और भीम को बलशाली व गदाधारी कहा गया है, प्रतेक बलवान को गदाधारी दर्शाया जाता है..

यमराज के गुप्तचर नाम श्रवण कहा गया है.  श्रवण का शाब्दिक अर्थ सुन्ना होता है और मूल अर्थ ग्रहण करना है अर्थात जो भी हम गरहण करते है उस से हमारी प्रकृती या माया के साथ स्थिती का पता चलता है..

*चित्रगुप्त* चित्रगुप्त का अर्थ है जो चित्र या दृष्य गुप्त रूप से विराजमान हैं .. ये हमारा चित है ,चित ही चित्रगुप्त है , हमारे अनंन्त जन्मो के कर्म संसकार या चित्र रूप में शुषुप्त मन याने चित में गुप्त रूप से विराजमान रहते हैं, इन्हि चित के गुप्त संग्रहो को चित्र गुप्त कहते है इसमें आपके अनंन्त जनमों का लेखा जोखा या संसकार व्याप्त है जो प्रारब्द के रूप में हमें मिलते हैं... यही हमारे कर्मों के फल के रूप है...
ये गहन्ता की पेचितगी आमजन के लिय समझपाना कठीन है इसलिय पुराणो में इसे मूर्तिमान करके कथारूप मे दर्शादिया गया..
*यमराज और नचिकेता कि कथा का सार इसी भाव से समझ आ जायगा*

* जब जीव का संयोग परमात्मा से हो जाता है तो वह दो या दूैत या यम के बन्धन से मुक्त हो सकता है*
*याने केवल अदैत के दूारा*

ध्यान रहे दूैत में स्थित रहे तो यमराज याने माया तुम्है धसीट कर ले जायेगा..
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प्रणाम जी

Saturday, July 9, 2016

संतन का गुरु राम

सुप्रभात जी
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जिस वस्तु में अपनी स्थिती बना लोगे वही तुम्हे अपनी ओर आकृषित करने लगती है , इसी को शुक्ष्मता में गुरूतत्व कहते है और विग्यान इसे गुरूत्व आकृषण कहता है .. *कबीर जी ने इस विषय पर कहा है..*

*कामी का गुरु कामिनी , लोभी का गुरु दाम |
कबीर का गुरु सन्त है, संतन का गुरु राम ||*

अर्थात कामी व्यक्ति कि स्थिती काम मे होने के कारण वह निरंतर कामिनी कि और आकृषित रहता है , वह काम के विषय में स्थित होने के कारण उसे काम का विषय कामिनी अपनी और निरंतर आकृषित करती रहती है, इसलिय कामी का गुरू कामिनी कहा है.. इसी प्रकार लोभी को अपनी स्थिती के अनुसार दाम में आकृषित रहने के कारण उसका गुरू दाम कहलाता है, .. अब ध्यान दें..

*कबीर का गुरू संत है* इसमें कबीर ने सामान्य जन को कबीर कहा है .. अर्थात यामान्य लोग संसार मे सार ना जानकर आत्मा परमात्मा के विषय में स्थिती चाहने लगते है पर मार्ग ना मिल पाने के कारण संत में अपनी स्थिती बना लेते है व संत में ही आकृषित होते रहते है इसलिय उनके गुरू को संत काहा गया है..
संतन का गुरु राम  *पर जो वास्तव में आत्मा-परमात्मा के ही विषय को धारण किये रहते हैं वो केवल परमात्मा में स्थित रहते है व अपनी स्थिती के कारण केवल परमात्मा में ही निरंतर आकृषित रहते है इसलिय उनके गुरू राम याने परमात्मा रहते है सतगुरू मेरे शयाम जी का भाव भी यही है*
अब जान्ने वाली बात है कि संतों के गुरू राम काहा है तो संत कौन है *इसविषय पर कबीर जी ने कहा है*..

*आतम चिन्ह परमातम चीन्है, संत कहावै सोई ।
यहै भेद काय से न्यारा, जानै बिरला कोई ॥*
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प्रणाम जी

*केवल पढ़कर मत छोडना इसविषय पर गहन मंथंन करना,तो इस विषय के भी विषय को गरहण कर पाओगे*

Friday, July 8, 2016

वासना..
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     प्रकृती के साथ संयोग करके बार-बार विषयों का सुख लेते रहने पर चित्त में उनका संस्कार निर्मित होता है। संस्कार दृढ होकर वासना का रूप धारण कर लेता है। वासना के कारण मान्यता रूपी मनुष्य की विषय-सुख की इच्छा बार-बार होती है। वह उन्हें प्राप्त करने और भोगने का प्रयास करता है। आसक्ति युक्त भोग से वासना बार-बार दृढ होती रहती है। जीवन के अन्त तक वह बहुत बढ जाती है। प्रकृती के साथ संयोग से वासनाओं की तृप्ति के लिए जीव को बार-बार शरीर धारण करना पडता है। यह जीव के लिए विवशता है। इसे बंधन कहते हैं।
          विषयों का राग या आसक्ति स्वतः समाप्त नहीं हो जाती। वृद्धावस्था में इन्द्रियाँ शिथिल और दुर्बल हो जाने पर अनासक्त हो जाने का भ्रम होता है। वस्तुतः वासनायें बडी सूक्ष्म और गहन होती हैं। वे वृद्धावस्था में सूक्ष्मस्प से बीज के समान चित्तभूमि में पडी रहती हैं। मरने के बाद जब अगला शरीर मिलता है, तो इन्द्रियाँ फिर सशक्त होने लगती हैं और पूर्व जन्म की वासनाऍ अंकुरित होकर जीव को पुनः भोगों में प्रवृत्त कर देती है। इस प्रकार जीव की प्रकृती के साथ संयोग की धारणा या मान्यता का बंधन जन्म-जन्मान्तर चलता है वह स्वतः कभी मुक्त नहीं होता।
     मुक्त होने के लिए जीव को प्रयास करना होता है। उसके लिए एक सुनिश्चित क्रमबद्ध रास्ता है। उस पर धैर्य के साथ आगे बढते रहने से अन्त में आत्मा और परमात्मा का ज्ञान होता है। उसे अनुभव हो जाता है । फिर वह विषयों का सुख झूठा समझकर त्याग देता है। जब परमात्मा का आनंद आता है तो जन्म जन्म के विकार अपने आप छूट जाते हैं..*जब ये सुख आवे अंगमे तो छूट जाये सब विकार..*
*ये सुनिश्चित क्रमबद्ध रास्ता किसी आप ऐसे व्यक्ती से ग्रहण कर सकते है जीसे आत्मा और परमात्मा की एकरसता का बोध या स्वः साक्षात अनुभव हो*

*पर ध्यान रहे उसे गुरू मत समझना कयोंकी वो आपकी सतगुरू से भेंटकरवा देगा अर्थात आपको गुरूमुख कर देगा ,वो सवंय गुरू नही होता*
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प्रणाम जी

Tuesday, July 5, 2016



*साकाम और निस्काम भक्ति वो नही है जो आजतक हमने सुना है या समझा है..*
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आज तक कि हमारी धारणा या मान्यता के अनुसार साकाम भक्ति का अर्थ है कोई सांसारीक कामना से परमात्मा की भक्ति करना, और निष्काम भक्ति का आर्थ है बिना किसी सांसारिक कामना के केवल परमात्म की चाह रखना या कामना करना..
और कोई प्रश्न करे कि कामना तो दोनो में है फिर निष्काम भक्ति कैसे हुई, तो हमारे पास कोई जवाब नही होता और अपनी बुद्धि से अटपटा जवाब देते हैं कि परमात्मा कि कामना दिव्य कामना है इसलिय ये कामना नही मानी जायगी इस कारण ये निष्काम भक्ति है..
*गलत बिल्कुल गलत*
*जानलो ये गलत धारणा या मान्यता है*

ध्यान दें भक्ति दो ही प्रकार की है साकाम और निष्काम, पर हमने साकाम भक्ति को बहोत निम्न स्तर पर लाकर माया का रूप बना दिया, साकाम को इतने निम्न स्तर पर मान्ने के कारण हमारी निष्काम भी अपने वास्तविक स्तर पर नही पहोंच पाई और हम वास्तविक निष्काम के स्तर तक नही पहोंच पाये , और निस्काम भक्ती से अनभिग्य हो गये..

हमारी साकाम भक्ति कि मान्यता के अनुसार अपनी कोई सांसारीक इच्छा के लिय परमात्मा कि भक्ती साकाम भक्ति है.. ध्यान दें इसमें भक्ति कया है ? इसे साकाम भक्ति कहना भक्ति का अपमान है .. ये तो परमात्मा की साकाम भक्ति कैसे कह सकते हो ?? गहनता से देखो, इसमें कामना याने इच्छा कि भक्ती है अर्थात केवल माया की चाह है, माया ही मांग रहे हो तो परमात्मा की भक्ति कैसे हुइ..??
ये साकाम भक्ति नही है ये माया है , इसे साकाम भक्ति नही कहना, ये तो कामना है , भक्ति नही ..

फिर साकाम और निष्काम भक्ति कया है ??

अब ध्यान दो पहले जानों कि साकाम भक्ति कया है .. *जिसे तुम निष्काम कहते हो वो है साकाम भक्ति* अर्थात केवल परमात्मा को चाहना या परमात्मा को पाने के लिय उसकी भक्ती करना साकाम भक्ति है ,, कयोंकी इसमे परमात्मा को पाने कि कामना है इसलिय ये साकाम भक्ति है..
अर्थात जो हमारे अनुसार निष्काम थी वो तो साकाम भक्ति है..
तो निष्काम भक्ति कया है???
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इसकि चर्चा कल.....

प्रणाम जी

Saturday, July 2, 2016

सुपरभात जी

*कलयुग*

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कलयुग को इसलिय महत्वपूर्ण माना गया है कयोंकी इसी कलयुग में ब्रह्म ग्यान प्रकट हुवा है ..

