Saturday, October 31, 2015

परमात्मा के लिये इश्क.

सुप्रभात जी

प्रियतम अक्षरातीत परमात्मा ने तुम्हारे प्रति अपना जो प्रेम दर्शाया, उसके विषय में तूं गहन विचार करके तो देख। तूं इस पापिनी माया को छोड़कर उनसे एक निष्ठ प्रेम क्यों नहीं करता है ?
हम ब्रह्मसृष्टियों (परमात्मा को प्रमपरिय मान्ने वाली आत्माओं )की पहचान ही इश्क (प्रेम) से है। यदि मेरे हृदय में अपने परमात्मा के लिये इश्क नहीं है, तो मेरा जीवन निरर्थक है अर्थात् मेरी कोई भी उपयोगिता नहीं है। इश्क के बिना मेरा हृदय सूना है (उजाड़, नीरस) है। इस खेल में (माया में)भी मैं पहले अपने परमात्मा को इसलिये पहचान नहीं सकी थी क्योंकि मेरे पास उस समय प्रेम ही नहीं था। और ये प्रेम देने वीले भी वही हैं कयोंकी अक्षरातीत प्रेम के सागर हैं। उनका प्रेम करना ही आत्माओं के प्रति अपना पत्नीव्रत धर्म (अपनापन) निभाना है। तारतम ग्यान (माया से परे का ग्यान) के प्रकाश में जीव भी आत्मिक भावों में डूब जाता है और स्वयं को आत्मा मानने लगता है। यही कारण है कि जीव को भी परमात्मा की अर्धांगिनी (सबसे िप्रय )के रूप में दर्शाया जाता है।

प्रणाम जी

सारतत्व

पद गाए मन हरषियां, साषी कह्यां अनंद ।
सो तत नांव न जाणियां, गल में पड़िया फंद ॥

भावार्थ - मन हर्ष में डूब जाता है भजन गाते हुए, और कथा सुन्ने  में भी आनन्द आता है । लेकिन सारतत्व को नहीं समझा, और हरिनाम का मर्म न समझा, तो गले में फन्दा ही पड़नेवाला है | अर्थात बृह्म को जाने बिना कुछ भी करलो सब व्यर्थ है..

वेद में कहा है- उस धीर, अजर, अमर, नित्य तरुण परब्रह्म को ही जानकर विद्वान पुरुष मृत्यु से नहीं डरता है (अथर्ववेद १०/८/४४ )

प्रणाम जी

Friday, October 30, 2015

बुल्लेशाह के हीन्दी भाव..

पढ़  पढ़  के  इलम  की बाते  तू ज्ञानी तो हो  गया  पर  कभी अपने  आप  को  जानने का प्रयास  नही कीया ,
तू  मंदिर मस्जित भागता फिरता हैं  कभी अपने हृदये  में  झांक के नही देखता ,
तू सोचता  हैं की शैतान बहार  हैं और रोज इसी  उलझन  में रहता  हैं पर  कभी अपने अंदर के अंधकार को दूर नही करता  जहाँ से शैतान  उत्पन्न होता हैं ,
तू समझता हैं की खुदा आसमान में रहता हैं पर वो तो तेरे  हृदये धाम  में हैं याने तेरे  घर में हैं जीसे तूने कभी  खोजने का प्रयास नही कीया..

प्रणाम जी

जूठा खेल

सनेह आए जूठ ना रहे,जो पकड़ बैठे है हम ।
ए जूठ नजरो तब क्यों रहे,जब याद आवे सनेह खसम ।।

मेरे प्यारे साथजी ! जब हमें अपने प्राण प्रियतम परमात्मा के प्रेम की याद आएगी तब ये जूठा खेल हमारी नजरो के सामने नहीं रहेगा,जो हम सच मानकर बैठे हुए है । धनी के प्रेम की याद तो तब आएगी जब हम इस जूठे खेल की बाते ना करे और अपने परमधाम के आनंद की बाते करे ।जो हमारा अपना है ।जिस परमधाम अद्वैत में सदा इश्क की ही लीला होती है वो परमात्मा का प्यार,लाड ही हमें अपने मूल तन में उठाएगी ।
एही अपनी जागनी,जो याद आवे निज सुख ।
इश्क याहि सो आवही,याहि सो होइए सनमुख ।।
इश्क का आना,विरह का पैदा होना वो सब परमात्मा के हाथ में ही है और वो सब परमात्मा ने हुकम के स्वरुप से इस जागनी ब्रह्माण्ड में हम सबको दे रखा है ।
अब तो हमारी ही कमजोरी है की हम ये मौका जानबुझकर खो रहे है ।
चलो साथजी ! हाथ आया अवसर केम भूलिए ।।

प्रणाम जी

बुलेषाह

बुल्लाह  पढ़  पढ़ अलम  फाज़ल  होया ,
कदे  अपने  आप नु  पढ़या ही नई..
पज पज वरद दा  ए  मंदिर मसेति ,
कदे मन्न  अपने विच  वरदएया ही नई...
किंवए रोज़ शैतान णाल लारदाए,
कदे नफ़्ज़  अपने नाल  लरएया ही नई...
बुलेषाह आसमानीया उड़दी या फरहंए,
जेहरा घर  बैठा  ओहनु फडेया ही नई....

Thursday, October 29, 2015

विरह...

 सुप्रभात जी

इस मनोहर ऋतु में कोयल प्रसन्न मन से कूक रही है तथा तोते आनन्द विभोर होकर तरह-तरह की क्रीड़ायें कर रहे हैं, किन्तु मैं ही ऐसी मन्दभाग्या आत्मा हूँ, जो आपके बिना अकेली ही अपना समय काट रही हूँ तथा रो-रोकर अपनी आँखों को लाल कर रही हूँ।
कोयल की उमंगभरी मधुर कूक तथा तोते की चपल क्रीड़ाओं को देखकर आत्मा (विरहिणी) का विरह और अधिक बढ़ जाता है। वह अपने भाग्य को कोसते हुए यही कहती है कि काश ! मेरा प्रिय (परमात्मा) यदि मेरे पास होता, तो मैं भी इसी तरह आनन्द मग्न होती। किन्तु, इस समय तो विरह में आँसू बहाने के अतिरिक्त मेरे पास और कोई काम ही नहीं है।

प्रणाम जी

परमात्मा का.....

हक सूरत नूर के पार है, तहां सबद न पोहोंचे बुध ।
चौदे तबक छाया मिने, इने नहीं सूर की सुध ।।

परमात्मा का चिन्मय (सच्चिदानन्दमय) स्वरूप तो अक्षर ब्रह्म से भी परे है. वहाँ न शब्द पहुँचता है और न ही बुद्धि पहुँचती है. ये चौदह लोक छायाके समान अज्ञानरूप अन्धकारमें हैं. इसलिए यहाँके प्राणियोंको परब्रह्म परमात्मा की सुधि नहीं होती है..

प्रणाम जी

Wednesday, October 28, 2015

आत्माओं का हृदय ही मेरा धाम है।

सुप्रभात जी

परमात्माने धर्म ग्रन्थों में यह लिखवाया है कि आत्माओं का हृदय ही मेरा धाम है।
कुरआन के पा. 1 सिपारा 2 आ. 186  में कहा गया है कि ब्रह्मसृष्टियों (मोमिनों) के धाम हृदय में ही प्रियतम परब्रह्म का वास होता है। इसी प्रकार का कथन अथर्ववेद के केन सूक्त तथा सामवेदीय छान्दोग्योपनिषद के प्रपाठक 8/1,2,3 में वर्णित है।
(विवेक चूड़ामणि—२९१)
देह में व्याप्त हुई अहंबुद्धि को सच्चिदानन्द रूप ‘सदानन्द’ में स्थित करके लिंग शरीर के अभिमान को छोड़ कर सदा अद्वितीय रूप (आत्मह्रदय के परमात्मी) से स्थित रहो..
ब्रह्मात्माओं (मोमिनों) के दिलको तो परमधाम कहा है, कयोंकी ब्रह्मात्माओं का ध्यान हमेंशा अपनें पूर्णब्रह्म परमात्मा में रहता है ..कयोंकी इनका  परमात्मा से संबन्ध है इसलिय ये उसे परमात्मा नही बल्की अपना सर्वसव  मानती हैं ..इस कारण इनके दिल मे माया नही आ पाती कयोंकी वहाँ परमात्मा (हक सुभान) आकर विराजमान होते हैं. ऐसी आत्माएँ अन्य लोगोंके दिलोंको भी पवित्र बना देतीं हैं. कयोंकी इनका ग्यान एकदम शुद्ध होता है ..जडता से दूर व चेतनता से ओतप्रोत जिसके संपर्क से सबको लाभ मिलता है...और इसका प्रमाण कुरान आदी मे वर्णित है..

प्रणाम जी
ए झूठी रवेसें और हैं, और अर्स में और न्यामत।
ए किया निमूना अर्स जानने, पर बने ना तफावत।।

कालमाया के इस झूठे ब्रह्माण्ड की लीला अलग प्रकार की है तथा परमधाम में नूरी शोभा, सौन्दर्य, चेतनता, आदि की सम्पदा रूप लीला अलग प्रकार की है। यद्यपि इस ब्रह्माण्ड की रचना परमधाम को समझने के लिये ही की गयी है, किन्तु तारतम ज्ञान के न होने से परमधाम और जगत् में भेद करना विद्वानों के लिये सम्भव नहीं हो पाता।
यह जगत् असत जड़ और दुःखमय है, जबकि परमधाम सत्, चित् और आनन्दमय है। तारतम ज्ञान के न होने से विद्वतजनों ने इस संसार में सच्चिदानन्दमय परब्रह्म का निवास मान रखा है। कईयों ने तो इस जगत् को ही ब्रह्मरूप माना है। वे यजुर्वेद के कथन ‘आदित्यवर्णं तमसस्परस्तात्’ को भी अमान्य कर देते हैं। ऐसी स्थिति में स्वलीला अद्वैत परमधाम और त्रिगुणात्मक जगत् में भेद दर्शाना तारतम ज्ञान के बिना सम्भव नहीं है..

प्रणाम जी

Tuesday, October 27, 2015

सुप्रभात जी

भगवद्गीता में कहा गया है

एवं बूद्धे: परं बुद्धवा संस्तभ्यात्मानमात्मना।

अर्थात् इस प्रकार बुध्दि से परे आत्मा को जानकर , आत्मा के द्वारा आत्म को वश में करके अर्थात आत्म भाव मे आना (अपने जीव पर नियंत्रण प्राप्त किया जा सकता है) यही योग है।

प्रणाम जी

Monday, October 26, 2015

किसी भी अन्य स्थान पर नहीं पाया जा सकता।

सुप्रभात जी

आपने हमें स्वयं को दिखाया है अर्थात्‌ अपनी पहचान दी है( सर्वेत्तम ग्यान )। अब आपके अतिरिक्त अन्य कोई भी दूसरा ठिकाना (आधार) हमें दिखाई ही नहीं देता। आपने स्वयं को प्राणनली (शाहरग) से भी अधिक निकट बताया है। यही कारण है कि हमें अन्य कहीं भी दूर नहीं जाना पड़ा।
आत्मा के एकमात्र प्रियतम अक्षरातीत(परमात्मा) ही है। उनका स्थान अन्य कोई भी नहीं ले सकता। परमधाम के मूल सम्बन्ध से परमात्मा आत्माओं के धाम-हृदय में विराजमान होते हैं, जिन्हें प्राणनली से भी अधिक निकट कहकर व्यक्त किया जाता है। आत्मा के दिल के अतिरिक्त परमात्मा को किसी भी अन्य स्थान (मन्दिर, मस्जिद, गिरजाघर आदि) में नहीं पाया जा सकता। वे तो हम सब के धाम हृदय में ही विराजमान हैं।

प्रणाम जी

धनि न जाये...

धनि न जाये किनको धूतयो , जो कीजे अनेक धूतार |
तुम चैन ऊपर के कई करो , पर छूटे न क्यों ए विकार ||

परमात्मा को किसी भी प्रकार हम अंधकार में नही रख सकते याने परमात्मा के सामने झूठ के पर्दे से चाह कर भी हम अपने अंतःकरण को छुपा  नही सकते चाहे हम कितने  भी यत्न कर लें  अर्थात हम चाहे कितने भी बहरी यत्न कर लें जैसे कई लोग ओना बहरी आवरण ऐसा बना लेते  हैं जिस से लोग उन्हें संत समझ कर उनके सामने नतमस्तक हो जाते हैं कई लोग केश कटा लेते हैं कई बनो में निवास करते  हैं कई जल में बैठे रहते हैं कई अग्नि के  सामने  तप करते हैं कई बड़े बड़े भंडारे लगते हैं कई लोग कई तरह के भोग वगेरा तडयार करते हैं और मूर्तियों के सामने रख के कहते हैं की वह प्रसाद हो गया कई लोग कई तरह के धर्मग्रंथो का पाठ करने में उम्र बिता देते हैं कई परिक्रमा करने में ही मुक्ति समझते हैं कई अनेको प्रकार से तिलक व् माला पहन के शरीर को सजाते हैं..पर इन सबसे प्रमातमाँ को नही ठगा जा सकता वो तो केवल अंतःकरण में विरह की अग्नि से शुद्धि  कर के उनको हृदये रूपी सिंघासन पे बैठाने से ही आत्म के साथ एक रस होते हैं...

