Friday, July 31, 2015

परमात्मा का सम्बोधन

सुप्रभात जी


पुराण संहिता अध्याय २३ में अक्षरातीत व उनकी आत्माओं के बीच, अखण्ड परमधाम (अखण्ड योगमाया से परे दिव्य ब्रह्मपुर धाम) में, हुए प्रेम-विवाद का भी सांकेतिक वर्णन है, जो निम्नलिखित है

अक्षरातीत पूर्ण ब्रह्म अपनी आत्माओं से कहते हैं, प्रकृति की लीला मोहित करने वाली तथा अपने अमृतमयी आनन्द रूपी दीवाल को स्याही की तरह काली करने वाली है, जहां केवल प्रवेश करने मात्र से अपनी बुद्धि नहीं रहती है ।।५६।। पांच तत्वों से बने हुए शरीर को ही अपने आत्मिक रूप में माना जाता है, जिससे आत्मिक गुण तो छिप जाते हैं ।।५७।। और उनकी जगह मोह जनित दोष पैदा हो जाते हैं । हे सखियों ! तुम वहां जाकर माया के ही कार्यों को करोगी । जिस माया में आत्मा के आनन्द को हरने वाली तृष्णा रूपी पिशाचनी है ।।५८।। जहां काम, क्रोध, आदि छः शत्रु स्थित हैं, जो जीव को पाप में डूबोकर तथा क्रूर कर्म कराकर उसे बलहीन करके लूट लेते हैं ।।५९।। वहां जाकर तुम यहां के अपने स्वाभाविक गुणों, सौन्दर्य और चतुरता के विपरीत हो जाओगी । मुझे तुम कहीं भी नहीं देखोगी और हमेशा ही मुझको भूली रहोगी ।।७८।।

प्रणाम जी

रहस्य

ब्रज रास दोऊ अखण्ड, कर चेतन बुधि फिरे मन।
ए ब्रह्माण्ड तीसरा, जहां महम्मद आये रोसन।।
(श्री बीतक)
अक्षर ब्रह्म की जागृत बुद्धि के स्वरूप केवल ब्रह्म में होने वाली यह लीला उनके चित्त स्वरूप सबलिक के महाकारण में अखण्ड हो गयी। इसी प्रकार ब्रज लीला भी सबलिक ब्रह्म के कारण में अखण्ड हो गयी। रास लीला के पश्चात् सखियों के मन (सुरता) वहाँ से वापस परमधाम आ गये। पुनः यह कालमाया का जागनी ब्रह्माण्ड बना, जिसमें मुहम्मद (सल्ल.) ने आकर अखण्ड ज्ञान का प्रकाश किया।
भावार्थ-
इस चौपाई के दूसरे चरण में कथित ‘फिरे मन’ का तात्पर्य है, ‘सखियों की सुरता का ब्रज-रास से वापस अपने परमधाम में आ जाना।’
ब्रज से रास में सखियों के पहुँचते ही इस ब्रह्माण्ड का प्रलय हो गया। एक रंचक न राखी चौदे लोक की, महाप्रले कह्यो ऐसो अंत’ कि. 13/8 से यही निष्कर्ष निकलता है।
महारास की लीला में 12000 नूरमयी तनों में एक-एक ब्रह्मसृष्टि तथा दो-दो ईश्वरी सृष्टि (कुमारिका) विद्यमान थीं। ईश्वरी सृष्टि के जीव ब्रजलीला में अखण्ड हो गये थे। पूर्व में प्राप्त वरदान के कारण इस नये ब्रह्माण्ड में उनकी 24000 सुरतायें आयीं जिन्हें प्रतिबिम्ब की सखियां कहा गया।
इसी प्रकार सबलिक के महाकारण में होने वाली महारास का प्रतिबिम्ब सबलिक के स्थूल (अव्याकृत के महाकारण) में पड़ा, जिससे मुग्ध होकर वेदों ने उस लीला में स्वयं को शामिल करने की प्रार्थना की।
इस प्रार्थना के स्वीकार होने पर वेदों ने 12000 सखियों का रूप धारण कर इस नये ब्रह्माण्ड में लीला का सुख लिया। इस प्रकार पूर्व ब्रह्माण्ड की तरह ही 36000 सखियां हो गयी। प्रगटवाणी के शब्दों में-
ए तीसरा इण्ड नया भया जो अब, अछर की सूरत का सब।
याही सूरत की सखियां भई, प्रतिबिम्ब वेद ऋचा जो कहीं।। प्र0हि0 37/53
इस नये ब्रह्माण्ड के श्रीकृष्ण जी में न तो अक्षरब्रह्म की आत्मा थी और न अक्षरातीत का जोश-आवेश। केवल रास बिहारी की शक्ति ने नये ब्रह्माण्ड के श्रीकृष्ण जी में विराजमान होकर एक रात्रि की रास लीला की। इसके पश्चात् सात दिन गोकुल में तथा चार दिन तक मथुरा में इसी शक्ति ने लीला की। जब कंस को मारकर श्रीकृष्ण जी ने ग्वाले का वेश उतार दिया तथा राजसी वस्त्र धारण किया तो रास बिहारी की शक्ति भी श्रीकृष्ण जी के तन को छोड़कर ब्रज मण्डल में विद्यमान राधा जी के तन में स्थित हो गयी।

प्रणाम जी

अनमोल अवसर


जीव को ८४ लाख योनियों के बाद आवागमन से छूटने के लिए मनुष्य तन प्राप्त होता है । परन्तु यह तो तभी सम्भव है जब उसे अपने मूल स्वरूप तथा धाम का पता हो । आज दिन तक सभी मानव, देवी-देवता तथा अवतार इस लक्ष्य को खोज-खोज कर हार गए, परन्तु कोई यह भी न जान सका कि मै कौन हूँ, कहाँ से आया हूँ और मुझे जाना कहाँ है ? कलयुग में अवतरित तारतम ज्ञान ने, न केवल इन सब उलझनों को सुलझा दिया, अपितु परमार्थ सिद्धि व अखण्ड मुक्ति का मार्ग भी दिखाया है । श्री मुख वाणी में वर्णित अद्भुत विहंगम मार्ग (चितवनि) के द्वारा सरलता से उन लक्ष्यों को प्राप्त किया जा सकता है, जिन्हें प्राप्त करने के लिए मनुष्यों ने कई जन्मों तक तथा देवी-देवताओं ने कई कल्पांतों तक कठोर तपस्या की परन्तु सफल न हो सके





सरोवर के किनारे अपने आश्रम में तप करते-करते
मार्कण्डेय ऋषि को नारायण के दर्शन हुए । ऋषि ने
माया देखने की इच्छा प्रकट की । अतः नारायण ने
उनके ऊपर अज्ञान रूपी नींद का आवरण डाला ।
मार्कण्डेय ऋषि ने देखा कि प्रलय के जल में एक
बालक बह रहा है । उनकी सुरता(ध्यान) उसमें चली गयी ।
वहां अनेक योनियों में उन्होंने अनेक तन धारण
करते हुए सांसारिक क्रिया कलापों में बहुत दुःख
भोगा तथा माया में तल्लीन हो गये । तभी साधु भेष में नारायण ने उनसे भेंट की और उनको
प्रबोधित किया कि वे तो मार्कण्डेय ऋषि हैं ।
अज्ञान रूपी नींद के हटते ही उन्होंने पाया कि वे
उसी सरोवर के किनारे बैठे हैं तथा नारायण उनके
सामने विराजमान हैं । अर्थात् अभी एक क्षण भी
व्यतीत नहीं हुआ था ।

जिस प्रकार मार्कण्डेय ऋषि ने माया देखने की इच्छा की थी, उसी प्रकार अनादि परमधाम में ब्रह्मआत्माओं ने अक्षरातीत परब्रह्म से माया देखने की इच्छा की थी । उनकी इच्छा पूरी करने के लिए सच्चिदानन्द परब्रह्म ने अपनी आत्माओं को वहां बैठे-बैठे दृष्टि (सुरता) मात्र से यह मायावी खेल दिखाया है । परमधाम की आत्मायें इस मायावी जगत में अपने प्राणवल्लभ अक्षरातीत को भूल गयी हैं । उनको जागृत करने के लिए स्वयं परब्रह्म इस कलयुग मे पधारे है।

Thursday, July 30, 2015

सुप्रभात जी

सास्त्र पुरान भेख पंथ खोजो , इन पैंडों में पाइए नाहीं ।

सतगुर न्यारा रहत सकल थें , कोई एक कुली में काँही ।। (श्री मुख वाणी- किरन्तन ५/७)

शास्त्रों और पुराणों के विद्वानों, तरह-तरह की वेशभूषा धारण करने वाले महात्माओं और विभिन्न पन्थों में तुम भले ही खोजते रहो, लेकिन सदगुरु का स्वरूप नहीं मिलेगा । सदगुरु का स्वरूप इन सबसे अलग ही होता है । वास्तविक सदगुरु तो इस कलयुग में कहीं एक ही होगा ।

सदगुरु वही है जो धर्म ग्रन्थों के द्वारा वास्तविक सत्य को प्रकट करे । सभी धर्मग्रन्थों का मूल आशय एक ही होता है । सभी मनीषियों के कथनों में एकरूपता होती है, लेकिन अज्ञानी लोग अलग अलग समझते हैं ।

वेद, उपनिषद, दर्शन, सन्त वाणी, कुरान तथा बाइबल इत्यादि में एक ही परब्रह्म को अनेक प्रकार से बताया गया है । छः शास्त्रों के रचनाकारों ने सृष्टि बनने के छः कारणों की अलग-अलग व्याख्या की है । उसमें तत्वतः कोई भेद नहीं है, किन्तु अल्पज्ञ लोग भेद मानकर लड़ते रहते हैं । सत्यदृष्टा मनीषियों का कथन सभी कालों में समान ही होता है ।

प्रणाम जी
अक्षरातीत नूरजमाल , ए तरफ जाने अछर नूर ।

एक या बिना त्रैलोक को , इन तरफ की न काहू सहूर ।। (श्रीमुख वाणी- सि. २/५४)

अर्थात् एकमात्र अक्षर ब्रह्म ही पूर्णब्रह्म अक्षरातीत  के विषय में जानते हैं । उनके अतिरिक्त सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को अक्षरातीत की कोई भी जानकारी नहीं है । अतः पूर्ण ब्रह्म का विषय अति गोपनीय है तथा तारतम ज्ञान के बिना उन्हें नहीं जाना जा सकता है ।

उस तेजोमय कोश में तीन अरे (अक्षर ब्रह्म, पूर्ण ब्रह्म तथा आनन्द अंग) तीन (सत् चित् आनन्द) में प्रतिष्ठित हैं । उसमें जो परम पूज्यनीय तत्व, परमात्मस्वरूप हैं, उसका ही ब्रह्मज्ञानी लोग ज्ञान किया करते हैं । (अथर्ववेद १०/२/३२)

वह परब्रह्म सत् , चिद् , आनन्द लक्षणों वाला है, इसलिए उसे सच्चिदानन्द कहते हैं । परब्रह्म स्वयं चिदघन स्वरूप हैं, उनकी सत्ता का स्वरूप अक्षर ब्रह्म हैं तथा आनन्द का स्वरूप श्री श्यामा जी हैं । यह तीनों मिलकर सच्चिदानन्द स्वरूप कहलाते हैं । वैसे तो वह तीनों एक ही स्वरूप माने जायेंगे, परन्तु उनमें लीला रूप में भेद है । अक्षर ब्रह्म सत्ता के स्वरूप हैं जबकि अक्षरातीत अपनी आनन्द अंग श्यामा जी व आत्माओं के साथ पवित्र प्रेम व आनन्द की लीला करते हैं ।

अक्षरातीत पूर्ण ब्रह्म श्री राज जी का स्वरूप अक्षर ब्रह्म की भांति सर्वदा एकरस रहता है । उनके स्वरूप में न तो ह्रास होता है, न ही विकास । उनका स्वरूप नूरमयी (शुक्रमयी), अनन्य प्रेममयी और आनन्दमयी है ..