बुद्ध स्तोत्र
"" कलियुग ""के प्रथम चरण में वह सच्चिदानन्द परब्रह्म अचानक ही ज्ञान रूप से प्रकट होंगे, जिनके ज्ञान को प्राप्त करके तुम स्वयं भी ज्ञानमयी हो जाना ।।५।।

(हरिवंश पुराण भविष्य पर्व अध्याय ४ )
इसमें कहा गया है कि कभी न होने वाले वे ब्रह्ममुनि ""कलियुग"" में अवतरित होंगे, जो एकमात्र प्रधान पुरुष (अक्षरातीत) के ही आश्रय में रहने वाले होंगे और उनको छोड़कर अन्य किसी की भी उपासना नहीं करेंगे । उनका ग्यान अलौकिक होगा

*कलयुग में सतगुरू पचान होनी है ..हम अनंत जन्मों से निगुरे है , कारण, गुरू का ना मिलना, कलयुग में ही सतगुरू से मिलन होना है, जिसे पाकर तुम सवंय सतगुरूरसमय हो जाओगे*

कलियुग केवल नाम अधारा ,
सुमिर सुमिर  नर उतरहि  पारा।

कलयुग केवल नाम(पहचान) के आधार पर पार हो जाता है ..याहां नाम का अर्थ केवल पहचान है, नाम हमारी पहचान का सुचक है.. *निनाम सोई जाहेर हुआ* का भाव भी पहचान से ग्रहण करोगे तो नाम का झगडा ही नही होगा..

*सुमिर सुमिर  नर उतरहि  पारा।*

 सुमिरन यवंय का विश्राम है. सवंय का परमात्मा विषय में विश्राम ही सुमिरन है, समाधि मध्य में है और सुमिरन शिखर है. सुमिरन अर्थात परमात्मा के प्रति जागना या उसमें स्थित होना..

*सुरति क्या है ?*

 सांसों के साथ आत्मा अथवा परमात्मा के प्रति होश को सुरति कहते हैं. सूफी इसे फ़िक्र कहते हैं. इसमें सहज ही निरंतर निर्विचार स्थिती की अवस्था बनी रहती है. सुरति होश से ज्यादा प्रभावशाली है.

*सुमिरन क्या है ?*

जब सुरति में परमात्मा जोड़ दिया जाता है, तो उसे सुमिरन कहते हैं. सूफी इसे जिक्र कहते हैं. यह सर्वाधिक प्रभावशाली है. प्रभाव की दृष्टि से सुमिरन कों 100 प्रतिशत अंक दिया जा सकता है,

”“सुमिरन चार प्रकार से किया जाता है – (1) कंठ से, (2) मन से, (3) ह्रदय से एवं (4) साक्षी होकर.

1- कंठ से सुमिरन का अर्थ है बोलकर सुमिरन, बोलकर प्रभु की याद, कीर्तन. ज्यादातर लोग इसे ही सुमिरन कहते है या समझते है..

2- मन से सुमिरन का अर्थ है प्रभु के नाम और रूप का मनन करते हुए सुमिरन.

3- ह्रदय से सुमिरन का अर्थ है प्रेम से भरकर परमात्मा की याद. ये तीनों प्रकार के सुमिरन संत वाणी में वर्णित हैं.

*साक्षी सुमिरन का अर्थ है आत्मस्थिती को परमात्मा मे स्थित कर लेना या हो जाना, यही सत्य  सुमिरन है. यह सर्वाधिक प्रभावशाली है.”*

इसका सार जो आप ग्रहण कर रहें है यही ब्रह्म ग्यान है, ये कलयुग में ही होना था इसलिय कलयुग महान कहा गया है..
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प्रणाम जी


Wednesday, June 29, 2016

*ध्यान का उद्देश्य क्या है ?*

सुप्रभात जी
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ध्यान का उद्देश्य है सवंय में स्थित होना ,हम शुद्ध निर्लििप्त व निर्विकार हैं ध्यान में हम उसी अवस्था में स्थित होते हैं जो हमारा स्वभाव है .
' सवंय ' की स्थिती में दुखों का नाश छिपा हुआ है अर्थात दुखों की आत्यंतिक निवृति होना .कयोकी सवंय में स्थित होने से हमरी स्थिती प्रकृती या माया से हटती है.. प्रकृती या माया को ही दुख का मूल काहा गया है इसलिय ' सवंय ' की स्थिती में दुखों का नाश छिपा हुआ है...
सुख-दुःख मन के अंतर्गत हैं , हम सवंय , मन के परे हैं .
अतः मन की किसी क्रिया द्वारा सवंय को नहीं पाया जा सकता है.
ध्यान मन का अतिक्रमण है ,ध्यान मन से मुक्ति है ताकि मन के अतीत सवंय में स्थित हो सकें .
ध्यान मन की कोई क्रिया नहीं है ,अपितु मन की अक्रिय अवस्था को ध्यान कहते है .मन की अक्रिय जागरूक अवस्था ध्यान
है .
एकाग्रता ,पूजा -पाठ ,मंत्र जाप ,त्राटक ,चक्र व कुण्डिलिनी जागरण ये सभी ध्यान नहीं है ,ये सभी मन की क्रियाएँ हैं.
मन की क्रिया द्वारा मन का अतिक्रमण संभव नहीं है .क्योंकि प्रत्येक मन की क्रिया में मन व अहम उपस्थित रहेगा .
जब मन की कोई क्रिया नहीं है अर्थात आप कुछ नहीं कर रहे है सिर्फ जागरूक हैं ,साक्षी है ,विश्रांत हैं ,मात्र होनापन है
यह है 'ध्यान '.आप न तो एकाग्रता कर रहे है ,न मंत्र जाप कर रहे हैं ,न त्राटक,न पूजा पाठ ,न चक्र या कुण्डिलिनी जागरण
आप मात्र मन के साक्षी हैं ,दृष्टा है ,मात्र "आप हैं " -यह है ध्यान . ध्यान का आपका स्वरूप है ,

*सवंय में स्थित होने के बाद परमात्मा में स्थिती सुलभ हो जाती है.. जिस से परमात्मा की प्राप्ती होती है*

इसलिय काहा है .. *पहले आप पहचानो रे साधो..*
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प्रणाम जी

Tuesday, June 28, 2016

*मैं सवंय कौन हूं??*
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इस संसार आडम्बर में मैं कौन हूँ जो बोलता हूँ, देह और यह जगत् तो मैं नहीं, यह तो असत्य उपजा है और जड़रूप पवन से स्फुरणरूप होता है सो मैं कैसे होऊँ?

यह देह भी मैं नहीं क्योंकि यह तो क्षण-क्षण में काल से लीन होता है और जड़ रूप है।

श्रवणरूपी जड़ भी मैं नहीं, क्योंकि जो शब्द सुनते हैं वह शून्य से उपजा है

त्वचा इन्द्रिय भी मैं नहीं इसका क्षण-क्षण विनाश स्वभाव है । प्राप्त हुआ अथवा न हुआ, यह इष्ट है, यह अनिष्ट है, इन्द्रियाँ आप जड़ हैं पर इनके जानने वाला चैतन्य तत्त्व है और चैतन्य के प्रमाद से ये विषय उपलब्धहोते हैं । इससे न मैं त्वचा इन्द्रिय हूँ, और न स्पर्श विषय हूँ, यह जड़ात्मक है

यह जो चच्चलरूपी तुच्छ जिह्वा इन्द्रिय है और जिसके अग्र में अल्प जल अणु स्थित है वही रस ग्रहण करता है, वह रस भी जीवसत्ता करके लब्धरूप होता है वो आप जड़ है,
इससे यह जड़रूप जिह्वा और रस मैं नहीं

ये जो विनाशरूप नेत्र दृश्य के दर्शन में लीन हैं सो मैं नहीं और न मैं इनका विषयरूप हूँ, ये जड़ हैं । यह जो नासिका पृथ्वी का अंश है सो केवल जीव के आधार है यह आप जड़ है पर इसका जाननेवाला चैतन्य है, सो न मैं नासिका हूँ, न गन्ध हूँ, मैं अहं मम से और मन के मनन से रहित शान्तरूप हूँ और ये पञ्च इन्द्रियाँ मेरे में नहीं

*मैं शुद्ध चैतन्यरूप कलना कलंक से और चित्त से रहित चिन्मात्र  निःसंकल्प निर्मल शान्तरूप हूँ । अब मुझको अपना स्वरूप स्मरण आता है । प्रकाशकरूप चैतन्य अनुभव अद्वैत मेरे अनुभव से स्थित है ।
मैं सवंय प्रकृती के साथ स्थित था जिस कारण मेरा मन अन्नत प्रयास के बाद भी अदूैैत परमात्मा में नही लग रहा था.. अब मैं सवंय प्रकाशकरूप चैतन्य  अद्वैत परमात्मा में स्थित हूं तो मन आदी भी अब यहीं है..
इसलिय सवंयम की खोज करने से मूल तत्व का मार्ग मिलेगा..
पेहेले आप पेहेचानो रे साधो, पेहेले आप पेहेचानो ।
बिना आप चीन्हें पार ब्रह्मको, कौन कहे मैं जानो।।
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प्रणाम जी

Monday, June 27, 2016

*उपहार और समर्पण में भेद*

सुप्रभात जी
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*जब हर पल परमात्मा में स्थित रहने लगो तब समझना जीवन सफल होने लगा है..
आप कहोगे कहना आसान है पर बहोत अभ्यास के बाद भी नही हो पाता.. मैं कहता हूं बहोत आसान है , आप उठकर पानी का गलास लेते हो इस से भी आसान,
*कैसे?*
बस तुम ये जो मेरा परमात्मा में लगाते हो,मेरा मन, मेरी बुद्धि, मेरा चित,  ये मेरा छोडकर जो मेरा कहने वाला है उसको परमात्मा में स्थित करलो, मेरा कहने वाला सवंय परमात्मा में आ गया तो उसने जो भी मेरा मान रखा है वो सब अपने आप आजएगा ..जैसे किसी राजा के समर्पण से उसके मन्त्री, सैनापती और सैना का समर्पण अपने आप हो जाता है ...वरना अगर सिर्फ मन्त्री या सैनापती को मारोगे या पकड़ने का प्रयास करते रहे तो वो राजा और नये बना लेगा..
अब सवंय कोन है और परमात्मा में कैसे लगे ये पता है तो ठीक है वरना किसी के माध्यम जान लो पर ध्यान रहे जिस माध्यम से जानो वो सवंय परमात्मा में स्थित हो ये परम शर्त है...और ध्यान रहे माध्यम से समझकर परमात्मा में स्थित होना है , माध्यम में नही ... यही समर्पण है ..

