प्रणाम जी
प्रकरण १३ का मूल भाव ये है की जब वल्लाभाचार्ये जी ने अपने ग्रन्थ सुबोधिनी में( जो की श्रीमत्भागवत का टिका है ) अखंड ब्रिज एवंम रास का वर्णन किया था तब तारतम ज्ञान नही था इस लिए लोग ब्रिज एवं रास को इसी संसार में अखंड समझ रहे थे और उसका अर्थ वैष्णव लोगो ने गलत बता कर लोगो को गुमराह कर रहे थे तब प्राण नाथ जी ने उन्हें आह्वान किया था की हे वैष्णव जानो तुम ब्रिज एवंम रास को अखंड कहते हो ओर तुम्हारे अर्थो में तुम उसे मिटने वाला भी बता रहे हो , तुम्हे इसका सही अर्थ जानना है तो तारतम ज्ञान के माध्यम इसको मूल भाव में ग्रहण करो तो तुमे ज्ञात होगा की ब्रिज और रास कहाँ और केसे अखंड है
ब्रज अखंड ब्रहमांड में हुआ ,विचार देखो रे बुधवंत |
एक रंचक न राखी चौदे लोक की , महाप्रलय कह्यो ऐसो अंत ||
किरंतन( १३,८ )
हे बुद्धजन याने अपनी बुद्धी का चतुराई से प्रयोग करने वालो जिस ब्रिज को तुम अखंड कहते हो वो कहा पे अखंड हुआ तुम ये बात स्पष्ट नही कर पा रहे हो क्योंकि बिना तारतम ज्ञान के स्वप्न की बुद्धी से तुम केसे अखंड का वर्णन कर सकते हो जिस प्रंकार किसी जानवर के पेट के कीड़े को केवल उस जानवर के पेट के आलावा बहार का ज्ञान नही होता वेसे ही इस स्वप्न के ब्रहमांड के लोग केवल अपनी स्वप्न की बुद्धी से ही हर ग्रन्थ के अर्थ लगाते है अगर इस से बहार का ज्ञान प्रकाश में कुछ जानना हो तो इस से बहार की बुद्धी का प्रयोग होगा जो केवल अखंड धाम से आये ब्र्हम्मुनियो के पास ही है इसलिए अगर तुम्हे ये जानना है की ब्रिज अखंड कहाँ हुआ तो तुम्हे मै तारतम ज्ञान के मध्येम से समझा रहा हूँ की ब्रिज इस ब्रह्माण्ड में कहीं भी अखंड नही हुआ बल्कि वो बेहद की भूमि में याने अखंड धाम में अखंड हुआ है वहां पे इस ब्रह्मांड से एक कण भी नही जा सकता इसलिए यहाँ के ब्रिज की तुलना तुम भूल कर भी उस ब्रज से मत करना वहां न तो यहाँ के शरीर है न यहाँ के पशु पक्षी है क्योंकि जब वो ब्रिज अखंड हुआ तो यहाँ का ब्रिज महा प्रलये में लये हो गया था .. (पु. सं. ३१/१२,१३)
११ वर्ष ५२ दिन तक श्री कृष्ण जी के तन में विराजमान अक्षरातीत श्री प्राणनाथ जी ने आत्मा स्वरूपा गोपियों के साथ प्रेम लीला की । इसी काल में कंस द्वारा भेजे गए पूतना, अघासुर, बकासुर, आदि राक्षसों का भी वध किया । ११ वर्ष की प्रेममयी लीला के पश्चात् ५२ दिन की विरह लीला हुई । तत्पश्चात् महारास की लीला के लिए उन्होंने योगमाया के ब्रह्माण्ड में प्रवेश किया । योगमाया का वह ब्रह्माण्ड इस नश्वर जगत से पूर्णतया अलग है, जिसमें चेतनता, अखण्डता तथा प्रकाशमयी शोभा है । उसमें लक्ष्मी के मुख के समान सुन्दर पूर्णमासी का अखण्ड स्वरूप वाला चन्द्रमा उगा हुआ है, जिसकी कोमल किरणों से सम्पूर्ण नित्य वृंदावन सुशोभित है । अक्षरातीत के आवेश ने अति सुन्दर स्वरूप धारण कर बांसुरी बजाई ।