प्रणाम जी

सर्व कया है

जो व्यक्ति स्वयं में परमात्मा को नहीं जानता है, वह सर्व में उसे कभी भी नहीं जान सकता है। जो अभी स्वयं में भी उसे नहीं पहचान पाया, वह और किसी में उसे नहीं पहचान पा सकता है। स्वयं का मतलब है, जो मेरे निकटतम है। और फिर तो कोई भी होगा तो मुझसे थोड़ा दूर और दूर और दूर ही होगा। और निकटतम मैं हूं, उसमें भी मुझे परमात्मा दिखाई न पड़ता हो, तो:. मुझसे जो दूर हैं, उनमें तो कभी भी नहीं दिखाई पड सकता है।

पहले तो स्वयं में ही जानना होगा। पहले तो जानने वाले में ही जानना होगा। वह निकटतम द्वार है। लेकिन ध्यान रहे, यह बहुत मजे की बात है कि जो व्यक्ति स्वयं के द्वार में प्रवेश करता है, वह अचानक सर्व में प्रविष्ट हो जाता है। स्वयं का द्वार सर्व का ही द्वार है। जो अपने भीतर प्रवेश करता है, वह भीतर पहुंचते ही पाता है कि वह सबके भीतर पहुंच गया है। क्योंकि बाहर से हम सब भिन्न—भिन्न हैं, लेकिन भीतर से हम भिन्न—भिन्न नहीं हैं।


असल में सर्व का मतलब ऐसा नहीं है कि मैं और तू के जोड़ का नाम सर्व है। ऐसा नहीं। सर्व का अर्थ मैं और सब तू का जोड़ नहीं है। सर्व का मतलब है जहां, मैं न रह गया, तू न रह गया। फिर जो शेष रह जाता है, उसका नाम सर्व है। और अगर मेरा मैं अभी नहीं मिटा है, तो मैं सर्व का जोड़ ही कर सकता हूं, लेकिन वह जोड़ सत्य न होगा। सारे पत्तों को भी मैं जोड़ लूं तो भी वृक्ष नहीं बनता है, यद्यपि वृक्ष में सारे पत्ते जुड़े हैं। वृक्ष सारे पत्तों के जोड़ से ज्यादा है। असल में जोड़ से कोई संबंध ही नहीं है, जोड़ना ही गलत है। जोड्ने में हमने अलग— अलग मान ही लिया है। वृक्ष अलग — अलग है ही नहीं। जैसे ही हम मैं में उतर जाएं, वैसे ही मैं विलीन हो जाता है। स्वयं में उतरते ही जो सबसे पहली चीज मिटती है, वह स्वयं का होना है। और जहां, स्वयं मिट गया, वहां, तू भी मिट गया, पराया भी मिट गया। फिर जो शेष रह जाता है, वह सर्व है।

प्रणाम जी

Wednesday, July 29, 2015




यथाऽदर्शे तथाऽत्मनि यथा स्वप्ने तथा पितृलोके।
यथाप्सु परीव ददृशे तथा गन्धर्वलोके छायातपोरिव ब्रह्मलोके ।।५।।
इस मनुष्य देह में आत्मज्ञान इतना स्पष्ट होता है जैसे आप अपने को दर्पण में देखते हो। पितृलोक में यह ज्ञान वैसे ही होता है जैसे आप अपने को स्वप्न में अनुभव करते हो। गन्धर्वलोक में कैसा आत्मज्ञान होता है? सुन्दर दृष्टान्त है। जैसे जल में आप अपनी परिछाहीं देखते हो। स्थिर हुआ जल तो बन गई बात और जहाँ चंचल हुआ जल, सारी चीज बिखर गई। ब्रह्मलोक में आत्मज्ञान छाया की तरह होता है। आप धूप में खडे हैं और आप की ही छाया पड रही है। इसका तात्पर्य यह है कि मनुष्य लोक में जो बोध होता है वह निर्मलतम है..

मनुष्य देह रूपी अनमोल धन हमे प्राप्त हुआ है इसके दुारा ही परमात्मा को प्राप्त किया जा सकता है इसलिय आत्मजाग्रती के मार्ग पर चलकर अती शिघ्र अपना जीवन सफल बनाना चाहिय..

प्रणाम जी
चार  पदार्थ  पामिया  रे ,    ऐ  थी  लीजिये  धन  अखण्ड ।

अवसर  आ  केम  भूलिये ,       जेथी  धणी  थाय  ब्रह्माण्ड ।। ( श्री मुख वाणी- किरन्तन १२८/४९)

अर्थात् चार अनमोल पदार्थ यथा कलयुग , भारतवर्ष , मनुष्य तन और ब्रह्मज्ञान ( तारतम ) पाकर इन्हें व्यर्थ नहीं खोना चाहिए , अपितु प्रत्येक क्षण का सदुपयोग कर अखण्ड धन (परब्रह्म का साक्षात्कार ) प्राप्त करना चाहिए ।

महामुनि कपिल जी सांख्य दर्शन में कहते हैं कि तीनों प्रकार के दुखों ( दैहिक, दैविक, भौतिक ) से पूर्ण रूप से छूटकर ब्रह्मानन्द को प्राप्त करना ही जीवन का सबसे बड़ा पुरुषार्थ है। ( सांख्य १/१ )

प्रणाम जी

Tuesday, July 28, 2015

साकाम कर्म हानीकारक



मनुष्य स्वभावतः सकाम कर्म ही करता है । पहले वह कुछ कामनायें करता है फिर उसकी पूर्ति के लिये योजना बनाता है और कर्म में प्रवृत्त होता है । यदि उस योजना के अनुसार उसे अपना इच्छित फल नहीं प्राप्त होता तो वह या तो कर्म त्याग देता है या उसकी दिशा मोड़ देता है । किन्तु कर्म करने का यह सही तरीका नहीं है । संभव है इस प्रकार कामना करते हुये कर्म करने से उसे कुछ या बहुत सारे भोग पदार्थ प्राप्त हो जायें और उसे लगे कि वह जीवन में सफल है, फिर भी हम कह सकते हैं कि न तो उसका कर्म करने का तरीका ठीक है और न ही वह सफल है । यहाँ हम सकाम कर्मों के कुछ दोषों का उल्लेख करते हैं जिनका भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में वर्णन किया है ।
सकाम कर्म का एक दोष 'प्रत्यवाय' है । इसका अर्थ है - 'विपरीत फल' । सकाम कर्म यदि विधिपूर्वक पूरा नहीं किया जाता तो फल प्राप्त होने के बदले हानि भी हो सकती है । यदि कोई धन कमाने के लिये व्यापार प्रारम्भ करे तो उसे अपने पास से कुछ धन उसमें लगाना पड़ेगा । अब यदि वह समय से वस्तुओं को खरीदे-बेचे नहीं, आलस्य करे या मन लगाकर व्यापार न करे तो लाभ होने के बदले उसकी अपनी पूँजी भी कम हो जायेगी । इसी प्रकार स्वस्थ होने की कामना से गलत औषधि का सेवन करना या पथ्य का भली-भाँति पालन न करना घातक हो जाता है ।
सकाम कर्म का एक दोष बुद्धि की निश्चयात्मकता का ह्रास होना है । गीता में भगवान कहते हैं-
भोगैश्वर्यप्रसक्तानां तयापहृतचेतसाम् ।
व्यवसायत्मिका बुद्धिः समाधौ न विधीयते ।।२-४४।।
जो लोग भोग व ऐश्वर्य में अत्यन्त आसक्त होते हैं उनकी कर्मफल पाने की इच्छा और चिन्ता के कारण सत् -असत् विवेक क्षमता समाप्त हो जाती है । व्यवसायात्मिका बुद्धि न होने के कारण वे सर्वो साध्य को भूलकर साधनभूत कर्मों में ही लिप्त रहते हैं ।

निषकर्श-- कर्मो में आशक्त न हो कर सर्वो साध्य परमात्मा को साधना चाहिय..
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प्रणाम जी
 प्रणाम जी
प्रशन -परारब्द कया है कया परारब्द से हम मुक्त हो सकते है ??

प्रारब्ध कर्म---("प्रकर्षेण आरब्धः प्रारब्धः" अर्थात अच्छी तरह से फल देने के लिए जिसका आरंभ हो चुका है,वह प्रारब्ध है)
संचित मे से जो कर्म फल देने के लिए उन्मुख होते है ,उन कर्मो को प्रारब्ध कर्म कहते हैं।प्रारब्ध कर्मो का फल अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति के रूप मे सामने आता है;परंतु उन प्रारब्ध कर्मो को भोगने के लिए प्राणियों की प्रवृत्ति तीन प्रकार की होती है-1स्वेच्छा पूर्वक,2.अनिच्छा पूर्वक ,3.परेच्छा पूर्वक ।
कर्मो का फल 'कर्म' नही होता,प्रत्युत 'परिस्थिति' होती है अर्थात प्रारब्ध कर्मो का फल परिस्थिति रूप से सामने आता है। प्रारब्ध कर्मो से मिलने वाले फल के दो भेद होते है-'प्राप्त फल' और 'अप्राप्त फल'। वर्तमान काल मे सबके सामने जो अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति आती है उसे 'प्राप्त फल' और जो अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति भविष्य मे आने वाली है वो "अप्राप्त फल' कही जाती है।
क्रियमाण कर्मो का जो फल -अंश संचित मे रहता है,वही प्रारब्ध बनकर अनुकूल,प्रतिकूल और मिश्रित परिस्थिति के रूप मे बनकर मनुष्य के सामने आता है।अतः जबतक संचित कर्म रहते है, तब तक प्रारब्ध बनता ही रहता है और प्रारब्ध परिस्थिति के रूप मे परिणत होता ही रहता है

प्रारब्द से मुक्ति का उपाए



जो आत्म चिंतन में लीन रहते है जो सत्ये मार्गी बनना चाहते हैं जो अभी मार्ग तलाश रहे हैं यदि उनको जग का भी आभास है तो या उनका मन अभी जग से नही हटा है तो समझना चाहिए की उनके प्रारब्द अभी उनकी बाधा बने हुए हैं जब तक सुख दुःख अनुभव होते  है तब तक प्रारब्द ही माना जायेगा इसको समाप्त करने का उपाए परमात्मा की प्रेरणा से आपको बताने का प्रयास किया जा रहा है अत: सावधानी पूर्वक ग्रहण करें |

जिस प्रकार स्वप्न में किये हुए कर्म स्वप्न टूटते ही नष्ट हो जाते है ठीक वेसे ही जब हमे निज स्वरुप का बोध हो जाता है तो हमारे सरे संचित कर्म नष्ट हो जाते हैं जिस प्रकार सपने के पाप पुण्ये का कभी फल नही मिलता उसी प्रकार जब ये संसार स्वप्न जैसा प्रतीत होने लगेगा तो  हम भी इस के कर्म बंधन से मुक्त हो जायेंगे जिस प्रकार शराब के जाम में मदिरा डाल देने से जाम को नशा नही होता वह उस से अछुता रहता है उसी प्रकार हम भी इस संसार के कर्मो और प्रारब्द से मुक्त रहेंगे |
कहा जाता है की कर्म सब को भोगना पड़ता है और प्रारब्द बड़ा बलवान है  पर जो सदा चित को परमात्मा में स्थित रखते है उनको प्रारब्द नही सताता उसके सभी संचित और वर्तमान के कर्मों से मुक्ति मिल जाती है
क्योंकि परमात्मा में चित रखने वाले का भाव हमेशा जागृत रहता है क्योंकि परमात्मा स्वपन से परे  है इसलिए वो सदेव जागृत है उनमे ध्यान लगाने वाला भी जागृत भाव में आ जाता है और उसको स्वपन के कर्म (संगृहीत और वर्तमान व भविष्य )  से छुटकारा मिल जाता है ....