एक बात और समझना बहोत ध्यान से कि हम समर्पण और उपहार (gift)मे भेद न जान्ने के कारण परमात्मा में समर्पण ना करके उन्हे उपहार देने का प्रयास करते रहते है , ध्यान देना इसका भी केवल प्रयास करते हैं दे नही पाते , कयोंकी संवय को परमात्मा मे लगाना या उन्हे देना समर्पण है, और सवंय का कुछ परमात्मा को देना उपहार कहलायगा, ..
आप अपना मन उन्हेदेकर समर्पण सोच रहेहोना तो ध्यान से सुनो ये समर्पण नही उपहार देने का प्रयास कर रहे हो.. समर्पण होता है खुदको देना...अरे संसारी ग्यान से ही समझलो एकलव्य ने द्रोंण को अंगुठा दे दिया तो समर्पण कहलाया या गुरू दक्षिणा, ध्यानदेना *दक्षिणा* कहलाया समर्पण नही.. यही हम किये जा रहे है अपना अर्थात मेरा मन, मेरी बुद्धि, मेरा चित ये तो आपका है आप नही हो, आपका दोगे तो उपहार होगा और सवंय को देना या लगाना समर्पण होगा...एक और संसारीक उदाहरण- कि जैसे पत्नी पती को कोइ भी अपनी वस्तु दे तो ये उपहार है, और खुद को देने से समर्पण हो जाता है..ध्यान रहे परमात्मा तुम्हारे उपहार का भूखा नही है, संसारीक बोल बोलूं तो उपहार देने का परयास करके तुम उसका अपमान कर रहे हो...

ये है अध्यात्म का A, और हम समझतो हैं की गुरू से नाम ले लिया तो हमारी शुरूआत हो गयी हमें A आ गया...
*ध्यान दो*
जब हर परकार को बाह्य प्रपंच देख कर भी मन की दौड़ अंदर की ही होने लगे तब समझलेना तुमहारी सवंय की स्थिती परमात्मा मे होने लगी है...
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प्रणाम जी

Sunday, June 26, 2016

मन के दूारा परमात्मा को या गुरू तत्व को नही पाया जा लकता

कल का शेष

सुप्रभात जी..

मूल विषय था....या गुरूमुख कोन है या गुरू का दास का कया भाव है ... इसका भाव को समझने के लिय उप विषय आया  *मन के दूारा परमात्मा को या गुरू तत्व को नही पाया जा लकता*
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तो मिले कैसे ???..??
पहले उपविषय को पकडें..

*अब ध्यान दें...*

विषय समझने से पहले एक बार मोटा मोटा ये समझलों कि अध्यात्मशास्त्र के अनुसार मनुष्य किन घटकों से बना है ?

जीवित मनुष्य आगे दिए अनुसार विविध देहों से बना है ।

१. स्थूल शरीर अथवा स्थूलदेह

२. चेतना (ऊर्जा) अथवा प्राणदेह

३. मन अथवा मनोदेह

४. बुद्धि अथवा कारणदेह

५. सूक्ष्म अहं अथवा महाकारण देह

६. जीव अथवा हम सभी में विद्यमान ईश्‍वरीय तत्त्व

अब इनमे जान्ने वाली केवल एक ही बात है वो है
*सूक्ष्म अहं अथवा महाकारण देह*
यह मनुष्य की अज्ञानता का प्रथम उत्पन्न भाग । अज्ञानता कया है ? मैं ईश्‍वर से अलग हूं, यह भावना ही अज्ञानता है ..

*अब बहोत ध्यान से विषय को पकडना..*

जैैसे ही जीव को सूक्ष्म अहं हुआ तो वह परमात्मा से हटकर प्रकृती से जुड गया *मतलब जीव का जैसे ही प्रकृती से जुडाव हुआ तो कारण, मन, प्राण और इसकी स्थूल थेह अस्तितव में आ गये*

वैसे इनका कोई स्वतंत्र अस्तितव नही है.. ये सब जीव के शरीर मात्र हैं .. अब इतना समझने के बाद हमारी समझ मे आ जायगा की *मन के दूारा परमात्मा को या गुरू तत्व को नही पाया जा लकता*
एक उदाहरण से समझें .. अगर में ये कहूं कि मैं तो संसार में रहूं लेकिन मेरा हाथ परमात्मा मे लग जाए, या मैं अपने सास बहू के सिरियल देखती रहूं लेकिन मेरा पांव परमात्मा मे लग जाय, बताइये कया यह संभव है .. कयोंकी आपके हाथ पांव आपसे आलग होकर कार्य कैसे करेंगे बताओ कर सकते हैं कया ठीक वैसे ही हम कर रहे हैं हम खुद प्रकृती के साथ आपनी स्थिती बनाऐ हुये हैं और कह रहे है हमारा मन परमात्मा मे लग जाय ,अरे मन आपका ही है ये वहीं रहेगा जाहां आप हो जैसे आपके हाथ पांव वही है जहा आप हो वैसे ही मन भी है , ये मन परमात्मा में कैसे लगेगा जब इसका कोइ खुदका अस्तितव ही नही है..जहां आप वहा मन, तो *खुद परमात्मा में लग जाओ तो मन कया संसार में रहेगा..नही ये खुद वहीं रहेगा जहां आप हो आप परमात्मा में तो मन चित बुद्धि आदि सब आपके साथ याने परमात्मा मे ओर आप प्रकृती अर्थात माया में तो सब माया में अब सोचो कितनी मर्खता कर रहे हो खुद माया में रह कर मनको परमात्मा मे लगाने में अनेक जीवन व्यर्थ गवां दिय ..और कह रहे हो की मन परमात्मा में नही लगता ...इसलिय 80 हजार साल समाधी के बाद भी मन वही आया जाहां विशवामित्र की सवंय की स्थिती थी, इसलिय इतनी तपस्या के बाद भी मन नही लगा परमात्मा में .... अरे 80 हजार नही करोडों वर्ष लगादो फिर भी कया होगा ..इसमें मनकी कया गलती इसलिय मन को नही लगाना है खुदको लगाना है मीरा कबीर तुल्सी आदी ने मन नही लगाया वो खुद लग गये इसलिय पा लिया बोलो मन लगाते रहते तो परमात्मा मिल्ते कया .. *बस यही बात गांठ बांधलो ओर लग जाओ परमात्मा में ..मन एक मिनट में लग जायेगा*

बस यहीं से समझलो कि गुरूमुख कोन है , जो गूरूतत्व में मन ना लगा के खुद लगा है..या गुरू का दास का कया भाव है ..तो आपकी खुदकी गुरू तत्व में स्थिती होने को ही गुरू या परमात्मा का दास कहा है कयोंकी दास का अर्थ है आप जिसके लिय निरंतर तत्पर हों... बहोत महत्वपूर्ण विषय है इसके बिना कल्याण कठिन है.. ... ये विषय अबतक छिपा था कयोंकि जो परमात्मां में स्थित हो चुके थे वो बताने वाले अब रहे नही इसलिय सार बताने वाले चले गये केवल उनके दूारा बताऐ शब्द हैं जिनमें सार छिपा है ...इसलिय विषय छिपा रहा.. बार बार मंथन करो इस विषय का, ओर ग्रहण करो पढकर मत छोडदेना...
अब उपनिषदों का यह कथन हमारी समझ में आजायेगा और वेद भी कहता यही कहता है..

उपनिषदों का कथन है कि वह ब्रह्म मन तथा वाणी से परे है, अतः उसे इन्द्रियों, मन, वाणी तथा बुद्धि के साधनों से प्राप्त नहीं किया जा सकता ।*
( कठो. २/६/)

*(कयी बार विषय शब्दो मे नही आ पाता उसके लिय संगत की आव्यश्कता होती है...इसलिय कुछ त्रुटि हो तो क्षमा करें)*
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प्रणाम जी

Saturday, June 25, 2016


(कल के विषय से आगे..)
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अब सवाल है की सब ग्रन्थो मे लिखा है की गुरू की शरणागती के बिना कल्याण नही है इसका शुद्ध भाव कया है ....या गुरूमुख कोन है या गुरू का दास का कया भाव है ... इसका भाव समझने के लिय पहले एक महत्वपुर्ण विषय को समझना पडेगा वो है कि *मन के दूारा परमात्मा को या गुरू तत्व को नही पाया जा लकता* अब आप कहोंगे कि ये तो उल्टि बात है हमने तो आज तक यही सुना हैकी मन लगाओ मन लगाये बिना परमात्मा नही मिलेंगे और तुम कहते हो कि मन लगाने से परमात्मा नही मिलेंगे ...तो में बिलकुल सही कह रहा हूं मन लगाने से न परमात्मा मिलेंगे न गुरू कि या परमात्मा कि श्रणागती संभव है ...इसको थोडा और विवादित बना दूं यह कह कर कि आज तक परमात्मा में या गुरू तत्व में किसी का मन लगा ही नही है वो चाहे मीरा हो तुलसी हो सूर हो कबीर हो या कोई भी संत हो ..तब उनको परमात्मा कैसे मिले ?? अब तो आपको मुझपर पूर्णतः संदेह हो गया होगा और आप इस विषय का शपष्टिकरण चाह रहें होगें.. पहले थोडा सा संवय सोचो कि आज के इस समय तक आपने परमात्मा में मन लगाने का प्रयास करने के बाद भी मन नही लगा उम्र भी 30-40 या 50-60 हो गयी होगी इस से कम ज्यादा भी होगी तो सोचो अब तक मन निरंतर परमात्मा में नही लगा आगे कया लगेगा अब ये बात गांठ बांधलो मन नही लगेगा नही लगेगा नही लगेगा मन लगाने का प्रयास हम आज से नही कर रहे अन्नत जन्मों से कर रहे हैं फिर भी नही लगा केवल हमारा नही किसी का नही लगा जिसने प्रयास किया मन ने उसे घुमा दिया 80 हजार साल तक मन को समाधी मे लोप किय हुये संत भी समाधी से उठते ही मन दूारा ठगे गये ऐसे प्रमाण साष्त्रो में हैं.. मन लगाने से परमात्मा या गुरू तत्व नही मिल सकता ..
*उपनिषदों का कथन है कि वह ब्रह्म मन तथा वाणी से परे है, अतः उसे इन्द्रियों, मन, वाणी तथा बुद्धि के साधनों से प्राप्त नहीं किया जा सकता ।*
 ( कठो. २/६/)
तो मिले कैसे ???..??
अब ध्यान दें....
(इसपर कल चर्चा होगी)
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प्रणाम जी

Friday, June 24, 2016

*ध्यान दें महत्वपूर्ण विषय है इसके बिना कल्याण नही है*
विषय है - कया हम निगुरे हैं..???
सुप्रभात जी
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*जो मिल्या निगुरा मिल्या गुरूमुख मिल्या ना कोय,*
*गुरूतत्व जो जानीया तो गुरूमुख हुआ जन सोय ||*
(परमात्मा दूारा दि गयी चौपाई व व्याख्या)

इसका अर्थ है हम सब निगुरे है और दूसरो को निगुरा कहते कहते उम्र गवा देते हैं.. कैसे ??

