Tuesday, October 20, 2015

(श्रीमद्भागवत् महापुराण से)

सुप्रभात जी

(श्रीमद्भागवत् महापुराण से)

लोकानां लोकपालनां मद्भयं कल्पजीविनाम्।
ब्रम्हणोsपि भयं मत्ते द्विपरार्धपरायुष:।।
(श्रीमद्भागवत महापुराण ११/१०/३०)
सारे लोक और लोकपालों की आयु भी केवल एक कल्प है। इसलिए मुझसे भयभीत रहते हैं। औरों की बात ही क्या, स्वयं ब्रम्हा भी मुझसे भयभीत रहते हैं क्योंकि उनकी आयु भी काल से सीमित-दो परार्द्ध है।
(श्रीमद्भागवत महापुराण ११/११/१८)
प्यारे उद्धव! जो पुरुष वेदों का तो परगामी विद्वान हो परन्तु परमब्रम्ह के ज्ञान से शून्य हो, उसके परिश्रम का कोई फल नहीं हैं। वह तो वैसा ही है, जैसे बिना दूध का गाय पालने, वाला।

(श्रीमद् भा॰ महापुराण ११/१२/९)
उद्धव ! बड़े-बड़े प्रयत्नशील साधक योग, सांख्य, दान, व्रत, तपस्या, यज्ञ, श्रुतियों की व्याख्या, स्वाध्याय और सन्यास आदि साधनों के द्वारा मुझे नहीं प्राप्त कर सकते, परन्तु उस परमसत्य के संग के द्वारा तो मैं अत्यन्त सुलभ हो जाता हूँ।

(श्रीमद् भा॰ महापुराण ११/१४/९)
प्यारे उद्धव ! सभी की बुद्धि मेरी माया से मोहित हो रही है; इसी से वे अपने-अपने कर्म-संस्कार और अपनी-अपनी रुचि के अनुसार आत्मकल्याण के साधन भी एक नहीं, अनेकानेक बतलाते हैं।

(श्रीमद् भा॰ महापुराण ११/१४/११)
कर्मयोगी योग यज्ञ, दान, व्रत तथा यम-नियम आदि को पुरुषार्थ बतलाते हैं परन्तु ये सभी कर्म हैं। इनके फलस्वरूप जो लोक मिलते हैं, वे उत्पत्ति और नाश वाले हैं। कर्मों का फल समाप्त हो जाने पर उनसे दुःख ही मिलता है और सच पुछो तो उनकी अन्तिम गति घोर-अज्ञान ही है। उनसे जो सुख मिलता है, वह तुच्छ है- नगण्य है और वे लोक-भोग के समय भी असूया आदि दोषों के कारण शोक से परिपूर्ण हैं।
(उस एक मात्र परमात्मा को जान्ना ही मानव जीवन का परम लक्षय है..)

प्रणाम जी

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