प्रणाम जी

Sunday, October 25, 2015

आपकी ही सत्ता है...

सुप्रभात जी

हे नाथ ! इस सृष्टि में दृष्टिगोचर सभी पदार्थों तथा उनके कारण रूप अदृश्य पदार्थों में भी सर्वत्र आपकी ही सत्ता है। इस सम्पूर्ण सृष्टि के बाहर (निराकार मण्डल) तथा इसके अन्दर सूक्ष्म से सूक्ष्म पदार्थों में भी आपकी ही सत्ता दृष्टिगोचर हो रही है। प्रकृति की इस सृष्टि से परे बेहद तथा परमधाम में भी सर्वत्र आपकी ही महिमा की लीला देखने में आ रही है। मुझे तो ऐसा लगता है कि कोई कहीं भी चला जाय, एक कण (अणु-परमाणु) भी आपकी सत्ता के बिना नहीं है।
हे प्रियतम ! आप जाहेरी (बाहरी) रूप में परमधाम से बाहर इस खेल में आये हैं तथा बातूनी (आन्तरिक)रूप में हमारे शाहरग से भी अधिक नजदीक हैं। सबसे अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि आप उससे भी परे हमारी परात्म के अन्दर आप ही विराजमान हैं। इस प्रकार मैं यही देखती हूँ कि चाहे परमधाम हो या यहां, सब जगह आप ही (मूल स्वरूप से और आवेश स्वरूप से) हैं।

प्रणाम जी

ब्रज रास रहस्य

प्रणाम जी
प्रकरण १३ का मूल भाव ये है की जब वल्लाभाचार्ये जी ने अपने ग्रन्थ सुबोधिनी में( जो की श्रीमत्भागवत का टिका है ) अखंड ब्रिज एवंम  रास का वर्णन किया था तब तारतम ज्ञान नही था इस लिए लोग ब्रिज एवं रास को इसी संसार में अखंड समझ रहे थे और उसका अर्थ वैष्णव लोगो ने गलत बता कर  लोगो को गुमराह कर  रहे थे तब प्राण नाथ जी ने उन्हें आह्वान किया था की हे वैष्णव जानो तुम ब्रिज एवंम रास को अखंड कहते हो ओर तुम्हारे अर्थो में तुम उसे मिटने वाला भी बता रहे हो , तुम्हे इसका सही अर्थ जानना है तो तारतम ज्ञान के माध्यम इसको मूल भाव में ग्रहण करो तो तुमे ज्ञात होगा की ब्रिज और रास कहाँ और केसे अखंड  है

ब्रज अखंड ब्रहमांड में हुआ ,विचार देखो रे बुधवंत |
एक रंचक न राखी चौदे लोक की , महाप्रलय कह्यो ऐसो अंत ||
किरंतन( १३,८ )

हे बुद्धजन याने अपनी बुद्धी का चतुराई से  प्रयोग करने वालो जिस ब्रिज को तुम अखंड कहते हो वो कहा पे अखंड हुआ तुम ये बात स्पष्ट नही कर पा  रहे हो क्योंकि बिना तारतम ज्ञान के स्वप्न की बुद्धी  से तुम केसे अखंड  का वर्णन कर  सकते हो जिस प्रंकार किसी जानवर के पेट के कीड़े को केवल उस जानवर के पेट के आलावा बहार का ज्ञान नही होता वेसे ही इस स्वप्न के ब्रहमांड के लोग केवल अपनी स्वप्न की बुद्धी से ही हर ग्रन्थ के अर्थ लगाते है अगर इस से बहार का ज्ञान प्रकाश में कुछ जानना हो तो इस से बहार की बुद्धी का प्रयोग होगा जो केवल अखंड धाम से आये  ब्र्हम्मुनियो के पास ही है इसलिए अगर तुम्हे ये जानना है की ब्रिज अखंड कहाँ  हुआ तो तुम्हे मै तारतम ज्ञान के मध्येम से  समझा रहा हूँ की ब्रिज इस ब्रह्माण्ड में कहीं भी अखंड नही हुआ बल्कि वो  बेहद की भूमि में याने अखंड  धाम में अखंड हुआ है वहां पे इस ब्रह्मांड  से एक कण भी नही जा सकता इसलिए यहाँ के ब्रिज की तुलना तुम भूल कर  भी उस ब्रज  से मत करना वहां न तो यहाँ के शरीर है न यहाँ के पशु पक्षी है क्योंकि जब वो ब्रिज अखंड हुआ तो यहाँ का ब्रिज महा प्रलये में लये हो गया था ..  (पु. सं. ३१/१२,१३)

११ वर्ष ५२ दिन तक श्री कृष्ण जी के तन में विराजमान अक्षरातीत श्री प्राणनाथ जी ने आत्मा स्वरूपा गोपियों के साथ प्रेम लीला की । इसी काल में कंस द्वारा भेजे गए पूतना, अघासुर, बकासुर, आदि राक्षसों का भी वध किया । ११ वर्ष की प्रेममयी लीला के पश्चात् ५२ दिन की विरह लीला हुई । तत्पश्चात् महारास की लीला के लिए उन्होंने योगमाया के ब्रह्माण्ड में प्रवेश किया । योगमाया का वह ब्रह्माण्ड इस नश्वर जगत से पूर्णतया अलग है, जिसमें चेतनता, अखण्डता तथा प्रकाशमयी शोभा है । उसमें लक्ष्मी के मुख के समान सुन्दर पूर्णमासी का अखण्ड स्वरूप वाला चन्द्रमा उगा हुआ है, जिसकी कोमल किरणों से सम्पूर्ण नित्य वृंदावन सुशोभित है । अक्षरातीत के आवेश ने अति सुन्दर स्वरूप धारण कर बांसुरी बजाई ।

उस मधुर ध्वनि को सुनकर कालमाया के ब्रह्माण्ड की गोपियां अपने-अपने तनों को छोड़कर योगमाया के अखंड ब्रह्माण्ड में पहुंची और अलौकिक तन धारण कर अपने प्रियतम के साथ ब्रह्मानन्दमयी रास लीला की ।  (पु. सं. ३१/१२,१३)


ब्रज लीला करने के पश्चात् जब अक्षरातीत का आवेश योगमाया के ब्रह्माण्ड में गया तो इस ब्रह्माण्ड का महाप्रलय कर दिया गया था । उस समय मोहतत्व के भी नष्ट हो जाने पर कुछ भी नहीं बचा था (पुराण संहिता २९/४५) ।

यदि महाप्रलय की स्थिति न मानें तो यह प्रश्न होता है कि बांसुरी की आवाज सुनते ही सभी गोपियों की आत्मा तो अपना तन छोड़कर योगमाया के ब्रह्माण्ड में महारास खेलने जा चुकी थीं, तो उनके तनों के दाह संस्कार का कहीं भी वर्णन क्यों नहीं आया ? अपितु श्रीमद्भागवत् में तो यह लिखा है कि गोपों ने प्रातःकाल अपनी पत्नियों (गोपियों) को अपने पास सोते हुए पाया । यह तथ्य स्पष्ट करता है कि ये गोपियां नयी थीं, जिन्हें पूर्व ब्रह्माण्ड के महाप्रलय हो जाने का कुछ भी अहसास नहीं था ।
प्रमाण
अचानक ही योगमाया की शक्ति के द्वारा उत्पन्न किए हुए उस महामोहसागर के अन्दर पुनः प्रपञ्चमयी ब्रह्माण्ड बनकर प्रकट हो गया (पुराण संहिता २९/४६) ।

यह नया ब्रह्माण्ड जैसा का तैसा बना दिया गया जिसमें प्रतिबिम्ब की लीला हुई । प्रतिबिम्ब लीला में गोलोक (योगमाया) के श्री कृष्ण की शक्ति भूलोक के श्री कृष्ण के तन में तथा वेद ऋचा कुमारिकाओं के जीव गोपियों (सखियों) के तन में विराजमान हुए । गोलोकी श्री कृष्ण ने कुमारिका सखियों के साथ गोकुल में सात दिन तक रास लीला की तथा चार दिन मथुरा में कंस वध आदि लीला की ...


'बृहद्सदाशिव संहिता'
सच्चिदानन्द लक्षणों वाले अक्षरातीत ने ही श्री कृष्ण के रूप में, प्रियाओं द्वारा प्रार्थना किये जाने पर, अखंड वृन्दावन में प्रेमपूर्वक लीला की ।।७।। खेल देखने की इच्छा के कारण होने वाली वियोगमयी लीला के विहार में अपनी प्रियाओं का अनुसरण करने वाले परब्रह्म ने अपने अंशरूप आवेश के साथ अक्षर ब्रह्म की सुरता (चित्तवृत्ति) सहित ब्रजमंडल में आकर वास किया ।।८।। अखंड वृन्दावन के अन्दर जो गुह्य लीला हुई, वह अक्षर ब्रह्म से भी परे स्थित अक्षरातीत की लीला थी । वह गुह्य से भी गुह्य एवं मन-वाणी से अगम है । वह लीला अब अक्षर ब्रह्म के हृदय में अखण्ड रूप से स्थित है ।।९।।अखंड वृन्दावन में परब्रह्म की लीला रूप जो परम ऐश्वर्य स्थित है, वही गोकुल में बाल्यावस्था तथा किशोर लीला के भेद से कहा गया है ।।१०।।



'बुद्ध गीता' ग्रन्थ के श्रुतिः अध्याय श्लोक १० में निम्न वर्णन किया है-

"विष्णु एवं आदि विष्णु का स्वरूप एक ही है । इनसे भिन्न जो अक्षर ब्रह्म हैं, उनकी ये स्वप्न में कला रूप हैं । जन्म के समय जो वसुदेव को पुत्र के रूप में प्राप्त हुआ था, वह विष्णु भगवान का परम तेजोमय स्वरूप था । जो जेल से गोकुल में ले जाया गया था, वह उनसे भी भिन्न गोलोकी शक्ति का स्वरूप था । ब्रज में जिसने सखियों के साथ लीला की, वह परम ज्योतिमय अलौकिक अक्षर ब्रह्म का स्वरूप था । जिसने योगमाया के अन्दर अखंड रास की लीला की, वह अक्षर ब्रह्म की आत्मा से युक्त अक्षरातीत की शक्ति के द्वारा किया हुआ कहा गया । इस प्रकार विष्णु, अक्षर ब्रह्म एवं अक्षरातीत की प्रतिभासिक लीला के ये तीन स्थान हैं, किन्तु परब्रह्म अक्षरातीत की वास्तविक लीला का तेजोमय स्थान इनसे भिन्न ही है, जो उनके ही समान चेतन रूप वाला तथा अखण्ड है ।

 इसलिए यहाँ का ब्रिज व राास वहां केसे जा सकता है
ब्रज ने रास अखंड कहे प्रगट ,सो तो नित नित नवले रंग |
एक रंचक रहे सो ब्रह्माण्ड की ,तो टीका का होवे रे भंग ||
(चौपाई ९ का भाव )
ब्रिज और रास को अखंड कहा गया है जहाँ नत  नई नई आनंद की लीलाए होती है अगर उस अखंड की तुलना इस नश्वर ब्रह्मांड से की जाती है तो व्ल्ल्भाचार्ये जी का टीका झूटा हो  जायेगा अर्थात तुम उसका सही अर्थ नही लगा रहे साथ जी यहाँ एक भाव और ग्रहण करने लायक है की इस चौपाई में हम  ब्रह्मआत्मवो के लिए भी सिखापन है की हम वाणी का अर्थ भी यहाँ की बुध्ही से लगा रहे है इसलिए वाणी के मूल भाव से वंचित रह जाते है क्योंकि वाणी के भाव शब्द तीत है और  वाणी में शब्द ही लिखे हुए है इसलिए सुन्दरसाथ आपस में झगडे कर रहे है क्योंकि शब्दों में उलझे रहते है सार तत्व को नही जान पाते जो सार ग्रहण कर लेता  है वो कभी नही वाद विवाद में नही पड़ता ...
बाकी चौपाई का भाव चर्चा कल धनी जी की  इच्छा  से करेंगे साथ जी

 प्रणाम जी 

Saturday, October 24, 2015

बाजीगर

सुप्रभात जी

परमधाम की आत्माओं को चाहिए कि वे ब्रह्मवाणी के ज्ञान तथा परमात्मा के प्रेम से अपनी आत्मिक दृष्टि को खोलें। यदि वे ऐसा करके इस जगत की लीला को देखती हैं तो उन्हें यह विदित हो जायेगा कि यह सम्पूर्ण जीव सृष्टि उस खेल के कबूतर की तरह हैं, जिसका बाजीगर (अक्षर ब्रह्म) दूर बैठे हुए इस खेल को खेला रहा है।
इस अवस्था में ब्रह्मसृष्टि जीवों को अपना आदर्श नहीं मानेगी और उनके कर्मकाण्डों की नकल नहीं उतारेगी। परमात्मा की वाणी का ज्ञान प्राप्त हो जाने के पश्चात् तो ब्रह्मसृष्टियां अपने धाम हृदय में परमात्मा के अतिरिक्त अन्य किसी को भी नहीं बसाती।

प्रणाम जी

दिल अरस मोमिन कह्या


दिल अरस मोमिन कह्या, तित आए हक सुभान ।
सो दिल पाक औरों करे, जाए देखो मगज कुरान ।।

ब्रह्मात्माओं (मोमिनों) के दिलको तो परमधाम कहा है, कयोंकी ब्रह्मात्माओं का ध्यान हमेंशा अपनें पूर्णब्रह्म परमात्मा में रहता है ..कयोंकी इनका  परमात्मा से संबन्ध है इसलिय ये उसे परमात्मा नही बल्की अपना सर्वसव  मानती हैं ..इस कारण इनके दिल मे माया नही आ पाती कयोंकी वहाँ परमात्मा (हक सुभान) आकर विराजमान होते हैं. ऐसी आत्माएँ अन्य लोगोंके दिलोंको भी पवित्र बना देतीं हैं. कयोंकी इनका ग्यान एकदम शुद्ध होता है ..जडता से दूर व चेतनता से ओतप्रोत जिसके संपर्क से सबको लाभ मिलता है...और इसका प्रमाण कुरान आदी मे वर्णित है...