पहले जाने गूरू कौन ..शरीर गुरू ? नही ..कयोंकी जैसा गूरू का वैसा हमारा नश्वर ..
मन चित अहंकार गूरू ? नही ..कयोंकी जैसा गूरू का वैसा हमारा नश्वर ..
प्राण गूरू ? नही मृत्यु के बाद प्रकृती में लय होता है ये कार्य करने मे सहायक है सवंय कर्ता नही हो सकता
जीव गूरू ? नही ..कयोंकी जैसा गूरू का वैसा हमारा निर्विकार ..
आत्मा गुरू ? नही कयोंकी प्रकृती में इसको खुदका स्वरूप ही याद नही रहता फिर दूसरो का कया कल्याण करेगी

तो फिर गुरू कोन ??????

*अब ध्यान दें...*
परमात्मा हमारे कल्याण के लिय जिस शब्दसार रूपमें अर्थात शब्द अर्थात याहां के शब्दो में सार अर्थात अखंड का सार लेके याने सत्य का भाव लेके ग्यान रूप मे प्रकट होते है *इसे ही गुरू तत्व कहा जाता है* ये ही गुरू है सतगुरू...लेकिन ध्यान रहे परमात्मा ये किसी शरीर के माध्यम से ही करते है इसलिय उस शरीर को भी बारम्बार प्रणाम लेकीन ये भी सत्य है की शरीर गुरू नही हो सकता ..अब गलती यहा से शूरू होती है कि हम उस शरीर से ही मोह कर बैठते है लेकिन ये ध्यान नही देते कि जिस महात्मा के शरीर में तुम मोह कर रहे हो वो महात्मा या संत बना ही इसलिय है कयोंकी उसने इस शरीर को नश्वर समझ कर इसे त्याग चुका है.. इस हाड मास से बने शरीर को वो विष्ठा समझता है इसलिय वो संत है और हम उसकी विष्ठा मे ही मुह मार रहे है और विष्ठा खाने से आप अवश्य ही सवास्थय नही रहेंगे रोगी हो जाते हैं इसलिय रोगी हो गये हो रोग कया? काम, करोध, लोभ, मोह, ओर अहंकार या राग ओर अनुराग उस शरीर में ही कर बैठते है ...
ध्यान दें कयोंकी झूठ मे गुरू की मान्यता की इसलिय सत्य गुरू तत्व नही पकड़ पाये ओर झूठ का अर्थ है जो है नही या जो मिटता है ..तो जो है नही उसमे मान्यता की तो इसका अर्थ है आपने नही को गुरू माना तो आपका गुरू है ही नही तो हो गये ना हम निगुरे इस कारण हम सदा से निगुरे है अरे गुरू धारण किया होता तो कल्याण हो गया होता कबका ...हम हर जन्म मे नही को गुरू मान्ते आ रहे है इसलिय गुरू बनाकर भी कल्याण नही हो रहा जबकी सारे शाष्त्र कहते है गुरू से कल्याण होता है तो कया शाष्त्र झूठे है .. नही हमने झूठ पकड रखी है..एक उदाहरण से समझें..
कुछ समय पहले मेरी एक मित्र से बात हूई उसके गुरू ने कुछ समय पहले ही शरीर छोडा है तो वो कहने लगे की अब हम अनाथ हो गये है हमारे गुरू हमें छोडकर चले गये ...
इसका अर्थ है कि गुरू हमने *नही* अर्थात शरीर को माना तो ऐसा नही है की हम उस शरीर के जाने के बाद बिना गुरू के हुये है बल्कि सत्य तो ये है कि हम शुरू से ही बिना गुरू के थे अर्थात निगुरे थे बस बात इतनी है की जबतक गुरू का शरीर था तो हम गफलत में रहे की हम गुरूमुख हैं और उस शरीर के जाते ही अहसास हो गया की निगुरे हैं...
इसलिय
*जो मिल्या निगुरा मिल्या गुरूमुख मिल्या ना कोय,*
*गुरूतत्व जो जानीया तो गुरूमुख हुआ जन सोय ||*

अब सवाल है की सब गरन्थो मे लिखा है की गुरू की शरणागती के बिना कल्याण नही है इसका शुद्ध भाव कया है ....या गुरूमुख कोन है या गुरू का दास का कया भाव है ... इसकि चर्चा कल करेंगे..
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प्रणाम जी

Wednesday, June 22, 2016

सुप्रभात जी
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अखंड ग्यान को मथ के उसका सार तत्व ग्रहण करना चाहिय..कयोंकी सार से ही जागृती आती है आत्मा मे ओर जागृत आत्मा का जीव अपने निर्विकार स्वरूप को जान पाता है..इसलिय अखण्ड ज्ञान द्वारा जागृत या अपने स्वरूप को प्राप्त हुआ जीव का मन स्वतः ही कर्मों की प्रवृत्ति से अलग हो जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि मन के अधीन रहने वाले अन्य अंगों (इन्द्रियों) में भी यही स्थिति बन जायेगी। कयोंकी मन की अपनी कोई सत्ता नही है इसलिय जब जीव अपने स्वभाव में आयगा, तब मन भी जीव की भाषा बोलने लगेगा। इस प्रकार जीव और मन आत्मा के सानिध्य में एक ब्रह्मानन्द के रंग में रंग जायेंगे।ओर जीव को ब्रह्मका बोध हो जाता है , और जब जीव को ब्रह्म का बोध होता है तो विषयों में भटकने वाला मन भी इससे अछूता नहीं रहता। मन ही इन्द्रियों का राजा है। ब्रह्मानन्द की रसधारा मन को विषयों से अलग कर देती है। उस समय जीव, अतःकरण (मन,चित,बुद्धि,आदी) एक ही आनन्द के रंग में डूब जाते हैं। इसलिय ब्रह्मग्यान को केवल पढने या पाठ करने से काम नही चलेगा , उसको मथके सार लेना होगा , जिस प्रकार सागर के रत्न पाने कि इच्छा लेकर अगर उपर ही तैरते रहे तो कुछ समया-अवधी के बाद निश्चित ही थक कर डूब जाते है , पर जिनको पता है की रत्न सतह पर नही गहराई में हैं वे सफलता पर्वक रत्न ढ़ूंड लेते हैं...
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प्रणाम जी

Tuesday, June 21, 2016

सुप्रभात जी
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मनुष्य जन्म अत्यन्त ही दुर्लभ है, मनुष्य जीवन का केवल एक ही उद्देश्य और एक ही लक्ष्य होता है, वह परमात्मा के प्राप्त करना है। परमात्मा को प्राप्त करके मनुष्य सुख और दुखों से मुक्त होकर कभी न समाप्त होने वाले आनन्द को प्राप्त हो जाता है।

यहाँ सभी सांसारिक संबंध स्वार्थ से प्रेरित होते हैं। हमारे पास किसी प्रकार की शक्ति है, धन-सम्पदा है, शारीरिक बल है, किसी प्रकार का पद है, बुद्धि की योग्यता है तो उसी को सभी चाहते है न कि हमको चाहते है। हम भी संसार से किसी न किसी प्रकार की विद्या, धन, योग्यता, कला आदि ही चाहते हैं, संसार को नहीं चाहते हैं।

इन बातों से सिद्ध होता है संसार में हमारा कोई नहीं है, सभी किसी न किसी स्वार्थ सिद्धि के लिये ही हम से जुड़े हुए है। सभी एक दूसरे से अपना ही मतलब सिद्ध करना चाहते हैं। ब्रह्म ग्यान के अभाव में हम, संसार रूपी माया से अपना मतलब सिद्ध करना चाहते हैं और माया रूपी संसार हम से अपना मतलब सिद्ध करना चाहता है। हम माया को ठगने में लगे रहते है और माया हमारे को ठगने में लगी रहती है इस प्रकार दोनों ठग एक दूसरे को ठगते रहते हैं ..
इसलिय तारतम रूपी ब्रह्मग्यान को ग्रहण करके हमे अती शीध्र अपनी स्थिती प्रकृती (माया)सेे हटा कर परमात्मा में बमानी होगी अर्थात परमात्मा में स्थित होना होगा...यही एक मात्र उपाय है..

निस दिन ग्रहियो प्रेम सो युगलस्वरूप के चरणन
निर्मल होना याहूंसो और धाम वर्णन इनविध नरकसो छुटिये और उपाय कछुनाही **भजन** बिना सब नरक है पच पच मरियो माही...
*भजन* भज धातु से बना है जिसके अर्थ हैं सेवा करना या लगाना (अर्थात संवय को प्रकृती से हटा कर परमात्मा में लगाना या स्थित करना भजन है)

भजन का अर्थ केवल गायन नही है..

