Monday, January 11, 2016

माया का सात्विक रूप..

कया हम अन्नय हैं ??माया का सात्विक रूप
सुप्रभात जी

(कृप्या निर्विकार भाव के से विषय की गहन्ता ग्रहण करें)

परमात्मा की असीम, अहैतुकी कृपा से ही जीव को मानव शरीर मिलता है । इसका एकमात्र उद्देश्य केवल परमात्माप्राप्ति ही है । परन्तु मनुष्य इस शरीर को प्राप्त करने के बाद अपने मूल उद्देश्य को भूल कर शरीर के साथ दृढ़ता से तादात्म्य कर लेता है और इसके सुख को ही परम सुख मानने लगता है । शरीर को सत्ता और महत्ता देकर उसके साथ अपना सम्बन्ध मान लेने के कारण उसका शरीर से इतना मोह हो जाता है कि इसका नाम तक उसको प्रिय लगने लगता है । शरीर के सुखों में मान-बड़ाई का सुख सबसे सूक्ष्म होता है । इसकी प्राप्ति के लिए वह झूठ, कपट, बेईमानी आदि दुर्गुण-दुराचार भी करने लग जाता है । शरीर नाम में प्रियता होने से उसमें दूसरों से अपनी प्रशंसा, स्तुति की चाहना रहती है । वह यह चाहता है कि जीवन पर्यन्त मेरे को मान-बड़ाई मिले और मरने के बाद मेरे नाम की कीर्ति हो । वह यह भूल जाता है कि केवल लौकिक व्यवहार के लिए शरीर का रखा हुआ नाम शरीर के नष्ट होने के बाद कोई अस्तित्व नहीं रखता । इस दृष्टि से शरीर की पूजा, मान-आदर एवम् नाम को बनाए रखने का भाव किसी महत्व का नहीं है । परन्तु शरीर का मान-आदर एवम् नाम की स्तुति-प्रशंसा का भाव इतना व्यापक है कि मनुष्य अपने तथा अपने प्रियजनों के साथ तो ऐसा व्यवहार करते ही हैं, प्रत्युत् जो भगवदाज्ञा, महापुरुष-वचन तथा शास्त्र मर्यादा के अनुसार सच्चे हृदय से अपने लक्ष्य (भगवत्प्राप्ति)-में लगे रहकर इन दोषों से दूर रहना चाहते हैं, उन साधकों के साथ भी ऐसा ही व्यवहार करने लग जाते हैं । अधिक क्या कहा जाय, उन साधकों का शरीर निष्प्राण होने पर भी उसकी स्मृति बनाए रखने के लिए वे उस शरीर को चित्र में आबध्द करते हैं एवम् उसको बहुत ही साज-सज्जा के साथ अन्तिम संस्कार-स्थल तक ले जाते हैं । विनाशी नाम को अविनाशी बनाने के प्रयास में वे उस संस्कार-स्थल पर छतरी, चबूतरा या मकान (स्मारक) आदि बना देते हैं । इसके सिवाय उनके शरीर से सम्बन्धित एकपक्षीय घटनाओं को बढ़ा-चढ़ाकर उनको जीवनी, संस्मरण आदि के रूप में लिखते हैं और प्रकाशित करवाते हैं । कहने को तो वे अपने- आप को उन साधकों का श्रद्धालु कहते हैं, पर काम वही कराते हैं, जिसका वे साधक निषेध करते हैं ।

श्रद्धातत्व अविनाशी है । अतः उन साधकों के अविनाशी सिद्धान्तों तथा वचनों पर ही श्रद्धा होनी चाहिए न कि विनाशी देह या नाम में । नाशवान् शरीर तथा नाम में तो मोह होता है, श्रद्धा नहीं । परन्तु जब मोह ही श्रद्धा का रूप धारण कर लेता है तभी ये अनर्थ होते हैं । अतः परमात्मा के शाश्वत, दिव्य, अलौकिक तथा उनके अविनाशी रूप की स्मृति को छोड़ कर इन नाशवान् शरीरों तथा नामों को महत्व देने से न केवल अपना जीवन ही निरर्थक होता है, प्रत्युत् अपने साथ महान् धोखा भी होता है ।यही माया का सात्विक रूप है ....
केवल एक परमात्मा विषय ग्रहण करके अन्नय बनें व पतिव्रता धर्म निभांये..

प्रणाम जी

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