उस मधुर ध्वनि को सुनकर कालमाया के ब्रह्माण्ड की गोपियां अपने-अपने तनों को छोड़कर योगमाया के अखंड ब्रह्माण्ड में पहुंची और अलौकिक तन धारण कर अपने प्रियतम के साथ ब्रह्मानन्दमयी रास लीला की । (पु. सं. ३१/१२,१३)
ब्रज लीला करने के पश्चात् जब अक्षरातीत का आवेश योगमाया के ब्रह्माण्ड में गया तो इस ब्रह्माण्ड का महाप्रलय कर दिया गया था । उस समय मोहतत्व के भी नष्ट हो जाने पर कुछ भी नहीं बचा था (पुराण संहिता २९/४५) ।
यदि महाप्रलय की स्थिति न मानें तो यह प्रश्न होता है कि बांसुरी की आवाज सुनते ही सभी गोपियों की आत्मा तो अपना तन छोड़कर योगमाया के ब्रह्माण्ड में महारास खेलने जा चुकी थीं, तो उनके तनों के दाह संस्कार का कहीं भी वर्णन क्यों नहीं आया ? अपितु श्रीमद्भागवत् में तो यह लिखा है कि गोपों ने प्रातःकाल अपनी पत्नियों (गोपियों) को अपने पास सोते हुए पाया । यह तथ्य स्पष्ट करता है कि ये गोपियां नयी थीं, जिन्हें पूर्व ब्रह्माण्ड के महाप्रलय हो जाने का कुछ भी अहसास नहीं था ।
प्रमाण
अचानक ही योगमाया की शक्ति के द्वारा उत्पन्न किए हुए उस महामोहसागर के अन्दर पुनः प्रपञ्चमयी ब्रह्माण्ड बनकर प्रकट हो गया (पुराण संहिता २९/४६) ।
यह नया ब्रह्माण्ड जैसा का तैसा बना दिया गया जिसमें प्रतिबिम्ब की लीला हुई । प्रतिबिम्ब लीला में गोलोक (योगमाया) के श्री कृष्ण की शक्ति भूलोक के श्री कृष्ण के तन में तथा वेद ऋचा कुमारिकाओं के जीव गोपियों (सखियों) के तन में विराजमान हुए । गोलोकी श्री कृष्ण ने कुमारिका सखियों के साथ गोकुल में सात दिन तक रास लीला की तथा चार दिन मथुरा में कंस वध आदि लीला की ...
'बृहद्सदाशिव संहिता'
सच्चिदानन्द लक्षणों वाले अक्षरातीत ने ही श्री कृष्ण के रूप में, प्रियाओं द्वारा प्रार्थना किये जाने पर, अखंड वृन्दावन में प्रेमपूर्वक लीला की ।।७।। खेल देखने की इच्छा के कारण होने वाली वियोगमयी लीला के विहार में अपनी प्रियाओं का अनुसरण करने वाले परब्रह्म ने अपने अंशरूप आवेश के साथ अक्षर ब्रह्म की सुरता (चित्तवृत्ति) सहित ब्रजमंडल में आकर वास किया ।।८।। अखंड वृन्दावन के अन्दर जो गुह्य लीला हुई, वह अक्षर ब्रह्म से भी परे स्थित अक्षरातीत की लीला थी । वह गुह्य से भी गुह्य एवं मन-वाणी से अगम है । वह लीला अब अक्षर ब्रह्म के हृदय में अखण्ड रूप से स्थित है ।।९।।अखंड वृन्दावन में परब्रह्म की लीला रूप जो परम ऐश्वर्य स्थित है, वही गोकुल में बाल्यावस्था तथा किशोर लीला के भेद से कहा गया है ।।१०।।
'बुद्ध गीता' ग्रन्थ के श्रुतिः अध्याय श्लोक १० में निम्न वर्णन किया है-
"विष्णु एवं आदि विष्णु का स्वरूप एक ही है । इनसे भिन्न जो अक्षर ब्रह्म हैं, उनकी ये स्वप्न में कला रूप हैं । जन्म के समय जो वसुदेव को पुत्र के रूप में प्राप्त हुआ था, वह विष्णु भगवान का परम तेजोमय स्वरूप था । जो जेल से गोकुल में ले जाया गया था, वह उनसे भी भिन्न गोलोकी शक्ति का स्वरूप था । ब्रज में जिसने सखियों के साथ लीला की, वह परम ज्योतिमय अलौकिक अक्षर ब्रह्म का स्वरूप था । जिसने योगमाया के अन्दर अखंड रास की लीला की, वह अक्षर ब्रह्म की आत्मा से युक्त अक्षरातीत की शक्ति के द्वारा किया हुआ कहा गया । इस प्रकार विष्णु, अक्षर ब्रह्म एवं अक्षरातीत की प्रतिभासिक लीला के ये तीन स्थान हैं, किन्तु परब्रह्म अक्षरातीत की वास्तविक लीला का तेजोमय स्थान इनसे भिन्न ही है, जो उनके ही समान चेतन रूप वाला तथा अखण्ड है ।