पद गाए मन हरषियां, साषी कह्यां अनंद ।
सो तत नांव न जाणियां, गल में पड़िया फंद ॥

भावार्थ - मन हर्ष में डूब जाता है भजन गाते हुए, और साखी अथवा कथा सुन्ने  में भी आनन्द आता है । लेकिन सारतत्व को नहीं समझा, तो गले में फन्दा ही पड़नेवाला है | अर्थात बृह्म को जाने बिना या उसको धारण किये बिना कुछ भी करलो सब व्यर्थ है.


त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत्‌ ।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम्‌ ॥
(गीताः ७/१३)
प्रकृति के मे स्थित होने के कारण प्रकृति के तीनों गुणों से उत्पन्न भावों द्वारा संसार के सभी जीव मोहग्रस्त रहते हैं, इस कारण प्रकृति के गुणों से अतीत मुझ परम-अविनाशी को नहीं जान पाते हैं।
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प्रणाम जी

Monday, June 20, 2016



आनन्द का अपार सागर ही परमात्मा है। कोई इसे गोड़ कहता है, तो कोई खुदा कहता हैै तो कोई उसे महाशक्ति कहता है। कोई इसी को कर्त्तापुरख कहता है तो कोई सुप्रीम पावर कहता है। नाम चाहे जो भी हो किन्तु ब्रह्म एक ही है — आनन्द का सागर! अनन्त आनन्द का महासमुद्र!

परमात्मा आनंद से ओत-प्रोत है। परमात्मा आनंद का अथाह सागर है। अनन्त आनंद ही परमात्मा है। वेदान्त में परमात्मा की यही परिभाषा दी गई  है।
परमात्मा में केवल आनंद होता है — इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं होता। जो परमात्मा में डूबता है, वह भी आनंद से सरोबार हो जाता है। आनंद में डूब जाने का ज्ञान ही ब्रह्मज्ञान है।

ब्रह्मज्ञान केवल अपने ही अन्दर से हो सकता है, किसी और उपाय से नहीं। इसीलिये तो इसे आत्मज्ञान कहा जाता है। ब्रह्मज्ञान कोई ऐसी चीज नहीं है जिसका लड्डू बनाकर किसी दूसरे के मुँह में ड़ाला जा सके। जो सच्चा ब्रह्मज्ञानी है, वह जानता है कि ब्रह्मज्ञान तो अपने पुत्र को भी नहीं दिया जा सकता, दूसरों को देने की बात तो दूर रही।
लेकिन फिर भी हमारे बहुत सारे महात्मा “ब्रह्मज्ञान” को प्रसाद की तरह बाँटने में लगे हुए हैं, और बहुत सारे लोग उसे बटोर कर ले जाने में लगे हुए हैं।

जो कोई मनुष्य आनन्द-स्वरूप परब्रह्म परमात्मा को जान लेता है, वह भी आनन्द-स्वरूप परमात्मा में स्थित हो जाता है। अध्यात्मिक होने का अर्थ साधु-महात्मा हो जाने से नहीं है। अध्यात्मिक होने का अर्थ है — परमात्मा के साथ एकात्मकता बनाकर जीना सीख लेना। अध्यात्मिक होने का अर्थ है — इस अस्तित्त्व के साथ सहयोग का सम्बन्ध बना लेना। अध्यात्मिक होने का अर्थ है — परमात्मा को अपने जीवन में घोल लेना।
अध्यात्मिक होने का उद्देश्य है — आनंद की अनुभूति को बनाये रखना। अध्यात्मिक होने का उद्देश्य है — ब्रह्म में स्थित हो जाना।
एक अध्यात्मिक व्यक्ति जानता है कि परम आनंद कहीं आसमान से नहीं टपकता। वह जानता है कि आनन्द कहीं बाहर से नहीं आता। अतः अध्यात्मिक होने का उद्देश्य है बृह्म के साथ एकत्व हो जाना जीसमें दूैत भाव संभंव ही न हो उस आनंद के साथ मिलकर आनंद होजाओ फिर अलगाव हो ही नही सकेगा कयोंकी जैसे पानी में से पानी को नही निकाल सकते वैसे ही आनंद से आनंद कैसे अलग होगा...
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प्रणाम जी
एही पट आडे तेरे, और जरा भी नाहें।
तो सुख जीवत अरस का, लेवे ख्वाब के माहें।।

यही अहं ( केवल जीव की मान्यता अर्थात वो परकृती के साथ अपने समंबंध को मान लेता है इसी को *प्रकृतिमें स्थित हुआ पुरुष* कहा जाता है यही कर्ता है और यही भोक्ता है ...यह आवरण हटते ही जीव आत्मा के दूारा परमात्मा को जान लेता है )तेरे और परमात्माके बीच आवरण बना हुआ है. इसके अतिरिक्त अन्य कोई आवरण ही नहीं है. इसको हटाने मात्रसे इस स्वप्नवत् संसारमें जीवित रहते हुए ही परमधामके सुखोंका अनुभव होगा...
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प्रणाम जी

Sunday, June 19, 2016

भगवद्विरोधी..

*भगवद्विरोधी..*

 सुप्रभात जी
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एक परमात्मा के अन्तर्गत समस्त महात्मा हैं, अतः परमात्मा की हृदय से पूजा के अन्तर्गत सभी महात्माओं की पूजा स्वतः हो जाती है । यदि महात्माओं के हाड़-मांसमय शरीरों की तथा उनके चित्रों की पूजा होने लगे तो इससे पुरुषोत्तम परमात्मा की ही पूजा में बाधा पहुँचेगी, जो महात्माओं के सिद्धान्तों से सर्वथा विपरीत है । *महात्मा तो संसार में लोगों को परमात्मा की ओर लगाने के लिए आते हैं, न कि अपनी ओर लगाने के लिए । जो लोगों को अपनी ओर (अपने ध्यान, पूजा आदि में) लगाता है, वह तो भगवद्विरोधी होता है ।* वास्तव में महात्मा कभी शरीर में सीमित होता ही नहीं ...जो महात्मा है वो शरीर कि नश्वरता को भली भांती जानकर सभी प्रकार की जडता को त्याग कर चेतन परमात्मा मे स्थित हो जाता है ..उस महात्मा के सानिध्य में सब चेतन परमात्मा की समीपता को प्राप्त करते है .. और अगर किसी महात्मा के सानिध्य में आप जड-चेतन में भेद ना पाकर उसके नश्वर शरीर में ही भ्रमित हो रहे होतो यह मार्ग भगवद्विरोधी है .....
*सास्त्र पुरान भेख पंथ खोजो , इन पैंडों में पाइए नाहीं ।*
*सतगुर न्यारा रहत सकल थें , कोई एक कुली में काँही ।।*
(श्री मुख वाणी- किरन्तन ५/७)

*गुर गोविंद तौ एक है, दूजा यहू आकार।*
*आपा भेट जीवत मरै, तौ पावै करतार।।*
(कबीर जी)

*इस विषय पर अवश्य चिंतन करें...*
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प्रणाम जी

Saturday, June 18, 2016

वास्त्विकी और व्याव्हारिकी।

*( भागवत पुराण महात्म्य - प्रथम अध्याय )*

सुप्रभात जी

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शांडिल्य जी ने कहा - प्रिय परीक्षित और बज्रनाभ ! मैं तुम लोगों से ब्रज भूमि का रहस्य बतलाता हूँ। तुम दतचित हो कर सुनो। 'ब्रज' शब्द का अर्थ है - *व्याप्ति*। इस वृद्धवचन के अनुसार व्यापक होने के कारण इस भूमि का नाम 'ब्रज' पड़ा है। ।। १९ ।।

*सत्व, रज, तम -- इन तीन गुणों से अतीत जो परब्रहम है, वही व्यापक है।* इसलिए उसे 'ब्रज' कहते हैं। वह सदानन्दस्वरूप, परम ज्योतिर्मय और अविनाशी है। जीवंमुक्त पुरुष उसी में स्थित रहते हैं। ।। २० ।।

*प्रकृति के साथ स्थित होने पर* होने वाली लीला में ही रजोगुण, सत्वगुण और तमोगुण के द्वारा सृष्टि, स्तिथि और प्रलय की प्रतीति होती है। इस प्रकार यह निश्चय होता है कि परमात्मा की लीला दो प्रकार की होती है -- *एक वास्त्विकी और और दूसरी व्याव्हारिकी।* || २५ ||

*वास्तवी* लीला स्वसंवेद्य है -- उसे परमात्मा और उनकी रसिक (आत्माऐं )ही जान्ती हैं। जीवों के सामने जो लीला होती है वह *व्याव्हारिकी* लीला है। *वास्तवी* लीला के बिना *व्याव्हारिकी* लीला नहीं हो सकती; परन्तु व्याव्हारिकी लीला का वास्तविक लीला के राज्य में कभी प्रवेश नहीं हो सकता। || २६ |
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प्रणाम जी

Friday, June 17, 2016

गुरूतत्व

सुप्रभात जी

एक महात्मा जी अपने शिष्यों के साथ कहीं जा रहे थे | रास्ते में एक सांप घायल अवस्था में पड़ा हुआ था और उस पर तमाम चींटियाँ लग रही थी | सांप हिल सकता नहीं था बैचैन होकर अपना फन उठाता था फिर गिर जाता था |

महात्मा जी उसे देखकर रो पड़े | शिष्यों को समझ में नहीं आया | उन्होंने कहा कि महाराज जी आप क्यों रो रहे हैं ? महात्मा जी बोले कि कर्मों का ऐसा विधान है जिसे जीव अपनी अज्ञानता में नहीं समझ पाता है | यह सांप कभी गुरु बना था | महात्माओं की नक़ल की और इतने शिष्य बनाये | इसने शिष्यों से तरह तरह की तन मन धन की सेवा ली लेकिन उनकी आत्माओं का कल्याण नहीं कर सका | क्योंकि इसने अपनी आत्मा का भी कल्याण नहीं किया था | अब कर्मी के जाल में फंसकर वह गुरु सांप बना और उसके सारे शिष्य चींटियाँ बन गये हैं | अब ये चींटिया इस घायल सांप को काट रही हैं और कह रही हैं कि मेरी सेवाओं का बदला दो | तुमने मुझे क्यों धोखे में रक्खा , मेरा आत्म कल्याण नहीं किया और ये बेचारा सांप ऐसी अधोगति में पड़ा हुआ पीड़ा सह रहा है और कुछ कर नहीं पा रहा है |