 प्रणाम जी 
यामें  प्रेम  लछन  एक  पारब्रह्म  सों ,   एक  गोपियों  ए  रस  पाया ।
तब   भवसागर   भया   गौपद   बछ ,        विहंगम   पैंडा   बताया ।। ( श्री मुख वाणी- कि. ३२/९ )

प्राणवल्लभ अक्षरातीत की अनन्य प्रेम लक्षणा भक्ति का रसमयी मार्ग केवल गोपियों ने ही पाया , जिससे उनके लिए यह अथाह भवसागर गाय के बछड़े के खुर से बने हुए गड्ढे की तरह छोटा हो गया । तब उन्होंने बड़ी सरलता से इसे वैसे ही पार कर लिया जैसे कोई पक्षी एक ही उड़ान में अपनी मंजिल तक पहुँच जाता है ।
ब्रह्मज्ञान तारतम से ही इस मार्ग का पता चल सका है । इस मार्ग पर चलने के लिए तीन बातों की आवश्यकता है- तारतम ज्ञान , परब्रह्म के प्रति अटूट निष्ठा (ईमान) व प्रेम । तारतम ज्ञान का बोध हुए बिना न तो क्षर, अक्षर व अक्षरातीत के सभी रहस्यों का पता चल सकता है , न ही दृढ़ निष्ठा जागृत हो सकती है ..

प्रणाम जी

Monday, July 27, 2015

स्वर्ग नरक है या नही??

स्वर्ग नरक है या नही??

शंकराचार्य का कथन है कि तृष्णा का नाश ही स्वर्ग का पद है। इस कथन से इतना तो स्पष्ट है ही कि हमें किसी स्थल विशेष को स्वर्ग नहीं समझ लेना चाहिए। स्वर्ग हमारी आन्तरिक दशा ही है।गीता के अनुसार काम, क्रोध और लोभ नरक के तीन द्वार हैं। इन तीनों को एक शब्द में तृष्णा भी कह सकते है। तृष्णा के कारण मनुष्य पाप कर्म करता है और नरक जाता है। उसे इस जीवन में और आगे आने वाले जीवन में नाना प्रकार की यातनायें भोगनी पडती हैं। तृष्णा नष्ट हो जाने पर काम, क्रोध आदि विकार नहीं रह जाते। निर्विकार मन से कोई पाप नहीं करता। वह तो पुण्य कार्य ही करता है। पुण्यों के कारण अपने अन्दर जो सुखानुभूति होती है वह स्वर्ग ही है। यह सुखानुभूति घटती-बढती और आती-जाती रहते है, इसलिए इसे लोक ही समझना चाहिए। यह मुक्ति की अवस्था नहीं है।
(मणिरत्नमाला से उदधृत)
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प्रणांम जी

पूजनिय कौन



तिन कबीले में रहना , पूजे  पानी  आग पत्थर।
बेसहूर  इन   भांत   के , जान  बूझ  जले  काफर।।
जड़ पूजा को वाणी तथा अन्य ग्रंथो में वर्जित  किया  गया है।
इसको अन्य उदाहरणों से समझें-
अंधतमः प्रविशन्ति ये सम्भूति उपासते.- यजुर्वेद
जो १ चेतन परमात्मा को छोड़कर जड़ की उपासना करता है, वह घोर अंधकार  में चला जाता है.
कबीर जी कहते हैं-
पत्थर पूजे हरी मिले तो मै पूजू पहाड़।।

पुराण संहिता के इश्क़ रब्द के प्रसंग में अक्षरातीत राज जी कहते हैं-
फूल्ल पद्मम् सरः त्यक्त्वा मृगतृष्णाम् नु धावथः।
मामानन्दम् परित्यज्य पाषणम् पूजयिष्यथः।।
मेरे आनंद को छोड़कर तुम संसार में पत्थर की पूजा करोगे और वही हो रहा है।
आज ब्रम्हज्ञान के आने के बाद भी अगर हम जड़ की पूजा करते रहे तो तारतम ज्ञान लेने का कोई लाभ नहीं है.
इसलिए चेतन परमात्मा की उपासना करें।
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प्रेम प्रणाम जी
कई  दरवाजे  खोजे  कबीरें ,     बैकुण्ठ  सुन्य  सब  देख्या ।

आखिर  जाए  के  प्रेम  पुकारया ,  तब  जाए  पाया  अलेखा ।। ( श्री मुख वाणी- कि. ३२/१० )

कबीर जी ने ब्रह्म प्राप्ति के लिए अनेक मार्गों को अपनाया । उन्होंने वैकुण्ठ-शून्य सबकी अनुभूति की । अन्त में जब प्रेम की सच्ची राह पकड़ी , तब उन्हें उस अलख अगोचर ब्रह्म की प्राप्ति हुई ।

अक्षरातीत पूर्ण ब्रह्म का साक्षात्कार करने के लिए हमें शरीर, मन, बुद्धि आदि के धरातल पर होने वाली उपासना पद्धतियों को छोड़कर श्री प्राणनाथ जी की तारतम वाणी के आधार पर उस मार्ग का अवलम्बन करना पड़ेगा, जिसके विषय में गीता में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि 'पुरुषः स परः पार्थ भक्त्या लभ्यस्तु अनन्यया' अर्थात् वह परब्रह्म अनन्य प्रेम लक्षणा भक्ति द्वारा प्राप्त होता है, जो नवधा आदि सभी प्रकार की उपासना पद्धतियों से भिन्न है। अखण्ड मुक्ति की प्राप्ति भी इसी अनन्य प्रेम द्वारा होती है ..

प्रणांम जी

मन को कांहा लगायें??

भर्तृहरि ने( वैराग्य शतक ३७- ) कहा है -                                                                      "संसार के सुख और भोग बादलों में कौंधने वाली विद्युत के समान अस्थिर हैं । जीवन हवा के झरोकों से लहलहाते कमल के पत्तों पर तैरने वाली पानी की बूँद के समान क्षणभंगुर है । जीवन की उमंगें और वासनाएँ भी अस्थायी हैं । बुद्धिमान को चाहिए कि इन सब बातों को समझकर अपने मन को स्थिरता और धैर्य के साथ ब्रह्मचिन्तन में लगाये । संसार के नाना प्रकार के सुख भोग क्षणभंगुर हैं और साथ ही संसार में आवागमन के कारण हैं । इस संसार का कोई भी सुख स्थिर नहीं है , अतः सुख के लिए मारे मारे फिरना व्यर्थ है । भोगों का संग्रह बंद करो और अपने आशा रूपी बन्धनों के त्याग से निर्मल हुए मन को अपने आत्म स्वरूप में और परब्रह्म में स्थिर करो । भोगों की ओर से मन को हटाकर परब्रह्म में लगाना ही सर्वोतम कार्य है ।

जीवन जल की उतुंग तरंगों के समान चंचल है । यौवन का सौन्दर्य भी कुछ ही दिनों का मेहमान है । धन-सम्पत्ति हवाई महल के समान है । सुख-भोग वर्षाकालीन विद्युत की चमक के समान क्षण भर की झलक मात्र है । प्रेमिकाओं का आलिंगन भी स्थायी नहीं है । अतः संसार के भय रूपी सागर से पार होने के लिए एकमात्र सच्चिदानन्द परब्रह्म में ही ध्यान लगाओ ।

ब्रह्मानन्द का अनुभव करने वाला मनुष्य ब्रह्मा और इन्द्र आदि देवगणों को भी तिनके के समान तुच्छ समझता है । उस परमानन्द के समक्ष उसे तीनो लोकों का राज्य भी फीका प्रतीत होता है । वास्तविक और विशुद्ध आनन्द तो उसी में है । वह ब्रह्मानन्द तो निरन्तर बढ़ता ही जाता है । उसको छोड़कर और सभी सुख तो क्षणिक ही हैं । अतः सभी को उसी सच्चिदानन्द परब्रह्म में मन लगाना चाहिए ।"

वैराग्य कया है

संसार के अभाव से वैराग्य है अगर तो वो संसार का वैराग्य नहीं है, जेसे आपके पास धन नहीं है, और धन से वैराग्य है, जेसे आपको बेटा नहीं हे और बेटे से वैराग्य है, तो यह सही वैराग्य नहीं है। यह तो संसार के अभाव से वैराग्य है , संसार से वैराग्य नहीं है। सही वैराग्य तो तब माना जायेगा जब आपके पास सब कुछ हो जैसे माँ भी हो, बाप भी, बेटा भी हो, धन भी हो और आप समझे रहें की यह सब मिथ्या है। यह है सच्चा वैराग्य। जैसे राजा जनक..
 
    वैराग्य मानसीक विषय है शारीरीक नही..

प्रणाम जी

Sunday, July 26, 2015

Smay ka sadupyog

सुप्रभात जी
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इस जीवन को क्षनिक कहा गय है। यहां तक कि 'न जाने इन स्वांस को फिर आवन होय न होय' जो श्वास हम लेते हैं, उसका भी विश्वास नहीं कि बाहर वापस आये या नहीं। इसलिए हमें अमूल्य अवसर मिला है कि इस शरीर से जो अच्छा कार्य हो सके करें, व्यर्थ में समय को सोकर व्यतीत न करें। इस देह से ही परमात्मा के अखंड आनंद को प्राप्त करें। इस मूल्यवान शरीर को प्राप्त कर इसे व्यर्थ नष्ट न करें। 
जन्म से ही हमारे शरीर के सभी नाशवान हैं। ये सब देखते ही देखते मिट जाएंगे, इस पलभर के जीवनरूपी नाटक में ही उलझ कर न रह जायें। जीवन के एक एक क्षण को स्त्कर्म में लगा दें। इसकी  उपयोगीता को समझ कर सुभ विचारों से भर दें.। 
सिर दे देने पर भी अर्थात अपना सर्वस्व समर्पित कर लाखों करोडो मोहरें लुटा देने पर भी अमूल्य जीवन का एक क्षण लौटाया या बचाया नहीं जा सकता। ऐसे अमूल्य जीवन का एक भी पल अगर व्यर्थ  चला जाता है तो उसके बराबर संसार में कोई हानी नही
इसलिय जल्दी से शरीर रहते प्रमात्मा को प्राप्त कर लेना चाहिए नही तो घोर विनाश है...

प्रणाम जी

सही मार्ग

खोजें कोई न पावहीं, वार ना पाइए पार।
ले बुत बैठावें देहुरे, कहें हमारा करतार।।
(pr14/sanandh)

यहाँ पर कई लोग परमात्माकी खोज करते हैं किन्तु उन्हें प्राप्त नहीं कर सके. कयोंकी वे तीन गुणों की भक्ती मे ही आत्म कल्याण की खोज करते रहे जबकी परमात्मा गुणातीत हैं . वे शब्दो को जप के संतुष्ट रहे पर परमातमा शब्दातीत है . वे इस भवसागरका ही ओर-छोर नहीं पा सके, इसलिए देवालयोंमें र्मूितको पधराकर कहने लगे कि यही हमारे परमात्मा (करतार) है..इसलि वो धर्म विरोधी हो गये कयोंकी ....
शतपथ ब्राह्मण का कथन है कि जो एक परब्रह्म को छोड़कर अन्य की भक्ति करता है , वह विद्वानों में पशु के समान है (शतपथ ब्राह्मण १४/४/२/२२) ।

वेद का कथन है कि उस अनादि अक्षरातीत परब्रह्म के समान न तो कोई है , न हुआ है और न कभी होगा । इसलिए उस परब्रह्म के सिवाय अन्य किसी की भक्ति नहीं करनी चाहिए (ऋग्वेद ७/३२/२३)

भागवत कहती है..