इसलिए यहाँ का ब्रिज व राास वहां केसे जा सकता है
ब्रज ने रास अखंड कहे प्रगट ,सो तो नित नित नवले रंग |
एक रंचक रहे सो ब्रह्माण्ड की ,तो टीका का होवे रे भंग ||
(चौपाई ९ का भाव )
ब्रिज और रास को अखंड कहा गया है जहाँ नत नई नई आनंद की लीलाए होती है अगर उस अखंड की तुलना इस नश्वर ब्रह्मांड से की जाती है तो व्ल्ल्भाचार्ये जी का टीका झूटा हो जायेगा अर्थात तुम उसका सही अर्थ नही लगा रहे साथ जी यहाँ एक भाव और ग्रहण करने लायक है की इस चौपाई में हम ब्रह्मआत्मवो के लिए भी सिखापन है की हम वाणी का अर्थ भी यहाँ की बुध्ही से लगा रहे है इसलिए वाणी के मूल भाव से वंचित रह जाते है क्योंकि वाणी के भाव शब्द तीत है और वाणी में शब्द ही लिखे हुए है इसलिए सुन्दरसाथ आपस में झगडे कर रहे है क्योंकि शब्दों में उलझे रहते है सार तत्व को नही जान पाते जो सार ग्रहण कर लेता है वो कभी नही वाद विवाद में नही पड़ता ...
बाकी चौपाई का भाव चर्चा कल धनी जी की इच्छा से करेंगे साथ जी
प्रणाम जी
प्रकरण १३ का मूल भाव ये है की जब वल्लाभाचार्ये जी ने अपने ग्रन्थ सुबोधिनी में( जो की श्रीमत्भागवत का टिका है ) अखंड ब्रिज एवंम रास का वर्णन किया था तब तारतम ज्ञान नही था इस लिए लोग ब्रिज एवं रास को इसी संसार में अखंड समझ रहे थे और उसका अर्थ वैष्णव लोगो ने गलत बता कर लोगो को गुमराह कर रहे थे तब प्राण नाथ जी ने उन्हें आह्वान किया था की हे वैष्णव जानो तुम ब्रिज एवंम रास को अखंड कहते हो ओर तुम्हारे अर्थो में तुम उसे मिटने वाला भी बता रहे हो , तुम्हे इसका सही अर्थ जानना है तो तारतम ज्ञान के माध्यम इसको मूल भाव में ग्रहण करो तो तुमे ज्ञात होगा की ब्रिज और रास कहाँ और केसे अखंड है
ब्रज अखंड ब्रहमांड में हुआ ,विचार देखो रे बुधवंत |
एक रंचक न राखी चौदे लोक की , महाप्रलय कह्यो ऐसो अंत ||
किरंतन( १३,८ )
हे बुद्धजन याने अपनी बुद्धी का चतुराई से प्रयोग करने वालो जिस ब्रिज को तुम अखंड कहते हो वो कहा पे अखंड हुआ तुम ये बात स्पष्ट नही कर पा रहे हो क्योंकि बिना तारतम ज्ञान के स्वप्न की बुद्धी से तुम केसे अखंड का वर्णन कर सकते हो जिस प्रंकार किसी जानवर के पेट के कीड़े को केवल उस जानवर के पेट के आलावा बहार का ज्ञान नही होता वेसे ही इस स्वप्न के ब्रहमांड के लोग केवल अपनी स्वप्न की बुद्धी से ही हर ग्रन्थ के अर्थ लगाते है अगर इस से बहार का ज्ञान प्रकाश में कुछ जानना हो तो इस से बहार की बुद्धी का प्रयोग होगा जो केवल अखंड धाम से आये ब्र्हम्मुनियो के पास ही है इसलिए अगर तुम्हे ये जानना है की