सुप्रभात जी
ऋचो अक्षरे परमे व्योमन्
अस्मिन देवां अधि विश्वेनिषेदुः।
यस्तं न वेद किमृचा करिष्यति
य इत् तद् विदुस्ते इमे समासते।।
(श्वेताश्वतरोपनिषद् ४/८)
व्याख्या---परमब्रम्ह- परमात्मा के जिस अविनाशी परम आकाश रूप परमधाम में समस्त देवगण अर्थात् उन परमात्मा की ब्रह्मआत्मांये उन परमात्मा की सेवा करते हुये निवास करते हैं, परमातमा उन आत्माओं को वेद आदी का मूल भाव भी बताते है इस कारण वेदों के भाव उनआत्माओं मे प्रवेश करके चेतनता प्राप्त करते है वहीं समस्त वेद भी आत्मांओं के रूप में परमात्मा की सेवा करते हैं। जो मनुष्य उस परमधाम में रहने वाले परमब्रम्ह पुरुषोत्तम को नहीं जानता और इस रहस्य को भी नहीं जानता कि समस्त वेद उन परमात्मा की सेवा करने वाले उन्हीं के अंगभूत आत्मायें हैं वह वेदों के द्वारा क्या प्रयोजन सिद्ध करेगा? अर्थात् कुछ सिद्ध नहीं करेगा। परन्तु जो मनुष्य उस परमात्मा को ‘तत्त्वत’: जान लेते है, वे तो उस परमधाम में ही सम्यक् प्रकार से (भली-भाँति) प्रविष्ट होकर सदा के लिए ही स्थित हो रहते हैं
प्रणाम जी
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