Tuesday, January 5, 2016

वाणी..

तलफे तारुनी रे, दुलही को दिल दे।
सनमंध मूल जानके रे, सेज सुरंगी पर ले।।

परमात्मा के हृदय का आनंद ,उन्ही के प्रकाश से प्रकाशित जो उनसे कदापि भिन्न नही है ,शुद्ध सोन्दर्य का मूर्तिमान रूप हम बृह्म आत्मांये उनके आनंद रूपी सागर की उस सागर से जल से बनी हुई मछलियां हैं , हमारी नज़र भी उस आनंदसागर के जल से ही बनी है इसलिय ये नजर इस संसार के  दूैत के खेल पर आते ही यहां अपना विषय न पाने के कारण तडफ रही है या सामानय शब्द रूप में कहा जाता है की ब्रह्मआत्माएँ इस खेलमें आकर तड़प रहीं हैं...पर जैसे ही उनकी नजर आत्म हृदय की और जाती है उन्हे अपना विषय याने आनंद सागर परमात्मा प्राप्त हो जाते हैं फिर ये अपने मूल संबन्ध को पहचान कर अपने हृदयकी सुख शय्या पर सवंय को परमात्मा के साथ एक रस कर लेती हैं....

प्रणाम जी

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