ब्रिज अखंड कहाँ हुआ तो तुम्हे मै तारतम ज्ञान के मध्येम से समझा रहा हूँ की ब्रिज इस ब्रह्माण्ड में कहीं भी अखंड नही हुआ बल्कि वो बेहद की भूमि में याने अखंड धाम में अखंड हुआ है वहां पे इस ब्रह्मांड से एक कण भी नही जा सकता इसलिए यहाँ के ब्रिज की तुलना तुम भूल कर भी उस ब्रज से मत करना वहां न तो यहाँ के शरीर है न यहाँ के पशु पक्षी है क्योंकि जब वो ब्रिज अखंड हुआ तो यहाँ का ब्रिज महा प्रलये में लये हो गया था .. (पु. सं. ३१/१२,१३)
११ वर्ष ५२ दिन तक श्री कृष्ण जी के तन में विराजमान अक्षरातीत श्री प्राणनाथ जी ने आत्मा स्वरूपा गोपियों के साथ प्रेम लीला की । इसी काल में कंस द्वारा भेजे गए पूतना, अघासुर, बकासुर, आदि राक्षसों का भी वध किया । ११ वर्ष की प्रेममयी लीला के पश्चात् ५२ दिन की विरह लीला हुई । तत्पश्चात् महारास की लीला के लिए उन्होंने योगमाया के ब्रह्माण्ड में प्रवेश किया । योगमाया का वह ब्रह्माण्ड इस नश्वर जगत से पूर्णतया अलग है, जिसमें चेतनता, अखण्डता तथा प्रकाशमयी शोभा है । उसमें लक्ष्मी के मुख के समान सुन्दर पूर्णमासी का अखण्ड स्वरूप वाला चन्द्रमा उगा हुआ है, जिसकी कोमल किरणों से सम्पूर्ण नित्य वृंदावन सुशोभित है । अक्षरातीत के आवेश ने अति सुन्दर स्वरूप धारण कर बांसुरी बजाई ।
उस मधुर ध्वनि को सुनकर कालमाया के ब्रह्माण्ड की गोपियां अपने-अपने तनों को छोड़कर योगमाया के अखंड ब्रह्माण्ड में पहुंची और अलौकिक तन धारण कर अपने प्रियतम के साथ ब्रह्मानन्दमयी रास लीला की । (पु. सं. ३१/१२,१३)
ब्रज लीला करने के पश्चात् जब अक्षरातीत का आवेश योगमाया के ब्रह्माण्ड में गया तो इस ब्रह्माण्ड का महाप्रलय कर दिया गया था । उस समय मोहतत्व के भी नष्ट हो जाने पर कुछ भी नहीं बचा था (पुराण संहिता २९/४५) ।
यदि महाप्रलय की स्थिति न मानें तो यह प्रश्न होता है कि बांसुरी की आवाज सुनते ही सभी गोपियों की आत्मा तो अपना तन छोड़कर योगमाया के ब्रह्माण्ड में महारास खेलने जा चुकी थीं, तो उनके तनों के दाह संस्कार का कहीं भी वर्णन क्यों नहीं आया ? अपितु श्रीमद्भागवत् में तो यह लिखा है कि गोपों ने प्रातःकाल अपनी पत्नियों (गोपियों) को अपने पास सोते हुए पाया । यह तथ्य स्पष्ट करता है कि ये गोपियां नयी थीं, जिन्हें पूर्व ब्रह्माण्ड के महाप्रलय हो जाने का कुछ भी अहसास नहीं था ।
प्रमाण
अचानक ही योगमाया की शक्ति के द्वारा उत्पन्न किए हुए उस महामोहसागर के अन्दर पुनः प्रपञ्चमयी ब्रह्माण्ड बनकर प्रकट हो गया (पुराण संहिता २९/४६) ।
यह नया ब्रह्माण्ड जैसा का तैसा बना दिया गया जिसमें प्रतिबिम्ब की लीला हुई । प्रतिबिम्ब लीला में गोलोक (योगमाया) के श्री कृष्ण की शक्ति भूलोक के श्री कृष्ण के तन में तथा वेद ऋचा कुमारिकाओं के जीव गोपियों (सखियों) के तन में विराजमान हुए । गोलोकी श्री कृष्ण ने कुमारिका सखियों के साथ गोकुल में सात दिन तक रास लीला की तथा चार दिन मथुरा में कंस वध आदि लीला की ...
