सुप्रभात जी
परमात्माने धर्म ग्रन्थों में यह लिखवाया है कि आत्माओं का हृदय ही मेरा धाम है।
कुरआन के पा. 1 सिपारा 2 आ. 186 में कहा गया है कि ब्रह्मसृष्टियों (मोमिनों) के धाम हृदय में ही प्रियतम परब्रह्म का वास होता है। इसी प्रकार का कथन अथर्ववेद के केन सूक्त तथा सामवेदीय छान्दोग्योपनिषद के प्रपाठक 8/1,2,3 में वर्णित है।
(विवेक चूड़ामणि—२९१)
देह में व्याप्त हुई अहंबुद्धि को सच्चिदानन्द रूप ‘सदानन्द’ में स्थित करके लिंग शरीर के अभिमान को छोड़ कर सदा अद्वितीय रूप (आत्मह्रदय के परमात्मी) से स्थित रहो..
ब्रह्मात्माओं (मोमिनों) के दिलको तो परमधाम कहा है, कयोंकी ब्रह्मात्माओं का ध्यान हमेंशा अपनें पूर्णब्रह्म परमात्मा में रहता है ..कयोंकी इनका परमात्मा से संबन्ध है इसलिय ये उसे परमात्मा नही बल्की अपना सर्वसव मानती हैं ..इस कारण इनके दिल मे माया नही आ पाती कयोंकी वहाँ परमात्मा (हक सुभान) आकर विराजमान होते हैं. ऐसी आत्माएँ अन्य लोगोंके दिलोंको भी पवित्र बना देतीं हैं. कयोंकी इनका ग्यान एकदम शुद्ध होता है ..जडता से दूर व चेतनता से ओतप्रोत जिसके संपर्क से सबको लाभ मिलता है...और इसका प्रमाण कुरान आदी मे वर्णित है..
प्रणाम जी
परमात्माने धर्म ग्रन्थों में यह लिखवाया है कि आत्माओं का हृदय ही मेरा धाम है।
कुरआन के पा. 1 सिपारा 2 आ. 186 में कहा गया है कि ब्रह्मसृष्टियों (मोमिनों) के धाम हृदय में ही प्रियतम परब्रह्म का वास होता है। इसी प्रकार का कथन अथर्ववेद के केन सूक्त तथा सामवेदीय छान्दोग्योपनिषद के प्रपाठक 8/1,2,3 में वर्णित है।
(विवेक चूड़ामणि—२९१)
देह में व्याप्त हुई अहंबुद्धि को सच्चिदानन्द रूप ‘सदानन्द’ में स्थित करके लिंग शरीर के अभिमान को छोड़ कर सदा अद्वितीय रूप (आत्मह्रदय के परमात्मी) से स्थित रहो..
ब्रह्मात्माओं (मोमिनों) के दिलको तो परमधाम कहा है, कयोंकी ब्रह्मात्माओं का ध्यान हमेंशा अपनें पूर्णब्रह्म परमात्मा में रहता है ..कयोंकी इनका परमात्मा से संबन्ध है इसलिय ये उसे परमात्मा नही बल्की अपना सर्वसव मानती हैं ..इस कारण इनके दिल मे माया नही आ पाती कयोंकी वहाँ परमात्मा (हक सुभान) आकर विराजमान होते हैं. ऐसी आत्माएँ अन्य लोगोंके दिलोंको भी पवित्र बना देतीं हैं. कयोंकी इनका ग्यान एकदम शुद्ध होता है ..जडता से दूर व चेतनता से ओतप्रोत जिसके संपर्क से सबको लाभ मिलता है...और इसका प्रमाण कुरान आदी मे वर्णित है..
प्रणाम जी
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