प्रणाम जी

Friday, October 23, 2015

इस संसार आडम्बर में मैं कौन हूँ ...

सुप्रभात जी

संसारसमुद्र से तरने के लिय शीघ्र ही विचार करूँ ।
Satsangwithparveen.blogspot.com
इस संसार आडम्बर में मैं कौन हूँ जो बोलता हूँ, देह और यह जगत् तो मैं नहीं, यह तो असत्य उपजा है और जड़रूप पवन से स्फुरणरूप होता है सो मैं कैसे होऊँ? यह देह भी मैं नहीं क्योंकि यह तो क्षण-क्षण में काल से लीन होता है और जड़ रूप है।
श्रवणरूपी जड़ भी मैं नहीं, क्योंकि जो शब्द सुनते हैं वह शून्य से उपजा है त्वचा इन्द्रिय भी मैं नहीं इसका क्षण-क्षण विनाश स्वभाव है । प्राप्त हुआ अथवा न हुआ, यह इष्ट है, यह अनिष्ट है, इन्द्रियाँ आप जड़ हैं पर इनके जानने वाला चैतन्य तत्त्व है और चैतन्य के प्रमाद से ये विषय उपलब्धहोते हैं । इससे न मैं त्वचा इन्द्रिय हूँ, और न स्पर्श विषय हूँ, यह जड़ात्मक है यह जो चच्चलरूपी तुच्छ जिह्वा इन्द्रिय है और जिसके अग्र में अल्प जल अणु स्थित है वही रस ग्रहण करता है, वह रस भी जीवसत्ता करके लब्धरूप होता है वो आप जड़ है,

इससे यह जड़रूप जिह्वा और रस मैं नहीं ये जो विनाशरूप नेत्र दृश्य के दर्शन में लीन हैं सो मैं नहीं और न मैं इनका विषयरूप हूँ, ये जड़ हैं । यह जो नासिका पृथ्वी का अंश है सो केवल जीव के आधार है यह आप जड़ है पर इसका जाननेवाला चैतन्य है, सो न मैं नासिका हूँ, न गन्ध हूँ, मैं अहं मम से और मन के मनन से रहित शान्तरूप हूँ और ये पञ्च इन्द्रियाँ मेरे में नहीं मैं शुद्ध चैतन्यरूप कलना कलंक से और चित्त से रहित चिन्मात्र और सबका प्रकाशक सबके भीतर बाहर व्यापक और निःसंकल्प निर्मल शान्तरूप हूँ । आश्चर्य है अब मुझको अपना स्वरूप स्मरण आता है । प्रकाशकरूप चैतन्य अनुभव अद्वैत मेरे अनुभव से स्थित है ।

इसलिय सवंयम की खोज करने से मूल तत्व का मार्ग मिलेगा..
पेहेले आप पेहेचानो रे साधो, पेहेले आप पेहेचानो ।
बिना आप चीन्हें पार ब्रह्मको, कौन कहे मैं जानो।।

प्रणाम जी

परब्रह्म और प्रेम ..

ब्रह्म इस्क एक संग, सो तो बसत वतन अभंग।
ब्रह्मसृष्टी ब्रह्म एक अंग, ए सदा आनंद अतिरंग।।

परब्रह्म और प्रेम (इश्क) दोनों ही अभिन्न हैं। और इनका मूल निवास अखण्ड परमधाम में है। परमात्मा की  ब्रह्मात्मायें भी उनसे अभिन्न हैं और उन्हीं की अंगरूपा हैं। इनकी परमात्मा के साथ सर्वदा ही अनन्त प्रेम और आनन्द की लीला होती रहती है।
जिस प्रकार शक्कर में मिठास और सूर्य में तेज का गुण स्वाभाविक है, उसी प्रकार  परब्रह्म में प्रेम ओत-प्रोत है। प्रेम से अलग करके परमात्मा को देखा ही नहीं जा सकता।  प्रेम का यह अखण्ड स्वरूप वस्तुतः परमधाम में ही है। जिस प्रकार लहरों के रूप में सागर का ही जल क्रीड़ा करता है, उसी प्रकार ब्रह्मसृष्टियों के रूप में परमात्मा के हृदय में प्रेम, आनन्द और सौन्दर्य आदि गुणों की ही लीला होती है। इसी प्रकार अक्षरातीत और ब्रह्मसृष्टियों को कभी भी अलग स्वरूप वाला नहीं कहा जा सकता..

प्रणाम जी

Thursday, October 22, 2015

सार तत्व

दोऊ दौड करत हैं, हिन्दू या मुसलमान।
ए जो उरझे बीच में, इनका सुंन मकान।।

हिन्दू और मुसलमान दोनों ही प्रमात्मा प्राप्तिके लिए परस्पर स्पर्धामें उतर आए हैं, किन्तु दोनों ही मूल घर (आनंद) तक पहुँच नहीं पाए तथा बीचमें ही फँस गए, कयोंकी इन्होने केवल शब्दो को और बाहरी आवरण को ही ग्रहण किया इस कीरण वे सार तत्व प्रमात्मा से दूर ही रह गये और उनका ध्यान झगडों में ही अटक गया है..इसलिय उनका ठिकाना शून्य तक ही रहा.
।।इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्य: स सुपर्णो गरुत्मान्।
एकं सद् विप्रा बहुधा वदंत्यग्नि यमं मातरिश्वानमाहु: ।।- ऋग्वेद (1-164-43)
भावार्थ :
जिसे लोग इन्द्र, मित्र, वरुण आदि कहते हैं, वह सत्ता केवल एक ही है; ऋषि लोग उसे भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते हैं

शब्दजालं महारण्यं चित्तभ्रमणकारणम्।
अतः प्रयत्नाज्ज्ञातव्यं तत्त्वज्ञात्तत्त्वमात्मनः।।
(विवेक चूड़ामणि—६२)

शब्द जाल  तो चित्त को भटकाने वाला एक महान् बन है, इस लिए किन्हीं तत्त्व ज्ञानी महापुरुष से यत्न पूर्वक ‘आत्मतत्त्वम्’ (परमतत्व)को जानना चाहिए

पद गाए मन हरषियां, साषी कह्यां अनंद ।
सो तत नांव न जाणियां, गल में पड़िया फंद ॥

भावार्थ - मन हर्ष में डूब जाता है भजन गाते हुए, और कथा सुन्ने  में भी आनन्द आता है । लेकिन सारतत्व को नहीं समझा, और सारतत्व का मर्म न समझा, तो गले में फन्दा ही पड़नेवाला है | अर्थात बृह्म को जाने बिना कुछ भी करलो सब व्यर्थ है.

प्रणाम जी

Wednesday, October 21, 2015

मारे लिए दशहरा के क्या मायने है......

सुप्रभात जी

हमारे लिए दशहरा के क्या मायने है आइये जानते है
राम=सत्य
रावण=जड़ प्रकृति (माया)
हनुमान = विवेक
सीता =आनंद (जिसकी प्राप्ति करनी है जिसे रावण ने छुपा रखा है )
हमारे आनंदर जो धारणा  उत्पन्न होती है वही पूरे खेल की रचना करती है ... अर्थात हमारी धारणा ही हमारी रामायण है !
जब हम धारणा में जड़ता का अनुशरण करते है तो हमारे अन्दर ही रावण उत्पन्न हो जाता है जो हमारे ह्रदये (मन चित बुद्धी अहंकार) को अपनी लंका बना कर उसपर शाशन करने लगता है ऐसा होने पर वो सीता का हरन कर  लेता है जो जिस से हम आनंद प्राप्ति से वंचित हो जाते है ये रावण बोहोत  शक्तिशाली है यही हमसे जड़ पूजा करवाता है व सत्ये के आनंद को छिपा के रखता है  इसको पैदा भी हमने ही किया है और इसका वध भी हमे ही करना है पर यह बोहोत  शक्तिशाली है इसलिए इसके वध के लिए हमे राम याने सत्ये (सत्ये केवल परमात्मा है याने चेतन को धारण करना ही सत्ये है ) को अपने अन्दर धारण करना होगा याने हमे अपने अन्दर ही राम को दुंड़ना है जिस से हम रावण का वध कर  सकते है इसके लिए हमे जरुरत होगी हनुमान की याने विवेक की हनुमान हमे बतायेगा की रावण कोन  है और उसने सीता को कहाँ छुपा रखा है हनुमान ही सीता की खोज करेगा जब हमे पता चल जायेगा की सीता कहाँ है तो हम राम याने चेतन को धारण करके अपने जड़ रूपी रावण को समाप्त कर  सकते है जिस से सोने की लंका से याने हमारे हृदये अर्थात अंत:करन से जड़ माया का अंत हो सके और उस कारण सीता स्वतन्त्र हो जायेगी याने हमे आनंद प्राप्ति हो जाएगी तो अगर हमने अपने अन्दर के रावण को नही मारा तो बाहर चाहे कितना भी विजय दशवीं  मना लें उसका कोई फायेदा नही सही मायने में विजय दशवीं तभी होगी जब हम इसे अपने अन्दर ही महसूस करेंगे ...
आप सभी को हमारे अन्दर की विजय दशवीं की शुभ कामनाएं

प्रणाम जी 

Tuesday, October 20, 2015

(श्रीमद्भागवत् महापुराण से)

सुप्रभात जी

(श्रीमद्भागवत् महापुराण से)

लोकानां लोकपालनां मद्भयं कल्पजीविनाम्।
ब्रम्हणोsपि भयं मत्ते द्विपरार्धपरायुष:।।
(श्रीमद्भागवत महापुराण ११/१०/३०)
सारे लोक और लोकपालों की आयु भी केवल एक कल्प है। इसलिए मुझसे भयभीत रहते हैं। औरों की बात ही क्या, स्वयं ब्रम्हा भी मुझसे भयभीत रहते हैं क्योंकि उनकी आयु भी काल से सीमित-दो परार्द्ध है।
(श्रीमद्भागवत महापुराण ११/११/१८)
प्यारे उद्धव! जो पुरुष वेदों का तो परगामी विद्वान हो परन्तु परमब्रम्ह के ज्ञान से शून्य हो, उसके परिश्रम का कोई फल नहीं हैं। वह तो वैसा ही है, जैसे बिना दूध का गाय पालने, वाला।

(श्रीमद् भा॰ महापुराण ११/१२/९)
उद्धव ! बड़े-बड़े प्रयत्नशील साधक योग, सांख्य, दान, व्रत, तपस्या, यज्ञ, श्रुतियों की व्याख्या, स्वाध्याय और सन्यास आदि साधनों के द्वारा मुझे नहीं प्राप्त कर सकते, परन्तु उस परमसत्य के संग के द्वारा तो मैं अत्यन्त सुलभ हो जाता हूँ।

(श्रीमद् भा॰ महापुराण ११/१४/९)
प्यारे उद्धव ! सभी की बुद्धि मेरी माया से मोहित हो रही है; इसी से वे अपने-अपने कर्म-संस्कार और अपनी-अपनी रुचि के अनुसार आत्मकल्याण के साधन भी एक नहीं, अनेकानेक बतलाते हैं।

(श्रीमद् भा॰ महापुराण ११/१४/११)
कर्मयोगी योग यज्ञ, दान, व्रत तथा यम-नियम आदि को पुरुषार्थ बतलाते हैं परन्तु ये सभी कर्म हैं। इनके फलस्वरूप जो लोक मिलते हैं, वे उत्पत्ति और नाश वाले हैं। कर्मों का फल समाप्त हो जाने पर उनसे दुःख ही मिलता है और सच पुछो तो उनकी अन्तिम गति घोर-अज्ञान ही है। उनसे जो सुख मिलता है, वह तुच्छ है- नगण्य है और वे लोक-भोग के समय भी असूया आदि दोषों के कारण शोक से परिपूर्ण हैं।
(उस एक मात्र परमात्मा को जान्ना ही मानव जीवन का परम लक्षय है..)