'बृहद्सदाशिव संहिता'
सच्चिदानन्द लक्षणों वाले अक्षरातीत ने ही श्री कृष्ण के रूप में, प्रियाओं द्वारा प्रार्थना किये जाने पर, अखंड वृन्दावन में प्रेमपूर्वक लीला की ।।७।। खेल देखने की इच्छा के कारण होने वाली वियोगमयी लीला के विहार में अपनी प्रियाओं का अनुसरण करने वाले परब्रह्म ने अपने अंशरूप आवेश के साथ अक्षर ब्रह्म की सुरता (चित्तवृत्ति) सहित ब्रजमंडल में आकर वास किया ।।८।। अखंड वृन्दावन के अन्दर जो गुह्य लीला हुई, वह अक्षर ब्रह्म से भी परे स्थित अक्षरातीत की लीला थी । वह गुह्य से भी गुह्य एवं मन-वाणी से अगम है । वह लीला अब अक्षर ब्रह्म के हृदय में अखण्ड रूप से स्थित है ।।९।।अखंड वृन्दावन में परब्रह्म की लीला रूप जो परम ऐश्वर्य स्थित है, वही गोकुल में बाल्यावस्था तथा किशोर लीला के भेद से कहा गया है ।।१०।।
'बुद्ध गीता' ग्रन्थ के श्रुतिः अध्याय श्लोक १० में निम्न वर्णन किया है-
"विष्णु एवं आदि विष्णु का स्वरूप एक ही है । इनसे भिन्न जो अक्षर ब्रह्म हैं, उनकी ये स्वप्न में कला रूप हैं । जन्म के समय जो वसुदेव को पुत्र के रूप में प्राप्त हुआ था, वह विष्णु भगवान का परम तेजोमय स्वरूप था । जो जेल से गोकुल में ले जाया गया था, वह उनसे भी भिन्न गोलोकी शक्ति का स्वरूप था । ब्रज में जिसने सखियों के साथ लीला की, वह परम ज्योतिमय अलौकिक अक्षर ब्रह्म का स्वरूप था । जिसने योगमाया के अन्दर अखंड रास की लीला की, वह अक्षर ब्रह्म की आत्मा से युक्त अक्षरातीत की शक्ति के द्वारा किया हुआ कहा गया । इस प्रकार विष्णु, अक्षर ब्रह्म एवं अक्षरातीत की प्रतिभासिक लीला के ये तीन स्थान हैं, किन्तु परब्रह्म अक्षरातीत की वास्तविक लीला का तेजोमय स्थान इनसे भिन्न ही है, जो उनके ही समान चेतन रूप वाला तथा अखण्ड है ।
इसलिए यहाँ का ब्रिज व राास वहां केसे जा सकता है
ब्रज ने रास अखंड कहे प्रगट ,सो तो नित नित नवले रंग |
एक रंचक रहे सो ब्रह्माण्ड की ,तो टीका का होवे रे भंग ||
(चौपाई ९ का भाव )
ब्रिज और रास को अखंड कहा गया है जहाँ नत नई नई आनंद की लीलाए होती है अगर उस अखंड की तुलना इस नश्वर ब्रह्मांड से की जाती है तो व्ल्ल्भाचार्ये जी का टीका झूटा हो जायेगा अर्थात तुम उसका सही अर्थ नही लगा रहे साथ जी यहाँ एक भाव और ग्रहण करने लायक है की इस चौपाई में हम ब्रह्मआत्मवो के लिए भी सिखापन है की हम वाणी का अर्थ भी यहाँ की बुध्ही से लगा रहे है इसलिए वाणी के मूल भाव से वंचित रह जाते है क्योंकि वाणी के भाव शब्द तीत है और वाणी में शब्द ही लिखे हुए है इसलिए सुन्दरसाथ आपस में झगडे कर रहे है क्योंकि शब्दों में उलझे रहते है सार तत्व को नही जान पाते जो सार ग्रहण कर लेता है वो कभी नही वाद विवाद में नही पड़ता ...
बाकी चौपाई का भाव चर्चा कल धनी जी की इच्छा से करेंगे साथ जी
प्रणाम जी
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