Sunday, January 31, 2016

सतसंग

सुप्रभात जी

जब हम परमात्मा से प्रेम करने लगते हैं तो कोई भी सांसारिक वस्तु इस लायक नहीं प्रतीत होती कि उससे प्रेम किया जाए। जिस प्रकार चातक को यह विश्वास होता है कि स्वाति नक्षत्र में बरसे जल से ही उसकी पिपासा शान्त होगी, तब चातक पक्षी पावस में गिरने वाली ओस की पहली बूंदों का प्यासा हो जाता है तो उसे न तो तूफान का भय होता है और न ही बादलों की गर्जना का। इसी प्रकार साधक को भी ऎसी प्यास उत्पन्न हो जाये तो परमात्मा की प्राप्ति सुलभ हो जाती है, यदि एक बार परमात्मा सानिध्य का स्वाद चख लिया तो फिर उसे संसार की सभी वस्तुयें स्वत: ही बेजान और बेस्वाद लगने लगती हैं। तब सांसारिक सुख-दुख की धारणा मिट जाती है, तब वह परम-आनन्द को प्राप्त कर सभी प्रकार से मुक्त हो जाता हैं।

प्रणाम जी

हद बेहद विवरण

हद पार बेहद है , बेहद पार अछर ।
अछर पार वतन है , जागिए इन घर ।। (प्र. हि. ३१/१६५)

•यह हद का ब्रह्माण्ड जिसमे 14 लोक व निराकार तक का विस्तार आता है यह सब लय होने वाला है इसलिय इसे हद काहा है ..
श्रीमद् भागवतम के द्वतीय स्कन्ध के पाँचवे अध्याय में इस ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत 14 भुवनों या लोकों का वर्णन किया गया है |

उपरी या ऊर्ध्व लोक: 1.भूर्लोक (प्रथ्वी),  2.भुवर्लोक (राक्षस तथा भूत पिशाच),  3.स्वर्गलोक, 4. महर्लोक (भृगु महिर्षि),  5. जनः लोक (सप्त ऋषि),  6. तपः लोक  तथा  7. सत्यलोक (ब्रह्मा ,विष्णू,महेश) |

श्रील विश्वनाथ चक्रवर्ती ठाकुर के अनुसार ध्रुवलोक सूर्य से 38 लाख योजन ऊपर स्थित है | ध्रुवलोक से एक करोड़ योजन ऊपर महर्लोक और इससे 2 करोड़ योजन ऊपर जनस लोक, फिर इससे ऊपर 8 करोड़ योजन ऊपर तपोलोक और इससे भी 12 करोड़ योजन ऊपर सत्यलोक स्थित है | इस प्रकार सूर्य से सत्यलोक की दूरी 23,38,00,000 योजन या 1,87,04,00,000 मील है | सूर्य से प्रथ्वी की दूरी 1 लाख योजन है | प्रथ्वी से 70,000 योजन नीचे अधोलोक या निम्न लोक शुरू होते हैं (SB.5.23.9 तात्पर्य) |

सात अधोलोक: यहाँ सूर्य का प्रकाश नही जाता, अतः काल दिन या रात में विभाजित नही है पर यह भी महाप्रलय में लीन होने वाला है | (SB.5.24.11) |

1.अतल - मय दानव का पुत्र बल नाम का असुर जिसने 96 प्रकार की माया रच रखी है | कुछ तथाकथित योगी तथा स्वामी आज भी लोगों को ठगने के लिए इस माया का प्रयोग करते हैं  (SB.5.24.16) |

2.वितल - स्वर्ण खानों के स्वामी भगवान् शिव अपने गणों, भूतों, तथा ऐसे ही अन्य जीवों के साथ रहते है और माता भवानी के साथ विहार करते हैं (SB.5.24.17) |

3.सुतल - महाराज विरोचन के पुत्र महाराज बलि आज भी श्री भगवान् की आराधना करते हुए निवास करते हैं तथा भगवान् महाराज बलि के द्वार पर गदा धारण किये खड़े रहते हैं (SB.5.24.18) |

4.तलातल - यह मय दानव द्वारा शासित है जो समस्त मायावियों के स्वामी के रूप में विख्यात है (SB.5.24.28) |

5.महातल - यह सदैव क्रुद्ध रहने वाले अनेक फनों वाले कद्रू की सर्प-संतानों का आवास है जिनमे कुहक, तक्षक, कालिय तथा सुषेण प्रमुख हैं (SB.5.24.29) | ,

6.रसातल - यहाँ दिति तथा दनु के आसुरी पुत्रों का निवास है, ये पणि, निवात-कवच, कालेय तथा हिरण्य-पुरवासी कहलाते हैं | ये देवताओं के शत्रु हैं और सर्पों के भांति बिलों में रहते हैं (SB.5.24.30) |  

7.पाताल – यहाँ अनेक आसुरी सर्प तथा नागलोक के स्वामी रहते हैं, जिनमे वासुकी प्रमुख है | जिनमे से कुछ के पांच, सात, दस, सौ और अन्यों के हजार फण होते हैं | इन फणों में बहुमूल्य मणियाँ सुशोभित हैं जिनसे अत्यन्त तेज प्रकाश निकलता है (SB.5.24.31) |

पाताल लोक के मूल में भगवान् अनन्त अथवा संकर्षण निवास करते हैं, जो सदैव दिव्य पद पर आसीन हैं तथा इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को धारण किये रहते हैं | भगवान् अनन्त सभी बद्धजीवों के अहं तथा तमोगुण के प्रमुख देवता हैं तथा शिवजी को इस भौतिक जगत के संहार हेतु शक्ति प्रदान करते हैं (SB.5.25) |

ब्रह्मांड की माप पचास करोड़ योजन है तथा इसकी लम्बाई व चौड़ाई एकसमान है (आदि लीला 5.97.98) | प्रत्येक लोक का अपना एक विशेष वायुमंडल होता है और यदि कोई भौतिक ब्रह्माण्ड के अन्तर्गत किसी विशेष लोक की यात्रा करना चाहता है तो उस व्यक्ति को उस लोक- विशेष के अनुसार अपने शरीर को अनुकूल बनाना होता है | भौतिक ब्रह्माण्ड के इन उच्चतर लोकों में जाने के लिए मनुष्य को मन तथा बुद्धि अर्थात सूक्ष्म शरीर को त्यागना नही पड़ता, उसे केवल प्रथ्वी, जल, अग्नि इत्यादि से बने स्थूल शरीर को ही त्यागना होता है ||

गीता (8.16) में भगवान् कृष्ण कहते हैं: इस जगत में सर्वोच्च लोक से लेकर निम्नतम सारे लोक दुखों के घर हैं जहाँ जन्म तथा मृत्यु का चक्कर लगा रहता है, किन्तु जो मेरे धाम को प्राप्त कर लेता है वह फिर कभी जन्म नहीं लेता |

•इस हद के ब्रह्माण्ड से परे बेहद का मण्डल है । इसके अन्तर्गत अक्षर ब्रह्म के चारों पाद सत्स्वरूप , केवल , सबलिक और अव्याकृत हैं ।
वेद के कथनानुसार- यह सम्पूर्ण जगत ब्रह्म के चौथे पाद (अव्याकृत) द्वारा बना है । इसके तीनों पाद चेतन , प्रकाशमय और अखण्ड हैं । परब्रह्म का स्वरूप इन तीनो पादों से भी परे उस स्थान पर है , जिसे परमधाम ( दिव्य ब्रह्मपुर ) कहते हैं

•मूल तत्व सच्चिदानन्द पूर्ण ब्रह्म अक्षरातीत हैं , जो अक्षर से भी परे हैं ।उनके हारे में कहा है की..
परब्रह्म सर्वव्यापक अवश्य है किन्तु अपने निजधाम में , जहाँ के कण-कण में अनन्त सूर्यों का प्रकाश है , जहाँ अनन्त आनन्द है (ऋग्वेद ९/११३/७) ।

गीता में भी कहा गया है कि उस ब्रह्मधाम में न तो सूर्य प्रकाशित होता है न चन्द्रमा और न अग्नि ही । जहाँ जाने पर पुनः लौटना नहीं पड़ता वह मेरा परमधाम है ।

प्रकृति के अन्धकार से सर्वथा परे सूर्य के समान प्रकाशमान स्वरूप वाले परमात्मा को मै जानता हूँ , जिसको जाने बिना मृत्यु से छुटकारा पाने का अन्य कोई भी उपाय नहीं है (यजुर्वेद ३१/१८) ।

प्रणाम जी

Saturday, January 30, 2016

अन्नत आनंद

सुप्रभात जी
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भिन्न भिन्न प्रकार के नशे अलग अलग आनंद देते हैं . जो की विभिन्न मादक पदार्थो के माध्यम से किय जाते हैं. ये पदार्थ हमारे अन्दर जाके कुछ कोशिकाओं व नाडी तंत्र के साथ क्रिया करके शरीर मे आनंद को क्रियानवित कर देते हैं जिस कारण हमें कुछ समय के लिय आनंद का अनुभव होता है.. और जिसको इन मादक पदार्थों की लत पड जाती है वो फिर अन्य किसी भी प्रलोभन में आकर इनको नही त्यागना चाहता ,वो इनके लिय हर प्रकार के भोग विलास को त्याग देता है..
पर जरा विचार करें कया वो उस मादक पदार्थ को अगर पूरे शरीर से लपेट ले तो कया वो नशा होगा , नही , कयोंकी वो पदार्थ तो केवल अपने अन्दर क्रिया करका उस आनंद को ऐक्टिवेट करता है ,अर्थात आनंद उसमें नही है हमारे अंदर ही है .
ये तो तुच्छ आनंद है जो केवल उदाहरण के लिय बताया है वरना हमारे अंदर आनंद के अपार व अनंत भंडार भरे पडे हैं ..आवश्यकता है अपने भीतर मुडकर परमात्मा तत्व की खोज करने की अगर ये मिल गया तो समझो आनंद activet हो जायगा व अन्नत आनंद अन्नत काल के लिय मिल जायगा जिसके लिय तुम किसी भी भोग विलास के आनंद को मल की भांती त्याग दोगे..तो अन्नत आनंद के लिय अंतर्मुख होकर परमात्मा की खोज करनी होगी..और कोइ अन्य उपाय है ही नही..
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प्रणाम जी

वाणी

मुखके सबद मैं बोहोत सुने, इन भी कोई दिन किया पुकार ।
पर घायल भई सो तो कोइक कुलीमें, सो रहत भवसागर पार ।।

मैंने साधु सन्तोंके मुखसे परमात्माकी प्रशंसा और वाणी वारंवार सुनी है. वे बहोत अच्छे ढंग से वाणी व परवचन करतें हैं. वे भी परमात्मा को अनेक ढंग से पुकारते हैं. परनतु अपने को भक्त व गूरू दर्शाने में ज्यादा प्रयासरत रहते है . इसकारण उनकी रहनी कूछ भिन्न हो जाती है . दूैत मे मन लगा कर अदूैत से विमुख हो रहे हैं . इसलिय ये कहा जा सकता है ही वे बाह्यरूपसे परब्रह्म परमात्माको याद करते हैं.कयोंकी परमात्मा आंतरिक विषय है. इसलिय हृदयस्पर्शी वचनोंसे घायल होनेका सदभाव इस कलियुगमें किसी भाग्यशालीको ही प्राप्त होता है. ऐसे भक्तजन इस झूठे भवसागरमें रहते हुए भी इससे परे (मायासे अलिप्त) रहते हैं.

प्रणाम जी

Thursday, January 28, 2016

हे मेरे जीव के अंतःकरण!