यस्यात्मबुद्धि: कुणपे त्रिधातुके
स्वधी: कलत्रादिषु भौम इज्यधी: ।
यत्तीर्थ बुद्धि: सलिले न कर्हिचि ज्जनेष्वभिज्ञेषु स एव गोखर: ॥
(भागवत १०/८४/१३)

भावर्थ वसुदेवजीके यज्ञ महोत्सव में श्री कृष्णजी उपदेश देते हैं - हे महत्माओं एवं सभासदों । जो मनुष्य कफ़, वात, पित्त इस तीन धातुओं से बने हुए शव तुल्य शरीर को ही "आत्मा, मैं" स्त्री पुत्र आदि को ही अपना और मिट्टि, पत्थर, लकडी आदि पार्थिव विकारों को ही "इष्टदेव" मानता है तथा जो केवल जल को ही तिर्थ समझता है लेकिन ज्ञानी महापुरुषों (चल तीर्थ) को तीर्थ नहीं समझता है, वह मनुष्य होने पर भी पशुओं में नीच गधा के समान है..
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प्रणाम जी

परमगती दाता कौन

आनन्दस्य कुलं प्राप्तं नित्येधाम्नी प्रकिर्तितम । सम्प्रदायश्चिदानन्दो निजानंदै: प्रकाशित: ।।

(श्री माहे०तं०)

सम्पूर्ण चौरासी लाख योनी के प्रमुख श्रोत जीवात्मा (आदि नारायण) से बलवान अक्षर ब्रह्म है क्योंकि इन के द्वारा नारायण की उत्पति हुइ है। अव्यक्त कूतस्थ अक्षर ब्रह्म से परे परमपुरुष परब्रह्म परमात्मा अक्षरातीत हैं । उन से परे कुछ भी नहिं है, वही सब की परम अवधि और परमगति भी है .
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प्रणाम जी

गीता 7/5,6

गीता में श्रीकृष्ण कहते हैं- 'जो कुछ भी सत्त्व, रजस, तमस भाव हैं वे सब मुझसे (परमात्मा से) ही प्रवृत्त होते हैं। मैं उनमें नहीं बल्कि वे मुझमें हैं। इन त्रिगुणों (बृह्मा ,विष्णु ,महेश)से मोहित हुआ यह जगत मुझे अविनाशी को नहीं जानता। इस दैवी गुणमयी मेरी माया के जाल से निकलना कठिन है। जो मुझ को जान लेते हैं वे इस जाल से निकल जाते हैं .

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प्रणाम जी

Saturday, July 25, 2015

 एक गोपी उपर से कूड़ा फेंक रही थी। तो कूड़ा फेंकते हुए उसने आँख मींचते हुए कहा-'
'कृष्णार्पणमस्तु।'
वहाँ से जा रहे थे एक महात्मा। महात्मा ने पूछा- 'मैया,चन्दन(चढ़ाती) हो ? आरती उतारती हो ? फूल (चढ़ाती) हो? जय-जयकार शंख बजाती हो ? हमने सब भक्तों को सुना, लेकिन तू तो कूड़ा चढ़ा रही है।
'उस गोपी ने नीचे आकर महात्मा का हाथ पकड़ लिया। वह गोपी थी बड़ी तेज। उसने कहा-'मेरा धर्म बिगाड़ता है ?'
'क्यों ?'
'प्राण उसे दिया, मन उसे दिया, जीवन उसे दिया तो कूड़ा देने के लिए किसी और का हाथ (पकड़ूँ)?
'यह अनन्यता है।......'

इन जेहेर जिमीसे कोई ना निकस्या, अमल चढयो अति भारी ।
मुझ देखते सैयल मेरी, कैयों जीत के बाजी हारी।।
(वाणी मेरे पियू की न्यारी जो संसार)

इस संसारमें मोह-माया और अहङ्कारका विष इतना अधिक फैल गया है कि उनमेंसे कोई भी बाहर निकल नहीं सकता. कयोंकी सब उलटे रसते पर जा रहे है ..और जो सीधा है उसका किसी को अभ्यास नही है ...रस्ते केवल दो ही है एक जड़ और दूसरा चेतन जब हम जड़ पूजा की और जा रहे होते हैं तो चेतन को पीठ रहती है जब चेतन को जाते हैं तो जड को..अगर कोइ ये सोचता है की वो जड़ से चेतन को पा लेगा तो यह बहोत बडा भ्रम है ..पर अन्नत जन्मों से जड़ पूजा के कारण जीव के कारण शरीर मे जड़ता संसकार रूप मे विरामान है इसलिय इसे चेतन की बात विपरीत या धर्म विरोधी लगती हैं..मार्ग बताने वाले भी इसी रोग से ग्रसित होने के करण यह बिमारी पिढी दर पिढी चली आ रही है ..सब कीसी के बताए रस्ते पर जा रहे हैं .. खुद की खोज कोइ नही करना चाहता ..जो की आत्म कल्याण के लीय परम आवशयक है.. इसलिय मेरे देखते-देखते अनेक लोगोंने यह मानव-तनरूपी शुभावसर प्राप्त करके भी उसे गँवा दिया.

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प्रणाम जी

सच्चा धन

अष्टावक्र कहते हैं कि धन की दौड़ तो उस आदमी की है जिसे भीतर बैठे परमात्मा का पता नहीं। जिसे भीतर बैठे परमात्मा का पता चल गया वह तो धनी हो गया, उसे तो मिल गया धन। राम—रतन धन पायो! अब उसे कुछ बचा नहीं पाने को। अब कोई धन धन नहीं है; धन तो उसे मिल गया, परम धन मिल गया। और परम धन को पा कर फिर कोई धन के पीछे दौड़ेगा?

छोटे थे तुम तो खेल—खिलौनों से खेलते थे, टूट जाता खिलौना तो रोते भी थे; कोई छीन लेता तो झगड़ते भी थे। फिर एक दिन तुम युवा हो गये। फिर तुम भूल ही गये वे खेल—खिलौने कहां गये, किस कोने में पड़े—पड़े धीरे से झाड़ कर, बुहार कर कचरे में फेंक दिये गये। तुम्हें उनकी याद भी नहीं रही। एक दिन तुम लड़ते थे। एक दिन तुम उनके लिए मरने—मारने को तैयार हो जाते थे। आज तुमसे कोई पूछे कि कहां गये वे खेल—खिलौने, तो तुम हसोगे। तुम कहोगे, अब मैं बच्चा तो नहीं, अब मैं युवा हो गया, प्रौढ़ हो गया; मैंने जान लिया कि खेल—खिलौने खेल—खिलौने हैं।

ऐसी ही एक प्रौढ़ता फिर घटती है, जब किसी को भीतर के परमात्मा का बोध होता है। तब संसार के सब खेल—खिलौने धन—पद—प्रतिष्ठा सब ऐसे ही व्यर्थ हो जाते हैं जैसे बचपन के खेल—खिलौने व्‍यर्थ हो गए। फिर उनके लिए कोई संघर्ष नहीं रह जाता, प्रतिद्वंद्विता नहीं रह जाती, कोई स्पर्धा नहीं रह जाती..
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मैं को केसे मारें

मैं को केसे मारें

मैं को मारने का सबसे उत्तम उपाये यह है की अपने ह्रदय मे बैठे प्रमात्मा का नाम मैं रख दें अर्थात जैसे सब का कोइ नाम होता है जिस से हम अहंम भाव को ग्रहण करते हैं ..उदाहरण के लिये अगर जैसे मेरा नाम प्रवीन है इसी नाम से मैं अपने लिय बोले गये मान अपमान को ग्रहण करता हूं तो अगर यही नाम मैं अपने ह्रदय मे बैठे प्रमात्मा का रख दूं तो अगर कोई ये कहे की प्रवीन जी आप धन्य हैं आपके चरणों में परणाम  तो अगर ये बात मैं इस शरीर के नाम को दे दूं तो अहंकार मे निशचय ही व्रद्धि होगी..और अगर मैं बीच से हट जाउं और सीधा उस प्रवीन  ह्रदय में बैठे प्रमात्मा (जिसका नाम प्रवीन मान्ता हू) को दे दूं  तो अहंम भाव की जगह  प्रमात्मा में ध्यान लगेगा अर्थात इस शरीर मे केवल एक ही मैं रहेगी और वो होगी प्रमातमा की...आप और प्रमातमा एक रूप हो जाऐंगें ..हर समय उस परवीन की और ध्यान रहेगा जो प्रवीणो का प्रवीण हैं....उपाय करके देखीये अवशये असर करेगा ।

प्रणाम जी

Friday, July 24, 2015

कामना

कामना अटैचमेन्ट के कारण होती है। और अटैचमेन्ट उस वस्तु में बार-बार सुख के चिन्तन से होता है..

तो सिधी सी बात है सुख का चिंतन केवल पुर्ण ब्रह्म प्रमातमा का करो ..जब किसी भी संसारिक वस्तु मे सुख दिखे तो सिर्फ इतना सोचो की इस वस्तु मे इतना सुख है तो उस प्रमातमा मे कितना सुख होगा जेसने ऐसी अनंत वसतुयें बनाईं  है..

केवल इतना करने से चिंतन की दिशा बदल जायेगी और आपकी दशा बदल जायेगी.
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प्रणाम जी
मुने अमल मायानो जोर हुतो, तमे ते माटे कीधो अंतर। हवे तमे पडदा टाल्या रे वाला, आप छपसो केही पर।।

मुझ पर मायाका प्रबल मद चढ़ा हुआ था, इसलिए आपने मुझसे अन्तर किया है. हे प्रियतम धनी ! अब जब आपने अज्ञानताका आवरण हटा लिया है तो आप कैसे छिप सकेंगे ?

अर्थात जब तक हमारा मन माया के अंधकार में रहता हमे परमात्मा के विषय में ज्ञान नही  हो  पाता ओर जब हमारा मन लगातार परमात्मा विषय में आनंद लेने लगता है तब परमात्मा अपना परिचय खुद देने लगते हैं |

प्रणाम जी

पल पल ध्यान रखें

एक बार संत कबीर से किसी ने पूछा, 'आप दिन भर कपड़ा बुनते रहते हैं तो भगवान का स्मरण कब करते हैं?' कबीर उस व्यक्ति को लेकर अपनी झोपड़ी से बाहर आ गए। बोले, 'यहां खड़े रहो। तुम्हारे सवाल का जवाब सीधे न देकर, मैं उसे दिखा सकता हूं।' कबीर ने दिखाया कि एक औरत पानी की गागर सिर पर रखकर लौट रही थी। उसके चेहरे पर प्रसन्नता और चाल में रफ्तार थी। उमंग से भरी हुई वह नाचती हुई-सी चली जा रही थी। गागर को उसने पकड़ नहीं रखा था, फिर भी वह पूरी तरह संभली हुई थी।
कबीर ने कहा, 'उस औरत को देखो। वह जरूर कोई गीत गुनगुना रही है। शायद कोई प्रियजन घर आया होगा। वह प्यासा होगा, उसके लिए वह पानी लेकर जा रही है। मैं तुमसे जानना चाहता हूं कि उसे गागर की याद होगी या नहीं।' कबीर की बात सुनकर उस व्यक्ति ने जवाब दिया,'उसे गागर की याद नहीं होती तो अब तक तो गागर नीचे ही गिर चुकी होती।'
कबीर बोले, 'यह साधारण सी औरत सिर पर गागर रखकर रास्ता पार करती है। मजे से गीत गाती है, फिर भी गागर का ख्याल उसके मन में बराबर बना हुआ है। और तुम मुझे इससे भी गया गुजरा समझते हो कि मैं कपड़ा बुनता हूं और परमात्मा का स्मरण करने के लिए मुझे अलग से वक्त की जरूरत है। मेरी आत्मा हमेशा उसी में लगी रहती है। कपड़ा बुनने के काम में शरीर लगा रहता है और आत्मा प्रभु के चरणों में लीन रहती है। आत्मा हर समय प्रभु के चिंतन में डूबी रहती है। इसलिए ये हाथ भी आनंदमय होकर कपड़ा बुनते रहते हैं