प्रणाम जी

Monday, October 19, 2015

सतगुरू..

सुप्रभात जी

शास्त्रों और पुराणों के विद्वानों, तरह-तरह की वेशभूषा धारण करने वाले महात्माओं और विभिन्न पन्थों में तुम भले ही खोजते रहो, लेकिन सदगुरु का स्वरूप नहीं मिलेगा । सदगुरु का स्वरूप इन सबसे अलग ही होता है । वास्तविक सदगुरु तो इस कलयुग में कहीं एक ही होगा ।

सदगुरु वही है जो धर्म ग्रन्थों के द्वारा वास्तविक सत्य को प्रकट करे । सभी धर्मग्रन्थों का मूल आशय एक ही होता है । सभी मनीषियों के कथनों में एकरूपता होती है, लेकिन अज्ञानी लोग अलग अलग समझते हैं ।

वेद, उपनिषद, दर्शन, सन्त वाणी, कुरान तथा बाइबल इत्यादि में एक ही परब्रह्म को अनेक प्रकार से बताया गया है । छः शास्त्रों के रचनाकारों ने सृष्टि बनने के छः कारणों की अलग-अलग व्याख्या की है । उसमें तत्वतः कोई भेद नहीं है, किन्तु अल्पज्ञ लोग भेद मानकर लड़ते रहते हैं । सत्यदृष्टा मनीषियों का कथन सभी कालों में समान ही होता है ।

प्रणाम जी

माया की नींद में क्यों फँसू ?

आपण निद्रा केम करूं, निद्रानो नथी लाग।
भरमनी निद्रा जे करे, कांई तेहेनो ते मोटो अभाग।।

भला अब मैं माया की नींद में क्यों फँसू ? मुझे किसी भी प्रकार से इस मायावी नींद से अपना सम्बन्ध नहीं रखना है। तारतम वाणी के अवतरण के पश्चात् भी जो सुन्दरसाथ इस माया की नींद में उलझे हुए हैं, निश्चित रूप से वे बहुत अधिक भाग्यहीन (बदनसीब) हैं।
जिस प्रकार रात्रि के समय गहरी नींद में सो जाने वाला व्यक्ति स्वयं को तथा संसार को पूरी तरह से भूला रहता है, उसी प्रकार जो लौकिक कार्यों(अर्थोपार्जन, पारिवारिक कर्त्तव्यों के पालन तथा विषय भोग) को ही सब कुछ मानकर प्रियतम अक्षरातीत तथा निज स्वरूप को भूला रहता है, उसे माया की नींद में सोया हुआ कहते हैं। अक्षरातीत के प्रेम को प्राथमिकता देकर लौकिक कार्यों को करना नींद में फंसना नहीं है, बल्कि राजा जनक एवं महाराजा छत्रसाल का निष्काम कर्मयोग मार्ग है, जो संसार में रहते हुए भी संसार से परे रहे

Sunday, October 18, 2015

कुली दज्जाल अंधेर सरूपे, त्रिगुन को पाडे
त्रास।
सूर सिरोमन साध संग्रामें, पीछे पटक किए निरास।।

कलियुग रूपी यह शैतान अज्ञान का ही स्वरूप है, जिसने ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव को भी भयभीत कर रखा है। ज्ञान, भक्ति तथा वैराग्य के क्षेत्र में अग्रगण्य शिरोमणि महात्माओं को भी इसने मायावी युद्ध में हराकर निराश कर दिया।
यहां कलियुग से तात्पर्य उस मोहसागर से है, जिसे कोई पार नहीं कर पाता। सृष्टिकर्ता आदिनारायण भी जब इसके बन्धन में हैं तो उनके अंश से उत्पन्न होने वाले ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव जी का इससे भयभीत रहना स्वाभाविक ही है। महानारायण उपनिषद् में कहा गया है कि उनके रोम-रोम में चौदह लोकों सहित असंख्यों ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव स्थित है

प्रणाम जी

Saturday, October 17, 2015

दिल में वास्तविकता का बोध ....

सुप्रभात जी

यह तो पूर्ण रूप से सत्य है कि आपने यह खेल हमारी इच्छा को पूर्ण करने के लिये किया होगा, लेकिन यह झूठा जगत् निराशाओं से भरा हुआ है। दिल में वास्तविकता का बोध हो जाने पर भी यह कितने आश्चर्य कि बात है कि यह झूठा शरीर सांसे ले रहा है ? इसे तो इस संसार में रहना ही नही चाहिय..
इस संसार की प्रत्येक वस्तु नश्वर है। यौवन, पद और धन भी स्थिर रूप से नहीं रहते। वियोग, रोग, भूख-प्यास, जन्म और मरण का भयानक कष्ट जीवन में निराशा ही पैदा करता है। इस संसार की यथार्थता का बोध होने पर विवेकवान् लोग इसके मोह-जाल में नहीं फंसते और परमात्मा अक्षरातीत के प्रेम में ही अपनी उम्र पूरी कर लेते हैं। उनके बिना इस संसार में रहना उन्हें किसी भी रूप में स्वीकार्य नहीं होता है।

प्रणाम जी

सत्य गयान का अंकुर ...


इलम चातुरी खूबी अंग की, मोहे एही पट लिख्या अंकूर।
एही न देवे देखने, मेरे दुलहे के मुख का नूर।।
(श्री प्राणनाथ वाणी)
ज्ञान सीख लेने पर वह बुद्धि कौशल से प्रस्तुत किया जाता हैं जिसका प्रतिबिम्ब अहंकार तक पहुंच कर मान व प्रशंषा की कामना का रुप धारण कर के हृदये के अंग बुद्धि पे जहरीले शर्प की भांति कुंडली मार के बैठ जाता है जो निरंतर कामना का जहर उगलता रहता है और जब मान की कामना में कोई अड़चन हो जाती है तो उस शर्प का भाई क्रोध उत्पन हो जाता हैं , यही सीखा हुआ ज्ञान वास्तविक ज्ञान को हृदये तक नही पहुंचने देता यही उधार का ज्ञान वाद विवाद का कारण बनता है हमे वही सच लगता है जो हमने कहीं  सीखा या पढ़ा होता है उसके अलावा हम कीसी की बात ग्रहण नही करते चाहे वह परम सत्ये ही क्यों न हो यही ज्ञान की चतुराई हमे अहंकार से आगे नही जाने देती जहाँ शुद्ध आत्मा का निवास है जिसे अंकुर कहा जाता हैं अब ध्यान देने वाली बात है की यही अंकुर सत्ये ज्ञान का अंकुर हैं जिस पर हमने बुद्धि की चतुराई को इस प्रकार बैठा दिया हैं की हमारे हमारे जीव की पहुंच उस अंकुर तक नही पहुंच पाती जिस कारण सत्ये ज्ञान अंकुरित नही हो पता , सीधा सा उदाहरण हैं की सबने सीख रखा हैं की हम ब्रह्मआत्मा हैं जब तक आपको अहसास नही हो जाता की आप ब्रह्म आत्मा हैं यह ज्ञान उधार का हैं तब तक आप उन्ही बातो पे लड़ते रहोगे जो आपने सीख रखी हैं  या जो नाम जिसे हम तारतम "मंत्र" कह कर जपते हैं जिसने जो भी सीखा हैं उसके आलावा दूसरे को नही सहन कर सकते ,लडने लगते हो.. यही पर्दा हैं जो अंकुर याने आत्म दृष्टि तक जीव की दृष्टि नही जाने देती इसी कारण हम परमात्मा का दीदार नही कर पा रहे और बड़ी बड़ी दलील देते हैं की मैं परमात्मा के लिए सारी रात रोया या रोयी क्या बच्चो जैसी बात है हमसे ज्यादा तो बच्चे रोते है सब रो रहे हैं संसार में अपने अपने आनंद के लिए हम भी रो लिए तो क्या हुआ बस कहीं से सुन लिया की परमात्मा की याद में गिरा आंसू मोती बन जाता हैं फ्ला ढिमका आदि आदि बस सीख रखा है तो सत्य मान बैठे है..अरे आत्म दृष्टि से दृष्टि मिला के तो देखो सीधी परमात्मा से दृष्टि मिल जाएगी जो तुम्हारे पास हैं याने जो स्वास नली से भी नजदीक हैं उसके लिए  रोते हो ,क्योंकि ज्ञान चतुराई में मूल ज्ञान के अंकुर को पनपने नही देते.यही सबसे बड़ा रोग हैं जो परमात्मा का दीदार और हमारे बीच पर्दा बना हुआ हैं....जिस दिन मूल ग्यान याने सत्य ग्यान का अंकूर फूटने लगेगा उस दिन यह उधार का ग्यान अग्नी की भांती ताप देने वाला लगेगा और इस से दूर भागोगे ..तभी बिना विलंब परमात्मा को पा लोगे ...सत्य गयान का अंकुर हमारे अंदर है बाहर तो कीसी और का ग्यान है ...
प्रणाम जी

Friday, October 16, 2015

सास्त्र ले चले सतगुरु सोई, वानी सकलको एक अरथ होई ।
सब स्यानों की एक मत पाई, पर अजान देखे रे जुदाई ।।

धर्मग्रन्थोंके प्रमाणभूत सिद्धान्तोंके अनुरूप चलने वाले ही सद्गुरु हो सकते हैं. सब धर्मग्रन्थोंकी वाणी समान अर्थ धारण करती है (अर्थात् एक ही पूर्णब्रह्म परमात्माकी ओर संकेत करती है). वास्तवमें सब ज्ञाानीजनोंका अभिप्राय भी एक है, किन्तु धर्मग्रन्थोंके सिद्धान्तोंको न समझने वाले अज्ञाानीजन उनमें भिन्नता देखते हैं.

प्रणाम जी

Thursday, October 15, 2015

परमात्मा...

उस परमात्मा की सभी देवी-देवता, ऋषि-मुनि, ब्रह्मा, विष्‍णु, महेश, राम और कृष्ण आराधना करते हैं। हिंदू धर्म ग्रंथ वेद, स्मृति, गीता आदि सभी में इस बात के प्रमाण हैं। वेद और पुराण के अनुसार 'वह परमात्मा एक ही है' दूसरा कोई परमात्मा नहीं है। मत्स्य अवतार से लेकर कृष्ण तक सभी अवतारी पुरुष उस परमात्मा की शक्ति से ही ईश्‍वर के संदेश को पहुँचाते रहे हैं।
परमात्मा न तो भगवान है, न देवता, न दानव और न ही प्रकृति या उसकी अन्य कोई शक्ति। ‍ परमात्मा एक ही है अलग-अलग नहीं। परमात्मा अजन्मा है। जिन्होंने जन्म लिया है और जो मृत्यु को प्राप्त हो गए हैं या फिर अजर-अमर हो गए हैं वे सभी परमात्मा नहीं हैं। जीन्होने वाणी मथन किया है या जो वेदज्ञ हैं, गीता के जानकार हैं और जिन्होंने उपनिषदों का अध्ययन किया है वे उक्त बातों से निश्चित सहमत होंगे। यही सनातन सत्य है।
'
जो सर्वप्रथम परमात्मा को इहलोक और परलोक में अलग-अलग रूपों में देखता है, वह मृत्यु से मृत्यु को प्राप्त होता है अर्थात उसे बारम्बार जन्म-मरण के चक्र में फँसना पड़ता है।'-कठोपनिषद-।।10।।

।।इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्य: स सुपर्णो गरुत्मान्।
एकं सद् विप्रा बहुधा वदंत्यग्नि यमं मातरिश्वानमाहु: ।।- ऋग्वेद (1-164-43)
भावार्थ :
जिसे लोग इन्द्र, मित्र, वरुण आदि कहते हैं, वह सत्ता केवल एक ही है; ऋषि लोग उसे भिन्न-भिन्न नामों से पुकारते हैं।

वह परब्रह्म (ईश्वर) एकात्म भाव से और एक मन से तीव्र गति वाले हैं। वे सबके आदि (प्रारंभ) तथा सबके जानने वाले हैं। इन परमात्मा को देवगण भी नहीं जान सके। वे अन्य गतिवानों को स्वयं स्थिर रखते हुए भी अतिक्रमण करते हैं। उनकी शक्ति से ही वायु, जल वर्षण आदि क्रियाएँ होती हैं। वे चलते हैं, स्थिर भी हैं; वे दूर से दूर और निकट से निकट हैं। वे इस संपूर्ण विश्‍व के भीतर परिपूर्ण हैं तथा इस विश्‍व के बाहर भी हैं।'।।4,5।।-ईशावास्योपनिष

वदन्तुशास्त्राणि यजन्तु देवान् कुर्वन्तु कर्माणि भजन्तुदेवता:।
आत्मैक्यबोधेनविना विमुक्तिर्न सिध्यतिब्रम्हशतान्तरेsपि।।
(विवेक चूड़ामणि--६)

‘भले ही कोई शास्त्रों की व्याख्या करे, देवताओं का भजन करे, नाना शुभ कर्म करे अथवा देवताओं को भजे, तथापि जब तक  परमात्मा की एकता (अदुेत) का बोध नहीं होगा, तब तक सौ ब्रम्हा के बीत जाने पर भी (अर्थात् सौ कल्प में भी) मुक्ति नहीं हो सकती