सुप्रभात जी

हे मेरे जीव के अंतःकरण! तूं सबसे पहल स्वयं के अस्तित्व (मैं) को पूर्णतया समाप्त कर दे ,इसके पश्चात जीव के उर्जावान रूप को आत्म स्वरूप मे लीन करके आत्मस्वरूप हो जाओ यदि तुम ऐसा कर सकते हो तो यह बात निश्चित् रूप से जान लो कि आत्मा के धाम हृदय में परमात्मा अपना आसन  जमाएं बैठे हैं। इसमें नाम मात्र के लिये भी संशय मत रखो। एक बार उस अवस्था में आने पर तो तुम्हारे लिये जीवित रहते ही मृत्यु जैसी स्थिति बन जायेगी अर्थात् तुम्हारे लिये इस शरीर और संसार का अस्तित्व नहीं रह जायेगा। यही अध्यात्म का चरम लक्ष्य है।तुम्हारे और परमात्मा के बीच एकमात्र यही एक परदा है। इसके सिवाय अन्य कोई भी बाधा नहीं है। यदि तुमने अपने अन्दर से ‘मैं’ का अस्तित्व समाप्त कर दिया तो इस झूठे संसार में ही तुझे इसी शरीर से परमधाम के सुखों की प्रत्यक्ष अनुभूति होने लगेगी।

प्रणाम जी

Wednesday, January 27, 2016

अखंड ग्यान को मथ के उसका सार तत्व ग्रहण करना चाहिय

सुप्रभात जी

अखंड ग्यान को मथ के उसका सार तत्व ग्रहण करना चाहिय..कयोंकी सार से ही जागर्ती आती है जीव में..इसलिय अखण्ड ज्ञान द्वारा जागृत हुआ जीव अपने मन को कर्मों की प्रवृत्ति से अलग करलेता है। इसका परिणाम यह होता है कि मन के अधीन रहने वाले अन्य अंगों (इन्द्रियों) में भी यही स्थिति बन जायेगी। जब जीव अपने साथी मन को जागृत करेगा, तब मन भी जीव की भाषा बोलने लगेगा। इस प्रकार जीव और मन एक ब्रह्मानन्द के रंग में रंग जायेंगे।ओर जीव को ब्रह्मका बोध हो जाता है , और जब जीव को ब्रह्म का बोध होता है तो विषयों में भटकने वाला मन भी इससे अछूता नहीं रहता। मन ही इन्द्रियों का राजा है। ब्रह्मानन्द की रसधारा मन को कर्म बन्धन से अलग कर देती है। उस समय जीव और मन एक ही आनन्द के रंग में डूब जाते हैं। इसलिय ब्रह्मग्यान को केवल पढने या पाठ करने से काम नही चलेगा , उसको मथके सार लेना होगा , जिस प्रकार सागर के रत्न पाने कि इच्छा लेकर अगर उपर ही तैरते रहे तो कुछ समय अवधी के बाद निश्चित ही थक कर डूब जाते है , पर जिनको पता है की रत्न सतह पर नही गहराई में हैं वे सफलता पर्वक रत्न ढ़ूंड लेते हैं...

प्रणाम जी

इन बिध खेल देखाइया..वाणी

इन बिध खेल देखाइया, ना तो रूहें झूठ देखें क्यों कर।
अपने तन हकें जान के, करी हाँसी रूहों ऊपर।।

इस प्रकार परमात्मा ने अपनी आत्माओं को माया का यह दूैत का खेल दिखाया है, अन्यथा आत्मांये इस दूैत के जगत को नहीं देख सकतीं। परमात्मा ने अपनी आत्माओं को अपना मानकर ही उनके लिय यह बिलकुल भिन्न व नये खेल की रचना की है, अर्थात् इस खेल में इस युग में जो नविनता ,वैग्यानिक उन्नती व सुलभता है वह पहले कभी कीसी युग में नही थी जो का यह खेल दिखाया है।परमात्मा ने दुैत का यह खेल अपनी आत्मांओ को सुख देने के लिये ही किया है, लेकिन इसकी वास्तविकता का ज्ञान अभी किसी को भी नहीं है। जब हम परमधाम में जागृत होंगे, तब माया का यह खेल हमें बहुत अधिक सुख देगा।
जिस प्रकार शीतल चन्द्रमा की किरणें दाहकारक नहीं हो सकती, उसी प्रकार अनन्त आनन्द के स्वरूप परमात्मा की कोई भी लीला दुःखदायी नहीं हो सकती। परमात्मा ने हमें दूैत का खेल अवश्य दिखाया है, किन्तु ब्रह्मवाणी द्वारा जो मारिफत की पहचान दी है, वह परमधाम में भी नहीं थी। अब परमधाम में या इस खेल में जागृत होने पर ही उस सुख का अहसास होगा।

प्रणाम जी

Tuesday, January 26, 2016

परब्रह्म को ही जान लेने पर....

सुप्रभात जी

हमने भोगों को नहीं भोगा , बल्कि भोगों ने ही हमें भोग डाला । हमने तप नहीं किया बल्कि त्रिविध तापों ने ही हमे तपा डाला । काल की अवधि नहीं बीती , बल्कि हमारी ही उम्र बीत गई । तृष्णा बूढ़ी नहीं हुई , बल्कि हम ही बूढ़े हो गए ।
( वैराग्य शतक ८ )
यदि सम्पूर्ण पृथ्वी को रत्नों से भरकर भी किसी को दे दिया जाए , तो भी उसे शाश्वत शान्ति तथा अमरत्व प्राप्त नहीं हो सकता । इस संसार में अपनी कामना के कारण ही सब कुछ प्रिय होता है । इसलिए एकमात्र परब्रह्म ही देखने योग्य , श्रवण ( ज्ञान ) करने योग्य एवं ध्यान करने योग्य है । उस परब्रह्म को ही जान लेने पर , सुन लेने पर या देख लेने पर सब कुछ ही जाना हुआ हो जाता है ।

प्रणाम जी

Monday, January 25, 2016

वाणी...

घाट अवघाट सिलपाट अति सलबली,
तहां हाथ ना टिके पपील पाए।
वाओ वाए बढे आग फैलाए चढे,
जलें पर अनल ना चले उडाए।।

प्रेमरूपी मार्ग अत्यन्त विषम (महीन से भी महीन) है. उस पर हाथ (ग्यान का भार) भी नहीं टिकता और चींटीके पैर (शुक्ष्म माया, जिसमे लगता है की हम सही मार्ग पर है ,पर वास्तव में वह माया का सूक्ष्म रूप होता है जिसे चिंटी का पैर कहा गया है) भी नहीं ठहर सकते.
चारों तरफ इच्छा ,तृष्णा ,सम्प्रदायवाद, प्रभाववाद ,व्यक्तिवाद , माया का जड़वादी सतोगुण का जाल आदी से भरे हुए वातावरण को देख कर उसका हमारे मन पर प्रभाव रूपी पवनके चलने पर हमारे अंदर भी वो अग्नि रूप में और धधकती है. उससे आत्मारूपी पक्षीके प्रेम (इश्क) तथा विश्वास (ईमान) रूपी पंख जल जाते हैं. जिससे वह उड़कर अपने घर नही जा सकता है.

प्रणाम जी

Sunday, January 24, 2016

"कोषों का कोष है हृदय"

"कोषों का कोष है हृदय"
सुप्रभात जी

हृदय चार चिजो से मिलकर बना है ,वेहैं - मन, चित, बूद्धि और अहंकार ..हम अपने संसार के धन के कोष की रक्षा बहोत सजकता से करते हैं , पर हर जीव के लिय सबसे बडा धन उसका यह हृदय कोष है इसे ही अंतःकरण कहते हैं , हमे इसकी हमेशा रक्षा करनी चाहिय ,इसपर हमेषा ग्यान व विवेक का पहरा बैठा कर रखें नही तो पांच चोर हमेशा इसमे सेंधमारी करते रहते हैं...कयोंकी इच्छा हुई तो सोचो कि ‘इच्छा के अनुसार कर्म करें या बुद्धि से सोच के कर्म करें ?’ इच्छा हुई, फिर मन से उसको सहमति दी और इच्छा के अनुरूप मन करना चाहता है तो धीरे-धीरे बुद्धि दब जायेगी। बुद्धि का राग-द्वेष का भाग उभरता जायेगा, समता मिटती जायेगी। अगर विवेकसे और आत्मग्यान का विचार करके बुद्धि को बलवान बनायेंगे और समता बढ़ाने वाला, मुक्तिदायी जो काम है वह करेंगे तो बुद्धि और समता बढ़ेगी लेकिन मन का चाहा हुआ काम करेंगे तो बुद्धि और समता का नाश होता जायेगा। कुत्ते, गधे, घोड़े, बिल्ले, पेट से रेंगने वाले तुच्छ प्राणी और मनुष्य में क्या फर्क है ?

वसिष्ठजी कहते हैं- हे रामजी ! कभी ये मनुष्य थे लेकिन जैसी इच्छा हुई ऐसा मन को घसीटा और बुद्धि उसी तरफ चली गयी तो धीरे धीरे दुर्बुद्धि होकर केँचुए, साँप और पेट से रेंगने वाले प्राणियों की योनियों में पड़े हैं।
इसी प्रकार की और भी कई योनियाँ हैं। यह चार दिन की जिंदगी है, अगर इसको सँभाला नहीं तो चौरासी लाख जन्में की पीड़ाएँ सहनी पड़ती हें।

रक्षत रक्षत कोषानामपि कोषें हृदयम्।
यस्मिन सुरक्षिते सर्वं सुरक्षितं स्यात्।।

‘जिसके सुरक्षित होने से सब सुरक्षित हो जाता है, वह कोषों का कोष है हृदय। उसकी रक्षा करो, रक्षा करो।
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प्रणाम जी

vani

धनी मै तो सूती नींद में , तुम तो बैठे हो जागृत |
खेल भी तुम दिखावत, बल मेरो कछू ना चलत ||
{खिलवत}
हे परमात्मा मै तो इस संसार में नींद में सो रही हूँ [अर्थात जैसे नींद में हमारा वश नही चलता हम नींद में मन के आधीन  हो जाते है उसी प्रकार ये आत्मा इस संसार में आकर जीव के ऊपर बैठ गयी है
जीव को भी अपना शुद्ध आभास नही होने के कारण ये अंत:करण के अधीन होकर खेल देखता है व् जीवन मरण के चक्र में फसा रहता है जब आत्मद्र्ष्टि जीव के स्वरुप पे बैठती है तो उसके चिदाभास के प्रकाश में खुद को भूल जाती है व् उसकी नजर से आत्मा की नजर जुड़ जाती है जिस कारण ये खुद का स्वरुप भूल के उस जीव के ही अंत:करण के दुआरा दिए हुए भाव के साथ ही सुख और दुःख का दुयेत का खेल देखने में लीन हो जाती है
इसे ही आत्मा की नींद कहा गया है ] पर हे मेरे प्यारे परमात्मा आप तो जागृत हो फिर क्यों नही आप मुझे इस दुयेत के खेल से अदुयेत भाव की और नही ले जाते ?क्योंकि यहाँ नींद में तो मेरा कुछ वश नही चलना जब यहाँ वश आपका ही चलना है तो मुझे यहीं पे अदुयेत का खेल  दिखाइए जिस से मै यहाँ बैठ कर ही अपने मूलस्वभाव का आनंद ले सकूं , क्योंकि हम सब आत्माएं वहां परमधाम में आँखे खोलके आपकी आँखों के मध्यम से ये खेल देख रहे ,इसका अर्थ है की आपने इन जीवो को भी अपनी नजरो में ले रखा है और उन्हें अपने हुकुम से ही चला कर हमे ये खेल दिखा रहे हो , जब आपने ही दिखाना है तो क्यों न आप हमारे लिए अपने घर का खाना भिजवा दो अर्थात अपने अदुये का आनंद हमें यहीं देदो ताकि ये खेल हमारे लिए और ज्यादा आनंददायक बन जाये ....

प्रणाम जी 

Saturday, January 23, 2016

संसार का बीज मन है..

संसार का बीज मन है..