संसार कैसा है

अरे मन ! यह संसार दो प्रकार का है- एक स्थूल, दूसरा सूक्ष्म | शब्दादिक विषय सम्बन्धी जितने भौतिक पदार्थ हैं, वही स्थूल संसार है एवं इन पदार्थों की हृदय में जो बलवती कामना है वही सूक्ष्म संसार है | स्थूल संसार के छोड़ देने से सूक्ष्म संसार नहीं समाप्त होता अर्थात् सांसारिक पदार्थों के परित्याग मात्र से इच्छायें नहीं समाप्त होतीं | किन्तु यदि सूक्ष्म संसार अर्थात् इच्छाओं का परित्याग कर दे तो स्थूल संसार का भान ही नहीं रहता |  समस्त कामनाओं का परित्याग करके निरन्तर प्रमातमा का ध्यान कर | नही तो तू मुर्खों
की भांती जीवन व्यर्थ कर अवसर गवां देगा |

प्रणाम जी

Thursday, July 23, 2015

सुप्रभात जी

ऋग्वेद कहता है
मण्डल 10 सुक्त 90 मंत्र 16

यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्त्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।
ते ह नाकं महिमानः सचन्त यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः।।16।।

यज्ञेन-यज्ञम्-अ-यजन्त-देवाः-तानि-धर्माणि-प्रथमानि- आसन्-ते- ह-नाकम्- महिमानः- सचन्त- यत्र-पूर्वे-साध्याः-सन्ति देवाः।

अनुवाद:- जो (देवाः)  देव स्वरूप भक्तात्माएं (अयज्ञम्)  जड धार्मिक पूजा के स्थान पर (यज्ञेन) सत्य भक्ति धार्मिक पूजा के आधार पर (अयजन्त) पूजा करते हैं (तानि) वे (धर्माणि) धार्मिक शक्ति सम्पन्न (प्रथमानि) मुख्य अर्थात् उत्तम (आसन्) हैं (ते ह) वे ही वास्तव में (महिमानः) महान भक्ति शक्ति युक्त होकर (साध्याः) सफल भक्त जन (नाकम्) पूर्ण सुखदायक परमेश्वर को (सचन्त) भक्ति निमित कारण अर्थात् सत्भक्ति की कमाई से प्राप्त होते हैं, वे वहाँ चले जाते हैं। (यत्र) जहाँ पर (पूर्वे) पहले वाली सष्टी के (देवाः) पापरहित देव स्वरूप भक्त आत्माएं (सन्ति) रहती हैं।

भावार्थ:- जो ब्रह्म के समान आत्मांये ( ब्रह्मआत्मांये) जडपूजा को छोडकर एकमएकमात्र सत्य व आनंद स्वरूप परमात्मा की अन्नय भक्ति करतीं है वे तारतम ग्यान रूपी महान भक्ति शक्ति युक्त होकर अपनें परमधाम चली जातीं है जाहां पहले से उनकी परआतम रहती हैं..
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प्रणांम जी

वाणी

इत अछर को विलस्यो मन, पांच तत्व चौदे भवन ।

यामें महाविष्णु मन, मन थें त्रैगुन, ताथें थिर चर सब उतपन ।। (श्रीमुख वाणी- प्र. हि. ३७/२४)

इस मोह सागर के अन्दर अक्षर ब्रह्म के मन के स्वरूप अव्याकृत के मन ने प्रवेश किया, जिसके कारण यह पाँच तत्व तथा चौदह लोक का ब्रह्माण्ड बना । इसमें अव्याकृत का मन के स्वरूप महाविष्णु (क्षर पुरुष) बने और फिर इस के तीन गुणों से सदाशिव, ईश्वर, ब्रह्मा, विष्णु और शिव उत्पन्न हुए और उनसे ही यह सारा संसार बना है ।

नारायण की नाभि से कमल निकलता है और उससे ब्रह्मा प्रकट होते हैं । वह ब्रह्मा वेदों के सर्वश्रेष्ठ ज्ञाता कहलाते हैं और संसार रूपी वृक्ष के बीज हैं । अहंकार को ही नाभि कहा गया है। कमल की नाल इच्छा शक्ति और कमल का फूल उनके मन का प्रतीक है । आदि नारायण के मन में जब यह इच्छा हुई कि मै अनेक हो जाऊँ, तो उससे अहंकार उत्पन्न हुआ, जिससे सभी देव, जीव और यह मिटने वाला संसार खड़ा हुआ ।

कालमाया के ब्रह्माण्ड में द्वैत की लीला है अर्थात् जीव (नारायण, त्रिदेव, देवी-देवता, मनुष्य, अन्य चराचर प्राणी) तथा प्रकृति (माया) की लीला है । इसमें जन्म-मरण , सुख-दुःख का चक्र चलता रहता है । अहंकार रूपी कड़ी जब तक नहीं छूटती, तब तक संसार झूठा होते हुए भी सच्चा लगता है और उसे कोई छोड़ना नहीं चाहता । जब तक जीव का अहंकार नष्ट नहीं होगा तब तक आवागमन का चक्र समाप्त नहीं हो सकता । अतः नारायण से लेकर जीवों तक यह सारी सृष्टि मोह (अज्ञान) रूप है । ब्रह्मज्ञान (तारतम) व प्रेम का मार्ग पकड़कर ही इस भवसागर को पार किया जा सकता है ..

प्रणाम जी

विवेक का महत्व

मिथ्या में सत्य को जान लेना, नश्वर में शाश्वत को खोज लेना, आत्मा को पहचान लेना तथा आत्मामय होकर जीना यही विवेक है ।

इसके अतिरिक्त अन्य सभी मजदूरी है, व्यर्थ बोझा उठाना और अपने आपको मूढ़ सिद्ध करने जैसा है । ऎसा विवेक धारण कर अपने आपको      आध्यात्मिक मार्ग पर चला दें तो सभी कुछ उचित हो जाये, जीवन सार्थक हो जाये ।

अन्यथा कितने ही गद्दी-तकियों पर बैठीए अथवा जनता के सम्मुख ऊँचे मंच पर बैठकर अपनी नश्वर देह और नाम की जयजयकार करवा लीजिए परंतु अंत में कुछ भी हाथ न लगेगा ।

ढाक के वे ही तीन पात ।
चौथा लगे न पाँचवें की आस ॥
आप जहाँ के तहाँ ही रह जायेंगे । आयु बीत जायेगी और पछतावे का पार न रहेगा । जब मौत आयेगी तब जीवन भर कमाया हुआ धन, परिश्रम करके पाये हुए पद-प्रतिष्ठा, लाड़ से पाला-पोसा यह शरीर निर्दयतापूर्वक साथ छोड़ देगा । आप खाली हाथ रोते रहेंगे, बार-बार जन्म-मरण के चक्कर में घूमते रहेंगे । इसीलिए केनोपनिषद के ऋषि कहते हैं :

इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति ।
न चेदिहावेदीन महती विनष्टिः ॥

’यदि इस जीवन में ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर लिया या परमात्मा को जान लिया, तब तो जीवन की सार्थकता है और यदि इस जीवन में परमात्मा को नहीं जाना तो महान विनाश है ।’ (केनोपनिषद : २.५)

प्रणाम जी

माया कया है

माया का यदि विश्लेषण किया जाए तो यह दो शब्दो का संगम है - मा तथा या। देव भाषा संस्क्रुत में मा जा अर्थ होता है ' नहीं ' और या का अर्थ होता है ' जो ' अर्थात जो कुछ भी नही - नकारात्मक है, उसे माया कहते है।

वास्तविक रुप में यधपि यह कुछ भी नही, तथापि व्यवहारिक रुप में, यह बडी शक्तिशालिनी है। जडमें चेतन, तथा चेतन में जड का अधि - आरोप कर लेना इसका गुण है। असत को सत तथा सत को असत अथवा शरीर को आत्मा और आत्मा को शरीर समझने का नाम माया है। दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि भ्रमात्मक ज्ञान माया का स्वरुप है। इसका आकर्षण मरुस्थल (रेगिस्तान) में चमकती हुई रेत की तरह है, जिसे देख कर म्रुग अपनी तुष्णा (प्यास) बुझाने के लिए दौडता है, किन्तु भ्रम अथवा अज्ञान के कारण, उस की प्यास नहीं बुझती, क्योंकी वह केवल जल की प्रतीति होती हौ, वास्तविक जल नहीं। इसी प्रकार माया का आधार भी भ्रमात्मक ज्ञान है, असलीयत कुछ भी नहीं होती। " श्री मुख वाणी " में इस माया को आठ नामों से सम्बोधित किया गया है। यथा:-

मोह, अज्ञान, भरमना, करम काल और सुंन ।
ए सारे नाम नींद के, निराकार निरगुन ॥ (कलस ग़्रं.)

माया का भली भांति निरुपण करने पर इस तथ्य की पुष्टि होती हौ कि इस की उत्पत्ति स्रुष्टि के आदि से है अर्थात जब से स्रुष्टि का प्रारम्भ हुआ है, उसी के साथ इस का भी जन्म हुआ है। यही कारण है कि " श्री मुख वाणी " में इस ब्रह्मांड को मायावी अथवा ठगनेवाला कहा है। बडे बडे ज्ञानी मुनि एवं साधु जन भी इस के प्रभाव से बच न सके। एक मात्र प्रमात्मा का ध्यान ही इसका उपाय है..

प्रणाम जी

Wednesday, July 22, 2015

सुप्रभात जी

विचार का निरूपण सुनिये ।

जब हृदय शुद्ध होता है तब जो विचार होता है  वो कल्याणकारी होता है ,और शास्त्रार्थ के विचार द्वारा बुद्धि तीक्ष्ण होती है । अशुद्ध हृदय से विचार मे अज्ञानवन में आपदारूपी बेलि की उत्पत्ति होती है उसको शुद्ध विचाररूपी खंग से जब काटोगे तब शान्त आत्मा होगे । मोह जीव के हृदयकमल का खण्ड-खण्ड कर डालता है।

  प्रथम बल, दूसरे बुद्धि, तीसरे तेज चतुर्थ पदार्थ आगमन और पञ्चम पदार्थ की प्राप्ति इन पाँचों की प्राप्ति विचार से होती है |

अर्थात् इन्द्रियों का जीतना, बुद्धि आत्मव्यापिनी और तेज, पदार्थ का आगमन इनकी प्राप्ति विचार से होती है ।  जिस पुरुष ने शुद्ध विचार का आश्रय लिया है वह विचार की दृढ़ता से जिसकी वाच्छा करता है उसको पाता है । इससे विचार इसका परम मित्र है । शुद्ध विचारवान् पुरुष आपदा में नहीं फँसता । जैसे तुम्बी जल में नहीं डूबती वैसे ही वह आपदा में नहीं डूबता ।  वह जो कुछ करता है विचार संयुक्त करता है और विचार संयुक्त ही देता लेता है । उसकी सब क्रिया सिद्धता का कारण होती है । और धर्म, अर्थ, काम मोक्ष विचार की दृढ़ता से ही सिद्ध होते हैं ।

विचार रूपी कल्प वृक्ष में जिसका अभ्यास होता है सोई पदार्थों की सिद्धि को पाता है ।

शुद्ध ब्रह्म का विचार ग्रहण करके आत्मज्ञान को प्राप्त हो जाओ ।

प्रणाम जी

वाणी

आपण निद्रा केम करूं, निद्रानो नथी लाग।
भरमनी निद्रा जे करे, कांई तेहेनो ते मोटो अभाग।।

भला अब मैं माया की नींद में क्यों फँसू ? मुझे किसी भी प्रकार से इस मायावी नींद से अपना सम्बन्ध नहीं रखना है। तारतम वाणी के अवतरण के पश्चात् भी जो सुन्दरसाथ इस माया की नींद में उलझे हुए हैं, निश्चित रूप से वे बहुत अधिक भाग्यहीन (बदनसीब) हैं।जिस प्रकार रात्रि के समय गहरी नींद में सो जाने वाला व्यक्ति स्वयं को तथा संसार को पूरी तरह से भूला रहता है, उसी प्रकार जो लौकिक कार्यों(अर्थोपार्जन, पारिवारिक कर्त्तव्यों के पालन तथा विषय भोग) को ही सब कुछ मानकर प्रियतम अक्षरातीत तथा निज स्वरूप को भूला रहता है, उसे माया की नींद में सोया हुआ कहते हैं। अक्षरातीत के प्रेम को प्राथमिकता देकर लौकिक कार्यों को करना नींद में फंसना नहीं है, बल्कि राजा जनक एवं महाराजा छत्रसाल का निष्काम कर्मयोग मार्ग है, जो संसार में रहते हुए भी संसार से परे रहे....

