Saturday, October 31, 2015

परमात्मा के लिये इश्क.

सुप्रभात जी

प्रियतम अक्षरातीत परमात्मा ने तुम्हारे प्रति अपना जो प्रेम दर्शाया, उसके विषय में तूं गहन विचार करके तो देख। तूं इस पापिनी माया को छोड़कर उनसे एक निष्ठ प्रेम क्यों नहीं करता है ?
हम ब्रह्मसृष्टियों (परमात्मा को प्रमपरिय मान्ने वाली आत्माओं )की पहचान ही इश्क (प्रेम) से है। यदि मेरे हृदय में अपने परमात्मा के लिये इश्क नहीं है, तो मेरा जीवन निरर्थक है अर्थात् मेरी कोई भी उपयोगिता नहीं है। इश्क के बिना मेरा हृदय सूना है (उजाड़, नीरस) है। इस खेल में (माया में)भी मैं पहले अपने परमात्मा को इसलिये पहचान नहीं सकी थी क्योंकि मेरे पास उस समय प्रेम ही नहीं था। और ये प्रेम देने वीले भी वही हैं कयोंकी अक्षरातीत प्रेम के सागर हैं। उनका प्रेम करना ही आत्माओं के प्रति अपना पत्नीव्रत धर्म (अपनापन) निभाना है। तारतम ग्यान (माया से परे का ग्यान) के प्रकाश में जीव भी आत्मिक भावों में डूब जाता है और स्वयं को आत्मा मानने लगता है। यही कारण है कि जीव को भी परमात्मा की अर्धांगिनी (सबसे िप्रय )के रूप में दर्शाया जाता है।

प्रणाम जी

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