सुप्रभात जी
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बहुत कहने से क्या है थोडे से ही समझो की सब कर्मों ,इच्छाओं और सूक्ष्म संसार का बीज मन है, मन को छेदने से ही सब जगत् का छेदन होता है । जब मनरूपी बीज नष्ट होता है तब जगत्‌रूपी अंकुर भी नष्ट हो जाता है । सब जगत् मन का रूप है, इसके अभाव का उपाय करो । मलीन मन से अनेक जन्म के समूह उत्पन्न होते हैं और इसके जीतने से सब लोकों में जय होती है । सब जगत् मन से हुआ है, मन के रहित होने से देह का भी  भास नही होता , जब मन से दृश्य का अभाव होता है तब मन भी मृतक हो जाता है, इसके सिवाय कोई उपाय नहीं ।

मनरूपी पिशाच का नाश और किसी उपाय से नहीं होता । अनेक कल्प बीत गये और बीत जायँगे तब भी मन का नाश न होगा । इससे जब तक जगत् दृश्यमान है तब तक इसका उपाय करे । जगत् का अत्यन्त अभाव चिन्तना और स्वरूप आत्मा का अभ्यास करना यही परम औषध है । इस उपाय से मनरूपी दृष्टा नष्ट होता है जब तक मन नष्ट नहीं होता तब तक मन के मोह से जन्म मरण होता है और जब परमात्मा की मेहर होती है तब मन बन्धन से मुक्त होता है सम्पूर्ण जगत्, मन के विचरण से दिखता है जैसै आकाश में शून्यता दिखते हैं तैसे ही संपूर्ण जगत् मन में दिखता है ।

जैसे पुष्प में सुगन्ध, तिलों में तेल, गुणी में गुण और धर्मी में धर्म रहते हैं तैसे ही यह सत् असत्,स्थूल सूक्ष्म, कारण, कार्यरूपी जगत- मन में रहता है । जैसे समुद्र में तरंग और मरुस्थल में मृगतृष्णा का जल दिखता है वैसे ही चित्त में जगत् दिखता है ।

जैसे सूर्य में किरणें, तेज में प्रकाश और अग्नि में उष्णता है तैसे ही मन में जगत् है । जैसे बरफ में शीतलता, आकाश में शून्यता और पवन में स्पन्दता है तैसे ही मन में जगत् । सम्पूर्ण जगत् मनरूप है, मन जगत्‌रूप है और परस्पर एकरूप हैं, दोनों में से एक नष्ट हो तब दोनों नष्ट हो जाते हैं । जब जगत् नष्ट हो तब मन भी नष्ट हो जाता है । जैसे वृक्ष के नष्ट होने से पत्र, टास, फूल, फल नष्ट हो जाते हैं और इनके नष्ट होने से वृक्ष नष्ट नहीं होता ...

इसलिय आत्मरूप होकर परमात्मा में निरंतर ध्यान से मन की आंखे मन्द होकर विवेक जाग्रीत होता है  जिसके माध्यम से मन रूपी खरपतवार नष्ट होकर आत्मग्यान का बिज अंकुरित हो जाता है..
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प्रणाम जी

Friday, January 22, 2016

अपने गले में सौ मालायें डाल लो

सुप्रभात जी

अपने गले में एक दो नहीं , बल्कि सौ मालायें डाल लो , केवल एक जगह ही नहीं , बल्कि १२ अंगों में १० बार तिलक लगा लो , चाहे तुम इतने सिद्ध बन जाओ कि योग द्वारा भविष्य की सारी बातें जानने लगो , दूसरों के मन की बात भी जान जाओ , चौदह लोकों का सारा दृश्य भी देखने लगो तथा मरे व्यक्तियों को जीवित करने लगो , लेकिन जब तक परमात्मा से प्रेम नहीं होता , तब तक यह मन माया में फँसना नहीं छोड़ेगा ...
पूर्ण ब्रह्म परमात्मा का साक्षात्कार करने के लिए हमें शरीर, मन, बुद्धि आदि के धरातल पर होने वाली उपासना पद्धतियों को छोड़कर तारतम ग्यान के आधार पर उस मार्ग का अवलम्बन करना पड़ेगा, जिसके विषय में गीता में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि 'पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्तु अनन्यया' अर्थात् वह परब्रह्म अनन्य प्रेम लक्षणा भक्ति द्वारा प्राप्त होता है, जो नवधा आदि सभी प्रकार की उपासना पद्धतियों से भिन्न है। अखण्ड मुक्ति की प्राप्ति भी इसी अनन्य प्रेम द्वारा होती है ।
अनन्य प्रेम लक्षणा भक्ति का रसमयी मार्ग का अवतरण गोपियों ने ही किया , जिससे उनके लिए यह अथाह भवसागर गाय के बछड़े के खुर से बने हुए गड्ढे की तरह छोटा हो गया । तब उन्होंने इसे बड़ी सरलता से पार कर लिया ।

प्रणाम जी

नवधा भक्ति ब्रह्म का साक्षात्कार कराने में सक्षम नही हैं,

नवधा भक्ति के सभी साधन ब्रह्म का साक्षात्कार कराने में सक्षम नही हैं, क्योंकि ये शरीर, इन्द्रियों तथा मन, बुद्धि के धरातल पर किये जाते हैं । इस प्रकार की भक्ति केवल साकार रूप तक ही सीमित रहती है ..

प्राचीन शास्त्रों में भक्ति के 9 प्रकार बताए गए हैं जिसे हम नवधा भक्ति कहते हैं।

श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्।
अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥

रे  हूं  नाहीं  व्रत  दया  संझा  अगिन  कुंड ,  ना  हूं  जीव  जगन ।
तंत्र   न   मंत्र   भेख   न   पंथ ,       ना   हूं  तीरथ  तरपन ।।
(किरन्तन ११/२ )

परमात्मा कहते हैं ..भिन्न-भिन्न प्रकार के व्रतों के पालन, प्राणियों पर दया, संध्या-हवन, जीव के द्वारा आत्मबोध होने से जो लोग ब्रह्म-प्राप्ति मानते हैं, मैं उनमें नहीं हूँ । विभिन्न प्रकार के तन्त्रों तथा मन्त्रों की साधना करने, अनेक प्रकार की वेशभूषा तथा सम्प्रदाय धारण करने, तीर्थों में वास करने एवं तर्पण आदि क्रियाओं से परब्रह्म प्राप्ति की आशा रखने वालों में मै नहीं हूँ ।

रे  हूं  नाहीं  नवधा  में  मुक्त  में  भी  नाहीं ,  न  हूं  आवा  गवन ।
वेद   कतेब   हिसाब   में   नाहीं ,      न   माहें   बाहेर   न  सुनं ।।
( कि. ११/६ )

परमात्मा कहते हैं ..जो लोग नवधा भक्ति में पारंगत हो जाने , चारों प्रकार की मुक्तियों को पाने तथा सृष्टि कल्याणार्थ मोक्ष से पुनः तन धारण करने को सर्वोपरि पद मानते हैं , मै उनमें नहीं हूँ । परमात्मा तो चारो वेदों तथा कतेब ग्रन्थों ( तौरेत, इंजील, जंबूर और कुरआन ) में वर्णित तथ्यों की सीमा , पिण्ड , ब्रह्माण्ड और शून्य-निराकार से भी परे है ...

आरती, पूजा, अर्चना, भोग, प्रार्थना, परिक्रमा, नाम जप, आदि कर्मकाण्ड इस मार्ग का प्रमुख अंश हैं । दुर्भाग्यवश बहुत से सुन्दरसाथ भी इसी मार्ग को अपने जीवन की इति समझ कर संतुष्ट हो गए हैं, जबकि अक्षरातीत के साक्षात्कार का लक्ष्य इससे बहुत दूर है ।

उपनिषदों का कथन है कि वह ब्रह्म मन तथा वाणी से परे है, अतः उसे इन्द्रियों, मन, वाणी तथा बुद्धि के साधनों से प्राप्त नहीं किया जा सकता । कठोपनिषद् ने तो स्पष्ट रूप से कहा है कि जब पाँचों इन्द्रियाँ मन सहित अपने कारण में लय हो जाते हैं तथा बुद्धि भी किसी प्रकार की क्रिया से रहित हो जाती है, तो उसे ही परमगति कहते हैं ।
( कठो. २/६/)

प्रणाम जी

Thursday, January 21, 2016

बुलबुले सा है प्रवीण

ना तो मैं हिन्दू हूं ना में हूं मुसलमान |
पांच त्तव का पिंड ये मेरा आखर जाय समशान ||
गरभ में हम नहीं थे भाई  हमने फिर भी बचपन देखा है , जन्म मरण की है ये गाडी जिसपे करमोंका लेखा है ||
मटका मिट्टि का भरके बोलें इसको तुम पानीसे भरदो , मिट्टि देख के हम यूं बोले येजडतत्व तो बाहर करदो ||
छिलके पर सब लडके मर रहे , फल तो कोई खाता नही है „ अन्दर का फल अती ही मीठा पर फलतक कोइ जाता नही है ||
बुलबुले सा है प्रवीण , कबतक तू टिकपायगा |
कब भरेगा येमन तेरा , कब अपनेघर जायगा ||

प्रणाम जी

Wednesday, January 20, 2016

राम नाम का सार

सुप्रभात जी
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हमारे अंतः करण में जड पूजा के कारण बेहद के पार का ग्यान तारतम का प्रकाश नही हो पाता जिस कारण हम व्यापक परमात्मा को भी संकिर्णता में बांध कर देखते है ,इसी कारण हम केवल नामों मे अटक कर परमत्तव परमात्मा से दूर रह जाते है व अग्यानवश आपसी कलह कर अपने अपने नाम को सर्वेच्च प्रमाणित करने में लगे रहते है ..इसी श्रंखला में एक शब्द आता है राम ,हम अपनी अन्यता का अर्थ न समझपाने के कारण अन्नयता का हवाला देकर परमात्मा को केवल नाम समझकर उस पूर्ण परमात्मा के कई नामों से अलगाव कर बैठते हैं ..आइये जाने राम का कया भाव है..

राम शब्द इतना व्यापक है कि जयादातर परमात्मा के लिए राम शब्द ही आता है,
 रमते इति राम: अर्थात परमात्मा में रमने का नाम ही राम है..
"र " का अर्थ है अग्नि, प्रकाश, तेज, प्रेम, गीत ।  रम (भ्वा आ रमते) राम (रम कर्त्री घन ण) सुहावना, आनन्दप्रद, हर्षदायक, प्रिय, सुन्दर, मनोहर ।
राम शब्द का भाव किसी शरिर मात्र से नी है , कबीर जी ने राम का बडा ही सूंदर विवरण किय है...
चार राम हैं जगत में,तीन राम व्यवहार ।
चौथ राम सो सार है, ताका करो विचार ॥

एक राम दसरथ घर डोलै, एक राम घट-घट में बोलै ।
एक राम का सकल पसारा, एक राम हैं सबसे न्यारा ॥

सकार राम दसरथ घर डोलें, निराकार घट-घट में बोलै ।
बिंदराम का सकल पसारा, अकः राम हैं सबसे न्यारा ॥

निर्गुण राम निरंजन राया, जिन वह सकल श्रृष्टि उपजाया ।
निगुण सगुन दोउ से न्यारा, कहैं कबीर सो राम हमारा ॥
वेद में परमधाम को भी अयोध्या के नाम से सम्बोधित किय है आगर नाम व शब्द मे हि उल्झे रहें तो परमत्तव से दूर रह जायेंगे..

आठ चक्रों और नवद्वारों से युक्त, अपने आनन्द स्वरूप वालों की, किसी से युद्ध के द्वारा विजय न की जाने वाली (अयोध्या) पुरी है । उसमें तेज स्वरूप कोश सुख स्वरूप है जो ज्योति से ढका हुआ है (अथर्ववेद १०/२/३१) ।
यहाँ आठ चक्रों का तात्पर्य शरीर के आठ चक्रों से अथवा प्रकृति के आठ आवरणों से नहीं है क्योंकि यह तो नाशवान हैं, जबकि इस ब्रह्मपुरी को अमृत स्वरूप कहा गया है । श्रीमुख वाणी में वर्णित परमधाम को घेरकर आए आठ सागरों को ही आठ चक्र कहकर सम्बोधित किया गया है । इसी प्रकार नवद्वारों को परमधाम की नव भूमियों के लिए वर्णित किया गया है । अयोध्या कहने का अभिप्राय है कि इस परमधाम में संसार का कोई भी जीव (नारायण सहित) ध्यानावस्था में कदापि प्रवेश नहीं कर सकता । सशरीर तो कोई भी प्राणी निराकार से आगे योगमाया में भी नहीं जा सकता ..