प्रणाम जी

लक्षय परमात्मा

सच्चे साधकोंको अपनी साधनाका लक्ष्य परमात्मा ही बनाना चाहिए । बाह्य साधनासे भौतिक जगतका लाभ प्राप्त होता है तो प्रेम साधनासे परमात्माकी प्राप्ति होती है । इसीलिए महापुरुषोंने भौतिक साधनाको महत्त्व न देकर प्रेम साधनाका ही महत्त्व समझाया है और उसीके लिए प्रेरणा दी है ।  अंतःकरणकी शुद्धि होने पर हृदयसे प्रेम प्रकट होता है । प्रेममें इतनी शक्ति होती है कि वह आत्माको इसी शरीरमें रहते हुए ही परमधामका अनुभव करवा सकती हैं । बाह्य साधनाएँ कोटि प्रयत्नोंसे भी परमात्माकी अनुभूति नहीं करवा सकता है जबकि प्रेम साधना क्षणमात्रमें अनुभव करवाती है । इसीलिए इसकी सर्वोपरिता बताई गई है । प्रेम साधना दिलकी साधना है । जबतक दिलकी साधना नहीं होगी तब तक परमात्माकी प्राप्ति नहीं होगी ।

तोलों ना पिउ पाइए, जालों न साधे दिल


प्रणाम जी

भक्ति साधना

लोहेके टुकड़ेको चुम्बकके साथ एक ही दिशामें घसने(रगड़ने) लगेंगे तो वह भी चुम्बकीय गुण प्राप्त करता है । इस प्रक्रियामें चुम्बकसे लोहेके टुकड़ेमें चुम्बकीय शक्ति नहीं जाती है अपितु चुम्बकके साथ एक दिशामें घर्षण होने पर लोहेके टुकड़ेके अणु-परमाणुओंको एक दिशा प्राप्त होती हैं । शक्ति तो उन्हीं अणुओंमें है किन्तु वे एक दिशामें न होनेसे संगठित नहीं हो पाते हैं । चुम्बकके संसर्गसे उन्हें एकदिशा प्राप्त होती है जिससे उन अणुओंकी शक्ति प्रकट होती है । इस प्रकार एक सामान्य लोहा चुम्बक बन जाता है ।

इसी प्रकार मनुष्यके अन्तःकरणकी वृत्तियाँ, जो चारों दिशाओंमें फिरती रहती हैं, साधनाके द्वारा एक सही दिशा प्राप्त करती हैं । उससे अपार शक्ति प्रकट होती है उसीको लोगोंने सिद्धि कहा है । ऐसी साधना सद्गुरुके मार्गदर्शनमें हो तो व्यक्तिके अन्तःकरणकी वृत्तियोंको परमात्माकी दिशा प्राप्त होती है जिससे व्यक्ति परमात्माके दर्शन तथा अनुभव प्राप्त कर सकता है । इसीको भक्ति साधना कहा है ।
भक्ति साधनाके द्वारा आत्माकी अनुभूति होती है, परमात्माकी अनुभूति होती है और परमधामकी अनुभूति होती है । भक्तिमें समर्पण होता है । समर्पण प्रेमसे ही सम्भव है इसलिए भक्ति साधनाको प्रेम साधना भी कहा है ।

प्रणाम जी

Tuesday, July 21, 2015

प्रारब्द से मुक्ति का उपाए



जो आत्म चिंतन में लीन रहते है जो सत्ये मार्गी बनना चाहते हैं जो अभी मार्ग तलाश रहे हैं यदि उनको जग का भी आभास है तो या उनका मन अभी जग से नही हटा है तो समझना चाहिए की उनके प्रारब्द अभी उनकी बाधा बने हुए हैं जब तक सुख दुःख अनुभव होते  है तब तक प्रारब्द ही माना जायेगा इसको समाप्त करने का उपाए परमात्मा की प्रेरणा से आपको बताने का प्रयास किया जा रहा है अत: सावधानी पूर्वक ग्रहण करें |

जिस प्रकार स्वप्न में किये हुए कर्म स्वप्न टूटते ही नष्ट हो जाते है ठीक वेसे ही जब हमे निज स्वरुप का बोध हो जाता है तो हमारे सरे संचित कर्म नष्ट हो जाते हैं जिस प्रकार सपने के पाप पुण्ये का कभी फल नही मिलता उसी प्रकार जब ये संसार स्वप्न जैसा प्रतीत होने लगेगा तो  हम भी इस के कर्म बंधन से मुक्त हो जायेंगे जिस प्रकार शराब के जाम में मदिरा डाल देने से जाम को नशा नही होता वह उस से अछुता रहता है उसी प्रकार हम भी इस संसार के कर्मो और प्रारब्द से मुक्त रहेंगे |
कहा जाता है की कर्म सब को भोगना पड़ता है और प्रारब्द बड़ा बलवान है  पर जो सदा चित को परमात्मा में स्थित रखते है उनको प्रारब्द नही सताता उसके सभी संचित और वर्तमान के कर्मों से मुक्ति मिल जाती है
क्योंकि परमात्मा में चित रखने वाले का भाव हमेशा जागृत रहता है क्योंकि परमात्मा स्वपन से परे  है इसलिए वो सदेव जागृत है उनमे ध्यान लगाने वाला भी जागृत भाव में आ जाता है और उसको स्वपन के कर्म (संगृहीत और वर्तमान व भविष्य )  से छुटकारा मिल जाता है ....

 प्रणाम जी 

तत्त्वज्ञान का सहज उपाय



1.तत्त्वज्ञान का सहज उपाय



हमारा स्वरूप चिन्मय सत्तामात्र है और उसमें अहम् नहीं है—यह बात यदि समझ में आ जाय तो इसी क्षण जीवनमुक्ति है ! इसमें समय लगने की बात नहीं है। समय तो उसमें लगता है, जो अभी नहीं और जिसका निर्माण करना है। जो अभी है, उसका निर्माण नहीं करना है, प्रत्युत उसकी तरफ दृष्टि डालनी है, उसको स्वीकार करना है जैसे—
संकर सहज सरूपु सम्हारा। लागि समाधि अखंड अपारा।।
(मानस, बाल. 58/4)

दो अक्षर हैं—‘मैं हूँ’। इसमें ‘मैं’ प्रकृति का अंश है और ‘हूँ’ परमात्मा का अंश है। ‘मैं’ जड़ है और ‘हूँ’ चेतन है। ‘मैं’ आधेय है और ‘हूँ’ आधार है। ‘मैं’ प्रकाश्य है और ‘हूँ’ प्रकाशक है। ‘मैं’ परिवर्तनशील है और ‘हूँ’ अपरिवर्तनशील है। ‘मैं’ अनित्य है और ‘हूँ’ नित्य है। ‘मैं’ विकारी है और ‘हूँ’ निर्विकार है। ‘मैं’ और ‘हूँ’ को मिला लिया—यही चिज्जडग्रन्थि (जड़-चेतन की ग्रन्थि) है, यही बन्धन है, यही अज्ञान है। ‘मैं’ और ‘हूँ’ को अलग-अलग अनुभव करना ही मुक्ति है तत्त्वबोध है। यहाँ यह जान लेना आवश्यक है कि ‘मैं’ को साथ मिलाने से ही ‘हूँ’ कहा जाता है। अगर ‘मैं’ को साथ न मिलायें तो ‘हूँ’ नहीं रहेगा, प्रत्युत ‘है’ रहेगा। वह ‘है’ ही अपना स्वरूप है।
एक ही व्यक्ति अपने बापके सामने कहता है कि ‘मैं बेटा हूँ’, बेटे के सामने कहता है कि ‘मैं बाप हूँ’, दादा के सामने कहता है कि ‘मैं पोता हूँ’, पोता के सामने कहता है कि ‘मैं दादा हूँ’, बहन के सामने कहता है कि ‘मैं भाई हूँ’, पत्नी से के सामने कहता है कि ‘मैं पति हूं’, भानजे के सामने कहता है कि ‘मैं मामा हूँ’, मामा के सामने कहता है कि ‘मैं भानजा हूँ’ आदि-आदि। तात्पर्य है कि बेटा, बाप, पोता, दादा, भाई, पति, मामा, भानजा आदि तो अलग-अलग हैं, पर ‘हूँ’ सबमें एक है। ‘मैं’ तो बदला है, पर ‘हूँ’ नहीं बदला। वह ‘मैं’ बाप के सामने बेटा हो जाता, बेटे के सामने बाप हो जाता है अर्थात् वह जिसके सामने जाता है, वैसा ही हो जाता है। अगर उससे पूछें कि ‘तू कौन है’ तो उसको खुद का पता नहीं है ! यदि ‘मैं’ की खोज करें तो ‘मैं’ मिलेगा ही नहीं, प्रत्युत सत्ता मिलेगी। कारण कि वास्तव में सत्ता ‘है’ की ही है, ‘मैं’ की सत्ता है ही नहीं।
बेटे की अपेक्षा बाप है, बापकी अपेक्षा बेटा है—इस प्रकार बेटा, बाप, पोता, दादा आदि नाम अपेक्षासे (सापेक्ष) हैं; अतः ये स्वयं के नाम नहीं हैं। स्वयं का नाम तो निरपेक्ष ‘है’ है। वह ‘है’ ‘मैं’ को जाननेवाला है। ‘मैं’ जाननेवाला नहीं है और जो जाननेवाला है, वह ‘मैं’ नहीं है। ‘मैं’ ज्ञेय (जानने में आनेवाला) है और ‘है’ ज्ञाता (जाननेवाला) है। ‘मैं’ एकदेशीय है और उसको जानने वाला ‘है’ सर्वदेशीय है। ‘मैं’ से सम्बन्ध मानें या न मानें, ‘मैं’ की सत्ता नहीं है। सत्ता ‘है’ की ही है। परिवर्तन ‘मैं’ में होता है, ‘है’ में नहीं। ‘हूँ’ भी वास्तव में ‘है’ का ही अंश है। ‘मैं’ पनको पकड़ने से ही वह अंश है। अगर मैं-पन को न पकड़ें तो वह अंश (‘हूँ’) नहीं है, प्रत्युत ‘है’ (सत्ता मात्र है) ‘मैं’ अहंता और ‘मेरा बाप, मेरा बेटा’ आदि ममता है। अहंता-ममतासे रहित होते ही मुक्ति है—
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति।।
(गीता 2/71)