Wednesday, October 14, 2015

(श्री परमात्मा वाणी का रहस्य )

सराब मेरी सुराही का, सो रूहों मस्ती देवे पुरन।
दे इलम लदुन्नी लज्जत, हक बका अर्स तन।।
(श्री परमात्मा वाणी का रहस्य )
यहां सराब का मतलब आनंद हैं और सुराही का अर्थ अनंत आनंद का स्त्रोत परमात्मा का हृदये हैं जहाँ से अनंत आनंद का प्रवाह हम आत्माओ को प्राप्त होता हैं इसे श्यामा जी भी कहते हैं तो स्वयं परमात्मा हम आत्माओ को अपने हृदये याने श्यामा जी के दुआरा अनंत आनंद में डुबोये रख्ते हैं क्योंकि परमात्मा ने अपने हृदये को हमारे आत्म हृदये में जोड़ रखा हैं उनके और हमारे बीच की यही कड़ी श्यामा जी हैं जो की स्वयम परमात्मा का हृदये स्वरुप है उन्हें ही ईशक या आनंद की सुराही कहा गया हैं जिसमे परमात्मा के आनंद रूपी सराब लगातार भरती रहती हैं जिसका आनंद ब्रह्मात्माएँ निरंतर लेती रहती हैं यह श्यामा जी परमात्मा और हम आत्माओ का बड़ा शुक्ष्म संबंध हैं जिसे सांसारिक दृष्टि से नही समझा जा सकता और न ही सब्दो के अर्थ के दुआरा इसका अर्थ निकाला जा सकता हैं जैसे  शराब को पिने वाला ही बता सकता हैं की इसका आनंद केसा हैं  उसी प्रकार इस सम्बन्ध को वही जान पता हैं जो इस सुराही से शराब पी रहा हो उसे पता हैं की इस सुराही और सुराही में जहां से शराब आ रही हैं उस से हमारा क्या संबंध हैं इसे याने इस संबंध को ही इल्म कहा गया हैं इसका भी अपना ही नशा हैं यह इल्म रूपी शराब भी उसी सुराही से आती हैं और इन सबका आनंद हमारी प्रात्म और आत्म दोनों को मिल रहा हैं..यह भी बहोत गहन विषय है जिसको थोड़े मे ही
अनन्त को डालने का दुस्साहस किया गया है..पर कया करूं करवाने वाला भी वही है ...
..................." सुराही वाला "

प्रणाम जी

Tuesday, October 13, 2015

अपने ह्रदय का परदा हटायें.

सुप्रभात जी

शास्त्रों व सभी धर्म ग्रन्थो के अनुसार संसार में बुद्धिमान व्यक्ति वही माना जाता है जो आत्मा में निवास करता है। जिसने आत्म-साक्षात्कार को जीवन-लक्ष्य के रूप में चुना और आत्म-सत्य की  अभिज्ञव्यक्ति को जीवन का स्वरूप प्रदान किया। आत्मा के गुणों को अपने जीव के स्वभाव में उतारा और आत्मा का आदेश-पालन ही एक मात्र कर्तव्य-रूप में निर्धारित किया। हमें चाहिए कि आत्मा का अनुसंधान करें। परमात्मा ही सत्य है। यहाँ जो भी है, जो हमें दिखता है अथवा नहीं दिखता, उस सब का आदि मूल वही परमात्मा है। उसे ही परमेश्वर, परब्रह्म, परमात्मा आदि नामों से संबोधित किया जाता है। वह एक दिव्य चेतन पुरूष है। हम किसी भी नाम से पुकारें, किसी भी मार्ग से प्राप्त करें, इसमें कोई अंतर नहीं। असली चीज है उसकी प्राप्ति। उसकी प्राप्ति के पश्चात् हम देखेंगे कि जो वस्तु हमने प्राप्त की है, वह हमारी सत्ता और जगत-सत्ता  का मूलभूत सत्य है और उसकी प्राप्ति के हित हमारे जीव ने जो कष्ट उठाये, जो त्याग किये, तपस्याएँ कीं, बलिदान किये, यंत्रणाएँ सहीं, अपने आपको मिटाया,, हानि स्वीकार की, अपमान के घूंट पिये, वह सब- जो हमने पाया उसकी प्राप्ति की तुलना में नहीं के बराबर है।
व्यक्तिगत इच्छाओं की पूर्ति में अपना समय नष्ट न करें।  जो समय मिले उसे इश्वरोपासना में, परमात्मा की प्राप्ति में लगायें....अपने ह्रदय का परदा हटायें.

प्रणाम जी

यह खेल इतना विचित्र है कि ...

अब निरखो नीके कर, ए जो देखन आइयां तुम ।
माग्य खेल हिरसका, सो देखलावें खसम ।।
(कलश हि. १३/१)

यह खेल इतना विचित्र है कि खेलने वाले और देखनेवाले दोनों ही इसमें रचे-पचे हुए सब कुछ भूल जाते हैं । यहाँके लोग किसी अपरिचित व्यक्तिके साथ सम्बन्ध बनाकर खुश होते हैं और सदा सर्वदासे परिचित परमातमा के साथके अपने शाश्वत सम्बन्धको भूल जाते हैं । यहाँ पर एक और विवाहके लिए श्रृंगार किए हुए बारातीलोग नाच रहे होते हैं तो दूसरी और किसी मृतककी अरथी उठाकर चलने वाले लोग रोते हुए जा रहे होते हैं । कभी ऐसे दोनों प्रकारके लोग आमने सामने हो जाते हैं । कहीं किसीका जन्म होकर लोग खुशियां मना रहे होते हैं तो वहीं पर दूसरी ओर किसीके मरण होनेसे रोते हुए दिखाई देते हैं,


यहँ पर कोई कृपण हैं तो कोई दाता कहलाते हैं, कोई ज्ञानी हैं तो कोई अज्ञानी हैं, कोई राज है तो कोई रंक है । इस प्रकार इस जगतमें अनेक विषमतायें हैं ।

परमात्मा ने हमें समझाया कि हे ब्रह्मात्माओ ! तुम यह विचित्र खेल देखने मात्रके लिए आयी हो किन्तु यहाँ आकर मायाके जीवोंकी भाँति तुम भी मायामें ही हिलमिल गई । इनको तो यह नश्वर खेल नश्वर नहीं लगता है क्योंकि जलतरंगवत् ये सभी स्वयं भी मोह मायाकी ही सृष्टि है । वास्तवमें यह झूठी माया तुम सत्य आत्माओंको प्रभावित कर रहीं है । तुम स्वयं सत्य होते हुए भी स्वयंको न पहचान कर झूठी मायामें भूलने लगी हो । यह तो नश्वर होनेके कारण एक दिन मिटेगी ही किन्तु तुम्हें झूठा दाग लगा कर मिटेगी । इसलिए तुम जागृत हो जाओ |

प्रणाम जी

Monday, October 12, 2015

वंदनीय है उपनिषत

वंदनीय है उपनिषत , यामे ज्ञान महान।
श्याम प्रेम बिनु ज्ञान सो , प्राणहीन तनु जान।।

भावार्थ - उपनिषत् का ग्यान महान हैं। अतः वन्दनीय हैं। उनमें अनंत ज्ञान भरा पड़ा है। उपनिषद के ग्यान को दंडवत प्रणाम है..किन्तु अगर किसी भी ग्यान से परमात्मा का प्रेम नहीं बढ़ता तो वह ज्ञान , प्राणहीन शरीर के समान है।

प्रणाम जी

Sunday, October 11, 2015

तूं अभी भी सावचेत क्यों नहीं हो रहा है ?

सुप्रभात जी

हे पापी जीव ! तूं अब तक माया की नींद में क्यों सोता रहा है। इस प्रकार तूंने तो प्रमादवश बहुत सा समय व्यर्थ में ही खो दिया है। देखते-देखते तुम्हारे शरीर की आयु भी क्षीण होने लगी है। किन्तु ! तूं अभी भी सावचेत क्यों नहीं हो रहा है ?  हमारे प्राणाधार अक्षरातीत ने अपार दया करके माया का यह पंचभौतिक तन और तारतम ग्यान तुझे परदान  किया है। फिर भी रे मूर्ख ! आश्चर्य है कि तूं अभी भी उनकी दया के सम्बन्ध में कुछ भी विचार नहीं कर रहा है। और धर्म ग्रन्थो को बडी चतुराई से पढ कर लोगो की बडाई और मान मे ही आनंद लेकर जीवन गवां रहा है.. केवल मंत्र जाप को ही तारतम समझ कर तोता बना हुआ है ...जरा विचार तो कर ये जप तप आदि तो नवधा भक्ति है हे जीव ऐसे केसे तू उस पूर्णबृह्म को पाने के लिय अन्धा होकर विपरीत दिशा में भाग रहा है...

वाग्वैखरी शब्दझरीशास्त्रव्याख्यान कौशलम्।
वैदुष्यं विदुषां तद्वद्द्भुक्तये न तु मुक्तये।।
(विवेक चूड़ामणि—६०)
विद्वानों की वाणी की कुशलता, शब्दों की धारावाहिकता, शास्त्र व्याख्या की कुशलता और विद्वत्ता, भोग ही का कारण हो सकती है, मोक्ष का नहीं।‘

अविज्ञाते परेतत्त्वे शास्त्राधीतिस्तुनिष्फला।
विज्ञातेsपिपरेतत्त्वे शास्त्राधीतिस्तुनिष्फला।।
(विवेक चूड़ामणि---६१)
‘परमतत्त्वम् को यदि न जाना तो शास्त्रायध्ययन निष्फल (व्यर्थ) ही है और यदि परमतत्त्वम् को जान लिया तो भी शास्त्र अध्यन निष्फल (अनावश्यक) ही है।

शब्दजालं महारण्यं चित्तभ्रमणकारणम्।
अतः प्रयत्नाज्ज्ञातव्यं तत्त्वज्ञात्तत्त्वमात्मनः।।
(विवेक चूड़ामणि—६२)
शब्द जाल (वेद-शास्त्रादि) तो चित्त को भटकाने वाला एक महान् बन है, इस लिए किन्हीं तत्त्व ज्ञानी महापुरुष से यत्न पूर्वक ‘आत्मतत्त्वम्’ को जानना चाहिए।

अज्ञानसर्पदष्टस्य ब्रम्हज्ञानौषधम् बिना।
किमु वेदैश्च शास्त्रैश्च किमु मंत्रै: किमौषधै।।
(विवेक चूड़ामणि---६३)
अज्ञान रूपी सर्प से डँसे हुए को ब्रम्ह ज्ञान रूपी औषधि के बिना वेद से, शास्त्र से, मंत्र से क्य लाभ?

न गच्छति बिना पानं व्याधिरौषधशब्दतः।
बिना परोक्षानुभवं ब्रम्हशब्दैर्न मुच्यते।।
(विवेक चूड़ामणि----६४)
औषध को बिना पीये केवल औषधि शब्द के उच्चारण से रोग नहीं जाता। उसी प्रकार अपरोक्षानुभव के बिना केवल ‘मैं’ ब्रम्हॉआत्मा हूँ ऐसा कहने से कोई मुक्त नहीं हो सकता..

प्रणाम जी

मेरे शरीरको धिक्कार है


धिक धिक मेरी पांचो इन्द्री, धिक धिक परो मेरी देह ।
श्री स्याम सुन्दर वर छोडके, संसारसों कियो सनेह ।।९

मेरी पाँचों इन्द्रियोंको धिक्कार है, मेरे शरीरको भी धिक्कार है क्योंकि श्याम सुन्दर जैसे सर्वगुण सम्पन्न वर (परमात्मा) को छोड.कर इन्होंने इस कुटिल संसारसे स्नेह किया.
अर्थात सत्ये प्रमातमा को छोड के झूठे संसार से मोह किया...

वदन्तुशास्त्राणि यजन्तु देवान् कुर्वन्तु कर्माणि भजन्तुदेवता:।
आत्मैक्यबोधेनविना विमुक्तिर्न सिध्यतिब्रम्हशतान्तरेsपि।।
(विवेक चूड़ामणि--६)

‘भले ही कोई शास्त्रों की व्याख्या करे, देवताओं का भजन करे, नाना शुभ कर्म करे अथवा देवताओं को भजे, तथापि जब तक आत्मा और परमात्मा की एकता का बोध नहीं होगा, तब तक सौ ब्रम्हा के बीत जाने पर भी (अर्थात् सौ कल्प में भी) मुक्ति नहीं हो सकती।

शब्द ब्रम्हाणि निष्णातो निष्णायात् परे यदि।
श्रमस्तस्य श्रमफलो ह्यधेनुमिव रक्षतः।।
(श्रीमद्भागवत महापुराण ११/११/१८)
प्यारे उद्धव! जो पुरुष वेदों का तो परगामी विद्वान हो परन्तु परमब्रम्ह के ज्ञान से शून्य हो, उसके परिश्रम का कोई फल नहीं हैं। वह तो वैसा ही है, जैसे बिना दूध का गाय पालने वाला....

