जीव और आत्मा मे कया भेद है ???
अगर साधारण भाषा में कहें तो जीव का अर्थ है इस शरीर को चलाने वाली उर्जा ये नारायण की प्रतिबिम्म सक्ति है जो सब जीवो मे प्रतिबिम्बित हो रही है जीव ही सुख दुख भोगता है जनम मरण के बन्धन मे पडता है कर्म बन्धन मे बन्धता है..यह सवप्न से बना है और सवप्न मे ही लय या शुप्त अवस्था को प्राप्त होता है..
जबकी आत्मा सवप्न से नही अपीतू अखंड धाम से जीवों पे आके बैठती है .. ये जन्म नही लेती ..जन्म के बाद जीव पे आकर बैठ जाती है याहा के खेल देखने के लिये ..जैसे हम प्रमधाम की आतमायें इस सनसार के जीवो पे आकर बैठ गयी है (परआतम की नज़र ही आतम कहलाती है अन्यथा अखंड का कोइ भी इस सवप्न मे नही आ सकता)
आपको जानकर हैरानी होगी की आतमायें सब मनुषयों मे नही होती..और आतमायें केवल मनुष्यों के जीव पे ही आकर बैठती है ..जीव जन्तूओ मे आत्मा नही होती इसका प्रमाण गीता मे भी है ..गीता के शुरु के कुछ अधयायो मे जीव और आतमा का पूरा विवरण है.. बाइबल और कुरान मे भी इसका विवरण है.. परन्तु तारतम ग्यान के अभाव मे कोइ भी इस भेद को खोल नही पाया था ..
सृष्टि के प्रारम्भ से आज तक कोई भी जीव और आत्मा का भेद स्पष्ट नहीं कर पाया था । वैदिक साहित्य में भी दोनो को पुल्लिंग तथा समानार्थक ही माना गया है । श्री प्राणनाथ जी की वाणी (तारतम) के द्वारा इस भेद का निरूपण हुआ ।
भी वासना जीव का बेवरा एता , ज्यों सूरज दृष्टें रात ।
जीव का अंग सुपन का , वासना अंग साख्यात ।। (श्रीमुख वाणी- क. हि. २३/६१)
जीव और आत्मा में इतना अन्तर है जितना रात और सूर्य में है । जीव की उत्पत्ति स्वप्न के स्वरूप (आदि नारायण) से है, जबकि आत्मा साक्षात् परब्रह्म का अखण्ड और अनादि अंग है ।
भी बेवरा वासना जीव का , याके जुदे जुदे हैं ठाम ।
जीव का घर है नींद में , वासना घर श्री धाम ।। (श्रीमुख वाणी- क. हि. २३/६२)
आत्मा और जीव में यह भी अन्तर है कि इनके मूल घर अलग-अलग हैं । जीव का मूल घर नींद (निराकार) में है तथा आत्मा का मूल घर परब्रह्म का अनादि एवं अखण्ड परमधाम है ।
ए सबे तुम समझियो , वासना जीव विगत ।
झूठा जीव नींद न उलंघे , नींद उलंघे वासना सत ।। (श्रीमुख वाणी- )
आत्मा और जीव में यह भी अन्तर है कि झूठा जीव स्वप्न से उत्पन्न होने के कारण नींद (निराकार) को पार नहीं कर पाता । जबकि आत्मायें निराकार एवं अक्षरधाम को भी पार करके अपने मूल घर अखण्ड परमधाम में पहुँच जाती हैं ।