प्रणाम जी

तौरेत किताब

तौरेत किताब में, उतरी सनंधे तीस।
सब खबर कुरान की, हकें करी बकसीस।।
"श्री बीतक"
कुरान के 30 पारों का बातिनी भाव सनद ग्रन्थ के प्रकरणों के रूप में अवतरित हुआ। शेष 12 प्रकरण कलश ग्रन्थ के भी इसमें समाहित कर दिए गये। सनद ग्रन्थ का यह अलौकिक ज्ञान परमात्मा की विशेष मेहेर का परिणाम है।तारतम वाणी सम्पूर्ण विश्व के लिए है। कलश के 12 प्रकरणों में हिन्दू धर्म के सिद्धान्तों की विवेचना की गई है, जैसे- खोज का प्रकरण, विरह का प्रकरण, सुहागिनों के लक्षण, खेल के मोहोरों का प्रकरण, पन्थ पैंडों की खेंचाखेंच, वेद का कोहेड़ा और अवतारों का प्रकरण। इन प्रकरणों को सनद ग्रन्थ में देने का आशय यही है कि वेद पक्ष और कतेब पक्ष दोनों में छिपे सत्य का बोध इस ‘सनद वाणी’ से हो सके..

प्रणाम जी

Tuesday, January 19, 2016

चार प्रकार का निश्चय

सुप्रभात जी

श्रीयोगवशिष्ठ महारामायण ( चार प्रकार का निश्चय)

हे रामजी! जीव को चार प्रकार का निश्चय होता है।

 चरणों से लेकर मस्तक पर्यन्त शरीर में आत्मबुद्धि होना और माता पिता से उत्पन्न हुआ जानना, यह निश्चय बन्धनरूप है और असम्यक् दर्शन (भ्रान्ति) से होता है । यह प्रथम निश्चय है ।

द्वितीय निश्चय यह है कि मैं सब भावों और पदार्थों से अतीत हूँ, बाल के अग्र से भी सूक्ष्म हूँ और साक्षीभूत सूक्ष्म से अतिसूक्ष्म हूँ । यह निश्चय शान्तिरूप मोक्ष को उपजाता है ।

 जो कुछ जगत्‌जाल है वह सब पदार्थों में मैं ही हूँ और आत्मारूप मैं अविनाशी हूँ । यह तीसरा निश्चय है, यह भी मोक्षदायक है |

चौथा निश्चय यह है कि मैं (शरीर)असत्य हूँ और जगत् भी असत्य है, इनसे अलग आत्मा आकाश की तरह सन्मात्र है । इसमें जीव आत्मभाव में आजाता है और परमात्मा से संयोग करता है..यह अखंड आमंद दायक है ।

 हे रामजी! ये चार प्रकार के निश्चय जो मैंने तुमसे कहे हैं उनमें से प्रथम निश्चय बन्धन का कारण है और बाकी तीनों मोक्ष के कारण हैं और वे शुद्ध भावना से उपजते हैं । जो प्रथम निश्चयवान् है वह तृष्णारूप सुगन्ध से संसार में भ्रमता है और बाकी तीनों भावना शुद्ध जीवन्मुक्त पुरुष की है । जिसको यह निश्चय है कि सर्वजगत् मैं आत्मस्वरूप हूँ उसको तृष्णा और राग द्वेष फिर नहीं दुःख देते ।

प्रणाम जी

इश्क/प्रेम

इस्क है हमारी निसानी, बिना इस्क दुलहा मैं रानी। इस्क बिना मैं भई वीरानी, बिना इस्क न सकी पेहेचानी।।

 परमात्मा की प्रिय आत्माओं की पहचान की  ही इश्क (प्रेम) से है। यदि आत्माओं के हृदय में अपने परमात्मा के लिये इश्क नहीं है, तो आत्माओं का जीवन निरर्थक है । इश्क के बिना आत्माओं का हृदय सूना  है। इस खेल में भी आत्माऐं पहले अपने परमात्मा को इसलिये पहचान नहीं सकी थी क्योंकि उनके पास उस समय प्रेम ही नहीं था।
कई बार हम इश्क और प्रेम में भेद मान लेते हैं..पर इन दौनो में शब्द मात्र का ही भेद है इसलिय यह कहना उचित नहीं है कि परमधाम में मात्र इश्क ही है, प्रेम नहीं; प्रेम तो बेहद मण्डल में है। इस का उत्तर यह है कि श्री मुख वाणी में हिन्दी और फारसी शब्दों का प्रयोग कहीं-कहीं पर साथ-साथ किया गया है, जैसे-
इश्क प्रेम जब आइया, तब नेहेचे मिलिए हक।
 कि. १७/१६
आशा उमेद जे हुज्जतूं ,सभ तूंही उपाइए।
 सिन्धी ५/६२
उपरोक्त कथनों में इश्क और उम्मेद फारसी भाषा के शब्द हैं, तथा प्रेम और आशा हिन्दी और संस्कृत भाषा के हैं। परिक्रमा ग्रन्थ के पहले प्रकरण की चौ. ३२-४0 तक में परमधाम में प्रेम के होने का स्पष्ट वर्णन है। उस की एक झलक इस प्रकार है-
याके प्रेमैं के भूखन, याके प्रेमैं के हैं तन। याके प्रेमैं के वस्तर, ए बसत प्रेम के घर।। याके प्रेम सेज्या सिनगार, वाको वार न पाइए पार। प्रेम अरस परस स्यामा स्याम, सैयां वतन धनी धाम।।
 परि. १/३३,३९
इसलिय शब्दो में ना उलझ कर सार ग्रहण करना चाहिए...

प्रणाम जी

Monday, January 18, 2016

जीव और आत्मा मे कया भेद है ???

जीव और आत्मा मे कया भेद है ???

अगर साधारण भाषा में कहें तो जीव का अर्थ है इस शरीर को चलाने वाली उर्जा ये नारायण की प्रतिबिम्म सक्ति है जो सब जीवो मे प्रतिबिम्बित हो रही है जीव ही सुख दुख भोगता है जनम मरण के बन्धन मे पडता है कर्म बन्धन मे बन्धता है..यह सवप्न से बना है और सवप्न मे ही लय या शुप्त अवस्था को प्राप्त होता है..

जबकी आत्मा सवप्न से नही अपीतू अखंड धाम से जीवों पे आके बैठती है .. ये जन्म नही लेती ..जन्म के बाद जीव पे आकर बैठ जाती है याहा के खेल देखने के लिये ..जैसे हम प्रमधाम की आतमायें इस सनसार के जीवो पे आकर बैठ गयी है (परआतम की नज़र ही आतम कहलाती है अन्यथा अखंड का कोइ भी इस सवप्न मे नही आ सकता)

आपको जानकर हैरानी होगी की आतमायें सब मनुषयों मे नही होती..और आतमायें केवल मनुष्यों के जीव पे ही आकर बैठती है ..जीव जन्तूओ मे आत्मा नही होती इसका प्रमाण गीता मे भी है ..गीता के शुरु के कुछ अधयायो मे जीव और आतमा का पूरा विवरण है.. बाइबल और कुरान मे भी इसका विवरण है.. परन्तु तारतम ग्यान के अभाव मे कोइ भी इस भेद को खोल नही पाया था ..

सृष्टि के प्रारम्भ से आज तक कोई भी जीव और आत्मा का भेद स्पष्ट नहीं कर पाया था । वैदिक साहित्य में भी दोनो को पुल्लिंग तथा समानार्थक ही माना गया है । श्री प्राणनाथ जी की वाणी (तारतम) के द्वारा इस भेद का निरूपण हुआ ।

भी वासना जीव का बेवरा एता , ज्यों सूरज दृष्टें रात ।

जीव का अंग सुपन का , वासना अंग साख्यात ।। (श्रीमुख वाणी- क. हि. २३/६१)

जीव और आत्मा में इतना अन्तर है जितना रात और सूर्य में है । जीव की उत्पत्ति स्वप्न के स्वरूप (आदि नारायण) से है, जबकि आत्मा साक्षात् परब्रह्म का अखण्ड और अनादि अंग है ।

भी बेवरा वासना जीव का , याके जुदे जुदे हैं ठाम ।

जीव का घर है नींद में , वासना घर श्री धाम ।। (श्रीमुख वाणी- क. हि. २३/६२)

आत्मा और जीव में यह भी अन्तर है कि इनके मूल घर अलग-अलग हैं । जीव का मूल घर नींद (निराकार) में है तथा आत्मा का मूल घर परब्रह्म का अनादि एवं अखण्ड परमधाम है ।

ए सबे तुम समझियो , वासना जीव विगत ।

झूठा जीव नींद न उलंघे , नींद उलंघे वासना सत ।। (श्रीमुख वाणी- )

आत्मा और जीव में यह भी अन्तर है कि झूठा जीव स्वप्न से उत्पन्न होने के कारण नींद (निराकार) को पार नहीं कर पाता । जबकि आत्मायें निराकार एवं अक्षरधाम को भी पार करके अपने मूल घर अखण्ड परमधाम में पहुँच जाती हैं ।

श्रुति के कथनानुसार नारायण ही जीवों के साक्षात् परब्रह्म हैं और जीव उनका प्रतिभास रूप हैं। जीव स्वतन्त्र नही हैं, अपितु पराधीन हैं । वे मोह, अविद्या और अहंकार से ही बने हैं और जन्म-मरण एवं सुख-दुःख (कर्मफल भोग) के चक्र में ही फँसे रहते हैं । जीव माता के गर्भ में प्रवेश करता है । मनुष्य शरीर के अतिरिक्त जीव अनेक योनियों में भी शरीर (जीवन) धारण करता है । नारायण का स्वप्न टूटते ही अर्थात् महाप्रलय होते ही जीव उनमें समा जाते हैं ।

आत्मा अनादि और अखण्ड है । वह कभी गर्भ में नहीं आती, अपितु जन्म के पश्चात् ही शरीर में प्रवेश करती है । आत्मा कभी भी मनुष्य तन के अतिरिक्त किसी अन्य योनि में शरीर धारण नहीं करती । परब्रह्म का स्वरूप होने से वह प्रेम व आनन्द में मग्न रहती हैं । वे एक क्षण के लिए भी उनसे अलग नहीं हो सकती ।

जीव उस अविनाशी ब्रह्म को माता, पिता, स्वामी, सखा, आदि अनेक भावों का रूप मानकर स्तुति करता है । जबकि आत्मा उस परब्रह्म की अभिन्न अंग होने के कारण अनन्य प्रेम भाव के मार्ग पर चलती हैं । आत्मा के इस अलौकिक प्रेम को प्रदर्शित करने के लिए वेदों में कहीं-कहीं आत्मा का परब्रह्म के लिए पत्नी (स्त्री) भाव वर्णित किया गया है-

मै इस पाप-दहन करने के सामर्थ्य वाली, अज्ञान की विरोधिनी, अत्यधिक बलवती ब्रह्मविद्या को खोदती हूँ या प्राप्त करती हूँ, जिससे सौत- अविद्या या माया का विनाश किया जाता है और जिससे आत्मा अपने एकमात्र पति परब्रह्म को प्राप्त कर लेती है । (ऋग्वेद १०/१४५/२ ।। अथर्ववेद ३/१८/१)

अन्ततः निष्कर्ष यह है कि जीव व आत्मा में वही अन्तर है जो झूठ (स्वप्न) और सत्य में है।
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प्रणाम जी

Sunday, January 17, 2016

अरे मन

सुप्रभात जी

अरे मन ! यह संसार दो प्रकार का है- एक स्थूल, दूसरा सूक्ष्म | शब्दादिक विषय सम्बन्धी जितने भौतिक पदार्थ हैं, वही स्थूल संसार है एवं इन पदार्थों की हृदय में जो बलवती कामना है वही सूक्ष्म संसार है | स्थूल संसार के छोड़ देने से सूक्ष्म संसार नहीं समाप्त होता अर्थात् सांसारिक पदार्थों के परित्याग मात्र से इच्छायें नहीं समाप्त होतीं | किन्तु यदि यही मन परमात्मा में लगा दिया जाय तो सूक्ष्म संसार अर्थात् इच्छाओं और स्थूल संसार का भान ही नहीं रहता |  इसलिय तू निरन्तर प्रमातमा का ध्यान कर समस्त कामनाओं का परित्याग अपने आप हो जायगा | नही तो तू मुर्खों
की भांती जीवन व्यर्थ कर अवसर गवां देगा |

प्रणाम जी

vani

इलम हक का सुनतही , इसक न आया जिन |
तिनको नसीहत जिन करो , वह मुतलक नहीं मोमिन ||

परमात्मा के ज्ञान को पाकर भी जिसके हृदय में परमात्मा के प्रती प्रेम उत्पन्न नही होता ऐसे व्येक्ति को
समझाने का कोई लाभ नही है क्यों की वो हृदये में परमात्मा का धाम नही बनापाने के कारण ब्रह्मात्मा नही है ..
अर्थात जो लोग केवल ज्ञान में ही उलझे रहते हैं वे अपनी बुध्ही चातुर्य से ज्ञान के माध्यम से दुनिया में केवल अहंकार की ही कमाई में लगे रहते है क्योंकि बिना परमात्माके प्रेम के ज्ञान प्राण हीन शव के समान है और शव का स्वाभाव है की थोड़े ही समय में उस में से दुर्गन्ध आने लगती है अर्थात प्रेम बिना ज्ञान विकार ही उत्पन करता है वह कभी भी मुक्ति नही अपितु बंधन का ही कारण बनता  है  और व्यक्ति मान बडाई में इतना मस्त हो जाता है की उसको किसी प्रकार की नसीहत देने पर उसके अहंकार पर चोट लगती है इसलिए ऐसे व्येक्ति को नसीहत देने का कोई लाभ नही है ...

