सुप्रभात जी
अखंड ग्यान को मथ के उसका सार तत्व ग्रहण करना चाहिय..कयोंकी सार से ही जागर्ती आती है जीव में..इसलिय अखण्ड ज्ञान द्वारा जागृत हुआ जीव अपने मन को कर्मों की प्रवृत्ति से अलग करलेता है। इसका परिणाम यह होता है कि मन के अधीन रहने वाले अन्य अंगों (इन्द्रियों) में भी यही स्थिति बन जायेगी। जब जीव अपने साथी मन को जागृत करेगा, तब मन भी जीव की भाषा बोलने लगेगा। इस प्रकार जीव और मन एक ब्रह्मानन्द के रंग में रंग जायेंगे।ओर जीव को ब्रह्मका बोध हो जाता है , और जब जीव को ब्रह्म का बोध होता है तो विषयों में भटकने वाला मन भी इससे अछूता नहीं रहता। मन ही इन्द्रियों का राजा है। ब्रह्मानन्द की रसधारा मन को कर्म बन्धन से अलग कर देती है। उस समय जीव और मन एक ही आनन्द के रंग में डूब जाते हैं। इसलिय ब्रह्मग्यान को केवल पढने या पाठ करने से काम नही चलेगा , उसको मथके सार लेना होगा , जिस प्रकार सागर के रत्न पाने कि इच्छा लेकर अगर उपर ही तैरते रहे तो कुछ समय अवधी के बाद निश्चित ही थक कर डूब जाते है , पर जिनको पता है की रत्न सतह पर नही गहराई में हैं वे सफलता पर्वक रत्न ढ़ूंड लेते हैं...
प्रणाम जी
अखंड ग्यान को मथ के उसका सार तत्व ग्रहण करना चाहिय..कयोंकी सार से ही जागर्ती आती है जीव में..इसलिय अखण्ड ज्ञान द्वारा जागृत हुआ जीव अपने मन को कर्मों की प्रवृत्ति से अलग करलेता है। इसका परिणाम यह होता है कि मन के अधीन रहने वाले अन्य अंगों (इन्द्रियों) में भी यही स्थिति बन जायेगी। जब जीव अपने साथी मन को जागृत करेगा, तब मन भी जीव की भाषा बोलने लगेगा। इस प्रकार जीव और मन एक ब्रह्मानन्द के रंग में रंग जायेंगे।ओर जीव को ब्रह्मका बोध हो जाता है , और जब जीव को ब्रह्म का बोध होता है तो विषयों में भटकने वाला मन भी इससे अछूता नहीं रहता। मन ही इन्द्रियों का राजा है। ब्रह्मानन्द की रसधारा मन को कर्म बन्धन से अलग कर देती है। उस समय जीव और मन एक ही आनन्द के रंग में डूब जाते हैं। इसलिय ब्रह्मग्यान को केवल पढने या पाठ करने से काम नही चलेगा , उसको मथके सार लेना होगा , जिस प्रकार सागर के रत्न पाने कि इच्छा लेकर अगर उपर ही तैरते रहे तो कुछ समय अवधी के बाद निश्चित ही थक कर डूब जाते है , पर जिनको पता है की रत्न सतह पर नही गहराई में हैं वे सफलता पर्वक रत्न ढ़ूंड लेते हैं...
प्रणाम जी
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