महात्मा जी ने आगे कहा कि गुरुतत्व को समझ पाना कोई हंसी खेल नहीं है , सबसे गहन काम है | आजकल चेले बनाकर उनकी सेवाओं को लेकर  भी उनका आत्म कल्याण  नही होता कयोंकी आत्म कल्याण के अलग मायने हैं ..ऐसे गुरूओं से  वो जीव अपना बदला मांगते है | गृहस्थों के खून पसीने की कमाई की रोटी खाकर जो साधू उनका कल्याण नहीं करता तो ये रोटियां उसके आँतों को फाड़ देती हैं और दोनो को अधोगती में जाना पडता है..इसलिय गूरूतत्व का बोध होना आत्मकल्याण के लिय परमआवश्क है..हम गूरू उस व्यक्तित्व को समझते हैं जो गूरू हो ग्यानी हो प्रमात्मा का प्रेमी हो ...
*अब ध्यान दें गूरूतत्व वो है जो गुरू ना हो, ग्यानी ना हो, और प्रेमी ना हो*
 यही बारीक भेद न समझ पाने के कारण हम अन्नत जन्मों से गूरू बनाने के बाद भी भटक रहे हैं..अन्नत जन्मों में अन्नत बार गुरू बनाऐ और हर बार वही कहा जो इस जन्म में कह रहे हो की हमारा गुरू श्रेष्ठ है.. इसी भ्रम में ये जन्म भी गया... व्यर्थ जायगा *अगर गुरूतत्व नही जान पाये तो..*
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प्रणाम जी

Thursday, June 16, 2016

बहोत बहोत बहोत ध्यान से पढें...

कर्ता भोक्ता भेद..

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जीस प्रकार परआत्म परमधाम में बैठी है और खेल में केवल नजर आयी है परआत्मा अपने शुद्ध रूप में खेल में नही है . इसी नजर को को आत्म व शुद्ध रूप को परआत्म कहते है.
इसी प्रकार जीव अपने शुद्ध रूप में निर्विकार है इसकी जो नजर खेल में प्रकृति के साथ सम्बंध की मान्यता करती है इसी को प्रकृतिमें स्थित हुआ पुरुष कहते हैं. इसलिय..
(प्रकृतिमें स्थित हुआ पुरुष ही भोक्ता है); जो भोक्ता होता है,वही कर्ता होता है और जो कर्ता होता है वही भोक्ता होता है -पुरुषःप्रकृतिस्थो हि भुड़्क्ते प्रकृतिजान्गुणान् |(गीता १३/२१)

तो 'है' (जीव की शुद्ध सत्ता) भी 'कर्ता' नहीं है  और 'नहीं'(शरीर,प्राण,इन्द्रियाँ, मन,बुध्दि,अहंकार) भी 'कर्ता' नहीं है ..
कयोंकि शरीर,प्राण,इन्द्रियाँ,मन,बुध्दि और अहंकार तो कर्ता हो नहीं सकते क्योंकि ये तो जड़ हैं ये ठहरते ही नहीं(प्रतिक्षण नष्ट हो रहे हैं) इनके पास समय ही नहीं है कर्ता-भोक्ता बननेका(अर्थात् ये कर्ता-भोक्ता नहीं हो सकते)

तो अब दो वस्तुऐं है -
1:- एक है "है" (जीव की शुद्ध सत्ता)
2:- और एक है  "नही" (शरीर,प्राण,इन्द्रियाँ, मन,बुध्दि,अहंकार)

आप अपनेको 'नहीं'से भी हटालो
और 'है'से भी हटालो , तो कर्ता और भोक्ता रहेगा ही नहीं …

क्योंकि 'है' में जो 'व्यक्तित्व' है वह नहीं होता ...और 'नही' टिकता नहीं-होता नहीं;तो दौनोंसे हटालो

तो फिर क्या रहेगा? फिर 'योग' रहेगा 'योग'।'भोग' नहीं रहेगा,'योग''(नित्ययोग') रहेगा।'योग' किसको कहते हैं?- 'समत्वं योग उच्यते', 'दुख संयोग वियोगं योग सञ्ज्ञितम्'।। (गीता २।४८;६।२३)।…

*और ये है क्या?*

कि आपके साथ जो 'वियोग' मालुम देता है कि 'परमात्मा'के साथ हमारा 'वियोग' है-ऐसा जो अनुभव होता है,उसका कारण ,अहम' है।'मैंपन' है, यह है भेदका जनक-'मैंपन'।

…'है'से और 'नही'से उठा लेने पर, 'ज्ञान' है (ज्ञान रह गया) ज्ञान', ज्ञानी' नहीं रहा, 'अहम' होनेसे 'ज्ञानी' रहता है।

अब 'ज्ञानी' नहीं रहा, 'ज्ञान' रहा।ऐसे ही 'प्रेमी' नहीं रहा 'प्रेम' रहा।'परमात्मा'के साथ ही 'प्रेम' रहा।तो न 'योगी' रहा,न 'ज्ञानी' रहा,न 'प्रेमी' रहा।'ज्ञान' , 'योग' और 'प्रेम' रहा।अब 'प्रेम'  'ज्ञान'और 'योग' रहा। और परमात्मा का वियोग नही रहा..जो तुम्हे निरंतर रहता है...

इसमें अगर थौड़ा भी 'अहम' लग जायगा,तो आप 'प्रेमी' हो जाओगे, 'ज्ञानी' हो जाओगे, 'योगी' हो जाओगे।

तो क्या (होगा कि) 'भोगी' हो जाओगे।'प्रेम'का 'भोगी' कभी 'राग'का 'भोगी' भी हो जायेगा और 'ज्ञान'का 'भोगी' 'अज्ञान'का 'भोगी' भी हो जायगा।…

अगर इसका 'भोगी' हो गया,अगर इसका 'अभिमानी' हो गया,तो एक 'व्यक्तित्व' आ जायगा (और वो आ गया) तो 'बन्धन' आ जायगा जो कर्ता और भोक्ता है...

तो यह है नहीं,कल्पना किया हुआ है-'अहंकार विमूढात्मा कर्ता अहम् इति मन्यते'(गीता ३।२७)-यह माना हुआ है,इस वास्ते 'नैव किंचित्करोमीति युक्तो मन्येत्'(गीता ५।८)- 'मान्यता'से 'मान्यता'को हटादें...तो ना कर्ता रहा ना भोक्ता...

(श्री प्राणनाथ वाणी)

जहां नहीं तहां है कहे, ए दोऊ मोह के वचन।
ताथें विस्तार अंदर, बाहेर होत हों मुन।।

लगोगे जो दुःख को,तो दुःख तुमको लागसी ।
याद करो जो निजसुख को,तो दुःख तुम थे भागसी ।।

मारा कह्या काढ़ा कह्या, और कह्या हो जुदा। एही मैं खुदी टले, तब बाकी रह्या खुदा।।

ए मैं मैं क्यों ए मरत नहीं,और कहावत है मुरदा। आड़े नूर जमाल के, एही है परदा।
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प्रणाम जी

Wednesday, June 15, 2016


*जब अपने अंदर के चेतन परमात्मा मे स्थित हो जाओगे तब कर्ता और भोक्ता उत्पन्न करने वाली परिवर्नशील प्रकृती से तुम्हारा सम्बंध विछेद हो जायेगा  तब तुम जिसे कर्म बन्धन समझते हो उस धारणा से मुक्त होकर परमात्मा को पराप्त हो जाओगे* ..यही आनंद प्राप्ति हमारा परम लक्षय है...
*अष्टावक्र कहते हैं - तुम्हारा किसी से भी संयोग नहीं है, तुम शुद्ध हो, तुम क्या त्यागना चाहते हो, इस (अवास्तविक) सम्मिलन को समाप्त कर के ब्रह्म से योग (एकरूपता) को प्राप्त करो|*
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प्रणाम जी

Saturday, June 11, 2016

 *"प्रेम"*
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मन की सिर्फ़ आठ अवस्थायें होती हैं - काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, ज्ञान, वैराग । जाहिर है इनमें प्रेम का भाव या अवस्था है ही नहीं । सांसारिक लोग जिसे प्रेम कहते या समझते हैं । वह दरअसल स्वार्थ पूर्ण सम्बन्ध या चाहना या या सम्मोहक आकर्षण का मिला जुला भाव है । जो उपरोक्त में ‘काम’ श्रेणी में आता है । और कारणवश उत्पन्न होता है । पर क्योंकि इसमें लोभ, मोह, मद आदि भावों का भी स्थिति अनुसार अंश होता है । इसलिये इसे ‘प्रेम’ कहने लगते हैं । जो भारी अज्ञानता है । यह मन का भाव नहीं हैं, यह जीव के लिय भी नवीन विषय व इसके लिय नौवां भाव है तथा आत्मा का परमभाव ‘प्रेम’ है कयोंकी आत्मा प्रेम का अंश है। प्रेम एक अविरल धारा है । यह गुणातीत विषय है जबकी मनकी सभी अवस्थाऐं गूणों के आधीन हैं...इसलिय गूणातीत परमात्मा को गूणातीत भाव से ही प्राप्त किया जा सकता है...
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प्रणाम जी

Thursday, June 9, 2016

सुप्रभात जी

हे साधुजन सत्यग्यान का अवतरण हो चुका है तुम भी उसे पाकर ग्यानमय हे जाओ...
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‘बुद्ध’ बौद्ध धर्म की भाषा में सत्य ग्यान देने वाले होते हैं। गौतम बुद्ध ने अपने मृत्यु के समय अपने प्रिय शिष्य आनन्दा से कहा था कि ‘‘नन्दा! इस संसार में मैं न तो प्रथम बुद्ध हूं और न तो अंतिम बुद्ध हूं। इस जगत् में सत्य और परोपकार की शिक्षा देने के लिए अपने समय पर एक और ‘बुद्ध’ आएगा। यह पवित्र अन्तःकरणवाला होगा। उसका हृदय शुद्ध होगा। ज्ञान और बुद्धि से सम्पन्न तथा समस्त लोगों का नायक (स्वामी)होगा। जिस प्रकार मैंने संसार को अनश्वर सत्य की शिक्षा प्रदान की, उसी प्रकार वह भी विश्व को सत्य की शिक्षा देगा। विश्व को वह ऐसा जीवन-मार्ग दिखाएगा जो शुद्ध तथा पूर्ण भी होगा। नन्दा! उसका नाम मैत्रेय होगा। (Gospel of Buddha, by Carus, P-217)