प्रणाम जी 

Saturday, January 16, 2016

वाणी

विलायत दई ह्कें इनको , यासों चीज पाइए इसलाम |
तो हिजाब न आड़े वजूद , हिजाब न आड़े काम ||

अपनी आत्माओ  को परमात्मा ने तारतम ज्ञान दुआरा अनेक प्रकार से संसार से  अलग अपनी पहचान करवाई है , इसका केवल तात्पर्य यही है की आत्माओ को
जीव के विवेक दुआर यहीं पे दुवैत में रहते रहते ही अदुवैत की पहचान होने लगती है
इसी अदुवैत के बोध से ही वे परमात्मा के अदुवैत भाव को ग्रहण करती है , इसी भाव के बोध से ही उन्हें परमात्मा के के धाम का शुद्ध अदुवैत ज्ञान होता है
इसी भाव को परमात्मा दुवारा दी गयी धाम की न्यामत कहा जाता है  और ये तो स्वाभाविक ही है की जब ये बोध होजायेगा तो तो उनका परमात्मा में पक्का
 ईमान हो जाता है जो की आत्माओ का धर्म है इसलिए ये कहा जाता है की  आत्माए
अपने धर्म में आ जाती है क्योंकि आत्मवो का धर्म है की वो परमात्मा में ही पूर्ण आनंद प्राप्त करें अर्थात केवल अदुवैत से सम्बन्ध बनाएं दुवैत उनका धर्मं नही है इसलिए ये
परमात्मा से  अपना  धर्म याने इसलाम
प्राप्त करती हैं , परमात्मा दुवारा विवेक दिए जाने पर इनके और परमात्मा के बीच में शरीर भाव आड़े  नही आता और  न ही कोई अन्य काम इनके और  परमात्मा के बीच में आता है ...
इस प्रकार आत्माए परमआत्मा  की कृपा से जीव को भी अपने स्वभाव याने अदुवैत भाव का बोध करा के इसे स्वेम का स्वरुप प्रदान कर देती है ..पर इसके लिए विवेक दुवारा
आत्मावो को अपने स्वाभाव में जागना होगा ..

प्रणाम जी

Friday, January 15, 2016

परमात्मा पूर्ण है

सुप्रभात जी

पूर्णात पूर्णम उदच्यते पूर्णस्य पूर्नणम आदाय पूर्णम एवावशिश्यते (ईशोपनिषद, मंगलाचरण) ।

परमात्मा पूर्ण है , वह पूर्ण आनंद का सत्रोत उनका सब कुछ पूर्ण है । उनका भंडार कभी समाप्त नहीं होता है ..उनमें से उतना लेने पर भी वो पूर्ण ही है. परमात्मा सवंय आनंद है ऐसा नही है की उनमे आनंद है..वो आनंद का ही शुद्ध साकार रूप है ,जो पूर्ण सोंदर्य के शुद्ध साकार रूप मे ,अपने अन्नत आनंद के शुद्ध सोंदर्य के अन्नत विस्तार (परमधाम)  में आनंद परवाह रूप में सदा पूर्ण रूप से दर्श्यमान शुद्ध साकार रूप में रहते हैं , वो अकेले नहीं ही है वो शुद्ध चेतन है. इसलिय उनसे चेतन आनंद के बारह हजार "प्रकार" के सत्रोत एक साथ प्रवाहीत रहते है . ये सदा से है , ये बारह हजार "प्रकार" के सत्रोत में एक एक प्रकार के अन्नत अन्नत सत्रोत है जो एक बार में बारह हजार "प्रकार" से शुद्ध चेतन पूर्ण सोंदर्य व अन्नत आन्नद का शुद्ध साकार स्वरूप है . ये सत्रोत सदा एक जैसे नही बहते बल्के एक एक क्षण मे अन्नत बार नवीन परवाह रूप में होते हैं ..ये बारह हजार प्रकार के पूर्ण आनंद इसलिय हैं कयोंकी इनमें एक एक प्रकार के अन्नत आनंद ,सोंदर्य व चेतनता को बारह हजार के समूह मे एक बार में दर्शाया गया हैं (ताकी बूद्धी इसविषय को बताय जाने पर कुछ ग्रहण कर ले अन्यथा ये शब्दातीत विषय है..) इस बारह हजार के समूह को भी 40-40 के आनंद समूहो में रखा जाता है. पर ये अनंतोअन्नत हैं ...इन्हे ही शब्द रूप में आत्मांये काहा जाता है जो चेतन अंश होने के कारण पूर्ण चेतन हैं. पर परमात्मा से अदूैत हैं..
परमात्मा आनंद ,चेतनता व सोन्दर्य का सत्य शुद्ध स्वरूप है उनका शुद्ध स्वरूप एक रस है अर्थात निचे से उपर ,दायें सें बायें एक रस पूर्ण आनंद हैं . इसलिय उनके हाथ पांव सर हृदय में कोई भेद नही है सब कूछ पूर्ण आनंद ही है या इसको इस प्रकार समझें की उनका एक एक अंग पूर्ण है जैसे उनका पांव देखता है , गंध गृहण कर सकता है व आनंद का सत्रोत याने उनका हृदय भी है ऐसे ही उनका हर अंग पूर्ण है ...इसलिय आत्मांओ का चरणों में रहने का या आय आय के चरणों लागी का भाव याहां की भाषा में दर्शाया गया है कयेंकी याहां की बूद्धी केवल दूैत की भाषा ही समझती है ,वहां पर चरण ,हाथ,पांव सर आदी का दूैत भाव नही है....
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प्रणाम जी.

हम सिर हुकम आइया,

हम सिर हुकम आइया, अर्स हुआ दिल हम।
एही काम हक इलम का, तो सुख काहे न लेवें खसम।।

हम पर परमात्मा का हुक्म है अर्थात् परमात्मा पल-पल हमारे साथ हैं। इस प्रकार हमारा दिल परमात्मा का धाम बन गया है। तारतम ग्यान का कार्य ही है हमारे हृदय को धाम बनाना। ऐसी स्थिति में हमें अपने धाम हृदय में विराजमान परमात्मा से निरंतर सुख मिलता है..आत्माऐं परमात्मा के ही दिल की स्वरूपा हैं। उनकी प्रत्येक लीला परमात्मा के हृदय की इच्छा (हुक्म) से जुड़ी होती है। इस प्रकार अंग अंगी होने से प्रत्येक लीला में आत्माओं के साथ परमात्मा का जुड़ा रहना अनिवार्य है। इसे ही अपने सिर पर परमात्मा का हुक्म होने की बात कही गयी है।
आत्माओं के दिल को परमधाम कहा गया है। हम ही धाम धनी के हुक्म के स्वरूप हैं। जब हमारे पास अखण्ड धाम का संशय रहित तारतम ज्ञान है तो हमारे अन्दर प्रियतम का प्रेम क्यों नहीं आयेगा अर्थात् अवश्य आयेगा।सर्वोच्च ब्राह्मी अवस्था (मारिफत) में आत्मा और परमात्मा में किसी भी प्रकार का भेद नहीं रह जाता। उसी अवस्था में ही यह कहा जा सकता है कि हम परमात्मा के हुक्म के स्वरूप हैं।

प्रणाम जी

Thursday, January 14, 2016

हम सब आत्मांऐं उस परमात्मा के सनातन अंश हैं.

सुप्रभात जी

हम सब आत्मांऐं उस परमात्मा के सनातन अंश हैं.
 यह आत्मा परमात्मा से विमुख है, इस कारण माया के आधीन है.
मायाधीन होने के कारण ही आत्मा को दुःख, क्लेश, अशांति आदि माया के विकार दिखते हैं.
वह परमात्मा इस माया का, साथ ही आत्मा का भी स्वामी है, माया और जीव उनकी शक्तियाँ हैं.
उस परमात्मा को जानकर ही यह जीव इस माया से उत्तीर्ण हो सकता है.
समस्त 84 लाख प्रकार के शरीरों में केवल मानव देह में ही यह ज्ञान संभव है.
ज्ञानप्रधानता मानव देह की सर्वदेहप्रमुख विशेषता है, किन्तु क्षणभंगुरता एक बड़ा दोष भी.
उस परमात्मा को शीघ्र ही जानना होगा, अगर मृत्यु से पहले नहीं जाना तो शास्त्रानुसार बहुत बड़ी हानि हो जायेगी.
परमात्मा को जानने और पाने के अलावा माया निवृत्ति का और कोई मार्ग नहीं है...

प्रणाम जी

Wednesday, January 13, 2016

बुद्धि से प्रेम का स्रोत नहीं मिलता।

वंदनीय है उपनिषत

वंदनीय है उपनिषत , यामे ज्ञान महान।
श्याम प्रेम बिनु ज्ञान सो , प्राणहीन तनु जान।।

भावार्थ - उपनिषत् का ग्यान महान हैं। अतः वन्दनीय हैं। उनमें अनंत ज्ञान भरा पड़ा है। उपनिषद के ग्यान को दंडवत प्रणाम है..किन्तु अगर किसी भी ग्यान से परमात्मा का प्रेम नहीं बढ़ता तो वह ज्ञान , प्राणहीन शरीर के समान है।

 एक बहुत बड़े सूफी फकीर हसन के पास एक युवक आया। वह बहुत कुशल तार्किक था पंडित था, शास्त्रों का ज्ञाता था। जल्दी ही उसकी खबर पहुंच गई और हसन के शिष्यों में वह सब से ज्यादा प्रसिद्ध हो गया। दूर—दूर से लोग उससे पूछने आने लगे। यहां तक हालत आ गई कि लोग हसन की भी कम फिक्र करते और उसके शिष्य की ज्यादा फिक्र करते। क्योंकि हसन तो अक्सर चुप रहता। और उसका शिष्य बड़ा कुशल था सवालों। को सुलझाने में।
एक दिन एक आदमी ने हसन से आकर कहा, इतना अदभुत शिष्य है तुम्हारा! इतना वह ग्यान जानता है कि हमने तो दूसरा ऐसा कोई आदमी नहीं देखा। धन्यभागी हो तुम ऐसे शिष्य को पाकर। हसन ने कहा कि मैं उसके लिए रोता हूं क्योंकि वह केवल जानता है। और जानने में इतना समय लगा रहा है कि भावना कब कर पाएगा? परमात्मा से प्रेम कब कर पाएगा? जानने में ही जिंदगी उसकी खोई जा रही है, तो भाव कब करेगा? मैं उसके लिए रोता हूं। उसको अवसर भी नहीं है, समय भी नहीं है। वह बुद्धि से ही लगा हुआ है।

बुद्धि से सब कुछ मिल जाए, प्रेम का स्रोत नहीं मिलता। वह वहा नहीं है।  बुद्धि एक उपयोगिता है; एक यंत्र ‘ है, जिसकी जरूरत है। लेकिन वह आप नहीं हैं। जैसे हाथ है, ऐसे बुद्धि एक आपका यंत्र है। उसकी उपयोग करें, लेकिन उसके साथ एक मत हो जाएं। उसका उपयोग करें और एक तरफ रख दें। अन्नय प्रेम से ही परमात्मा मिलेंगे...