यही ‘ब्राह्मी स्थिति’ है। इस ब्राह्मी स्थितिको प्राप्त होनेपर अर्थात् ‘है’ में स्थिति का अनुभव होने पर शरीर का कोई मालिक नहीं रहता अर्थात् शरीर को मैं—मेरा कहनेवाला कोई नहीं रहता।
मनुष्य है, पशु है, पक्षी है, ईंट है, चूना है, पत्थर है—इस प्रकार वस्तुओं में तो फर्क है, पर ‘है’ में कोई फर्क नहीं है। ऐसे ही मैं मनुष्य हूँ, मैं देवता हूँ, मैं पशु हूँ, मैं पक्षी हूँ—इस प्रकार मनुष्य आदि योनियाँ तो बदली हैं, पर स्वयं नहीं बदला है। अनेक शरीरों में, अनेक अवस्थाओं में चिन्मय सत्ता एक है। बालक, जवान और वृद्ध—ये तीनों अलग-अलग हैं, पर तीनों अवस्थाओं में सत्ता एक है। कुमारी, विवाहिता और विधवा—ये तीनों अलग-अलग हैं, पर इन तीनोंमे सत्ता एक है। जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, मूर्च्छा और समाधि—ये पाँचों अवस्थाएं अलग-अलग हैं, पर इन पाँचों में सत्ता एक है। अवस्थाएँ बदलती हैं, पर उनको जाननेवाला नहीं बदलता। ऐसे ही मूढ़, क्षिप्त, विक्षिप्त, एकाग्र, और निरुद्ध—इन पाँचों वृत्तियों में फर्क पड़ता है, पर इनको जाननेवाले में कोई फर्क नहीं पड़ता।

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एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति।।

(गीता) 2/72)

‘हे पार्थ ! यह ब्राह्मी स्थिति है। इसको प्राप्त होकर कभी कोई सम्मोहित नहीं होता। इस स्थिति में यदि अन्तकाल में भी स्थित हो जाय तो निर्वाण (शान्त) ब्रह्म की प्राप्ति हो जाती है।’

यदि जाननेवाला भी बदल जाय तो इन पाँचों की गणना कौन करेगा ? एक मार्मिक बात है कि सबके परिवर्तन का ज्ञान होता है, पर स्वयंके परिवर्तन का ज्ञान कभी किसी को नहीं होता। सबका इदंता से भान होता है, पर अपने स्वरूप का इदंता से भान कभी किसी को नहीं होता सबके अभाव का ज्ञान होता है, पर अपने अभाव का ज्ञान कभी किसी को नहीं होता। तात्पर्य है कि ‘है’ (सत्तामात्र) में हमारी स्थित स्वतः है करनी नहीं है। भूल यह होती है कि हम ‘संसार है’—इस प्रकार ‘नहीं’ में ‘है’ का आरोप कर लेते हैं। ‘नहीं’ में ‘है’ का आरोप करने से ही ‘नहीं’ (संसार) की सत्ता दीखती है और ‘है’ की तरफ दृष्टि नहीं जाती। वास्तव में ‘है में संसार’—इस प्रकार ‘नहीं’ में ‘है’ का अनुभव करना चाहिये। ‘नहीं’ में ‘है’ का अनुभव करने से ‘नहीं’ नहीं रहेगा और ‘है’ रह जायगा।

भगवान् कहते हैं।

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।

(गीता 2। 16)

‘असत् की सत्ता विद्यमान नहीं है अर्थात् असत्का अभाव ही विद्यमान है और सत् का अभाव विद्यमान नहीं है अर्थात् सत् का भाव ही विद्यमान है।’
एक ही देश काल वस्तु, व्यक्ति, अवस्था, परिस्थिति आदि में अपनी जो परिच्छिन्न सत्ता दीखती है, वह अहम् (व्यक्तित्व, एकदेशीयता) को लेकर ही दीखती है। जबतक अहम रहता है, तभी तक मनुष्य अपने को एक देश, काल आदि में देखता है। अहम् के मिटने पर एक देश, काल आदि में परिच्छिन सत्ता नहीं रहती, प्रत्युत अपरिच्छिन्न सत्तामात्र रहती है।

वास्तव में अहम है नहीं, प्रत्युत केवल उसकी मान्यता है। सांसारिक पदार्थों की जैसी सत्ता प्रतीत होती है, वैसी सत्ता भी अहम् की नहीं है। सांसारिक पदार्थ तो उत्पत्ति-विनाशवाले हैं, पर अहम् उत्पत्ति-विनाशवाला भी नहीं है। इसलिये तत्त्वबोध होने पर शरीरादि पदार्थ तो रहते हैं, पर अहम् मिट जाता है।

अतः तत्त्वबोध होने पर ज्ञानी नहीं रहता, प्रत्युत ज्ञानमात्र रहता है। इसलिये आजतक कोई ज्ञानी हुआ नहीं, ज्ञानी है नहीं, ज्ञानी होगा नहीं और ज्ञानी होना सम्भव ही नहीं। अहम् ज्ञानी में होता है, ज्ञान में नहीं। अतः ज्ञानी नहीं है, प्रत्युत ज्ञानमात्र है, सत्तामात्र है।  उस ज्ञानका कोई ज्ञाता नहीं है, कोई धर्मी नहीं है, मालिक नहीं है। कारण कि वह ज्ञान स्वयंप्रकाश है, अतः स्वयं से ही स्वयं का ज्ञान होता है। वास्तव में ज्ञान होता नहीं है, प्रत्युत अज्ञान मिटता है। अज्ञान मिटाने को ही तत्त्वज्ञान का होना कह देते हैं।

विदेही विचार

व्यासदेव यमुना पार कर रहे थे। वहाँ गोपियाँ भी थीं। वे भी पार जाना चाहती थीं, दही, दूध, मक्खन बेचने के लिए। वहाँ नाव न थी। सब सोचने लगे, कैसे पार जाएँ। इसी समय व्यासदेव ने कहा, ‘मुझे बड़ी भूख लगी है।’ तब गोपियाँ उन्हें दही, दूध, मक्खन, रबड़ी सब खिलाने लगीं। व्यासदेव लगभग सब साफ कर गए। फिर व्यासदेव ने यमुना से कहा, ‘यमुने, अगर मैंने कुछ भी न खाया हो, तो तुम्हारा जल दो भागों में बँट जाए। बीच से राह हो जाए और हम लोग निकल जाएँ।’ ऐसा ही हुआ। यमुना के दो भाग हो गए। उस पर जाने की राह बीच से बन गई। इसी रास्ते से गोपियों के साथ व्यासदेव पार हो गए’’  ‘‘मैंने नहीं खाया, इसका अर्थ यही है कि मैं वही शुद्धात्मा हूँ। शुद्धात्मा निर्लिप्त है, प्रकृति के परे है। उसे न भूख है, न प्यास। न जन्म है, न मृत्यु। वह अजर, अमर और सुमेरुवत है। जिसे यह ज्ञान हुआ, ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति हुई, वही जीवनमुक्त है। वह ठीक समझता है कि आत्मा अलग है, देह अलग। परमात्मा के का बोध होने पर देहात्म बुद्धि नहीं रह जाती।’’

(पृष्ठ ५३-५४, रामकृष्ण वचनामृत, तृतीय)

प्रणाम जी

परमात्मा भीतर है।



जिसकी भक्ति उसे बाहर के भगवान से जोड़े हुए है उसकी भक्ति भी धोखा है।

मन ही पूजा मन ही धूप। (संत रयदास)

चलना है भीतर! हृदय है मंदिर! उसी हृदय के अंतरगृह में छिपा हुआ बैठा है मालिक।

आदमी ने अपनी तरफ पीठ कर ली, यही उसका दुर्भाग्य है।संत रैदास याद दिलाते हैं : मुड़ो, अपनी ओर मुड़ो। हृदय ही पूजा हृदय ही धूप! छोड़ो मंदिर, मस्जिद, गिरजे, गुरुद्वारे। वे सब तो आदमी के बनाए हुए हैं। खोजो अपने भीतर के चैतन्य में, वहां आतम दृष्टि है | क्योंकि वही परमात्मा से आयी है। वही एक किरण है प्रकाश की, जो उस परम सूर्य तक ले जा सकती है, क्योंकि वह उस परम सूर्य से आती है। वही है सेतु। गलत जा रहे हो भाई about turn हो जाओ इसी जन्म मे पा लोगे ...

पेहेले आप पेहेचानो रे साधो, पेहेले आप पेहेचानो ।
बिना आप चीन्हें पार ब्रह्मको, कौन कहे मैं जानो।।

महामति कहते हैं, हे साधुजन ! सर्व प्रथम स्वयं (आत्मा) को पहचानो, क्योंकि स्वयंको पहचाने बिना कौन कह सकता है कि मैंने परब्रह्म परमात्माको पहचान लिया है.
अर्थात परमात्मा को पाना है तो शुरूआत अपने अन्दर से ही करनी होगी

ना पेहेचाने आपको, ना पेहेचाने हादी हक।
ना देखें अजाजील दिल पर, जो डालसी बीच दोजक ।।


प्रणाम जी

अर्जी

हे प्रियतम अक्षरातीत ! मेरे हृदयरूपी घरमें आप पधारें. इस संसाररूपी परदेसमें मुझे अकेली छोड.कर आप कहाँ चले गए हैं ?

मैं तो अज्ञाानकी निद्रामें सो रही थी. आप अज्ञाानरूपी रात्रिमें मुझे अकेली सोई हुई छोड.कर कहाँ चले गए ? (अज्ञाानरूपी निद्रासे) जागृत होकर देखा तो प्रियतम धनी पास ही नहीं हैं..

हे धनी ! मैं व्याकुल होकर आपसे विनयपूर्वक प्रार्थना करती हूँ कि कृपया आप इसी क्षण मेरे हृदय मन्दिरमें पधारें. मेरे मनके सभी मनोरथ पूर्ण करें, मैं आपके श्री चरणोंमें सर्मिपत होती हुं.

प्रणाम जी

Monday, July 20, 2015

अभ्यास



वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! बोधके निमित्त मैं तुम को बारम्बार सार कहता हूँ कि आत्मा का साक्षात्कार भावना के अभ्यास बिना न होगा | यह जो अज्ञान अविद्या है सो अनन्त जन्म का दृढ़ हुआ भ्रम है..

हे राम जी! जो कुछ वृत्ति बहिर्मुख है सो अविद्या है, क्योंकि वह वृत्ति आत्मतत्त्व  से परेे  है और जो अन्तर्मुख आत्मा की ओर  है सो विद्या ,अविद्या को नाश करेगी |

अविद्या के दो रूप हैं-एक प्रधान रूप और दूसरा निकृष्टरूप है | उस अविद्या से विद्या उपजकर अविद्या को नाश करती है और फिर आप भी नष्ट हो जाती है |(कयोंकी प्रमातमा विद्या और अविद्या से परे है..इन दोनो के समाम्त होने पर ही वो मिलता है) जैसे बाँस से अग्नि उपजती है और बाँस को जलाकर आप भी शान्त हो जाती है तैसे ही जो अन्तर्मुख है सो प्रधानरूप विद्या है और जो बहिर्मुख है सो निकृष्ट रूप अविद्याभाव को नाश करे | हे रामजी | अभ्यास बिना कुछ सिद्ध नहीं होता | जो कुछ किसी को प्राप्त होता है सो अभ्यासरूपी वृक्ष का फल है | चिरकाल जो अविद्या का दृढ़  अभ्यास हुआ है तब अविद्या दृढ़ हुई है | जब आत्मज्ञान के निमित्त यत्न करके दृढ़ अभ्यास करोगे तब अविद्या नष्ट हो जावेगी |
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प्रणाम जी

