Friday, October 23, 2015

परब्रह्म और प्रेम ..

ब्रह्म इस्क एक संग, सो तो बसत वतन अभंग।
ब्रह्मसृष्टी ब्रह्म एक अंग, ए सदा आनंद अतिरंग।।

परब्रह्म और प्रेम (इश्क) दोनों ही अभिन्न हैं। और इनका मूल निवास अखण्ड परमधाम में है। परमात्मा की  ब्रह्मात्मायें भी उनसे अभिन्न हैं और उन्हीं की अंगरूपा हैं। इनकी परमात्मा के साथ सर्वदा ही अनन्त प्रेम और आनन्द की लीला होती रहती है।
जिस प्रकार शक्कर में मिठास और सूर्य में तेज का गुण स्वाभाविक है, उसी प्रकार  परब्रह्म में प्रेम ओत-प्रोत है। प्रेम से अलग करके परमात्मा को देखा ही नहीं जा सकता।  प्रेम का यह अखण्ड स्वरूप वस्तुतः परमधाम में ही है। जिस प्रकार लहरों के रूप में सागर का ही जल क्रीड़ा करता है, उसी प्रकार ब्रह्मसृष्टियों के रूप में परमात्मा के हृदय में प्रेम, आनन्द और सौन्दर्य आदि गुणों की ही लीला होती है। इसी प्रकार अक्षरातीत और ब्रह्मसृष्टियों को कभी भी अलग स्वरूप वाला नहीं कहा जा सकता..

प्रणाम जी

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