तावत्तपो व्रतं तीर्थं जप होमार्चनादिकम्।
वेदशास्त्रागम कथा यावत्तत्त्वं न विन्दति।।
(गरुड़ पुराण १६/९८)
तब तक ही तप, व्रत, तीर्थाटन, जप, होम और देवपूजा आदि हैं तथा तब तक ही वेदशास्त्र और आगमों की कथा है जब तक कि परमतत्त्व का ज्ञान प्राप्त नहीं होता; परमतत्त्व का ज्ञान प्राप्त होने पर ये सब, कुछ भी नहीं रह जाते है...

मानव देह मिला, सतगुरु परमात्मा मिले, संसार से प्रथक हो गये, इतनी कृपा तो करोड़ों जीवों में से किसी एक को भी नहीं मिलती फिर भी परमतत्व को नही पाया तो धिक्कार है। अत: क्षण-क्षण सावधान रहो..

प्रणाम जी

Saturday, October 10, 2015

गहन रहस्य


सुप्रभात जी

ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्
अस्मिन देवां अधि विश्वेनिषेदुः।
यस्तं न वेद किमृचा करिष्यति
य इत् तद् विदुस्ते इमे समासते।।
(श्वेताश्वतरोपनिषद् ४/८)


व्याख्या---परमब्रम्ह- परमात्मा के जिस अविनाशी परम आकाश रूप परमधाम में समस्त देवगण अर्थात् उन परमात्मा की ब्रह्मआत्मांये उन परमात्मा की सेवा करते हुये निवास करते हैं, परमातमा उन आत्माओं को वेद आदी का मूल भाव भी बताते है इस कारण वेदों के भाव उनआत्माओं मे प्रवेश करके चेतनता प्राप्त करते है वहीं समस्त वेद भी आत्मांओं के रूप में  परमात्मा की सेवा करते हैं। जो मनुष्य उस परमधाम में रहने वाले परमब्रम्ह पुरुषोत्तम को नहीं जानता और इस रहस्य को भी नहीं जानता कि समस्त वेद उन परमात्मा की सेवा करने वाले उन्हीं के अंगभूत आत्मायें हैं वह वेदों के द्वारा क्या प्रयोजन सिद्ध करेगा? अर्थात् कुछ सिद्ध नहीं करेगा। परन्तु जो मनुष्य उस परमात्मा को ‘तत्त्वत’: जान लेते है, वे तो उस परमधाम में ही सम्यक् प्रकार से (भली-भाँति) प्रविष्ट होकर सदा के लिए ही स्थित हो रहते हैं


प्रणाम जी

परमात्मा आत्माओं के बिना नही रह सकते

रेहे ना सकों मैं रूहों बिना, रूहें रेहे ना सकें मुझ बिन।
जब पेहेचान होवे वाको, तब सहें ना बिछोहा खिन।|

परमात्मा आत्माओं के बिना नही रह सकते भाव बहोत गहन है जैसे प्रकाश में हमारा बिम्ब याने परछाई बन जाती है याने वो हम से ही है वैसे ही परमधाम में आनंद से( परमात्मा से)आनंद प्रकाशित होता रहता है उसी आनंद के अंश हम आतमायें हैं और आतमाओं को निरंतर आनंद देना परमातमा का स्वभाव है आतमायें आनंद अंश होने के कारण परमात्मा सदेव उनमें आनंद रूप मे विराजमान रहते हैं जैसे सूर्य अपनी किरणों से प्रकाशित होता है वेसे ही बृह्म आनंद रूप मे प्रकाशित होते हैं ये प्रकाशित भाव ही आत्मायें हैं आनंद का प्रकाश आनंद ही है जो की आत्मायें है जैसै सूर्य का प्रकाशित होना उनकी किरणें है वेसे ही ब्रह्म का प्रकाशित होना आत्मायें हैं सूर्य बिना प्रकाशित हुय नही रह सकता अर्थात बिना किरणो के नही रह सकता वैसे ही परमात्मा आत्माओं के बिना नही रह लकते बस फर्क ये है की सूर्य की किरणें शुद्ध चेतन नहीं है पर परमातमा की कीरणें यानें आत्मायें शुद्ध चेतन हैं ..इसी प्रकार दूसरे भाव में आतमायें भी परमात्मा के बिना नहीं रह सकती ये तो बहोत सीधे से समझा जा सकता है जैसे समूदंर के बिना लहरें नही है वैसे ही परमात्मा के बिना आत्मायें नही रह सकती या ये कहें की उनके बिना आत्मायें अपनी कल्पना भी नही कर सकती , जब आतमाओं को अपनी पहचान हो जायेगी तब स्वतः ही उसे परमातमा का बोध हो जायगा और वो अपने अंशी के बिना एक पल भी नही रह सकेगी अर्थात वो परमात्मा को अपने में ही पराप्त कर लेगी कयोंकी परमातमा उसके साथ ही हैं वो कह तो रहे हैं की "रेहे ना सकों मैं रूहों बिना"

बिछोडा सह ना सके का भाव यही है की परमात्मा साथ हैं का भाव आते ही या बोध होते ही बिछोडा कैसा ...?? फिर तो अधखिन पियु नयारा नही माहे रहे हिल मिल..

प्रणाम जी

Friday, October 9, 2015

मुझे परम धाम नही मिलेगा क्या ?????

साथ जी बोहोत से लोग सवाल पूछते हैं की क्या परमधाम ब्रह्म आत्मंवो के लिए ही है ओरो के लिए नही ये एक बोहोत बड़ा और गहन  सवाल है इस के साथ एक सवाल और आता है की क्या मै ब्रह्म आत्मा हूँ अगर नही तो मुझे परम धाम नही मिलेगा क्या ?????
और ये शंका पैदा इसलिए हो गयी क्योंकि सब इसका जवाब  वही रटे रटाये देते है जिस कारण सभी जीव ब्रह्म से दुरी बना लेते है की परमधाम तो मिलेगा  नही फिर क्या फायदा उनके मनन में शंका हो जाती है की ब्रह्म अगर पक्षपात करता है तो केसा ब्रह्म ..और वो आनंद रूपी प्रेम के सागर उस परमात्मा से दुरी बना लेते है ...
साथ जी उस ब्रह्म की प्रेरणा से इसका समाधान करने का प्रयास किया जा रहा है अगर कोई त्रुटी होतो क्षमा प्रार्थी हूँ  .

तो साथ जी जीव जब निरंतर जागृत और आनंद अवस्था को पा  लेता है तो वो आत्मा बन जाता है जैसे रास में आज भी गोपियों के जीव जागृत अवस्था में निरंतर आनंद ले रहे है क्योंकि वो अखंड हो गये है क्योंकि वो  अक्षर ब्रह्म की नजर में आ गये थे इसलिए वो अखंड हो गये दुसरे शब्दों  में कहें तो याने वो आत्मा बन गये तो साथ जी इस कलयुग में तो ब्रह्मात्मयें  जगनी का आनंद उठा रही है ओर उनको ये आनंद देने वाले और कोई नही बल्कि स्वेम पुरंब्रह्म सत्च्दानंद परमात्मा है याने खुद आनंदस्वरूप  परमात्मा की नजर इस ब्रह्मांड पर है तो क्या ये जिव आत्मा नही बनेगे ये तो आत्मा बन चुके है इस विषये को थोडा और गहराई से समझने का प्रयास करते है जी गंगा जल किसी भी पानी में मिला दो तो वो शुद्ध कहा जायेगा याने वो गंगा जल जैसा ही बन जाता है ऐसे ही अग्नि में कोई भी चीज़ दाल दो तो वो अग्नि का ही रूप बन जाती है  वेसे है इस ब्रह्मांड पर परमात्मा की नजर  है जिस  से ये पूरा ब्रह्मांड आनंद स्वरुप हो जायेगा अर्थात सरे जीव आत्मा ही है क्योंकि सीधी सी बात है ब्रह्म  की नजर जिस जीव पर भी पड़ी तो वो जीव आत्मा हो गया और क्योंकि नजर डालने वाला ब्रह्म ही है इसलिए उनकी नजर भी ब्रह्म है जहाँ जाएगी वो भी ब्रह्म का अंश हो जायेगा इसलिए वो जीव भी ब्रह्म आत्मा है बस प्रयास यहीं करें की सभी जीव उस ब्रह्म में निरंतर नजर रखे जिस से उनका प्रेम आपमें जागृत हो जाये प्रेम जागृत होते ही उनकी छवि हृदये में आ जाएगी इसे ही परमात्मा का हृदये में आना कहते  है और ब्रह्म केवल ब्रह्म आत्मवो के हृदये में ही आते है अर्थात वो जिसके हृदये में आ जाएँ वो ही ब्रह्म आत्मा है और उसको निरंतर उनका आनंद मिलना प्रारम्भ हो जाता है इसलिए अपने को हमेशा ब्रह्म आत्मा ही समझे क्योंकि धारणा बड़ी चीज़ हैजिस चीज़ की भी करोगे उसी में समाधिस्त हो जावोगे ...और जब ब्रह्मआत्मा हो  तो धाम भी वही मिलेगा जो ब्रह्म आत्मवो के जीव को मिलेगा इसलिए मै ब्रह्म आत्मा हु के नही ये चिंता छोड़ के ब्रह्म का चिंतन करे ..
प्रणाम जी 

Thursday, October 8, 2015

मनुष्य जन्म अत्यन्त ही दुर्लभ है..

सुप्रभात जी

मनुष्य जन्म अत्यन्त ही दुर्लभ है, मनुष्य जीवन का केवल एक ही उद्देश्य और एक ही लक्ष्य होता है, वह परमात्मा की अनन्य-प्रेमलक्षणा भक्ति से उसे प्राप्त करना है। अनन्य-भक्ति को प्राप्त करके मनुष्य सुख और दुखों से मुक्त होकर कभी न समाप्त होने वाले आनन्द को प्राप्त हो जाता है।

यहाँ सभी सांसारिक संबंध स्वार्थ से प्रेरित होते हैं। हमारे पास किसी प्रकार की शक्ति है, धन-सम्पदा है, शारीरिक बल है, किसी प्रकार का पद है, बुद्धि की योग्यता है तो उसी को सभी चाहते है न कि हमको चाहते है। हम भी संसार से किसी न किसी प्रकार की विद्या, धन, योग्यता, कला आदि ही चाहते हैं, संसार को नहीं चाहते हैं।

इन बातों से सिद्ध होता है संसार में हमारा कोई नहीं है, सभी किसी न किसी स्वार्थ सिद्धि के लिये ही हम से जुड़े हुए है। सभी एक दूसरे से अपना ही मतलब सिद्ध करना चाहते हैं। ब्रह्म ग्यान के अभाव में हम, संसार रूपी माया से अपना मतलब सिद्ध करना चाहते हैं और माया रूपी संसार हम से अपना मतलब सिद्ध करना चाहता है। हम माया को ठगने में लगे रहते है और माया हमारे को ठगने में लगी रहती है इस प्रकार दोनों ठग एक दूसरे को ठगते रहते हैं ..
इसलिय तारतम रूपी ब्रह्मग्यान को ग्रहण करके हमे अती शीध्र अपने लक्ष्य को पाने का प्रयास करना चाहिय..

त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत्‌ ।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम्‌ ॥
(गीताः ७/१३)
प्रकृति के इन तीनों गुणों से उत्पन्न भावों द्वारा संसार के सभी जीव मोहग्रस्त रहते हैं, इस कारण प्रकृति के गुणों से अतीत मुझ परम-अविनाशी को नहीं जान पाते हैं।


प्रणाम जी

मै छिपूंगा तुमसे

मैं छिपोंगा तुमसे, तुम पाए न सको मुझ।
न पाओ तरफ मेरीय को, ऐसा खेल देखाऊं गुझ।।

हम सब आत्मयें परमात्मा का अंग है याने आनंद का अंग क्योंकि ब्रह्म  ही आनंद है ,जब हमे परमात्मा इस जगत रूपी खेल में भेज रहे थे तो उन्होंने हमे कहा था की जब तुम वहां जाओगे  तो मै तुमसे छिप जाऊंगा क्योंकि यहाँ तो तुम आनंद का ही अंग हो यहाँ आनंद में निरंतर वृद्धि की लीला होती है यहाँ तुमे क्षीण की लील का नही पता  पर वहां मै आनंद रूप में लीला नही करता वहां मै जड़ में निरंतर क्षीण की लीला करता हु उस क्षीणता को ही काल  कहा जाता है वहा जाते ही तुम आनंद से दूर हो जोगी क्योंकि वहां आनंद नही है इसलिए मै तुमसे छिप जाऊंगा अर्थात तुमे दिखाई नही दूंगा और तुम्हारी दृष्टि क्योंकि उस जड़ तत्व की और होगी इसलिए तुम मुझे उसमे ही तलाश करोगी इसलिए मै तुम्हे नही मिलूँगा या तुम मुझे पा नही सकोगी पर मै तुमसे एक क्षण भी दूर नही हूँ क्योंकि तुम मेरा ही अंग हो इसलिए मै तुम में ही हूँ अर्थात मै और  तुम अलग नही है मै तुम में घुला हुआ हूँ इसलिए मै तुम ही हूँ कहने का अर्थ यह है की जब तक तुम अपने आप में नही आवोगे स्वयम की पहचान नही करोगे तब तक मुझे केसे अपने में महसूस कर  सकोगे
इसलिए तुमे मेरी तरफ आने का मार्ग भी नही मिलेगा क्योंकि तुम मेरी तरफ अर्थात अपने में नही आओगे मै तुम्हे ऐसा गुझ अर्थात गहरा खेल दिखने जा रहा हूँ  ...
और साथ जी सच में खेल ऐसा ही है ...