*बुद्ध का अर्थ ‘बुद्धि से युक्त’ होता है*।
*मैत्रेय का अर्थ 'दया से युक्‍त' होता है*।

*अब जरा अन्य धर्म ग्रन्थो से इस के प्रमाण जान्ते हैं..* 👇🏼👇🏼

धर्मग्रन्थों की भविष्यवाणियाँ

*बुद्ध गीता*

वाराह कल्प के अट्ठाइसवें कलियुग के प्रारम्भ में ही श्री बुद्ध जी का यह स्वरूप प्रकट होगा । तब सर्वत्र ही अपने और पराये का यह भेद नहीं हो सकता है ।।१२।।

वह बुद्ध जी ही अपने दूसरे तन के स्वरूप में 'कल्कि' नाम से कहलायेंगे (बुद्ध जी का पहला तन श्री देवचन्द्र जी तथा दूसरा तन श्री मिहिरराज जी) । वह ही आदि नारायण को भी अखण्ड धाम का सर्वोच्च ज्ञान देने वाले होंगे ।।२३।।

संसार के सभी धर्मग्रन्थ रूपी लाखों जिह्वायें होते हुए भी (मर्मज्ञ होते हुए भी) सबके आश्रय स्वरूप वह बुद्ध जी तुतली (बोलचाल की सामान्य) भाषा में अपना ज्ञान (तारतम) देने वाले होंगे ।।२८।।

जब यवनों (मुसलमानों) के द्वारा मन्दिरों को गिराया जाने लगेगा तथा तीर्थों की महिमा भी कम होती जायेगी, तब श्री बुद्ध जी का प्रकटन होगा ।।३४।।

*बुद्ध सत्रोत*

कलियुग के प्रथम चरण में वह सच्चिदानन्द परब्रह्म अचानक ही ज्ञान रूप से प्रकट होंगे, जिनके ज्ञान को प्राप्त करके तुम स्वयं भी ज्ञानमयी हो जाना ।।५।।

*पुराण संहिता*

अज्ञानता के अगाध सागर में आत्मांओ के गिर जाने पर परब्रह्म स्वयं अपने कृपा रूपी महासागर में स्नान करायेंगे अर्थात् स्वयं प्रकट होकर अपने अलौकिक ज्ञान से उन्हें जाग्रत करेंगे । (३१/५०)

परमधाम की आत्मायें सुन्दरी और इन्दिरा (श्यामा जी और इन्द्रावती जी) जिन दो तनों में प्रकट होंगी, उनके नाम चन्द्र और सूर्य (देवचन्द्र और मिहिरराज) होंगे । तथा इनके अन्दर साक्षात् परब्रह्म विराजमान होकर लीला करेंगे, जिससे माया के अज्ञान रूपी अन्धकार का नाश हो जाएगा । (३१/५२-७० का सारांश)

इस प्रकार अपने प्रियतम(परमात्मा) के द्वारा जाग्रत की हुई सभी सखियों (आत्माओं)में से कोई सुन्दरी(सुंदरबाई या देवचन्दर)नामक भाग्यशालिनी सखी सबको जाग्रत करेगी । (३३/१५५)

वह सुन्दरबाई इन्दिरा की सहायता प्राप्त करके जागनी करेगी । सुन्दरी के मन में साक्षात् स्वामिनीजी की ही सुरता प्रवेश करेगी । इस प्रकार इस जागनी के मार्ग में सुन्दरी को ही सदगुरु माना गया है । (३४/४३,४९)

*बृहद्सदाशिव संहिता*

परब्रह्म की आनन्द स्वरूपा जो सखियां ब्रज और वृंदावन में स्थित थीं, वे कलियुग में पुनः प्रकट होंगी और जाग्रत होकर पुनः अपने उस धाम में जायेंगी । (श्रुति रहस्य १७)

चिदघन स्वरूप परब्रह्म के आवेश से युक्त अक्षर ब्रह्म की बुद्धि अक्षरातीत की प्रियाओं (आत्माओं)को जाग्रत करने के लिए तथा सम्पूर्ण लोकों को मुक्ति देने के लिए भारतवर्ष में प्रकट होगी । वह प्रियतम(परमात्मा) के द्वारा स्वामिनी (श्री श्यामा जी) के हृदय में स्थापित किए जाने पर चारों ओर फैलेगी । *(श्रुति रहस्य १८,१९)*


*श्रीमद्भागवत्*

शान्तनु के भाई देवापि तथा इक्ष्वाकु वंशीय राजा मरु इस समय कलाप ग्राम में स्थित हैं । वे दोनो महान योगबल से युक्त हैं । परमात्मा की प्रेरणा से वे दोनो कलियुग में पहले की ही भांति धर्म की स्थापना करेंगे । (१२/२/३७,३८)

भावार्थ- उपरोक्त तीनों ग्रन्थ एक दिशा में ही संकेत कर रहे हैं । परमयोगी देवापि के जीव ने श्री देवचन्द्र (चन्द्र) के रूप में जन्म लिया । उनके अन्दर परमधाम की श्री श्यामा जी (सुन्दरी) की आत्मा ने प्रवेश किया । अक्षरातीत श्री प्राणनाथ जी के साक्षात्कार के पश्चात् उन्होंने आत्माओं की जागृति के लिए प्रयास किया।

परमयोगी राजा मरु के जीव ने श्री मिहिरराज (सूर्य) के रूप में जन्म लिया । उनके अन्दर परमधाम की श्री इन्द्रावती जी (इन्दिरा) की आत्मा ने प्रवेश किया । सम्वत् १७३५ में हरिद्वार में सर्वसम्मति से हिन्दू धर्म के सभी सम्प्रदायों के आचार्यों ने उन्हें 'विजयाभिनन्द निष्कलंक बुद्ध' माना । इस प्रकार परब्रह्म अक्षरातीत ने अपना नाम व सारी शोभा श्री इन्द्रावती जी को दे दी ।

*भविष्योत्तर पुराण*

ब्रह्मा जी ने कहा- हे नारद ! भयंकर कलियुग के आने पर मनुष्य का आचरण दुष्ट हो जाएगा और योगी भी दुष्ट चित्त वाले होंगे । संसार में परस्पर विरोध फैल जायेगा । द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) दुष्ट कर्म करने वाले होंगे और विशेषकर राजाओं में चरित्रहीनता आ जायेगी । देश-देश और गांव-गांव में कष्ट बढ़ जायेंगे । साधू लोग दुःखी होंगे । अपने धर्म को छोड़कर लोग दूसरे धर्म का आश्रय लेंगे । देवताओं का देवत्व भी नष्ट हो जायेगा और उनका आशीर्वाद भी नहीं रहेगा । मनुष्यों की बुद्धि धर्म से विपरीत हो जायेगी और पृथ्वी पर म्लेच्छों के राज्य का विस्तार हो जायेगा ।

जब हिन्दू तथा मुसलमानों में परस्पर विरोध होगा और औरंगज़ेब का राज्य होगा, तब विक्रम सम्वत् १७३८ का समय होगा । उस समय अक्षर ब्रह्म से भी परे सच्चिदानन्द परब्रह्म की शक्ति भारतवर्ष में इन्द्रावती आत्मा के अन्दर विजयाभिनन्द बुद्ध निष्कलंक स्वरूप में प्रकट होगी । वह चित्रकूट के रमणीय वन के क्षेत्र (पद्मावतीपुरी पन्ना) में प्रकट होंगे । वे वर्णाश्रम धर्म (निजानन्द) की रक्षा तथा मंदिरों *(अर्थात सबके हृदय में परमात्मा)*की स्थापना कर संसार को प्रसन्न करेंगे । वे सबकी आत्मा, विश्व ज्योति पुराण पुरुष पुरुषोत्तम हैं । म्लेच्छों का नाश करने वाले बुद्ध ही होंगे और श्री विजयाभिनन्द नाम से संसार में प्रसिद्ध होंगे । *(उ.ख.अ. ७२ ब्रह्म प्र.)*

वह परब्रह्म पुरुष निष्कलंक दिव्य घोड़े पर (श्री इन्द्रावती जी की आत्मा पर) बैठकर, निज बुद्धि की ज्ञान रूपी तलवार से इश्क बन्दगी रूपी कवच और सत्य रूपी ढाल से युक्त होकर, अज्ञान रूपी म्लेच्छों के अहंकार को मारकर सबको जागृत बुद्धि का ज्ञान देकर अखण्ड करेंगे । *(प्र. ३ ब. २६ श्लोक १)*

*माहेश्वरतन्त्रम्*

द्वापर के अन्त होने पर कलियुग में लीला के आविर्भाव होने से, परब्रह्म अपनी प्रियाओं (आत्माओं) की दुखपूर्ण लीला को न सहते हुए, उनमें से एक परम सौभाग्यशालिनी सुन्दरी नाम की प्रिया को निर्णय बतलाकर प्रबोधित करेंगे । (२२/२७,२८)

*सिख पंथ के 'पुरातन सौ साखी' (भविष्य की साखियां) ग्रन्थ का पृष्ठ ६५-६६* 👇🏼

नेह कलंक होय उतरसी , महाबली अवतार । संत रक्षा जुग जुग करे , दुष्टा करे संहार ।।    नवां धरम चलावसी , जग में होवन हार । नानक कलजुग तारसी , कीर्तन नाम *(नाम का अर्थ परबृह्म की पहचान है)*आधार ।।

*सुन्दरी तन्त्र*

पद्मावती और केन नदी के मध्य विन्धयाचल पर्वत के एक क्षेत्र में इन्द्रावती नामक परब्रह्म की आत्मा होगी । उनके अन्दर परब्रह्म सच्चिदानन्द विराजमान होकर पूर्ण ब्रह्म कहलायेंगे ।
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*प्रणाम जी*

Wednesday, June 8, 2016

कलाम अल्ला या हदीसें, सास्त्र पुरान या वेद।
एकसब सुख लेवें मोमिन, हक रसना के भेद।।
(सिंधी, 16-19)

हिन्दु और मुसलमान दोनो के परमात्मा एक ही हैं.
मात्र भाषा भेद के कारण परमात्मा में भेद हो गया..