श्रुति के कथनानुसार नारायण ही जीवों के साक्षात् परब्रह्म हैं और जीव उनका प्रतिभास रूप हैं। जीव स्वतन्त्र नही हैं, अपितु पराधीन हैं । वे मोह, अविद्या और अहंकार से ही बने हैं और जन्म-मरण एवं सुख-दुःख (कर्मफल भोग) के चक्र में ही फँसे रहते हैं । जीव माता के गर्भ में प्रवेश करता है । मनुष्य शरीर के अतिरिक्त जीव अनेक योनियों में भी शरीर (जीवन) धारण करता है । नारायण का स्वप्न टूटते ही अर्थात् महाप्रलय होते ही जीव उनमें समा जाते हैं ।
आत्मा अनादि और अखण्ड है । वह कभी गर्भ में नहीं आती, अपितु जन्म के पश्चात् ही शरीर में प्रवेश करती है । आत्मा कभी भी मनुष्य तन के अतिरिक्त किसी अन्य योनि में शरीर धारण नहीं करती । परब्रह्म का स्वरूप होने से वह प्रेम व आनन्द में मग्न रहती हैं । वे एक क्षण के लिए भी उनसे अलग नहीं हो सकती ।
जीव उस अविनाशी ब्रह्म को माता, पिता, स्वामी, सखा, आदि अनेक भावों का रूप मानकर स्तुति करता है । जबकि आत्मा उस परब्रह्म की अभिन्न अंग होने के कारण अनन्य प्रेम भाव के मार्ग पर चलती हैं । आत्मा के इस अलौकिक प्रेम को प्रदर्शित करने के लिए वेदों में कहीं-कहीं आत्मा का परब्रह्म के लिए पत्नी (स्त्री) भाव वर्णित किया गया है-
मै इस पाप-दहन करने के सामर्थ्य वाली, अज्ञान की विरोधिनी, अत्यधिक बलवती ब्रह्मविद्या को खोदती हूँ या प्राप्त करती हूँ, जिससे सौत- अविद्या या माया का विनाश किया जाता है और जिससे आत्मा अपने एकमात्र पति परब्रह्म को प्राप्त कर लेती है । (ऋग्वेद १०/१४५/२ ।। अथर्ववेद ३/१८/१)
अन्ततः निष्कर्ष यह है कि जीव व आत्मा में वही अन्तर है जो झूठ (स्वप्न) और सत्य में है।
Satsangwithparveen.blogspot.com
प्रणाम जी
अगर साधारण भाषा में कहें तो जीव का अर्थ है इस शरीर को चलाने वाली उर्जा ये नारायण की प्रतिबिम्म सक्ति है जो सब जीवो मे प्रतिबिम्बित हो रही है जीव ही सुख दुख भोगता है जनम मरण के बन्धन मे पडता है कर्म बन्धन मे बन्धता है..यह सवप्न से बना है और सवप्न मे ही लय या शुप्त अवस्था को प्राप्त होता है..
जबकी आत्मा सवप्न से नही अपीतू अखंड धाम से जीवों पे आके बैठती है .. ये जन्म नही लेती ..जन्म के बाद जीव पे आकर बैठ जाती है याहा के खेल देखने के लिये ..जैसे हम प्रमधाम की आतमायें इस सनसार के जीवो पे आकर बैठ गयी है (परआतम की नज़र ही आतम कहलाती है अन्यथा अखंड का कोइ भी इस सवप्न मे नही आ सकता)
आपको जानकर हैरानी होगी की आतमायें सब मनुषयों मे नही होती..और आतमायें केवल मनुष्यों के जीव पे ही आकर बैठती है ..जीव जन्तूओ मे आत्मा नही होती इसका प्रमाण गीता मे भी है ..गीता के शुरु के कुछ अधयायो मे जीव और आतमा का पूरा विवरण है.. बाइबल और कुरान मे भी इसका विवरण है.. परन्तु तारतम ग्यान के अभाव मे कोइ भी इस भेद को खोल नही पाया था ..