प्रमात्मा एक है

बोली सबों जुदी परी, नाम जुदे धरे सबन।
चलन जुदा कर दिया, ताथें समझ ना परी किन।।

परमात्मा अपनी आत्माओ को जागृत करने के लिए अलग अलग जगह पे अलग अलग शरीरो पे  अपनी शक्ति को भेजते है | क्योंकि हमारी पृथ्वी में जलवायु और भोगोलिक भिन्नता है इसलिए भाषा में भी बोहोत  भिन्नता पाई जाती है इस लिए परमात्मा को जहा भी अपनी शक्ति जोश या आवेश से अपनी आत्मवो को जगाना होता है वो उनको उनकी ही भाषा में ज्ञान देते है इसलिए जब वो भारत में आये तो राम कृषण के रूप में आके अपना ज्ञान दिया जब और कहा की इश्वर एक है जब वो अरब में गए तो मोहोमद साहिब से कहलवाया की कुल हु अलाहअहद (इश्वर एक है) जब पश्चिम में गए तो वहां कहा सुप्रीम ट्रुथ गोड इस ओनली वन जब सिखों में जगाने गये तो कहा नानक एको सुमेरिये इस प्रकार जहा भी गये वहीं की भाषा में ज्ञान दिया लेकिन हम उनके स्वरूप को नही पहचान सके और रूप में ही अटक के रह गए या भाषा  में ही अटके रहे सार नही समझ सके इसलिए अज्ञान वश हमने उनको पाने की पूजा पद्धति भी अपनी अपनी अलग बना ली  इसलिए जब मन झूटे वजुदो में अटक गया तो मन में परमात्मा का आनंद आने के बजाये झूटे वजुदो की जड़ता का समावेश होता गया व् जड़ता के कारण हम धर्म के  नाम पे आपस में ही लड़ने लगे क्योंकि हमे वही सच लगने लगा जो जाहिरी रूप से दीखता है इसलिए सत्ये से दूर होते गए पर जो परम सत्ये है उसको जानने का प्रयास कोई नही करता आज भी हम झूटे चित्रों में परमात्मा की सुन्दरता को सिमित कर के खुश हो रहे है ये नही देखते की वो अनंत सूर्यो से भी ज्यादा तेजवान स्वयें आनंद शुद्ध सुन्दर प्रनात्मा का स्वरुप केसा होगा हम बस थोड़े में ही संतुष्ट हो जाते है इसलिए मेरी आपसे कर बद्ध प्रार्थना है की सत्ये के सार को समझें बातूनी समझ रखें जाहिरी समझ कलह और अज्ञान को जनम देती है ....

प्रणाम जी

ध्यान का समय कितना हो??


प्रश्न : ध्यान में कम से कम कितनी देर बैठना चाहिए और अधिकतम कितनी देर बैठना चाहिए ?
उत्तर :ध्यान में कम से कम 30 मिनट तो बैठना चाहिए ,अधिकतम तो जितना आपका मन और शरीर बैठ सके उतना .
45 मिनट बैठने वाला मंद साधक ,90 मिनट बैठने वाला मध्यम साधक और तीन घंटे बैठने वाला उच्च साधक कहलाता है .
यह गणित जैसा है जितना आप बैठेंगे उतनी जल्दी काम बनेगा .आगे जब ध्यान आपका स्वभाव हो जाता है ,तब कर्म व ध्यान
का अंतर समाप्त हो जाता है .आप बैठे हैं या कर्म कर रहे हैं दोनों अवस्था में ध्यान चलता रहता है .अब आप 'ध्यान ' स्वरूप
होगये .फिर बैठने का महत्व नहीं ,वह तो स्वभाव ही होगया .आप बोल रहे है ,खा रहे है ,नहा रहे है सब क्रियाएँ ध्यान हो जाती है..
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प्रणाम जी

मन का मौन कया है


प्रश्न : मन का मौन क्या है ?
उत्तर: दो चीजें है मन और उसका दृष्टा [साक्षी /आत्मा] .मन दृश्य है .
सामान्य व्यक्ति मन के साथ तदाकार होकर जीता है ,मन के साथ एकाकार होकर जीता है ,उसे दृष्टा का पता नहीं होता है.
जब साधक मन को दृष्टा ,साक्षी होकर अवलोकन करता है ,ध्यान करता है ,तब मन ,विचार धीरे धीरे शांत हो जाते हैं .
इस मन की शांत स्थिति का नाम "मन का मौन " है .
इस 'मन के मौन ' में अनुभव होता है कि 'मैं मन नहीं हूँ ' ,मैं मन के पर मन का साक्षी आत्मा हूँ .
यह 'साक्षी आत्मा ' सदा ही मौन है ,'साक्षी आत्मा '-'अखंड मौन है '
'मन का मौन ' अस्थाई है ,किन्तु 'आत्मा ' शाश्वत मौन है .
हमारा लक्ष्य 'साक्षी आत्मा ' का अखंड मौन है ,जो 'मन के मौन ' में ही अनुभव होता है -इसे ध्यान कहते हैं .
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प्रणाम जी

Sunday, July 19, 2015

Bhakton ke bhav

सुप्रभात जी

एक बार अर्जुन को अहंकार हो गया कि वही भगवान के सबसे बड़े भक्त हैं। उनकी इस भावना को श्रीकृष्ण ने समझ लिया। एक दिन वह अर्जुन को अपने साथ घुमाने ले गए। रास्ते में उनकी मुलाकात एक गरीब ब्राह्मण से हुई। उसका व्यवहार थोड़ा विचित्र था। वह सूखी घास खा रहा था और उसकी कमर से तलवार लटक रही थी। अर्जुन ने उससे पूछा, ‘आप तो अहिंसा के पुजारी हैं। जीव हिंसा के भय से सूखी घास खाकर अपना गुजारा करते हैं। लेकिन फिर हिंसा का यह उपकरण तलवार क्यों आपके साथ है?’ ब्राह्मण ने जवाब दिया, ‘मैं कुछ लोगों को दंडित करना चाहता हूं।’

‘ आपके शत्रु कौन हैं?’ अर्जुन ने जिज्ञासा जाहिर की। ब्राह्मण ने कहा, ‘मैं चार लोगों को खोज रहा हूं, ताकि उनसे अपना हिसाब चुकता कर सकूं। सबसे पहले तो मुझे नारद की तलाश है। नारद मेरे प्रभु को आराम नहीं करने देते, सदा भजन-कीर्तन कर उन्हें जागृत रखते हैं। फिर मैं द्रौपदी पर भी बहुत क्रोधित हूं। उसने मेरे प्रभु को ठीक उसी समय पुकारा, जब वह भोजन करने बैठे थे। उन्हें तत्काल खाना छोड़ पांडवों को दुर्वासा ऋषि के शाप से बचाने जाना पड़ा। उसकी धृष्टता तो देखिए। उसने मेरे भगवान को जूठा खाना खिलाया।’

‘आपका तीसरा शत्रु कौन है?’ अर्जुन ने पूछा।

‘ वह है हृदयहीन प्रह्लाद। उस निर्दयी ने मेरे प्रभु को गरम तेल के कड़ाह में प्रविष्ट कराया, हाथी के पैरों तले कुचलवाया और अंत में खंभे से प्रकट होने के लिए विवश किया। और चौथा शत्रु है अर्जुन। उसकी दुष्टता देखिए। उसने मेरे भगवान को अपना सारथी बना डाला। उसे भगवान की असुविधा का तनिक भी ध्यान नहीं रहा। कितना कष्ट हुआ होगा मेरे प्रभु को।’ यह कहते ही ब्राह्मण की आंखों में आंसू आ गए। यह देख अर्जुन का घमंड चूर-चूर हो गया। उसने श्रीकृष्ण से क्षमा मांगते हुए कहा, ‘मान गया प्रभु, इस संसार में न जाने आपके कितने तरह के भक्त हैं। मैं तो कुछ भी नहीं हूं।’ —

ये जीवों की भक्ति भावना है साथजी इस से हमें अपने पुर्णबृह्म सतचितआनंद परमात्मा के प्रती प्रेम को आंकना चाहिय..
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प्रणाम जी

वाणी

ज्यारे धणी धणवट करे, त्यारे बल वेरीनां हरे।
वली गयां काम सराडे चढे, मन चितव्यां कारज सरे ।।

जब प्रमात्मा मेहर करते हैं अर्थात् अपनी शरणमें लेते हैं तब शत्रुका बल (माया)भी हरण कर देते हैं,

इसके विषय मे बातुनी भेद जानना आवश्यक है की परमात्मा की मेहर का कोइ समय विषेश नही होता अर्थात ऐसा नही है की वो कीसी दिन मेहर (कृपा)करेंगे ..बस यही ना समझ पाने के कारण हम उनकी मेहर का इन्तजार करके जीवन व्यर्थ गवां देते हैं(उनकी मेहर हम पर निरंतर हो रही है बस जिस दिन हम उस को एहसास में लेलेंगें बात बन जायगी व नित नय अहसास होने लगेंगें जरूरत है फरामोशी से सोफिय में आनें की)  जिस दिन हम ये कर लेंगे उसी क्षण बिगडे हुए काम पुनः ठीक हो जाते हैं और मनोवाञ्छित कार्य भी सिद्ध होते हैं. अर्थात सत्य और माया का बोध हो जाता है व सत्य के लिये प्रेम जाग्रीत हो जाता है...
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प्रणाम जी

अहंकार पर विजय के उपाय

सुप्रभात जी

हे मूर्ख मन! जो तू देह में अहं अहं करता है सो तेरा अहं किस अर्थ का है । अंगुष्ठा से लेकर मस्तक पर्यन्त अहं वस्तु कुछ नहीं ।
यह शरीर तो अस्थि, माँस और रक्त का थैला है । यह पञ्चतत्त्वों का जो शरीर बना है उसमें अहंरूप वस्तु तो कुछ नहीं है । हे मूर्ख मन! तू अहं अहं क्यों करता है? यह जो तू कहता है कि मैं देखता हूँ, मैं सुनता हूँ, मैं सूँघता हूँ मैं स्पर्श करता हूँ, मैं स्वाद लेता हूँ और इनके इष्ट-अनिष्ट में रागद्वेष से जलता है सो वृथा कष्ट पाता है ।
रूप को नेत्र ग्रहण करते हैं, नेत्र रूप से उत्पन्न हुए हैं और तेज का अंश उनमें स्थित है जो अपने विषय को ग्रहण करता है, इसके साथ मिलकर तू क्यों तपायमान होता है?
शब्द आकाश में उत्पन्न हुआ है और आकाश का अंश श्रवण में स्थित है जो अपने गुण शब्द को ग्रहण करता है इसके साथ मिलकर तू क्यों रागद्वेष कर तपायमान होता है?
स्पर्श इन्द्रिय वायु से उत्पन्न हुई है और वायु का अंश त्वचा में स्थित है वही स्पर्श को ग्रहण करता है, उससे मिलकर तू क्यों रागद्वेष से तपायमान होता है?
रसना इन्द्रिय जल से उत्पन्न हुई है और जल का अंश जिह्वा है जो अग्रभाग में स्थित है वही रस ग्रहण करती है, इससे मिलकर तू क्यों वृथा तपाय मान होता है?
और घ्राण इन्द्रिय गन्ध से उपजी है और पृथ्वी का अंश घ्राण में स्थित है वही गन्ध को ग्रहण करती है, उसमें मिलकर तू क्यों वृथा रागद्वेषवान् होता है?

मूर्ख मन! इन्द्रियाँ तो अपने-अपने विषय को ग्रहण करती हैं पर तू इनमें अभिमान करता है कि मैं देखता हूँ, मैं सुनता हूँ, मैं सूँघता हूँ, मैं स्पर्श करता हूँ और रस लेता हूँ । यह इन्द्रियाँ अपने विषय को ग्रहण करती हैं और के विषय को ग्रहण नहीं करती कि नेत्र देखते हैं श्रवण नहीं करते और कान सुनते हैं देखते नहीं इत्यादिक । सब इन्द्रियाँ अपना धर्म किसी को देती भी नहीं और न किसी का लेती हैं । वे अपने धर्म में स्थित हैं और विषय को ग्रहण कर इनको रागद्वेष कुछ नहीं होता । इनको ग्रहण करने की वासना भी कुछ नहीं होती और तू ऐसा मूर्ख है कि औरों के धर्म आपमें मानकर रागद्वेष से जलता है । जो तू भी राग द्वेष से रहित होकर चेष्टा करे तो तुझको दुःख कुछ न हो ।

प्रणाम जी