Tuesday, January 19, 2016

इश्क/प्रेम

इस्क है हमारी निसानी, बिना इस्क दुलहा मैं रानी। इस्क बिना मैं भई वीरानी, बिना इस्क न सकी पेहेचानी।।

 परमात्मा की प्रिय आत्माओं की पहचान की  ही इश्क (प्रेम) से है। यदि आत्माओं के हृदय में अपने परमात्मा के लिये इश्क नहीं है, तो आत्माओं का जीवन निरर्थक है । इश्क के बिना आत्माओं का हृदय सूना  है। इस खेल में भी आत्माऐं पहले अपने परमात्मा को इसलिये पहचान नहीं सकी थी क्योंकि उनके पास उस समय प्रेम ही नहीं था।
कई बार हम इश्क और प्रेम में भेद मान लेते हैं..पर इन दौनो में शब्द मात्र का ही भेद है इसलिय यह कहना उचित नहीं है कि परमधाम में मात्र इश्क ही है, प्रेम नहीं; प्रेम तो बेहद मण्डल में है। इस का उत्तर यह है कि श्री मुख वाणी में हिन्दी और फारसी शब्दों का प्रयोग कहीं-कहीं पर साथ-साथ किया गया है, जैसे-
इश्क प्रेम जब आइया, तब नेहेचे मिलिए हक।
 कि. १७/१६
आशा उमेद जे हुज्जतूं ,सभ तूंही उपाइए।
 सिन्धी ५/६२
उपरोक्त कथनों में इश्क और उम्मेद फारसी भाषा के शब्द हैं, तथा प्रेम और आशा हिन्दी और संस्कृत भाषा के हैं। परिक्रमा ग्रन्थ के पहले प्रकरण की चौ. ३२-४0 तक में परमधाम में प्रेम के होने का स्पष्ट वर्णन है। उस की एक झलक इस प्रकार है-
याके प्रेमैं के भूखन, याके प्रेमैं के हैं तन। याके प्रेमैं के वस्तर, ए बसत प्रेम के घर।। याके प्रेम सेज्या सिनगार, वाको वार न पाइए पार। प्रेम अरस परस स्यामा स्याम, सैयां वतन धनी धाम।।
 परि. १/३३,३९
इसलिय शब्दो में ना उलझ कर सार ग्रहण करना चाहिए...

प्रणाम जी

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