सृष्टि के प्रारम्भ से आज तक कोई भी जीव और आत्मा का भेद स्पष्ट नहीं कर पाया था । वैदिक साहित्य में भी दोनो को पुल्लिंग तथा समानार्थक ही माना गया है । श्री प्राणनाथ जी की वाणी (तारतम) के द्वारा इस भेद का निरूपण हुआ ।
भी वासना जीव का बेवरा एता , ज्यों सूरज दृष्टें रात ।
जीव का अंग सुपन का , वासना अंग साख्यात ।। (श्रीमुख वाणी- क. हि. २३/६१)
जीव और आत्मा में इतना अन्तर है जितना रात और सूर्य में है । जीव की उत्पत्ति स्वप्न के स्वरूप (आदि नारायण) से है, जबकि आत्मा साक्षात् परब्रह्म का अखण्ड और अनादि अंग है ।
भी बेवरा वासना जीव का , याके जुदे जुदे हैं ठाम ।
जीव का घर है नींद में , वासना घर श्री धाम ।। (श्रीमुख वाणी- क. हि. २३/६२)
आत्मा और जीव में यह भी अन्तर है कि इनके मूल घर अलग-अलग हैं । जीव का मूल घर नींद (निराकार) में है तथा आत्मा का मूल घर परब्रह्म का अनादि एवं अखण्ड परमधाम है ।
ए सबे तुम समझियो , वासना जीव विगत ।
झूठा जीव नींद न उलंघे , नींद उलंघे वासना सत ।। (श्रीमुख वाणी- )
आत्मा और जीव में यह भी अन्तर है कि झूठा जीव स्वप्न से उत्पन्न होने के कारण नींद (निराकार) को पार नहीं कर पाता । जबकि आत्मायें निराकार एवं अक्षरधाम को भी पार करके अपने मूल घर अखण्ड परमधाम में पहुँच जाती हैं ।
श्रुति के कथनानुसार नारायण ही जीवों के साक्षात् परब्रह्म हैं और जीव उनका प्रतिभास रूप हैं। जीव स्वतन्त्र नही हैं, अपितु पराधीन हैं । वे मोह, अविद्या और अहंकार से ही बने हैं और जन्म-मरण एवं सुख-दुःख (कर्मफल भोग) के चक्र में ही फँसे रहते हैं । जीव माता के गर्भ में प्रवेश करता है । मनुष्य शरीर के अतिरिक्त जीव अनेक योनियों में भी शरीर (जीवन) धारण करता है । नारायण का स्वप्न टूटते ही अर्थात् महाप्रलय होते ही जीव उनमें समा जाते हैं ।
आत्मा अनादि और अखण्ड है । वह कभी गर्भ में नहीं आती, अपितु जन्म के पश्चात् ही शरीर में प्रवेश करती है । आत्मा कभी भी मनुष्य तन के अतिरिक्त किसी अन्य योनि में शरीर धारण नहीं करती । परब्रह्म का स्वरूप होने से वह प्रेम व आनन्द में मग्न रहती हैं । वे एक क्षण के लिए भी उनसे अलग नहीं हो सकती ।
जीव उस अविनाशी ब्रह्म को माता, पिता, स्वामी, सखा, आदि अनेक भावों का रूप मानकर स्तुति करता है । जबकि आत्मा उस परब्रह्म की अभिन्न अंग होने के कारण अनन्य प्रेम भाव के मार्ग पर चलती हैं । आत्मा के इस अलौकिक प्रेम को प्रदर्शित करने के लिए वेदों में कहीं-कहीं आत्मा का परब्रह्म के लिए पत्नी (स्त्री) भाव वर्णित किया गया है-
मै इस पाप-दहन करने के सामर्थ्य वाली, अज्ञान की विरोधिनी, अत्यधिक बलवती ब्रह्मविद्या को खोदती हूँ या प्राप्त करती हूँ, जिससे सौत- अविद्या या माया का विनाश किया जाता है और जिससे आत्मा अपने एकमात्र पति परब्रह्म को प्राप्त कर लेती है । (ऋग्वेद १०/१४५/२ ।। अथर्ववेद ३/१८/१)
अन्ततः निष्कर्ष यह है कि जीव व आत्मा में वही अन्तर है जो झूठ (स्वप्न) और सत्य में है।
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प्रणाम जी
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