प्रणाम जी

Monday, January 11, 2016

माया का सात्विक रूप..

कया हम अन्नय हैं ??माया का सात्विक रूप
सुप्रभात जी

(कृप्या निर्विकार भाव के से विषय की गहन्ता ग्रहण करें)

परमात्मा की असीम, अहैतुकी कृपा से ही जीव को मानव शरीर मिलता है । इसका एकमात्र उद्देश्य केवल परमात्माप्राप्ति ही है । परन्तु मनुष्य इस शरीर को प्राप्त करने के बाद अपने मूल उद्देश्य को भूल कर शरीर के साथ दृढ़ता से तादात्म्य कर लेता है और इसके सुख को ही परम सुख मानने लगता है । शरीर को सत्ता और महत्ता देकर उसके साथ अपना सम्बन्ध मान लेने के कारण उसका शरीर से इतना मोह हो जाता है कि इसका नाम तक उसको प्रिय लगने लगता है । शरीर के सुखों में मान-बड़ाई का सुख सबसे सूक्ष्म होता है । इसकी प्राप्ति के लिए वह झूठ, कपट, बेईमानी आदि दुर्गुण-दुराचार भी करने लग जाता है । शरीर नाम में प्रियता होने से उसमें दूसरों से अपनी प्रशंसा, स्तुति की चाहना रहती है । वह यह चाहता है कि जीवन पर्यन्त मेरे को मान-बड़ाई मिले और मरने के बाद मेरे नाम की कीर्ति हो । वह यह भूल जाता है कि केवल लौकिक व्यवहार के लिए शरीर का रखा हुआ नाम शरीर के नष्ट होने के बाद कोई अस्तित्व नहीं रखता । इस दृष्टि से शरीर की पूजा, मान-आदर एवम् नाम को बनाए रखने का भाव किसी महत्व का नहीं है । परन्तु शरीर का मान-आदर एवम् नाम की स्तुति-प्रशंसा का भाव इतना व्यापक है कि मनुष्य अपने तथा अपने प्रियजनों के साथ तो ऐसा व्यवहार करते ही हैं, प्रत्युत् जो भगवदाज्ञा, महापुरुष-वचन तथा शास्त्र मर्यादा के अनुसार सच्चे हृदय से अपने लक्ष्य (भगवत्प्राप्ति)-में लगे रहकर इन दोषों से दूर रहना चाहते हैं, उन साधकों के साथ भी ऐसा ही व्यवहार करने लग जाते हैं । अधिक क्या कहा जाय, उन साधकों का शरीर निष्प्राण होने पर भी उसकी स्मृति बनाए रखने के लिए वे उस शरीर को चित्र में आबध्द करते हैं एवम् उसको बहुत ही साज-सज्जा के साथ अन्तिम संस्कार-स्थल तक ले जाते हैं । विनाशी नाम को अविनाशी बनाने के प्रयास में वे उस संस्कार-स्थल पर छतरी, चबूतरा या मकान (स्मारक) आदि बना देते हैं । इसके सिवाय उनके शरीर से सम्बन्धित एकपक्षीय घटनाओं को बढ़ा-चढ़ाकर उनको जीवनी, संस्मरण आदि के रूप में लिखते हैं और प्रकाशित करवाते हैं । कहने को तो वे अपने- आप को उन साधकों का श्रद्धालु कहते हैं, पर काम वही कराते हैं, जिसका वे साधक निषेध करते हैं ।

श्रद्धातत्व अविनाशी है । अतः उन साधकों के अविनाशी सिद्धान्तों तथा वचनों पर ही श्रद्धा होनी चाहिए न कि विनाशी देह या नाम में । नाशवान् शरीर तथा नाम में तो मोह होता है, श्रद्धा नहीं । परन्तु जब मोह ही श्रद्धा का रूप धारण कर लेता है तभी ये अनर्थ होते हैं । अतः परमात्मा के शाश्वत, दिव्य, अलौकिक तथा उनके अविनाशी रूप की स्मृति को छोड़ कर इन नाशवान् शरीरों तथा नामों को महत्व देने से न केवल अपना जीवन ही निरर्थक होता है, प्रत्युत् अपने साथ महान् धोखा भी होता है ।यही माया का सात्विक रूप है ....
केवल एक परमात्मा विषय ग्रहण करके अन्नय बनें व पतिव्रता धर्म निभांये..

प्रणाम जी

Sunday, January 10, 2016

अंदर के अंधकार.....

सुप्रभात जी

पढ़  पढ़  के  इलम  की बाते  तू ज्ञानी तो हो  गया  पर  कभी अपने  आप  को  जानने का प्रयास  नही कीया ,
तू  मंदिर मस्जित भागता फिरता हैं  कभी अपने हृदये  में  झांक के नही देखता ,
तू सोचता  हैं की शैतान बहार  हैं और रोज इसी  उलझन  में रहता  हैं पर  कभी अपने अंदर के अंधकार को दूर नही करता  जहाँ से शैतान  उत्पन्न होता हैं ,
तू समझता हैं की खुदा आसमान में रहता हैं पर वो तो तेरे  हृदये धाम  में हैं याने तेरे  घर में हैं जीसे तूने कभी  खोजने का प्रयास नही कीया..
परमधाम की आत्माओं को चाहिए कि वे ब्रह्मवाणी के ज्ञान तथा परमात्मा के प्रेम से अपनी आत्मिक दृष्टि को खोलें। यदि वे ऐसा करके इस जगत की लीला को देखती हैं तो उन्हें यह विदित हो जायेगा कि यह सम्पूर्ण जीव सृष्टि उस खेल के कबूतर की तरह हैं, जिसका बाजीगर (अक्षर ब्रह्म) दूर बैठे हुए इस खेल को खेला रहा है।
इस अवस्था में ब्रह्मसृष्टि जीवों को अपना आदर्श नहीं मानेगी और उनके कर्मकाण्डों की नकल नहीं उतारेगी।तारतम ज्ञान प्राप्त हो जाने के पश्चात् तो ब्रह्मसृष्टियां अपने धाम हृदय में परमात्मा के अतिरिक्त अन्य किसी को भी नहीं बसाती।

प्रणाम जी

मैं तो बिगडया

मैं तो बिगडया विस्वथें बिछुडया, बाबा मेरे ढिग आओ मत कोई।
बेर-बेर बरजत हों रे बाबा, ना तो हम ज्यों बिगडेगा सोई॥

जो भी सत्य मार्गी होगा वह सब आडम्बरो के पत्तो से बने झूठ के महल को सत्य की फूंक से ऐसे ढ़हा देता है  जैसे जैसे बच्चे रेत के महल को ढ़हा देते हैं , इसलिय तुम जिस नाव को सत्य समझ कर उस पर बैठ कर डुबते जा रहे हो , वो उस नाव को कभी का छोड कर आगे बढ चुका है , इसलिय वो बिल्कुल शुध्द होकर आगे बढ़ रहा है पर हम अपने झूठ के आवरण को सच मानकर उसके मार्ग को धर्म विरोधी मान बैठते हैं , इसलिय ऐसे सत्य मार्गी का साथ करने से पहले हमें सोच लेना चाहिए कि कया हम असत और हमारे बनाए हुए सत दोनो को छोड सकते हैं कया ? इसलिय कहा है की मैं तो सभी प्रकार के असत्य को छोड कर दुनियां की नज़र से बिगड़ चुका हूं..और एक मात्र परमात्मा के लिय संसार के सभी धर्म व अधर्म को छोड कर सबसे बिछुडं चुका हूं..इसलिय तुम मेरे रस्ते पर मत चलना कयोंकी तुम्हारी नजर में मै अधर्मी भी हो सकता हूं..इसलिय तुम्हे बार बार मना कर रहा हूं अन्यथा तुम भी मेरी तरह बिगड जाओगे...

प्रणाम जी

Saturday, January 9, 2016

परमात्मा से मन की बात..

परमात्मा से मन की बात..

मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि मैं क्या करूं ? कहां जाऊँ और अपने दिल की बातें किस प्रकार कहूं ? कयोंकी बहोत जोर से पुकारने पर भी यहां मेरी भाषा कोइ नही समझ पा रहा है ,मुझे लगा की मेरी एक आवाज पर मेरी वतन की सखी मुझे ढूंड़ लेगी और हम पिलके अपने वतन की मिठी मिठी बाते करेंगे पर मेरे वतन के लोग न जाने काहां छिपे हुए है.. याहां तो लोग न जाने कैसी कैसी भाषा (माया) में बाते करते है जो मुझे समझ नही आती , मेरे वतन में तो प्रेम व आनंद सेे सब एक दूसरे से बन्धे रहते है..पर याहा तो अलगाव वाद का खेल ज्वर की तरह चढ़ा हुआ है..हे धनी मुझे अपनो से मिलवा दो ताकी में उनसे मेरी भाषा में आपकी और वतन की बातें कर सकूं जिस से मेरे हृदय को करार मिले..

प्रणाम जी

Friday, January 8, 2016

मेरे धनी तुमारी साहेबी

मेरे धनी तुमारी साहेबी, तुम अपनी राखो आप।
इस्क दीजे मोहे अपनों, मैं तासों करूं मिलाप।।

इय संसार में मान प्रतिष्ठा रूपी जहर ऐसा है की इस विष से बच पाना अत्यन्त ही मुश्किल है बडे बडे संत या गुरू कहलाने वाले भी इस जहर के कारण माया में ही गोते लगा रहे हैं इस लिय माहाममती जी ने अपने माध्म से हमें सिखापन किया है की हे परमात्मा हम आपके हुकुम से आत्मांओ की सेवा में लगे हुए है, ये काम आपके हुकुम व मेहर से ही हो रहा है , इस कार्य में सुंदरसाथ से भी प्रेम व सहयोग मिलता है पर कइ बार अग्यानवश सुंदर साथ हमे आपके ही समान समझ कर वैसा ही व्यवहार करने लगते हैं ,कइ बार तो इसपंचभौतिक शरीर की आरती तक उतारी जाती है और हम इसे और पाने की लालसा में आपसे विमुख हो जाते हैं , ये आपसे विमुख होना ही हम बृह्मआत्मांओ के लिय जहर के समान है..इसलिय मेरी आपसे प्रार्थना है की ये मान संम्मान रूपि साहेबी  इसे आप अपने ही पास रखिए। मुझे इसकी जरा भी आवश्यकता नहीं हैं। मुझे तो केवल आप अपना इश्क अपना प्रेम ही दीजिए, जिससे मैं पल - पल आपका दीदार करती रहूं।