प्रणाम जी 

Wednesday, October 7, 2015

ध्यान दें

सुप्रभात जी

अपने विचारो को अंधश्रद्धा के ताले में बंध मत करो बल्कि उन्हें हमेशा तार्किक स्वीकार्ये अवस्था में रखने से धार्मिक उन्नति अधिक तीव्र गति से होती हैं...
ध्यान दें हमारा ये जीवन आत्मकल्याण के लिय हुआ है इसे संकिर्ता मे बंध कर व्यर्थ ना करें...

प्राणाम जी

हकें अरस किया दिल मोमिन, सो मता आया हक दिल से।
तुमें ऐसी बडाई हकें लिखी, हाए हाए मोमिन गल ना गए इनमें ।।

परमात्मा ने ब्रह्मात्माओंके हृदयको परमधाम बनाया है. यह तारतम ज्ञाानरूपी सम्पदा भी उनके ही हृदयसे आई है. स्वयं परमात्मा तुम्हारी इतनी बडी प्रशंसा की है तथापि खेद है कि ब्रह्मात्माओंका हृदय द्रवित नहीं हो रहा है.

प्रणाम जी

Tuesday, October 6, 2015

यह खेल विचित्र है

सुप्रभात जी

यह खेल विचित्र है यहँ पर कोई कृपण हैं तो कोई दाता कहलाते हैं, कोई ज्ञानी हैं तो कोई अज्ञानी हैं, कोई राज है तो कोई रंक है । इस प्रकार इस जगतमें अनेक विषमतायें हैं ।

हे ब्रह्मात्माओ ! तुम यह विचित्र खेल देखने मात्रके लिए आयी हो किन्तु यहाँ आकर मायाके जीवोंकी भाँति तुम भी मायामें ही हिलमिल गई । इनको तो यह नश्वर खेल नश्वर नहीं लगता है क्योंकि जलतरंगवत् ये सभी स्वयं भी मोह मायाकी ही सृष्टि है । वास्तवमें यह झूठी माया तुम सत्य आत्माओंको प्रभावित कर रहीं है । तुम स्वयं सत्य होते हुए भी स्वयंको न पहचान कर झूठी मायामें भूलने लगी हो । यह तो नश्वर होनेके कारण एक दिन मिटेगी ही किन्तु तुम्हें झूठा दाग लगा कर मिटेगी । इसलिए तुम जागृत हो जाओ...

प्रणाम जी

Monday, October 5, 2015

जागृति

सुप्रभात जी

जागृति satsangwithparveen.blogspot.com
हे आनंद के अभीप्सु ! परम सत्य के पुजारी! उठ! चेतन में मन लगा। उस अमृतमय वाचा (वाणी)को हृदयंगम कर। तुझे पथ प्राप्त होगा। तू आत्म-चेतना में उठेगा। आत्म-सत्य में जागेगा। आत्म-उपलब्धि रूपी पीयूष-सिंधु पर तेरा अधिकार होगा।
तू शरीर रूपी इस पिंजरे से सोचने विचारने वाला प्राणी मात्र नही है। तेरे इस मृण्मय शरीर में अमर आत्मा का, एक दिव्य पुरूष का निवास है। वह तेरे अस्तित्व का सच्चा अस्तित्व है। उसे ढूंढ। आंतरिक खोज को जीवन लक्ष्य के रूप में चुन। अगर तू अपनी खोज में सच्चा रहेगा, अगर तेरी अभीप्सा में इंद्र्रियों की लालसा, प्राणों की चाह और मन की कामनाओं का मिश्रण नही है तो तू अवश्य सफल होगा और देखेगा कि तू अमर आत्मा है, यह दिव्य पुरूष (आनंद=परमात्मा)तेरे अंदर ही है। इसे प्राप्त करने के पश्चात् तू असहाय-सा प्राणी होकर पृथ्वी पर नही भटकेगा। सब प्रकार की अकिंचनताएं तेरे मन से झड़ जाएंगी। विचार तेरे दिव्य स्वभाव के अनुरूप हो उठेंगे । इंद्रियां तेरा आदेश पालन करेंगी । तेरा शरीर एक शुद्ध समर्पित यंत्र के रूप में कार्य करेगा। तू अपने आपको आज की भॉंति अपनी प्रकृति के दास के रूप में नहीं वरन् इसके स्वामी के रूप में पायेगा। एक बार जहां आत्मा का साक्षात् हुआ, अंतस्थ सत्ता से तादात्म्य स्थायी बना, तू क्षुद्र प्राणी की जगह अपने आपको भूमा, विराट अनंत आनंद के रूप में अनुभव करेगा। वही तेरी सत्य और नित्य स्थिति है और इसके साथ ही समझेगा कि यह सब जो तेरी असहाय अवस्था थी, केवल एक नाटक था। सृष्टि मंच पर तेरा एक अभिनय था, जो तुने परमातमा के हुकुम से लिए स्वीकार किया था..

प्रणाम जी

इनकी नजर में पतित हूँ ..

उल्टा एक चलत हों यामे ,मैं छोड़ी दुनिया की राह |

तोड़ी मरजाद बिगड़या विश्व थें ,मैं तो पतितों को पातसाह ||


(वाणी मेरे पीयू की )


वाणी को सिर्फ महामति से जोड़कर देखना सही नही होगा ..वाणी की हर चौपाई हम सब से सम्बन्ध रखती है ये सिर्फ महामति जी के जीवन से ही सम्बन्ध नही रखती अपितु हम सब की ही है और हमारे ही लिए है ये हमारा ही भूत वर्तमान और भविष्ये है ..
जबसे मेने दुनिया के कर्म कांड ,बहूदेव वाद ,नाम जाप , व अन्ये क्रियाएँ छोड़ी हैं दुनिया वाले मुझे कहने लगे है की ये तो उल्टा चलने लगा है..कयोंकि संसार समझता है की परमात्मा कही बाहर है जो किसी दिन हमसे मिलने आयेंगें उनहोने अपनी सब कृियाऐं इसी मार्ग पर लगा दी हैं ..भजन आदि भी इसी भाव के बना डाले है ..जो बाहर को जाते हैं पर परमात्मा(आनंद) तो विपरीत दिशा में है अर्थात अंदर हैं..
मेने  जड़ संसार से विमुख होकर अपने चेतन हृिदय मे खोज की व एक मात्र चेतन ब्रह्म को अपने ह्रदये में पाया..अब उस ब्रह्म ही मेरी सारी रीती प्रीति को बदल दिया है ये या तो मै जनता हु या वो ..इसे ये दुनिया वाले नही जान पाएंगे इसलिए इनकी नजर में पतित हूँ ..


प्रणाम जी

Sunday, October 4, 2015

अंदर हृदय की गहराई में खोज!

सुप्रभात जी

हे मानव!परमात्मा के स्वर्णिम पुष्प! सच्चे सुख को, आत्मा के आनंद को अपने अंदर हृदय की गहराई में खोज! वहां प्राप्त कर। अनंतता में प्रवेश का द्वार तेरा हृदय है। तत्पश्चात् दूसरों में, जगत में अनुभव करना संभव होगा। बाह्य सत्ता के पीछे हट कर भीतर पैठ। मन के उस पार जा । इंद्रियों से ऊपर उठ प्रकृति से अपने आपको पृथक कर। शांत-चित्त, एकाग्र मन होकर बैठ। पूर्ण निष्क्रिय, पूर्ण नीरव हो जा। कल्पना और संकल्प महान शक्तियां हैं। इनका प्रयोग कर। तुझे पथ मिलेगा, प्रकाश दिखायी देगा। धैयपूर्वक नियमित रूप से अभ्यास कर ।

प्रणाम जी

कहने को पचीस पक्ष है


अरस नाहीं सुमारमें, सो हक ल्याए माहें दिल मोमन।
बेसुमार ल्याए सुमार में, माहें आवने दिल रूहन।।
अरस नाही सुमार में ,

परमधाम का कोई पारावार नही है कहने को पचीस पक्ष है पर जरा खुद ही सोचिये की क्या अनंत ब्रह्म केवल पचीस पक्ष में ही सिमित है पर क्योंकि समझाने के लिए कुछ तो लिखना था इसलिए केवल शब्दों का प्रयोग किया गया जिसमे भाव छुपे है ..

परमधाम का तो एक एक कण भी अनंत है ..यहां एक छोटे से अनुभव के दूारा समझाने का प्रयास किया जा रहा है कृपया शुध्द रूप में ग्रहण करें ..जब आत्माएं परमधाम में किसी कण में दृष्टि डालती है तो वो कण आत्माओं से मोहित हो जाता है क्योंकि वहां परमात्मा के आलावा कुछ भी नही है वहां का कण कण परमात्मा है इसलिए वो कण आत्मवो पे मोहित हो जाता है और आत्माएं भी उस कण पे इतना मोहित हो जाती है की उनकी दृष्टि उसमे समने लगती है इस प्रकार दोनों अरस परस हो जाते है जिस से दोनों का आनंद प्रवाह निरंतर बढ़ने लगता है इसी प्रवाह में आतामांये उस कण से अनंत आंनद अनुभव करने लगतीं है जिसमे उन्हें अपने चारो और अनंत नक्काशिया और लताएँ अनुभव होने लगती है ये सभी चेतन है और इनसे मीठी मीठी ध्वनि निकल कर आत्मावों को इस प्रकार स्पर्श करती है की आत्माऔं के अंगो से भी वही ध्वनि निकने लगती है यह ध्वनी कुछ और नही बल्कि आत्मंवो का बढ़ता हुआ आनंद ही है जो उसी ध्वनी के रूप में आने लगता है दब ये दोनो ध्वनीयां परसपर मिलती हैं तो एक नये आनंद का निर्माण होता है जो पहले से कहीं अधिक होता है जिसको शब्दो में बयां नही किया जा सकता ...फिर यही आनंद की ध्वनि अनेक रंगो में प्रवर्तित होकर चारो तरफ अनेक रंगीन व अनंत मोहक छटायें बना देतीं है जिसमे आत्माये उड़ने लगतीं है वे अनुभव करती है की वे भी इन रंगो का एक हिस्सा है और ये रंग कोई और तत्त्व नही केवल और केवल अनद तत्त्व है इसी के रंग में वे खुद को बहता हुवा पातीं  है इसके बाद भी बहोत आनंद की लीलाएं होती है (आत्मन्वो की आँखे उस कण से अनेक प्रकार से मीठी बातें भी करती हैं क्योंकि वहाँ बोलने के लिए किसी इंद्री की जरूरत नही होती आँखे बोल सकतीं हैं कान देख सकते हैं त्वचा सुन सकती हैं वह हर अंग पूर्ण हैं इसलिए आत्माएँ धाम में हर तरफ दृष्टि रखती हैं हर वस्तु उन्हें दृश्येमान रहती हैं हर चीज से वो बिना बोले भी बात कर लेतीं हैं ) जो अनंन्त है उनका वर्णन करूं तो ऐसे अनेक जीवन बीत जाएँ पर एक कण की व्याख्या संभव नही है  ....इस प्रकार आत्माएं परमधाम के केवल एक कण से इतना आनंद प्राप्त करती है यह तो केवल एक कण है फिर आप अंदाज लगा सकते है की वो धाम अनंत है या सिमित
ऐसे परम धाम के आनंद अनुभव या ज्ञान परमात्मा ने इस संसार में भी आत्मंवो के हृदये में अंकित कर दिया है जिसका आनंद वे निरंतर लेती रहती हैं ,,इस प्रकार परमात्मा अनंत को सिमित में लेकर आय हैं अर्थात इस ब्रह्मांड में जो की सिमित है यहाँ परमधाम के अनंत भाव आत्मवो के हृदये में अंकित कर दिया है और वो भी इसलिए की परमात्मा उनके हृदये में आकर बैठ सके तभी तो आत्मांये परमात्मा को पहचान सकेंगी क्योंकी परमात्मा अनंत के भी अनंत है और जब आतमाऔं के हृदये में अनंत धाम की पहचान हो जाएगी तभी आत्मायें उस अनंत परमात्मा को पहचान सकेंगी ...

प्रणाम जी

Saturday, October 3, 2015

साधक का प्रश्न

साधक का प्रश्न: Hum to choti choti bato se chinta karte h fir shaswat aanand me  Koi kaise rah sakta h??