न काष्ठे विधते देवा न पाषाणे न म्रणमये| भावे हि विधते देवस्तस्माद भावो हि कारणम|| (गरुण पुराण – धर्मकाण्ड – प्रेतखण्ड 38:13)
वह देव ना तो लकड़ी मे, न पत्थर मे, ना मिट्टी मे हैं| वे तो भाव मे विधमान हैं| जहा भाव करे वहा ही परमात्मा सिद्ध होता हैं|

इसी प्रकार महाभारत/गीता मे देखे-

अवजानन्ति मां मूढ़ा मानुषी तनुमाश्रितम| परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम|| (महाभारत 6:31:11) (गीता 9:11)
मेरे परम भावो को न जानने वाले मूर्ख लोग मुझे प्राणियो मे महान परमात्मा को मनुष्य शरीरधारी समझकर मेरा अपमान करते हैं
१. ऋग्वेद १.१६४.४६ – उसी एक परमात्मा को इन्द्र, मित्र, वरुण, अग्नि, दिव्या, सुपर्ण, गरुत्मान, यम और मातरिश्वा आदि अनेक नामों से कहते हैं.
२. यजुर्वेद ३२.१- अग्नि, आदित्य, वायु, चंद्रमा, शुक्र, ब्रह्मा, आप: और प्रजापति- यह सब नाम उसी एक परमात्मा के हैं.
३. ऋग्वेद १०.८२.३ और अथर्ववेद २.१.३- वह परमात्मा एक हैं और सब देवों के नामों को धारण करने वाला हैं, अर्थात सब देवों के नाम उसी के हैं.
४. ऋग्वेद २.१ सूक्त में अग्नि शब्द को ज्ञानस्वरूप परमात्मा का वाचक के रूप में संबोधन करते हुए कहाँ गया हैं की हे अग्नि, तुम इन्द्र हो, तुम विष्णु हो, तुम ब्रह्मणस्पति, वरुण, मित्र, अर्यमा, त्वष्टा हो. तुम रूद्र, पूषा, सविता, भग, ऋभु , अदिति, सरस्वती,आदित्य और ब्रह्मा हो.
५. अथर्ववेद १३.४ (२), १५-२०- जो व्यक्ति इस परमात्मा देव को एक रूप में विद्यमान जनता हैं, जो की वह न दूसरा हैं, न तीसरा हैं और न चौथा हैं ऐसा जानता हैं, जोकि वह पांचवा हैं, न छठा हैं और न सांतवा हैं ऐसा जानता हैं, जोकि वह न आठवां हैं, न नवां हैं और न दसवां हैं ऐसा जानता हैं, वह सब कुछ जानता हैं. वह चेतन और अचेतन संपूर्ण रहस्य को जन लेता हैं. उसी परमात्मा देव में यह सारा जगत समाया हुआ हैं. वह देव अत्यंत सहन शक्ति वाला हैं. वह एक ही हैं, अकेला ही वर्तमान हैं, वह एक ही है

कुरान पक्ष...

मुसलमान एक ही परमात्मा को मानते हैं, जिसे वोअल्लाह (फ़ारसी: ख़ुदा) कहते हैं। एकेश्वरवाद को अरबी में तौहीद कहते हैं, जो शब्द वाहिद से आता है जिसका अर्थ है एक। इस्लाम में परमात्मा को मानव की समझ से ऊपर समझा जाता है। मुसलमानों के अनुसार परमात्मा अद्वितीय हैः उसके जैसा और कोई नहीं। इस्लाम में परमात्मा की एक विलक्षण अवधारणा पर ज़ोर दिया गया है। साथ में यह भी माना जाता कि उसकी पूरी कल्पना मनुष्य के बस में नहीं है।

कुरान में...

कहो: है परमात्मा एक और अनुपम।

है परमात्मा सनातन, हमेशा से हमेशा तक जीने वाला।
उसकी न कोई औलाद है न वह खुद किसी की औलाद है।
और उस जैसा कोई और नहीं॥”
(कुरान, सूरत ११२, आयते १ - ४)

सूरए ज़ुमर की 66वीं आयत सभी को परमात्मा की उपासना का निमंत्रण देते हुए कहती है केवल परमात्मा की उपासना करो और कृतज्ञों में से हो जाओ। अर्थात सभी का पूज्य केवल और केवल अनन्य परमात्मा होना चाहिए।

क़ुरआने मजीद सूरए ज़ोमर की आयत क्रमांक 64 से 66 में अनेकेश्वरवाद और एकेश्वरवाद के बारे में पैग़म्बरे इस्लाम को संबोधित करते हुए कहता है। कह दीजिए कि हे अज्ञानियो! क्या तुम मुझसे यह कहते हो कि मैं परमात्मा के अतिरिक्त किसी और की उपासना करूँ? For more click this👇🏼👇🏼
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दोऊ दौड करत हैं, हिन्दू या मुसलमान।
ए जो उरझे बीच में, इनका सुंन मकान।।
प्रणाम जी

Tuesday, June 7, 2016

बार-बार विषयों का सुख लेते रहने पर चित्त में उनका संस्कार निर्मित होता है। संस्कार दृढ होकर वासना का रूप धारण कर लेता है। वासना के कारण मनुष्य की विषय-सुख की इच्छा बार-बार होती है। वह उन्हें प्राप्त करने और भोगने का प्रयास करता है। आसक्ति युक्त भोग से वासना बार-बार दृढ होती रहती है। जीवन के अन्त तक वह बहुत बढ जाती है। वासनाओं की तृप्ति के लिए जीव को बार-बार शरीर धारण करना पडता है। यह जीव के लिए विवशता है। इसे बंधन कहते हैं।
          विषयों का राग या आसक्ति स्वतः समाप्त नहीं हो जाती। वृद्धावस्था में इन्द्रियाँ शिथिल और दुर्बल हो जाने पर अनासक्त हो जाने का भ्रम होता है। वस्तुतः वासनायें बडी सूक्ष्म और गहन होती हैं। वे वृद्धावस्था में सूक्ष्मस्प से बीज के समान चित्तभूमि में पडी रहती हैं। मरने के बाद जब अगला शरीर मिलता है, तो इन्द्रियाँ फिर सशक्त होने लगती हैं और पूर्व जन्म की वासनाऍ अंकुरित होकर जीव को पुनः भोगों में प्रवृत्त कर देती है। इस प्रकार जीव का बंधन जन्म-जन्मान्तर चलता है वह स्वतः कभी मुक्त नहीं होता।
     मुक्त होने के लिए जीव को प्रयास करना होता है। उसके लिए एक सुनिश्चित क्रमबद्ध रास्ता है। उस पर धैर्य के साथ आगे बढते रहने से अन्त में आत्मा और परमात्मा का ज्ञान होता है। उसे अनुभव हो जाता है । फिर वह विषयों का सुख झूठा समझकर त्याग देता है। जब परमात्मा का आनंद आता है तो जन्म जन्म के विकार अपने आप छूट जाते हैं..जब ये सुख आवे अंगमे तो छूट जाये सब विकार..www.facebook.com/kevalshudhsatye
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प्रणाम जी
सुप्रभात जी
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‘बुद्ध’ बौद्ध धर्म की भाषा में सत्य ग्यान देने वाले होते हैं। गौतम बुद्ध ने अपने मृत्यु के समय अपने प्रिय शिष्य आनन्दा से कहा था कि ‘‘नन्दा! इस संसार में मैं न तो प्रथम बुद्ध हूं और न तो अंतिम बुद्ध हूं। इस जगत् में सत्य और परोपकार की शिक्षा देने के लिए अपने समय पर एक और ‘बुद्ध’ आएगा। यह पवित्र अन्तःकरणवाला होगा। उसका हृदय शुद्ध होगा। ज्ञान और बुद्धि से सम्पन्न तथा समस्त लोगों का नायक (स्वामी)होगा। जिस प्रकार मैंने संसार को अनश्वर सत्य की शिक्षा प्रदान की, उसी प्रकार वह भी विश्व को सत्य की शिक्षा देगा। विश्व को वह ऐसा जीवन-मार्ग दिखाएगा जो शुद्ध तथा पूर्ण भी होगा। नन्दा! उसका नाम मैत्रेय होगा। (Gospel of Buddha, by Carus, P-217) बुद्ध का अर्थ ‘बुद्धि से युक्त’ होता है।
मैत्रेय का अर्थ 'दया से युक्‍त' होता है।
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प्रणाम जी

Sunday, June 5, 2016


समय निरंतर चलता रहता है। इसे न कोई रोक पाया है और न ही कोई रोक पायेगा इसलिय इसका इसप्रकार उपयोग करें की कम समय में ज्यादा लाभ हो। सिर्फ अपने शरीर को कष्ट देने से और किसी जंगल में अकेले में कठिन तपस्या करने से हमें आत्मआनंद की प्राप्ति नहीं होगी।
हमें आत्मआनंद की प्राप्ति सिर्फ आत्मज्ञान के द्वारा प्राप्त हो सकती है। लम्बी यात्रा पर जाने से या कठिन व्रत रखने से हमें परम ज्ञान अथवा आत्मआनंद प्राप्त नहीं होगा।
चाहे हम योग की राह पर चलें या हम अपने सांसारिक उत्तरदायित्वों को पूर्ण करना ही बेहतर समझें, यदि हमने अपने आप को परमात्मा से जोड़ लें तो हमें सदैव आत्मआनंद प्राप्त होगा कयोंकी एकमात्र परमात्मा ही आनंद है अर्थात आनंद और बृह्म दोऊं एक है...
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प्रणाम जी