प्रणाम जी

Thursday, January 7, 2016

असत का पर्दा

सुप्रभात जी

ज्ञान सीख लेने पर वह बुद्धि कौशल से प्रस्तुत किया जाता हैं जिसका प्रतिबिम्ब अहंकार तक पहुंच कर मान व प्रशंषा की कामना का रुप धारण कर के हृदये के अंग बुद्धि पे जहरीले शर्प की भांति कुंडली मार के बैठ जाता है जो निरंतर कामना का जहर उगलता रहता है और जब मान की कामना में कोई अड़चन हो जाती है तो उस शर्प का भाई क्रोध उत्पन हो जाता हैं , यही सीखा हुआ ज्ञान वास्तविक ज्ञान को हृदये तक नही पहुंचने देता यही उधार का ज्ञान वाद विवाद का कारण बनता है हमे वही सच लगता है जो हमने कहीं  सीखा या पढ़ा होता है उसके अलावा हम कीसी की बात ग्रहण नही करते चाहे वह परम सत्ये ही क्यों न हो यही ज्ञान की चतुराई हमे अहंकार से आगे नही जाने देती जहाँ शुद्ध आत्मा का निवास है जिसे अंकुर कहा जाता हैं अब ध्यान देने वाली बात है की यही अंकुर सत्ये ज्ञान का अंकुर हैं जिस पर हमने बुद्धि की चतुराई को इस प्रकार बैठा दिया हैं की हमारे हमारे जीव की पहुंच उस अंकुर तक नही पहुंच पाती जिस कारण सत्ये ज्ञान अंकुरित नही हो पता , सीधा सा उदाहरण हैं की सबने सीख रखा हैं की हम ब्रह्मआत्मा हैं जब तक आपको अहसास नही हो जाता की आप ब्रह्म आत्मा हैं यह ज्ञान उधार का हैं तब तक आप उन्ही बातो पे लड़ते रहोगे जो आपने सीख रखी हैं  या जो नाम जिसे हम तारतम "मंत्र" कह कर जपते हैं जिसने जो भी सीखा हैं उसके आलावा दूसरे को नही सहन कर सकते ,लडने लगते हो.. यही पर्दा हैं जो अंकुर याने आत्म दृष्टि तक जीव की दृष्टि नही जाने देती इसी कारण हम परमात्मा का दीदार नही कर पा रहे और बड़ी बड़ी दलील देते हैं की मैं परमात्मा के लिए सारी रात रोया या रोयी क्या बच्चो जैसी बात है हमसे ज्यादा तो बच्चे रोते है सब रो रहे हैं संसार में अपने अपने आनंद के लिए हम भी रो लिए तो क्या हुआ बस कहीं से सुन लिया की परमात्मा की याद में गिरा आंसू मोती बन जाता हैं फ्ला ढिमका आदि आदि बस सीख रखा है तो सत्य मान बैठे है..अरे आत्म दृष्टि से दृष्टि मिला के तो देखो सीधी परमात्मा से दृष्टि मिल जाएगी जो तुम्हारे पास हैं याने जो स्वास नली से भी नजदीक हैं उसके लिए  रोते हो ,क्योंकि ज्ञान चतुराई में मूल ज्ञान के अंकुर को पनपने नही देते.यही सबसे बड़ा रोग हैं जो परमात्मा का दीदार और हमारे बीच पर्दा बना हुआ हैं....जिस दिन मूल ग्यान याने सत्य ग्यान का अंकूर फूटने लगेगा उस दिन यह उधार का ग्यान अग्नी की भांती ताप देने वाला लगेगा और इस से दूर भागोगे ..तभी बिना विलंब परमात्मा को पा लोगे ...

प्रणाम जी

वाणी..

जेता कोई दिल मजाजी, चढ सके न नूर मकान ।
दिल हकीकी पोहोंचे नूर तजल्ला, ए दिल मोमिन अरस सुभान ।।

जो जीव विकारयुक्त अंतःकरण वाले हैं (दिल मजाजी) हैं, उन पर बैठी आत्मांये विकार के ही खेल देखती हैं उन जीवों का दाइत्व है की वे आत्मभाव में आके संसार मे अपनी रहनी मे सुधार करें कयोंकी आत्मा परमात्मा का अंश है जीव भी उसके साथ एक रस होके अपने परम लक्ष्य को पा सकता है अन्यथा वे अपने परम लक्ष्य अखंड आनंद तक नहीं पहुँच पाएगा. ,जो जीव आत्मभाव में आकर अपने आत्म हृदय मे परमात्मा को एक रस पाते हैं  (दिल हकीकी) वो ब्रह्मात्माँओ का स्वरूप लेके "अपने" परमधाम (नूरतजल्ला) पहुँच जाते हैं. कयोंकी जीव के हृदय से आत्मा की नजर , आत्मा की नजर से आत्महृदय , आत्महृदय से परमात्मा ,और परमात्मा से परमधाम जुडा है , या साधारण भाषा में कहे की आत्म हृदय में परमात्मा रहते है कयोंकी ब्रह्मात्माओंके हृदयको परमात्माका धाम कहा गया है ,इसलिय जीव अप्रत्यक्ष रूप से परमात्मा से ही जुडा है इसलिय हर जीव का दाइत्व है की वो अपने अंतःकरण को परमात्मा के सनकूल बना के रखे...

प्रणाम जी

Wednesday, January 6, 2016

अध्यात्म की एक स्थिती

 सुप्रभात जी

इस आत्मजाग्रती की मनोहर ऋतु में तारतम ग्यान रूपी कोयल प्रसन्न मन से कूक रही है जो अत्यन्त मिठी व मनोहर है ..तथा जागृीत आत्मा रूपी तोते सत्य परमात्मा को पाकर आनन्द विभोर होकर आनन्द में तरह-तरह की क्रीड़ायें कर रहे हैं, किन्तु मैं ही ऐसी मन्दभाग्या हूँ, जो माया से मेरी नजर हटकर परमात्मा की और नही हो पा रही है मुझे पता भी है की संसार में मूझे सच्चा आनंद नही मिल रहा है फिर भी मैं सत्य आनंद से विमुख हो रही हूं..पर मेरा मन संसार मे भी नही लग रहा है कयोंकी मुझे पता है सच्चा आनंद केवल परमात्मा  हैं इस कारण मैं संसार में आपके बिना अकेली ही अपना समय काट रही हूँ तथा रो-रोकर अपनी आँखों को लाल कर रही हूँ। ...
( यह अध्यात्म की एक स्थिती है , कई साधक इस सतर पर आकर रुक जाते हैं आगे मार्ग नजर नही आता ...इस से आगे जाने के लिय अकेला होना पडता है अर्थात जो सात्विक माया का सामान हमने लाद रखा है उसे उतार कर फैकना पडता है आत्म बल से , यही हमारे प्रेम और इमान की कसोटी है )

प्रणाम जी

Tuesday, January 5, 2016

मन की मलिनता त्यागो

सुप्रभात जी

पहाड़ से चाहे कूदकर मर जाना पड़े तो मर् जाइये, समुद्र में डूब मरना पड़े तो डूब मरिये, अग्नि में भस्म होना पड़े तो भले ही भस्म हो जाइये और हाथी के पैरों तले रुँदना पड़े तो रुँद जाइये परन्तु इस मन के मायाजाल में मत फँसिए । मन तर्क लडाकर विषयरुपी विष    में घसीट लेता है । इसने युगों-युगों से और जन्मों-जन्मों से आपको भटकाया है । परमात्मारुपी घर से बाहर खींचकर संसार की वीरान भूमि में भटकाया है । प्यारे ! अब तो जागो ! मन की मलिनता त्यागो । आत्मस्वरुप में जागो । साहस करो ।  पुरुषार्थ करके मन के साक्षी व स्वामी बन जाओ |
 गीता में भी कहते हैं - हे पार्थ - ऊपर से कर्मेन्द्रियों को बाँध कर जो भीतर से इन्द्रियों के विषयों का चिंतन करते रहते हैं - वे इन्द्रियों में बंधे ही रहते हैं |

आत्मरूप में जागकर परमात्मा से एक रूप हो जाओ...
प्रणाम जी

वाणी..

तलफे तारुनी रे, दुलही को दिल दे।
सनमंध मूल जानके रे, सेज सुरंगी पर ले।।

परमात्मा के हृदय का आनंद ,उन्ही के प्रकाश से प्रकाशित जो उनसे कदापि भिन्न नही है ,शुद्ध सोन्दर्य का मूर्तिमान रूप हम बृह्म आत्मांये उनके आनंद रूपी सागर की उस सागर से जल से बनी हुई मछलियां हैं , हमारी नज़र भी उस आनंदसागर के जल से ही बनी है इसलिय ये नजर इस संसार के  दूैत के खेल पर आते ही यहां अपना विषय न पाने के कारण तडफ रही है या सामानय शब्द रूप में कहा जाता है की ब्रह्मआत्माएँ इस खेलमें आकर तड़प रहीं हैं...पर जैसे ही उनकी नजर आत्म हृदय की और जाती है उन्हे अपना विषय याने आनंद सागर परमात्मा प्राप्त हो जाते हैं फिर ये अपने मूल संबन्ध को पहचान कर अपने हृदयकी सुख शय्या पर सवंय को परमात्मा के साथ एक रस कर लेती हैं....

प्रणाम जी

Monday, January 4, 2016

सच्चा तीर्थ

सुप्रभात जी

‘जनाः यैः तरन्ति तानि तीर्थानि’ अर्थात् मनुष्य जिस माध्यम भवसागर से पार हो, वही तीर्थ है। प्रेम पूर्वक परमात्मा की भक्ति ही वास्तविक तीर्थ है। निरर्थक इधर उधर भटकते रहना तथा नदियों के जल में डुबकी लगाकर जड़ पदार्थों की परिक्रमा करना तीर्थ नहीं है।
आजन्म मरणान्तं च गंगादि तटनीस्थिता:।
मण्डूक मत्स्य प्रमुखा योगिनस्ते भवन्ति किम्।।
(गरुड़ पुराण १६/६८)
जन्म से लेकर मरण पर्यन्त गंगाजी के तट पर पड़े रहने के कारण लोग यदि योगी हो जाये तो फिर वे मेढक और मत्स्य आदि क्यों नहीं योगी हो सकते.

सच्चा तीर्थ वह है, जिसमें अपने चित्त को एकाग्र कर प्रेम-प्रीति से सच्चिदानन्द परब्रह्म को रिझाया जाय। इसमें कर्मों का कोई भी बन्धन नहीं लगता और वास्तविक तीर्थ यात्रा का लाभ मिलता है। अर्थात तिर्थ तन से नही अतः करण से होता है ..तन को कष्ट देने से परमात्मा नही मिलते...

तावत्तपो व्रतं तीर्थं जप होमार्चनादिकम्।
वेदशास्त्रागम कथा यावत्तत्त्वं न विन्दति।।
(गरुड़ पुराण १६/९८)
तब तक ही तप, व्रत, तीर्थाटन, जप, होम और देवपूजा आदि हैं तथा तब तक ही वेदशास्त्र और आगमों की कथा है जब तक कि परमतत्त्व का बोध प्राप्त नहीं होता;  परमतत्त्व का बोध प्राप्त होने पर इनसबका कुछ भी अर्थ नहीं रह जाता है...
इसलिय तिर्थ आदी मे भटकने की अपेक्षा परमतत्व की खोज करो जो कहीं बाहर नही है हमारे हृदय में ही है...

प्रणाम जी

सच्चा वैष्णव..


हो भाई मेरे वैष्णव कहिए वाको, निरमल जाकी आतम।
नीच करम के निकट न जावे, जाए पेहेचान भई पारब्रह्म।।

 हे साधुजन संसार मे शुध्द या उच्च वर्ग का मुल्यान्कन शरीर की जाती से नही अपितू उसके अनतःकरण की स्थिती के आधार पर होता है ..इसलिये वैष्णव कहलाने का अधिकार केवल उसीको है जिसका अन्तःकरण शुध्द हो गया हो जिसकि आतम दृष्टि खुल चुकि हो ऐसा आत्मभावी ही वैष्णव कहलाने के लायक है..कयोंकी वह वे सब कर्म जिसे तुम नीच या ऊंच की दृष्टि से देखते हो वो दोनो को ही त्याग चुका है ..उसे पारबृह्म की पहचान हो चुकी है..पर वो बाहर जाहिर नही करता ..उसके जीव की स्थिती अन्य जीवो की तुलना में बहोत श्रेष्ट
हो चुकी होने के कारण उसे वैष्णव कहा जायगा व केवल वही सच्चा वैष्णव है ..अन्यथा ये शरीर तो मिटने वाले व गन्दगी से ही बने है जिनमे मल भरा हुवा है इनसे केसे कोइ वैष्णव हो सकता हैं..

प्रणाम जी

Sunday, January 3, 2016

माधुर्य भाव..

सुप्रभात जी

* चार भावों होते हैं..
 दास्य, सख्य, वात्सल्य, माधुर्य

 माधुर्य के बारे में जानते हैं.