उत्तर-- विष पीकर कहते हो की दूध का स्वाद नही मिल रहा ये जीव विकारो से बना है और विकार दुःख का कारण है आनंद का नही इसलिए जब तक जीव भाव में रहोगे आनंद कैसे मिलेगा..आनंद का विषय तो आत्मा और परमात्मा है ,,

जिस  प्रकार  मान  प्रतिष्ठा  पाने के  लिए  हम  प्रतिष्ठित  लोगो  का  संग  करते  है  जैसे प्रतिष्ठा के किये लोग नेताओं के संग संग घूमतें है..उसी  प्रकार हमारी आत्मा  सदेव  शास्वत  आनंद  में  रहती  है तो  हमें  भी  आनंद के लिय आत्म  भाव का संग करने  का अभ्यास करना  चाहिए ..जितना आत्म भाव आएगा उतना आनंद आएगा क्योंकि आत्मा आनंद (परमात्मा) का अंश  है और सदेव आनंदित है..

प्रणाम  जी

महत्वपूर्ण विषय

जैसे जैन कैवल्य ज्ञान को प्राप्त व्यक्ति को तीर्थंकर या अरिहंत कहते हैं। बौद्ध संबुद्ध कहते हैं वैसे ही हिंदू भगवान कहते हैं। भगवान का अर्थ है जितेंद्रिय। इंद्रियों को जीतने वाला। भगवान का अर्थ परमात्मा नहीं और जितने भी भगवान हैं वे परमात्मा कतई नहीं है। परमात्मा सर्वोच्च सत्ता है।

भगवान शब्द संस्कृत के भगवत शब्द से बना है। जिसने पांचों इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर ली है तथा जिसकी पंचतत्वों पर पकड़ है उसे भगवान कहते हैं। भगवान शब्द का स्त्रीलिंग भगवती है। वह व्यक्ति जो पूर्णत: मोक्ष को प्राप्त हो चुका है और जो जन्म मरण के चक्र से मुक्त होकर कहीं भी जन्म लेकर कुछ भी करने की क्षमता रखता है वह भगवान है। ट
भगवान को ईश्‍वरतुल्य माना गया है इसीलिए इस शब्द को ईश्वर, परमात्मा या परमेश्वर के रूप में भी उपयोग किया जाता है, लेकिन यह उचित नहीं है।
भगवान शब्द का उपयोग विष्णु और शिव के अवतारों के लिए किया जाता है। दूसरा यह कि जो भी जीव पांचों इंद्रियो और पंचतत्व के जाल से मुक्त हो गया है वही भगवान कहा गया है। इसी तरह जब कोई स्त्री मुक्त होती है तो उसे भगवती कहते हैं। भगवती शब्द का उपयोग माँ दुर्गा के लिए भी किया जाता है। इसे ही भागवत मार्ग कहा गया है।
भगवान (
संस्कृत : भगवत्) सन्धि विच्छेद: भ्+अ+ग्+अ+व्+आ+न्+अ
भ = भूमि
अ = अग्नि
ग = गगन
वा = वायु
न = नीर
भगवान पंच तत्वों से बना/बनाने वाला है।
यह भी जानिए....
भगवान्- ऐश्वर्य, धर्म, यश, लक्ष्मी, ज्ञान और वैराग्य- ये गुण अपनी समग्रता में जिस गण में हों उसे 'भग' कहते हैं। उसे अपने में धारण करने से वे भगवान् हैं। यह भी कि उत्पत्ति, प्रलय, प्राणियों के पूर्व व उत्तर जन्म, विद्या और अविद्या को एक साथ जानने वाले को भी भगवान कहते हैं।

वह परब्रह्म (परमात्मा) एकात्म भाव से और एक मन से तीव्र गति वाले हैं। वे सबके आदि (प्रारंभ) तथा सबके जानने वाले हैं। इन परमात्मा को देवगण भी नहीं जान सके। वे अन्य गतिवानों को स्वयं स्थिर रखते हुए भी अतिक्रमण करते हैं। उनकी शक्ति से ही वायु, जल वर्षण आदि क्रियाएँ होती हैं। वे चलते हैं, स्थिर भी हैं; वे दूर से दूर और निकट से निकट हैं। वे इस संपूर्ण विश्‍व के भीतर परिपूर्ण हैं तथा इस विश्‍व के बाहर भी हैं।'

(।।4,5।।-ईशावास्योपनिषद)

अपनें ही हृदय में

याही ठौर रूहें बसत, रात दिन रहें सनकूल।
हक अरस मोमिन दिल, तिन निमख न पडे भूल।।

अपनें ही हृदय में ब्रह्मआत्माएँ रात-दिन आनंद अनुभव करतीं हैं. क्योंकि ब्रह्मआत्माओंका हृदय ही परमात्मा का परमधाम है. इसलिए उनसे लेशमात्र भी भूल नहीं हो सकती है कि वे परमात्मा से दूर हो जाएँ ...

प्रणाम जी

Friday, October 2, 2015

आनंद से आनंद को आनंद ( अरसपरस )

आनंद से आनंद को आनंद ( अरसपरस )

प्यारे कदम राखों छाती मिने, और राखों नैनों पर।
सिर ऊपर लिए फिरों, बैठो दिलको अरस कर।।

हे प्यारे मुझे इस बात से कोई संशय नही की आप मेरे (आत्मा के )हृदये में रहते हो और नित नए अहसास कराते रहते हो आपकी इन आनंद की लीलाओ को मैं प्रत्येक्ष अनुभव करति हूँ इस कारण मेरे आत्म हृदये में भी कुछ लिलावों की इछा उतपन्न हो रही है ...
की आप मेरे हृदये में अपने कदम रखो क्योंकि आप स्वयं आनंद हो आपके हर अंग आनंद से बने है अर्थात आपका हर अंग आनंद ही है तो जब आप अपने आनंद रूपी चरणो से मेरे हृदये में विचरण करोगे तो मेरे आनंद रूपी हृदये में आपके आनंद रूपी चरणों के आनंद चिन्ह स्थायी रूप से अंकित हो जॉएंगे जिनसे मुझे अखंड और निरंतर आनंद मिलता रहेगा आपके चरण चिन्हो का जो मेरे हृदये में स्थायी आनंद अंकित होगा मैं उसे निरंतर प्राप्त  करती रहूंगी..
"और राखों नैनों पर।
सिर ऊपर लिए फिरों, बैठो दिलको अरस कर"
और में चाहती हूँ की आप मेरे नैनो में आकर विराजमान हो जाओ जिस से मेरे नैनो में अखंड आनंद निरंतर  दृश्येमान रहे क्योंकि जब आप  मेरे नैनो में स्थायी रूप से आ जाओगे तो मुझे हर जगह आनंद के अलावा कुछ भी दिखाई नही देगा इस कारण हर पल मुझे आनंद की प्राप्ति होती रहेगी , और मैं आपको सिरोधार्ये करूँ जिस से आप आवरण रूप से मेरे ऊपर हर पल विराजमान रहें हर पल मैं आपके आपसे आपमें ही विचरण करती रहूँ , जब इस प्रकार आपको में अपने अनुभव में ले लुंगी तो आप मेरे हृदये में इस तरह से अनुभव करवाएंगे जैसे आपका हर आनंद मुझे प्राप्त होने लगा और आपका अंग याने आनंद का अंग होने के कारण मेरा आनंद आपमें समाने लगेगा इस कारण मुझमे और आपमें कोई भेद नही रह जायेगा..मुझे यहाँ रहते हुए भी आपसे एकदिली का अनुभव होने लगेगा जिस से हमारा हृदये अरसपरस हो जायेगा इनमे कोई भेद नही रह जायेगा...

प्रणाम जी

Thursday, October 1, 2015

केवल अच्छे कर्मो के द्वारा ही जीवन का कल्याण संभव नहीं है।

सुप्रभात जी

केवल अच्छे कर्मो के द्वारा ही जीवन का कल्याण संभव नहीं है। एक बार प्रभु श्रीराम और लक्ष्मण बैठे थे। अचानक प्रभु श्रीराम हंस पडे। लक्ष्मण आश्चर्यचकित प्रभु श्रीराम को देखने लगे। लक्ष्मण ने पूछा, भइया ऐसी क्या बात हुई कि आप एकाएक हंस पडे। प्रभु श्रीराम ने कहा कि सामने वह कीडा वृक्ष पर चढने का प्रयास कर रहा है, परंतु बार-बार नीचे गिर जाता है। लक्ष्मण ने पूछा, प्रभु इसमें हंसने वाली बात क्या हुई, कृपया मुझे भी बताइए। तब प्रभु श्रीराम ने कहा कि लक्ष्मण जिस कीडे को तुम देख रहे हो इसमें जो चेतन शक्ति है अर्थात यह जीवात्मा, अठारह बार स्वर्ग के राजा इंद्र की गद्दी पर बैठ चुका है। इसके बाद भी यह चौरासी लाख योनियों में भटक रहा है। जब मानव रूप में जन्म मिला, अच्छे कर्म किए, अश्वमेघ यज्ञ किए, स्वर्ग के राजा इंद्र की गद्दी मिल गई। सुख ऐश्वर्य भोगा। इसके बाद फिर चौरासी लाख योनियों में भटकने के बाद मानव तन, फिर इंद्र की गद्दी और इसके बाद अब पुन: चौरासी लाख योनियों में ही भटक रहा है। यहां हमें यह संकेत मिलता है कि केवल अच्छे कर्मो से ही कल्याण संभव नहीं है।

जब अपने अंदर के चेतन परमात्मा मे स्थित हो जाओगे तब करने कराने वाले परमातमा हो जायेंगे तब तुम कर्म बन्धन से मुक्त होकर परमात्मा को पराप्त हो जाओगे ..यही आनंद पराप्ति हमारा परम लक्षय है...

अष्टावक्र कहते हैं - तुम्हारा किसी से भी संयोग नहीं है, तुम शुद्ध हो, तुम क्या त्यागना चाहते हो, इस (अवास्तविक) सम्मिलन को समाप्त कर के ब्रह्म से योग (एकरूपता) को प्राप्त करो॥

प्रणाम जी

बातूनी भेद


ए जो अरवाहें अरस की, पडी रहें तले कदम।
खान पान इनों इतहीं, रूहें रहें तले हुकम।।

ये जो आनंद की अंश आत्माएँ हैं जो जानती हैं की आनंद कहीं बाहर नही है वो अपने हृदये में ही आनंद रूपी चेतन ब्रह्म को पा लेतीं हैं इन्ही को परमधाम की आत्माएँ कहा जाता है , ये अपने हृदये में ही परमात्मा का चिंतन व अनुभव निरंतर करती रहती है इसी को परमात्मा के चरणो में पड़ा रहना कहा गया है अन्यथा चरणों में पड़े रहने का  भाव दूेत भाव है क्योंकि चरणो में बड़ो के छोटे पड़ते है और जहां बड़े छोटे का भाव हो वह परमात्मा का शुद्ध प्रेम नही हो सकता क्योंकि प्रेम का भाव ही अदूेत से प्रारम्भ होता है जहाँ दूेत हो वो प्रेम नही आक्रषण होता है प्रेम में मैं और तू का भाव नही रहता जब निरंतर चिंतन से भावप्रवाह उसी तरफ हो जाता है तो मैं तू हो जाता है जब प्रेम जागृत होता है इसलिए इसमें चरणो में पड़े रहने का भाव मात्र समझाने के लिए बताया गया है , "खान पान इन्हो इत ही " का भाव भी बोहोत गहरा होकर गुरता है खान पान इनों इतहीं,
खान पान से भाव आहार से है..यहाँ आहार का भाव समझना आवशयक है कोई भी वस्तु अपनी सम जाती आहार  से तृप्त होती है जैसे हमारा शरीर पृथ्वी तत्व से बना है तो इसकी तृप्ति भी पृथ्वी तत्त्व आहार से होती है जैसे फल दूध रोटी आदि सब पृथ्वी तत्व से बने है इसी प्रकार हम यानि आत्माएँ आनंद रूपी ब्रह्म की अंशी हैं आनंद ही ब्रह्म है वही हमारे सजातीय हैं इसलिए आत्मावों का आहार अर्थात जिस से उन्हें तृप्ति होती है वो केवल ब्रह्म ही है आत्मावों का इसके अलावा कोई आहार नही है इस आनंद से आनंद की तृप्ति को ही आत्मावों का खान पान कहा गया है , और जब रूहें आनंद रूपी ब्रह्म से एक रूप हो जाती है तो उनमे और ब्रह्म में कोई फर्क या अंतर नही रह जाता उनके हृदये में परमात्मा उनसे एक रूप हो जाते है ऐसी स्थिति में परमात्मा का प्रवाह आत्मा में व आत्मा का परमात्मा में हो जाता है ऐसी स्थिति में जो परमात्मा चाहते है वही आत्माएँ करतीं हैं व जो आत्माएँ करती है वही परमात्मा चाहते है (करता जीव है जो आतम भाव मे आजाता है) इसे ही हुकुम से चलना कहा गया है..

(साथजी वाणी की एक एक चौपाई अन्नत बातुनी रहस्य लिय हुय है जो केवल बृह्मआतमांये ही जान्ती हैं और अन्नत की व्याख्या असंभव है )
इसलिय काहा गया है "ऐ सतवाणी मथके लेऊं जो इसको सार"....

प्रणाम जी