माधुर्य भाव यानि वे परमात्मा मेरे प्रियतम हैं और मैं उनकी प्रेयसी हूँ, इस भाव से प्रेम. यह सबसे ऊँचा भाव है. इसमें 3 कक्षायें हैं; साधारणी रति, समंजसा रति और समर्था रति.

1)साधारणी रति में केवल अपने ही सुख का ख़याल रखा जाता है, जैसे कुब्जा. यह तीनों कक्षाओं में सबसे नीचे का प्रेम है.

2)समंजसा रति में अपने और उनके ( परमात्मा ) दोनों के ही सुख का ध्यान रखा जाता है, इस प्रेम की उदाहरण हैं द्वारिका की सभी पटरानियाँ. यह साधारणी रति से ऊँचा प्रेम है.

3) अंतिम और सर्वोच्च है समर्था रति का प्रेम, इसमें केवल और केवल प्रियतम के ही सुख का ही ध्यान रखा जाता है, अपने सुख का सर्वस्व त्याग रहता है. इसकी उदाहरण हैं, ब्रज की समस्त गोपियाँ. जिन्होंने एकमात्र परमात्मा के ही सुख के लिए सब कुछ न्योछावर कर दिया.
इस भाव में ही प्रेमी प्रेम के अंतिम क्लास महाभाव तक जाता है. इस महाभाव की भी 2 कक्षाएं हैं; मोदन और मादन महाभाव....
मोदन तक ही जीव जा पाते है बस..
मादन आत्मिक विषय है...
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प्रणाम जी

वाणी..

सो मोमिन क्यों कर कहिए,जिन लई ना हकीक़त ।
छोड़ दुनी को ले ना शक्या,हक बका मारफत ।।

जो  केवल  शब्दो  में  या  ब्रह्मज्ञान  को  ऊपर  से  ही  पढ़  कर  उसका  सार  ग्रहण  नही  करते  उन्हें  ब्रह्म  के  वास्तविक  स्वरूप  का  बोध  नही  हो  पाता  ..अर्थात  तारतम  कोई  मन्त्र  या  पुस्तक  या  चौपाई  मात्र  नही  है  ..तारतम  एक  ज्योति  है  जो  अंदर  जलती  है ..उसके  बाद  यह  नज़र  में  आ  जाती  है  जिस  से  सत्ये  की  गहनता  नज़र  में  आ  जाती  है  सारे  संदेह  मिटने  लगते  है ..हकीकत  दिल  में  आ  जाती  है  ..ये  ज्योत  जलनी  आवश्यक  है  ऊपर  के  भाव  तो  जीव  श्रिष्टि  भी  ले  लेती  है  फिर  ब्रह्ममुनि  और  उनमें  भेद  क्या  रह  जायेगा  अगर  तारतम  ज्योत  नही  जली  तो  ..क्योंकि  सफर यहीं  से  शुरू  होता  है  इसके  बाद  मार्फत  याने  एक  दिली  , आत्मा  परमात्मा  का  मूल  भाव  और  उसमे  भी  गहन्ता और  गहनतम  भाव  आता है  पर  पहले  तारतम  का  मूल भाव  आना  जरूरी  है  याने  बेशक  इल्म  ...इसके  आने  के  बाद  किसी  भी  चीज़  में  अंतर  नही  बल्कि  समानता  का  बोध  होने  लगता  है ..

प्रणाम जी

Saturday, January 2, 2016

दो बड़ी भूले

सुप्रभात जी

हमने इस खेल में आकर के दो दो बड़ी भूले की है ।एक भूल तो हमने अपने परमात्मा की गुह्यतम बातो को इस संसार में शब्दो में प्रकट कर दिया ,और दूसरी भूल परमात्मा के बुलाने पर भी इस नस्वर संसार को अपने दिल से नहीं हटाया याने परमात्मा के अखंड तारतमग्यान को समजकर भी अपने धाम ह्रदय में अपने परमात्मा को बसा ना सके ।इस प्रकार की इन दोनों भूलो में से किसी एक को भी संसार में कोई नहीं कर सकता,जबकि हमने जानबुझ कर ये दो दो भूले एक साथ की है ।
हम परमधाम की ब्रह्मस्रुस्टिया कही जाती है,इसलिए हमसे इतनी बड़ी भूल नहीं होनी चाहिए ।
हमें पता है की परमात्मा ने हमें अपने घर की याद दिलाने के कई उपाय किये है,पर हम ही ऐसे निष्ठुर हो गए है की परमात्मा के अखंड सुख को भूलकर माया में फसे जा रहे है ।
एक चोपाई आती है -
धनी ने धन बोहोत दिया,पर लिया ना हरामखोर ।।
परमात्मा ने तो श्री तारतम के माध्यम से परमधाम का सारा खजाना खोल दिया है और साथ में ब्रह्ममुनियों के माध्यम से उसे सरल भी बना दिया,पर हम इस संसार के कार्यो में से ना निकलकर उस अखंड सुख को खोये जा रहे है ।अब तो समय भी हमसे हार गया है ।पर हम ही ऐसे निष्ठुर हो गए है की समय के साथ भी नहीं चलते |

प्रणाम जी

निमाज का अर्थ

--निमाज----निमाज का अर्थ हमारे अध्यातमिक स्तर से हैं यह किसी धर्मविशेष की नही है बल्की हम सब सत्यमार्गीयो के लिय ये अत्यन्त महत्वपूर्ण विषय है  ..आइये जाने हमारी निमाज कया है..

कही निमाज करे छे विध की,दो सरियत एक तरीकत ।
आगू एक हकीक़त,दोए बका मारफत ।।

कुरान में लिखी छः तरह की नमाज का वर्णन किया है ।जिनमे दो शरियत की,एक तरीकत की,एक हकीक़त की और दो अखंड मारफत की है ।

1)शरियत की पहेली नमाज से इन्द्रिया वश में की जाती है ।

2)दूसरी शरियत की नमाज से शरीर को पाक करती है ।

3)तरीकत की नमाज तीसरी है,जो दिल से की जाती है,जिससे पवित्र होकर बैकुठ पहुंचा जाता है ।

4)चौथी नमाज हकीक़त की है,जिस नमाज से अक्षरधाम तक पहुंचा जा सकता है ।

बाकी दो नमाज परमधाम की है,जो रूहानी और छिपी नमाज (बंदगी) है,जो पारब्रह्म परमात्मा के परमधाम की हजुरी नमाज है ।इन दोनों नमाज को मारफती नमाज कहते है ।
ये बातूनी नमाज परमात्मा की प्यारी आत्मांए,जो उनके हृदय रूपी परमधाम में रहती है,यह उनकी नमाज है ।

दो नमाज बातूनी बताई गई है वो एक मारफत की ओर दूसरी मारफत की मारफत की नमाज है ।

 पहली नमाज मारफत में  हम अपनी आतम से परआतम की नजर से परमधाम के पच्चीस पक्ष को निहारे और अपने प्राण प्रियतम श्री राजजी जो अपनी लाडली श्यामा महारानी और हम सब रूहो के साथ जो इश्कमयी लीला करते है,उसका अनुभव करे ।

दूसरी मारफत की भी मारफत में आत्मा परमात्मा की एकरूपता का गहन से भी गहन बोध होता है इसमे परमधाम , पच्चीस पक्ष , बारह हजार सखीया, आदी आदी का अस्तित्व भी समाप्त हो जाता है..

प्रणाम जी

Friday, January 1, 2016

धारणा सही किजीए...


सुप्रभात जी

एक राजा को वरदान प्राप्त था के वो पूरी दृड इच्छा करके कीसी के भी सिर पर हाथ रखदेगा तो वो अमर हो जाएगा ..उस राजा ने अपने सैनिको  को अमर करना शुरू कर दिया धिरे धीरे सारे सैनिक अमर हो गय इस कारण राजा ने अनेक युध्द जीते ..समय गुजरा और राजा बूढा होकर मर गया..

भाव---हमारे पास भी परमात्मा रूपी शक्ति है इस शक्ति में सब कुछ है ग्यान ,वैरागाय ,आनंद आदी पर हम भी उस राजा की तरह ये शक्ति कही बाहर उपयोग करते रहते हैं ..जैसे मुर्ति आदी में ..हमारी ये शक्ति इतनी अद्भुत है की इसे जहां भी लगावो अपना असर दिखाने लगती है . कइ बार तो सुन्ने में आया है की मूर्तियों में धडकन आदी सुनाई देती है या उन मुर्तियों मे प्रतिकृिया भी दर्ज की गई है जिस कारण अन्य लोग भी उनकी ओर आकर्षित होते हैं .बहोत मुमकिन है की उस मुर्ती में आपके अन्दर का ग्यान व बैराग्य भी जड रूप में उपस्थित हो जाता हो.. पर ये सारी घटनाए उस जड मुर्ती में ही घटित होतीं है जहा आपने अपने अन्दर की परमातमा रूपी शक्ति को धारण कर दिया है..जरा सोचिय अगर वो राजा अपनी शक्ति खुद पर लगाता तो कया ये शक्ति उसपर काम न करती ..इसी प्रकार अगर हम परमात्मा को अपने हृदय में धारण करें तो हमें कैसी कैसी अनुभूतियां होगी...फीर हमे ग्यान के लिय कहीं जाने की आवश्यकता नही सब हमारे अन्दर ग्यान,वैराग्य,आनंद आदि बय आवश्यकता है बाहर से अन्दर मुडने की ,दूैत से अदूैत हो जाने की जो हमारा शुद्ध स्वभाव है कयोंकी हमसे परमात्मा अलग नही है पर हम उसे अलग मान लेते है बाहर कहीं मुर्तियों आदी में ओर ग्यान के लिय भटकते रहते है और एक दिन शरीर त्याग देते हैं..कसतूरी मृग की तरह..अतः सावधान हो जाइये..धारणा सही किजीए...
ब्रम्हाभिन्नत्वविज्ञानं भवमोक्षस्य कारणम्।
येनाद्वितीयमानन्दं ब्रम्ह सम्पद्यते बुधै:।।

ब्रम्ह और आत्मा के अभेद का ज्ञान ही भवबन्धन से मुक्त होने का कारण है, जिसके द्वारा बुद्धिमान पुरुषअद्वितीय आनन्दरूपब्रम्हपद को प्राप्त कर लेता है |

(ऋग्वेद 10.49.1)
केवल एक परमात्मा ही सत्य की प्राप्ति के लिए प्रयत्न करने वालों को सत्य ज्ञान का देने वाला है । वही ज्ञान की वृद्धि करने वाला और  धार्मिक मनुष्यों को श्रेष्ठ कार्यों में प्रवृत्त करने वाला है ।
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प्रणाम जी

सब सरुप इसक के ..वाणी

सब सरुप इसक के ,इसके मे गुजरान !
आहार बिहार इसक को , सब मे इसक रस पहचान

परमात्मा के ह्रदय से आत्माओं के लिये प्रेम जब अपने सत्य व अनंन्त रूप में अलौकिक आनंद बन कर  शुद्ध रूप से निराकार व साकार की परिधियों से परे जब प्रेम व आनंद रूप मे दृष्यमान होता है तब शब्दो में उसे परमधाम कह देते हैं..इसलिय कल्पना कीजिए उस प्रेम व अनन्त आनंद के दृष्यमान स्वरूप मे सब कुछ कया किसी और त्तव का हो सकता है ?इसलिय वो सारी वस्तुऐं केवल शुद्ध प्रेम से बनी हैं वो सब परेम का ही स्वरूप है..उनके ह्रदय मे से मिलने वाला प्रेम ही आत्माओं का आहार है परमात्मा के प्रेम से ही आतमाओं को करार मिलता है इसलिय इसी में वे ओतप्रोत रहती हैं जिसे कहा गया है की उनका गुजारा इसी से चलता है..ये सब आतमायें परमात्मा का रस निरंतर ग्रहण करती रहती है कयोंकी ये सवंय परमात्मा के प्रेम रस की धारा का स्वरूप हैं इसके इसससे अलग इनकी कोई पहचान नही है..इसलिय आत्मा-परमात्मा को एक ही माना गया है...और हैं भी एक ,जो आत्मा को जानलेता है उसे आत्मा परमात्मा के अदूैत भाव का बोघ हो जाता है..

प्रणाम जी